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कुवत्स ने पिता को देखा जिनके दोनों नाक में आक्सीजन  की नली लगी थी I अगर स्वस्थ होते तो आज ही के दिन उन्हें रिटायर होना था I उसे डाक्टर के शब्द याद आये –‘कुछ बचा नहीं, ज्यादा से ज्यादा दो दिन, बस I’ बेटे ने सोचा अगर आज कैजुअलिटी न हुयी तो मुफ्त की नौकरी तो जायेगी ही, बीमा अदि का पूरा पैसा भी नहीं मिलेगा ---- I

उसने चोर-दृष्टि से इधर –उधर देखा I आस-पास कोई न था I अचानक आगे बढ़कर उसने एक नाक से नली हटा दी I फिर वह दबे पांव कमरे से बाहर निकल गया और कारीडोर में रिश्तेदारों के बीच बैठी अपनी माँ के पास जाकर उनकी पीठ पर सर रख रोने लगा I माँ ने कहा –‘मत रो बेटा ! तू  ही तो हमारा सहारा है I ’

 

[मौलिक व् अप्रकाशित ]                  

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 5, 2014 at 8:58pm

भंडारी जी /प्रिय मित्र

एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तों  i

ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 5, 2014 at 8:55pm

आदरणीय सौरभ जी

आपके कथन से सहमत हूँ  i  आपका आभार i सादर i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 4, 2014 at 1:25pm

आदरनीय बड़े भाई , गोपाल जी , समाज मे व्याप्त होती अमानुसिकता और बेरोज़्गारी , गरीबी , सभी को आपने चंद शब्दों में खूब सूरती से बयान कर दिया है ! आपको इस लघु कथा के लिये हार्दिक बधाइयाँ । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 12:34pm


इस उम्मीद के साथ कि पुत्र कुवत्स अब अधिक व्यवस्थित ढंग से परिवार का पोषण कर पायेगा, समाज के क्रूर किन्तु अकाट्य तर्क को कथा स्वरूप में प्रस्तुत करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, आदरणीय गोपाल नारायनजी.

गिरी-मरी वनस्पतियों की खाद पर जंगल लहलहाता है. यह प्रकृति का सनातन पहलू है.
सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 4, 2014 at 11:53am

आदरनीय  निकोर जी

आपकी संस्तुति मेरा पथ  प्रशस्त करती है i सादर आभार i

Comment by vijay nikore on August 3, 2014 at 4:16pm

समाज की क्रूरता और आज की सच्चाई पर आपने बहुत ही सार्थक लघु कथा लिखी है। बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 3, 2014 at 1:35pm

सविता जी

आपका आभारी हूँ  I

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 3, 2014 at 1:34pm

जीतू जी i

सादर आभार i  

Comment by savitamishra on August 3, 2014 at 12:20am

काश इतनी इंसानियत निचे न गिरे पर अफ़सोस इससे ज्यादा नीचता पर उतारू है..दिल को छूती कहानी

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 3, 2014 at 12:01am

बहुत बढ़िया लघुकथा. पढ़कर लगा कि वर्तमान में सब होना जायज है. बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय डा.गोपाल जी

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