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देश जयचंदों की क्या जागीर है- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२


होंठ हँसते हैं  तो  मन में पीर है
जिन्दगी की अब यही तस्वीर है।२।
*
जो सिखाता था कलम ही थामना
वो भी  हाथों  में  लिए  शमशीर है।२।
*
झूठ को आजाद रक्खा नित गया
सच के  पाँवों  में  पड़ी  जंजीर है।३।
*
हाथ जन के वो न आयेगा कभी
उसका वादा सिर्फ उड़ता तीर है।४।
*
रास नेताओं  से  करती है बहुत
रूठी जनता की सदा तक़दीर है।५।
*
इक दफ़अ बोला तो फिर छूटा नहीं
झूठ की  भी  क्या  गजब तासीर है।६।
*
न्योतना गौरी  को  जारी है यहाँ
देश जयचंदों की क्या जागीर है।७।
*

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 29, 2021 at 9:16pm

आ. भाई बृजेश कुमार जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति प्रशंंसा और सुुझाव के लिए हार्दि्क धन्यवाद।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 26, 2021 at 8:28pm

वाह आदरणीय धामी जी खूब...तीसरे शे'र को अगर ऐसा करें तो "झूठ को आज़ाद ही रक्खा गया" ?

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 21, 2021 at 11:43am

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन के लिए आभार।

इंगित मिसरों पर सुझाव उचित हैं । सादर ।

Comment by Samar kabeer on August 19, 2021 at 6:10pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'हाथ जन के वो न आयेगा कभी
उनका वादा सिर्फ उड़ता तीर है'

इस शैर में शुतर गुरबा दोष देखें, सानी में 'उनका' की जगह "उसका" करने से दोष निकल जाएगा ।

'इक दफह बोला तो फिर छूटा नहीं'

इस मिसरे के बारे में जनाब अमीर साहिब बता ही चुके हैं ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2021 at 10:28pm

आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2021 at 10:27pm

आ. भाई चेतन जी, गजल तक आने के लिए धन्यवाद।

Comment by TEJ VEER SINGH on August 17, 2021 at 12:54pm

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"जी। लाजवाब ग़ज़ल।

Comment by Chetan Prakash on August 17, 2021 at 12:03pm

आदाब, ग़ज़ल अच्छी हुई है, लेकिन कुछ जगहों पर शब्द खलते भी हैं, जैसे 'रास, न्योतना आदि! रास से आपका अभिप्राय जानने की उत्सुकता होगी, बंधुवर! और, आखिरी ( 7 ) वें शेर में आपका आशय, आप ही बेहर जान सकते है ं ! 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2021 at 11:13am

आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति, स्नेह, उत्साहवर्धन व सुझाव के लिए हार्दिक धन्यवाद । आपका सुझाव अच्छा है ।सादर...

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 17, 2021 at 8:52am

जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ।

'झूठ को आजाद रक्खा नित गया'  मुनासिब समझें तो इस मिसरे को. 'झूठ को आज़ाद ही छोड़ा गया' कर लें, शेरियत बढ़ जाएगी। 6वें में 'दफह' को 'दफ़अ' कर लें। शेष शुभ-शुभ।  सादर। 

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