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कुछ क्षणिकाएँ :

कुछ क्षणिकाएँ :

सीख लिया शब्दों ने
जीना और मरना
बिना परिधान बदले
देह का
साथ रहकर

व्योम को
सूक्ष्म से अलंकृत करो
कि स्वप्न भी
कल्पना हैं
अचेतन मन की

कह दिया काँपती लौ ने
दिए से
आज मैं सो जाऊंगी
तुम्हारी गोद में
क्रूर पवन के वेग से आहत होकर
शायद मेरा उजाला
अंधेरों को
नहीं भाया

मिट गई
जीत की आकांक्षा
तिमिर में
इक दूजे से
हारते हुए

हम के आवरण में
तुम और मैं
सदा बतियाते हैं
चुप रहकर भी
लाज भरी बात


स्वरहीन वेग
अन्तस् का
बहुत कुछ कह गया
सलवटों में

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 435

Comment

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Comment by Sushil Sarna on June 3, 2020 at 9:06pm

आदरणीय  डॉ छोटेलाल सिंह जी सृजन के भावों पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार। कुछ तकनीकी व्यवधान के चलते मैं आभार व्यक्त न कर सका। इसके लिए क्षमा चाहूंगा। सादर ।

Comment by Sushil Sarna on June 3, 2020 at 9:06pm

आदरणीय Samar kabeerजी सृजन के भावों पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार। कुछ तकनीकी व्यवधान के चलते मैं आभार व्यक्त न कर सका। इसके लिए क्षमा चाहूंगा। सादर ।

Comment by Sushil Sarna on June 3, 2020 at 9:06pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी सृजन के भावों पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार। कुछ तकनीकी व्यवधान के चलते मैं आभार व्यक्त न कर सका। इसके लिए क्षमा चाहूंगा। सादर ।

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on May 25, 2020 at 9:17am

आदरणीय सुशील सरना जी सादर अभिवादन बहुत ही प्रेरक रचना है मन खुश हो गया बधाई कुबूल कीजिए

Comment by Samar kabeer on May 21, 2020 at 12:06pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी क्षणिकाएँ हुई हैं, बधाई स्वीकार करें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 19, 2020 at 4:09pm

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन । अच्छी क्षणिकाएँ हुई हैं । हार्दिक बधाई ।

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