Comments - ग़ज़ल - Open Books Online2024-03-29T14:59:17Zhttp://www.openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A926222&xn_auth=noबड़ी ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आदर…tag:www.openbooksonline.com,2018-04-27:5170231:Comment:9266622018-04-27T10:53:32.043Zबृजेश कुमार 'ब्रज'http://www.openbooksonline.com/profile/brijeshkumar
<p>बड़ी ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आदरणीय..चर्चा भी खूब रही..</p>
<p>बड़ी ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आदरणीय..चर्चा भी खूब रही..</p> 'वो पहले भी दोस्त नहीं था'
इस…tag:www.openbooksonline.com,2018-04-25:5170231:Comment:9263422018-04-25T08:47:25.411ZSamar kabeerhttp://www.openbooksonline.com/profile/Samarkabeer
<p>'वो पहले भी दोस्त नहीं था'</p>
<p>इस मिसरे को बदलने का प्रयास करें ।</p>
<p>'वो पहले भी दोस्त नहीं था'</p>
<p>इस मिसरे को बदलने का प्रयास करें ।</p> आदरणीय नंद कुमार जी,
एक ग़ज़लका…tag:www.openbooksonline.com,2018-04-25:5170231:Comment:9263392018-04-25T08:43:08.975ZNilesh Shevgaonkarhttp://www.openbooksonline.com/profile/NileshShevgaonkar
<p>आदरणीय नंद कुमार जी,</p>
<p>एक ग़ज़लकार होने के नाते मैं भी इसी दुविधा से दोचार होता हूँ।</p>
<p>मुझे लगता है कि मैंने जो कहना चाहा है वही पाठक ने भी समझा है। अस्ल में हमारा अवचेतन मन उस विचार में इतना गुँथ जाता है कि उस का कोई भी प्रकटीकरण हमें परिपुर्ण लगने लगता है।</p>
<p>इसीलिए मेरा प्रयास रहता है कि कवि को यह बता दिया जाय कि उसकी बात वैसी पहुँची या नहीं जैसी वह चाहता है।</p>
<p>यही अपेक्षा मैं मेरी रचनाओं पर भी रखता हूँ कि मुझे भी बताया जाए। यह मंच इसी विमर्श के माध्यम से रचना को निखारने…</p>
<p>आदरणीय नंद कुमार जी,</p>
<p>एक ग़ज़लकार होने के नाते मैं भी इसी दुविधा से दोचार होता हूँ।</p>
<p>मुझे लगता है कि मैंने जो कहना चाहा है वही पाठक ने भी समझा है। अस्ल में हमारा अवचेतन मन उस विचार में इतना गुँथ जाता है कि उस का कोई भी प्रकटीकरण हमें परिपुर्ण लगने लगता है।</p>
<p>इसीलिए मेरा प्रयास रहता है कि कवि को यह बता दिया जाय कि उसकी बात वैसी पहुँची या नहीं जैसी वह चाहता है।</p>
<p>यही अपेक्षा मैं मेरी रचनाओं पर भी रखता हूँ कि मुझे भी बताया जाए। यह मंच इसी विमर्श के माध्यम से रचना को निखारने का स्थान है</p>
<p>सादर</p> आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी,…tag:www.openbooksonline.com,2018-04-25:5170231:Comment:9263022018-04-25T07:29:56.487ZNand Kumar Sanmukhanihttp://www.openbooksonline.com/profile/NandKumarSanmukhani
<p style="text-align: left;">आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी, सादर नमस्कार ।</p>
<p style="text-align: left;">मेरे ग़ज़ल के बारे में आपका जो भी मत बना है, उसका मैं सम्मान करता हूं। मैने भी बात निकलने पर उसके संबंध में केवल अपनी बात रखने का प्यत्न किया है, जिसका कि आप भी मानेंगे कि मुझे भी हक़ है। </p>
<p style="text-align: left;"> लेकिन इस बातचीत/ विमर्श से एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई कि कोई बात लिखते समय जो बात हमारे मन में होती है, शब्दों का रूप धारण करने के बाद उससे निःसृत होने वाले…</p>
<p style="text-align: left;">आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी, सादर नमस्कार ।</p>
<p style="text-align: left;">मेरे ग़ज़ल के बारे में आपका जो भी मत बना है, उसका मैं सम्मान करता हूं। मैने भी बात निकलने पर उसके संबंध में केवल अपनी बात रखने का प्यत्न किया है, जिसका कि आप भी मानेंगे कि मुझे भी हक़ है। </p>
<p style="text-align: left;"> लेकिन इस बातचीत/ विमर्श से एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई कि कोई बात लिखते समय जो बात हमारे मन में होती है, शब्दों का रूप धारण करने के बाद उससे निःसृत होने वाले रूप-आकार और लिखते समय मन में विद्यमान रहे उसके मूल आकार में काफी अंतर रह जाता है, उसका कुछ अंश अव्यक्त रह जाने से वह बात ठीक वैसे ही अभिव्यक्त नहीं हो पाती और कभी-कभी तो यह शब्द रूप मनोभावों के विपरीत भाव प्रकट करने का आभास देता हौआ भी लगता है, अतः भेव प्कट करने के लिए शब्द चयन करते समय अत्यंत सावधान रहने की आवश्यकता है।</p>
<p style="text-align: left;"></p> जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका ।…tag:www.openbooksonline.com,2018-04-25:5170231:Comment:9264262018-04-25T07:07:59.639ZNand Kumar Sanmukhanihttp://www.openbooksonline.com/profile/NandKumarSanmukhani
<p>जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका ।<br/>पढ़ते-सुनते थोड़ा गुनते क़वाफ़ी के मुआमलात भी धीरे-धीरे ज़हन नशीन हो जाएंगे।</p>
<p>मंच पर पोस्ट की गई रचनाओं को पढ़कर 'अपनी अमूल्य टिप्पणियों से नवाज़ने' की बात पर पूरे अदब-ओ-एहतराम से कहना चाहता हूं कि मुझे अपनी सीमाओं और ख़ामियों के बारे में कुछ अंदाज़ा है । इसलिए निवेदन है कि मुझ पर अपनी नज़रे इनायत बनाए रखें।</p>
<p>Regards..</p>
<p></p>
<p>जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका ।<br/>पढ़ते-सुनते थोड़ा गुनते क़वाफ़ी के मुआमलात भी धीरे-धीरे ज़हन नशीन हो जाएंगे।</p>
<p>मंच पर पोस्ट की गई रचनाओं को पढ़कर 'अपनी अमूल्य टिप्पणियों से नवाज़ने' की बात पर पूरे अदब-ओ-एहतराम से कहना चाहता हूं कि मुझे अपनी सीमाओं और ख़ामियों के बारे में कुछ अंदाज़ा है । इसलिए निवेदन है कि मुझ पर अपनी नज़रे इनायत बनाए रखें।</p>
<p>Regards..</p>
<p></p> आ. नंदकुमार जी.आपकी टिप्पणी क…tag:www.openbooksonline.com,2018-04-25:5170231:Comment:9263342018-04-25T06:36:51.901ZNilesh Shevgaonkarhttp://www.openbooksonline.com/profile/NileshShevgaonkar
<p>आ. नंदकुमार जी.<br></br>आपकी टिप्पणी का अंश यहाँ उधृत कर रहा हूँ ..<br></br><strong>//दूसरा, आदरणीय नीलेश जी की टिप्पणी यदि मज़कूर शइर की मिसरा-अव्वल पर आधारित मानकर पढ़ें तो शतप्रतिशत सही है, लेकिन इसी शइर के सानी-मिसिरे में जो आया है कि 'वो तो "फिर से" घात करेगा' को नज़रअंदाज़ ही कर दिया गया है कि अगर कोई "फिर से" घात करेगा की बात चल रही है तो इसका मतलब है कि वह 'पहले भी घात कर चूका है', ऐसे में वो दोस्त कैसे हो सकता है।//</strong> <br></br>इस टिप्पणी के प्रकाश में यदि सानी को भी मिला कर अर्थ निकाला…</p>
<p>आ. नंदकुमार जी.<br/>आपकी टिप्पणी का अंश यहाँ उधृत कर रहा हूँ ..<br/><strong>//दूसरा, आदरणीय नीलेश जी की टिप्पणी यदि मज़कूर शइर की मिसरा-अव्वल पर आधारित मानकर पढ़ें तो शतप्रतिशत सही है, लेकिन इसी शइर के सानी-मिसिरे में जो आया है कि 'वो तो "फिर से" घात करेगा' को नज़रअंदाज़ ही कर दिया गया है कि अगर कोई "फिर से" घात करेगा की बात चल रही है तो इसका मतलब है कि वह 'पहले भी घात कर चूका है', ऐसे में वो दोस्त कैसे हो सकता है।//</strong> <br/>इस टिप्पणी के प्रकाश में यदि सानी को भी मिला कर अर्थ निकाला जाय तो वह पहले भी घात क्र चुका है यानी वह दोस्त नहीं है ..यानी वह स्पष्टत: दुश्मन है अत: ऊला मिसरा ठीक नहीं है...<br/> आप के साथ जीवन में घात करने वाले का परिचय कैसे देंगे? <strong>ये मेरा दोस्त नहीं है या ये मेरा शत्रु है ??<br/>अतत: रचना आप की है इसलिए मेरा कोई आग्रह नहीं है कि आप इसे बदलें, एक पाठक के अधिकार से जो मैं समझ पाया वह आप तक प्रेषित किया है ...<br/>शुभ भाव </strong></p> चूँकि ग़ज़ल फ़ारसी विधा है इसलिए…tag:www.openbooksonline.com,2018-04-25:5170231:Comment:9262022018-04-25T06:03:35.700ZSamar kabeerhttp://www.openbooksonline.com/profile/Samarkabeer
<p>चूँकि ग़ज़ल फ़ारसी विधा है इसलिए उसे उसी के मानकों पर तोलना होगा,उर्दू के हरुफ़-ए-तहज्जी और हिन्दी की वर्णमाला में बड़ा फ़र्क़ है, हिन्दी में 'तोय'अक्षर का कोई वजूद नहीं लेकिन उर्दू में है,इसलिये लाज़िम है कि ग़ज़ल कहने से पहले उर्दू का थोड़ा ज्ञान ज़रूरी होगा,क़वाफ़ी के मुआमलात बहुत उलझे हुए हैं,जो आप धीरे धीरे सीख ही लेंगे, मज़कूर क़ाफ़िये के बारे में इतना कहूँगा कि ये उर्दू के हिसाब से ग़लत है, और 'हम आवाज़' क़वाफ़ी भी</p>
<p>मजबूरी में लिए जा सकते हैं लेकिन उसका ऐलान पहले करना होगा, और इसे अरूज़ की ज़बान में…</p>
<p>चूँकि ग़ज़ल फ़ारसी विधा है इसलिए उसे उसी के मानकों पर तोलना होगा,उर्दू के हरुफ़-ए-तहज्जी और हिन्दी की वर्णमाला में बड़ा फ़र्क़ है, हिन्दी में 'तोय'अक्षर का कोई वजूद नहीं लेकिन उर्दू में है,इसलिये लाज़िम है कि ग़ज़ल कहने से पहले उर्दू का थोड़ा ज्ञान ज़रूरी होगा,क़वाफ़ी के मुआमलात बहुत उलझे हुए हैं,जो आप धीरे धीरे सीख ही लेंगे, मज़कूर क़ाफ़िये के बारे में इतना कहूँगा कि ये उर्दू के हिसाब से ग़लत है, और 'हम आवाज़' क़वाफ़ी भी</p>
<p>मजबूरी में लिए जा सकते हैं लेकिन उसका ऐलान पहले करना होगा, और इसे अरूज़ की ज़बान में "सौती क़ाफ़िया" कहते हैं ।</p>
<p>क़वाफ़ी के बारे में जानकारी के लिए भी पटल पर आलेख मौजूद हैं,अध्यन करें, और मंच पर आई रचनाओं को अपनी अमूल्य टिप्पणी से नवाज़ें ।</p> जनाब Samar Kabeer साहिब,
आपकी…tag:www.openbooksonline.com,2018-04-24:5170231:Comment:9262782018-04-24T17:38:34.449ZNand Kumar Sanmukhanihttp://www.openbooksonline.com/profile/NandKumarSanmukhani
जनाब Samar Kabeer साहिब,<br />
आपकी टिप्पणी को मैने ध्यान से नहीं पढ़ा, ऐसी बात नहीं है। सवाल और भी आए थे ज़हन में, लेकिन एक साथ बहुत सारे सवाल पूछने की तुलना में मैने वो सवाल आपके सामने रखना वाजिब समझा,जिनके बारे में सबसे पहले जान लेने की इच्छा मन में पैदा हुई। इसके मुझे वांछित नतीजे भी मिले, आपने मेहरबानी करके मेरी मालूमात में अहम इज़ाफ़ा करने में मेरी मदद भी की, इसके लिए आपका जितना आभार व्यक्त करूं, उतना कम है।<br />
आपने ग़ज़ल के काफियों में बाकी शइरों की "त" और इफरात की "त" के "ते" और "तोय" पर समाप्त…
जनाब Samar Kabeer साहिब,<br />
आपकी टिप्पणी को मैने ध्यान से नहीं पढ़ा, ऐसी बात नहीं है। सवाल और भी आए थे ज़हन में, लेकिन एक साथ बहुत सारे सवाल पूछने की तुलना में मैने वो सवाल आपके सामने रखना वाजिब समझा,जिनके बारे में सबसे पहले जान लेने की इच्छा मन में पैदा हुई। इसके मुझे वांछित नतीजे भी मिले, आपने मेहरबानी करके मेरी मालूमात में अहम इज़ाफ़ा करने में मेरी मदद भी की, इसके लिए आपका जितना आभार व्यक्त करूं, उतना कम है।<br />
आपने ग़ज़ल के काफियों में बाकी शइरों की "त" और इफरात की "त" के "ते" और "तोय" पर समाप्त होने के कारण उसमें काफ़िये का दोष बताया है। जो भी थोड़ी बहुत जानकारी काफ़िये के बारे मुझे हासिल हो पायी थी, उसके अनुसार "हम आवाज़" लफ्ज़ों को काफिया कहते हैं, इस दृष्टिकोण से 'इफरात का "त" हो, या आघात, जज़्बात, बरसात आदि का "त", दोनों का उच्चारण "त" ही होता है, फिर ग़ज़ल में काफिये का दोष कैसे हुआ, यह समझना चाहता था....<br />
दूसरा, आदरणीय नीलेश जी की टिप्पणी यदि मज़कूर शइर की मिसरा-अव्वल पर आधारित मानकर पढ़ें तो शतप्रतिशत सही है, लेकिन इसी शइर के सानी-मिसिरे में जो आया है कि 'वो तो "फिर से" घात करेगा' को नज़रअंदाज़ ही कर दिया गया है कि अगर कोई "फिर से" घात करेगा की बात चल रही है तो इसका मतलब है कि वह 'पहले भी घात कर चूका है', ऐसे में वो दोस्त कैसे हो सकता है। बेशक "जो पहले भी दोस्त नहीं था" से यह अंदाज़ि नहीं लगाया जा सकता कि जो दोस्त नहीं है,वह दुश्मन ही हो, यह ज़रूरी नहीं है, लेकिन दूसरी पंक्ति यह भी तो सूचित कर रही है कि जिसके द्वारा दूसरी बार घात कलने की आशंका की बात की जा वही है, वह पहले भी घात कर चुका है,अतः वह शत्रु ही कहलाएगा ...<br />
फिर से घात करने वाला दोस्त न होकर कोई शत्रु ही होगा, मैं समझता हूं कि यह बात तो सभी सुधि पाठक समझ ही लेते होंगे....<br />
आपने जिस पुरअसर अंदाज़ से आज मुझे कुछ नये मौज़ूआत के बारे में समझाया है, वह बेजोड़ अऔर बेमिसाल है। इसके लिए मैं एक बार फिर आपका दिल से शुक्रिया अदा करता हूं।<br />
सादर.... जनाब नंद कुमार सन मुखानी साहि…tag:www.openbooksonline.com,2018-04-24:5170231:Comment:9262762018-04-24T16:18:22.159ZTasdiq Ahmed Khanhttp://www.openbooksonline.com/profile/TasdiqAhmedKhan
<p>जनाब नंद कुमार सन मुखानी साहिब , गज़ल का प्रयास अच्छा है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें। आ. समर साहिब के मश्वरे पर गौर करें ।</p>
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<p>जनाब नंद कुमार सन मुखानी साहिब , गज़ल का प्रयास अच्छा है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें। आ. समर साहिब के मश्वरे पर गौर करें ।</p>
<p></p> ऐब-ए-तनाफ़ुर उस दोष को कहते है…tag:www.openbooksonline.com,2018-04-24:5170231:Comment:9262712018-04-24T13:01:54.520ZSamar kabeerhttp://www.openbooksonline.com/profile/Samarkabeer
<p>ऐब-ए-तनाफ़ुर उस दोष को कहते हैं,जब किसी शब्द का अंतिम अक्षर उसके बाद आने वाले शब्द के पहले अक्षर समान हों जैसे आपके मतले के सानी मिसरे में 'सूरज जब',इसमें सूरज शब्द का अंतिम अक्षर "ज"है और उसके बाद के शब्द "जब" का पहला अक्षर "ज" है,तो ये ऐब-ए-तनाफ़ुर कहलाता है,इसे "जब सूरज" कर दें तो ये ऐब निकल जायेगा ।</p>
<p>तक़ाबुल-ए-रदीफ़ उस दोष को कहते हैं जब सानी मिसरे की रदीफ़ का अंतिम शब्द समान हों,आपके शे'र में:-</p>
<p>'जो पहले भी दोस्त नहीं था</p>
<p>वो तो फिर से घात करेगा'</p>
<p>ऊला मिसरे का 'था' और…</p>
<p>ऐब-ए-तनाफ़ुर उस दोष को कहते हैं,जब किसी शब्द का अंतिम अक्षर उसके बाद आने वाले शब्द के पहले अक्षर समान हों जैसे आपके मतले के सानी मिसरे में 'सूरज जब',इसमें सूरज शब्द का अंतिम अक्षर "ज"है और उसके बाद के शब्द "जब" का पहला अक्षर "ज" है,तो ये ऐब-ए-तनाफ़ुर कहलाता है,इसे "जब सूरज" कर दें तो ये ऐब निकल जायेगा ।</p>
<p>तक़ाबुल-ए-रदीफ़ उस दोष को कहते हैं जब सानी मिसरे की रदीफ़ का अंतिम शब्द समान हों,आपके शे'र में:-</p>
<p>'जो पहले भी दोस्त नहीं था</p>
<p>वो तो फिर से घात करेगा'</p>
<p>ऊला मिसरे का 'था' और सानी का 'गा' 'आ'स्वरांत होने से अगर कोई आपकी पूरी ग़ज़ल न पढ़े और सिर्फ़ ये शे'र पढ़े तो उसे ये लगेगा कि ये मतला है, ये ऐब(दोष)दो तरह का होता है,एक तक़ाबुल-ए-रदीफ़ जुज़्वी,दूसरा तक़ाबुल-ए-रदीफ़ कुल्ली,जुज़्वी शाइरी में मान्य है,लेकिन कुल्ली नहीं,आपके शे'र में ये जुज़्वी है, फिर भी इस दोष को निकलने के लिए मिसरे को यूँ कर लें तो ये ऐब निकल जायेगा:-</p>
<p>'दोस्त नहीं था जो पहले भी'</p>
<p>इन सारी बातों को विस्तार से जानने के लिए पटल पर मौजूद' ग़ज़ल की कक्षा' और 'ग़ज़ल की बातें' समूह में आलेख हैं,उनका अध्यन करें ।</p>
<p>आपने मेरी टिप्पणी ध्यानपूर्वक नहीं पढ़ी वरना कुछ और प्रश्न भी पूछते ।</p>
<p>ओबीओ के मुख्य पृष्ठ पर कैलेंडर में तरही मुशायरे के बारे में पढ़ें और उसमें हिस्सा लें,वहाँ होने वाली चर्चा से भी बहुत कुछ सीखने को मिलेगा,ब्लाग्ज़ पर आई रचनाएँ पढ़ें,उन पर अपनी प्रतिक्रया ढें,ये भी सीखने का एक साधन है ।</p>