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ज्यों जवां ये चांदनी होने लगी

त्यों सुबह की सुगबुगी होने लगी

 

जब समंदर सी नदी होने लगी

साहिलों सी ज़िन्दगी होने लगी

 

आदमी में हो न हो रूहानियत

आदमीयत लाज़मी होने लगी

 

तितलियों को मिल गयी जब से भनक

बाग़ में कुछ सनसनी होने लगी

 

यार ने आदी बनाया इस क़दर

हर नए ग़म से ख़ुशी होने लगी

 

आँधियों से रूह कांपी रेत की

पर्वतों में दिल्लगी होने लगी

 

फिर मुसाफ़िर रासता मंजिल वही

और कहानी फिर वही होने लगी

 

ख़्वाब नें इतना सताया है हमें

ज़िन्दगी खुद ख़्वाब सी होने लगी

 

जो स्वयं निस्तेज है वो क्या कहें

क्यों उजालों में कमी होने लगी

 

सैकड़ो पर्दों में है ज़म्हुरियत

अब इसी को बेबसी होने लगी

भुवन निस्तेज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by भुवन निस्तेज on September 4, 2014 at 11:03pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय साहब काफ्ये पर पुनर्विचार हो चूका है, सादर....


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 26, 2014 at 8:41pm

आदरणीय भुवन निस्तेजजी, आपकी ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई. अच्छी ग़ज़ल हुई है.

हाँ, एक बात, क़ाफ़िया गलत निर्धारित हुआ है.

सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 17, 2014 at 11:43pm

बहुत खुबसूरत गजल कही आपने आदरणीय भुवन जी

जो स्वयं निस्तेज है वो क्या कहें

क्यों उजालों में कमी होने लगी.............बहुत खूब , हार्दिक  बधाई

 

Comment by मोहन बेगोवाल on March 16, 2014 at 9:37pm
भुवन जी , अप जी की गज़ल बहुत उम्दा हे मुबारकबाद
Comment by भुवन निस्तेज on March 15, 2014 at 4:26pm

गिरिराज भण्डारी जी, अनुराग अनुभव जी व गुमनाम पिथोरागढ़ी जी बहुत बहुत अभार आप लोगों का, तकनीकी मंच पर नया हूँ, कृपया मार्गदर्शन करें...

Comment by gumnaam pithoragarhi on March 15, 2014 at 10:43am

khoob bhaai  ji gazal achchhi lagi badhai...............................................

Comment by Anurag Anubhav on March 15, 2014 at 8:27am
आदरणीय भुवन जी.... बहुत खूबसूरत ग़ज़ल.... बधाई स्वीकार करें....

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 14, 2014 at 11:36pm

आदरणीय भुवन भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है , आपको बहुत बहुत बधाइयाँ ॥

कृपया ध्यान दे...

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