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दिल के आँसू पे यों फ़ातिहा पढ़ना क्या ..

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दिल के आँसू पे यों फ़ातिहा पढ़ना क्या वो न बहते कभी वो न दिखते कभी

तर्जुमा उनकी आहों का आसाँ नहीं आँख की कोर से क्या गुज़रते कभी |

 

खैरमक्दम से दुनिया भरी है बहुत आदमी भीड़ में कितना तनहा मगर

रोज़े-बद की हिकायत बयाँ करना क्या लफ़्ज़ लब से न उसके निकलते कभी |

 

बात गर शक्ल की मशविरे मुख्तलिफ़ दिल के रुख़सार का आईना है कहाँ     

चोट बाहर से गुम दिल के भीतर छिपे चलते ख़ंजर हैं उसपे न रुकते कभी |

 

जिस्म का ज़ख्म भर दे ज़माना मगर ज़ख्म दिल का कभी भी है भरता नहीं  

रूह के साथ जाते हैं ज़ख्मेज़िगर सफ्हए-ज़ीस्त से वो न मिटते कभी |

 

आँसुओं की लड़ी टूट जाने पे भी जो गए याद उनकी है जाती नहीं

याद जलती है सीने में जब बाफ़ज़ा रातें होती नहीं दिन न ढलते कभी |

 

दर्द ऐसी जगह जो परीशानकुन दिल के दरम्यान ही घर बनाता कहीं 

वक्त की चादरों से ढका बेतरह पर ख़लिश से दिलोदम न बचते कभी |

 

 

--- संतलाल करुण

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

शब्दार्थ :

सफ्हए-ज़ीस्त = जीवन-पृष्ठ  

बाफ़ज़ा = वातावरण पाने पर, माहौल के साथ, खुलापन मिलने पर  

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Comment

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Comment by Santlal Karun on September 25, 2014 at 5:35pm

आदरणीय भंडारी जी,

ग़ज़ल पर आप के प्रशंसा भर उद्गार के लिए सहृदय आभार !

Comment by Santlal Karun on September 25, 2014 at 5:33pm

आदरणीय हरिवल्लभ शर्मा जी,

ग़ज़ल पर आप की प्रतिक्रिया से अभिभूत हुआ, सहृदय आभार !

Comment by Santlal Karun on September 25, 2014 at 5:30pm

आदरणीय खैरादी जी,

ग़ज़ल की प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार !

Comment by Santlal Karun on September 25, 2014 at 5:27pm

आदरणीय चौहान जी,

ग़ज़ल की तारीफ़ के लिए हार्दिक आभार !

Comment by Santlal Karun on September 25, 2014 at 5:24pm

आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी,

ग़ज़ल की सराहना भरी प्रतिक्रिया लिए हार्दिक आभार !


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2014 at 7:34am

आदरणीय संत लाल भाई , आठ -आठ रुक्न में ग़ज़ल  कहना आसान काम नहीं है , आपको बढ़िया ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई |

दिल के आँसू पे यों फ़ातिहा पढ़ना क्या वो न बहते कभी वो न दिखते कभी

तर्जुमा उनकी आहों का आसाँ नहीं आँख की कोर से क्या गुज़रते कभी  -- बहुत खूब आदरणीय |

Comment by harivallabh sharma on September 24, 2014 at 1:59pm

दर्द ऐसी जगह जो परीशानकुन दिल के दरम्यान ही घर बनाता कहीं 

वक्त की चादरों से ढका बेतरह पर ख़लिश से दिलोदम न बचते कभी |..बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय ...बहुत बहुत बधाई आपको.

Comment by khursheed khairadi on September 23, 2014 at 10:12am

बात गर शक्ल की मशविरे मुख्तलिफ़ दिल के रुख़सार का आईना है कहाँ     

चोट बाहर से गुम दिल के भीतर छिपे चलते ख़ंजर हैं उसपे न रुकते कभी |

आदरणीय करुण साहब ,उम्दा ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमाएं |सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 21, 2014 at 10:22pm
" दिल के आँसू पे यों फ़ातिहा पढ़ना क्या वो न बहते कभी वो न दिखते कभी "
बहत खूब . इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय संतलाल करुण जी .

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