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गंगा के फ़ूल (लघु कथा) // --शुभ्रांशु पाण्डेय

छपाक्… ! 

मन्नू ने गंगा में कूद कर यात्रियों के चढ़ाये नारियल और फूल छान लिये. 

“अरे ये क्या किया.. जाने देते.. ”, एक यात्री डपटता हुआ चिल्लाया, “..फ़िर किसी और को बेच दोगे.. साले पूजा की चीजें भी नहीं छोडते हैं ये..” 
“जब पूजा करना तो बोलना.. वर्ना सरकार ने अब गंगा को गंदा करने वालों को जेल भेजना शुरु कर दिया है..”, एक तिरछी मुस्कान के साथ मन्नू ने आँख मारी. 

==========

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Shubhranshu Pandey on July 25, 2014 at 9:20am

आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी, 

कथा पर विचार देने के लिये धन्यवाद.

सादर.

Comment by Shubhranshu Pandey on July 25, 2014 at 9:18am

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, 

कथा पर समय देने के लिये धन्यवाद.

सादर.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 24, 2014 at 9:58am

एक तिरछी मुस्कान के साथ मन्नू ने आँख मारी." - इस पंक्ति पर आते आते कहानी का मन में जाग्रत होता उद्धेश ही बदल

गया | अर्थात वह गंगा की सफाई के बहाने पुनः बेचने के लिए पूजा में चढ़ाएं नारियल फूल आदि निकाल कर भक्तो की

भावनाए आहत कर रहा है | जो भी मकसद हो, अच्छी लघु कथा हुई है | बधाई   


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 23, 2014 at 6:09pm

हाँ, ’रंगीन पन्ने’ एक उत्कृष्ट लघुकथा रही है.  मुझे विस्मरण हुआ इसका खेद है. किन्तु यह भी आवश्यक है कि रचना प्रस्तुति की आवृति बढ़ाई जाये. .. :-))

Comment by Shubhranshu Pandey on July 22, 2014 at 8:56pm

आदरणीय सौरभ भैया,

आप लोगों के सानिध्य में अभी कलम पकड़ना सीखा है. इस मंच ने एक जोश भरा कि मैं कुछ लिख सकता हूँ. अमुमन व्यंग्य से अपनी बात कहता हूँ. पिछले दिनों योगराज जी और आपके लघु कथा पर विस्तृत कामेण्ट केबाद लघु कथा पर हाथ आजमाया है.

इस कथा से पहले भी //रंगीन पन्ने// एक लघुकथा पोस्ट कर चुका हू.

कथा पर अपने विचार देने के लिये घन्यवाद

सादर.

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 22, 2014 at 8:54pm

आदरनीय , एक अच्छी लघुकथा के लिये बधाई ॥

Comment by Shubhranshu Pandey on July 22, 2014 at 7:24pm

आदरणीय विनय जी,

रचना पर समय देने के लिये धन्यवाद.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 22, 2014 at 3:14pm

समाज में प्रचलित कई-कई विसंगतियों को परिपाटियों का रूप मिल गया है. मन्नू जैसे किशोर ऐसे तीर्थों के होने के वर्तमान अर्थ भी जानते हैं और भीड़ के रूप में जमा हुए लोगों की मूल भावना को भी समझते हैं. तो वहीं पंथीय परिपाटियों के नाम पर भावनाओं के दोहन का खेल भी उन्हें खूब पता होता है. ऐसे विन्दुओं को समेटती यह लघुकथा बहुत कुछ साझा करती है.

संभवतः, आपके व्यंग्यकार से पहली लघुकथा सुन रहा हूँ. उस हिसाब से यह लघुकथा आशान्वित करती है.

बहुत-बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ..

Comment by Shubhranshu Pandey on July 21, 2014 at 11:49pm

आदरणीय जितेन्द्र जी, कथा पर अपने विचार देने के लिये धन्यवाद. 

सादर.

Comment by विनय कुमार on July 21, 2014 at 9:44pm

बहुत उम्दा लघुकथा सुभ्रांशुजी , साधुवाद..

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