Comments - हम वो आईने नहीं हैं जो बिखर जाते हैं (ग़ज़ल) - Open Books Online2024-03-29T12:49:16Zhttp://www.openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A850215&xn_auth=noवाह आदरणीय बहुत ही खूबसूरत ग़ज़…tag:www.openbooksonline.com,2017-04-23:5170231:Comment:8509292017-04-23T11:07:20.552Zबृजेश कुमार 'ब्रज'http://www.openbooksonline.com/profile/brijeshkumar
वाह आदरणीय बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही..बधाइयाँ
वाह आदरणीय बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही..बधाइयाँ आदरनीय जयनित भाई , अच्छी ग़ज़ल…tag:www.openbooksonline.com,2017-04-23:5170231:Comment:8508282017-04-23T04:36:39.046Zगिरिराज भंडारीhttp://www.openbooksonline.com/profile/girirajbhandari
<p>आदरनीय जयनित भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है हार्दिक बधाइयाँ । आ. नूर भाई और समर भाई की सलाह उचित हैं .. खयाल कीजियेगा ।</p>
<p>आदरनीय जयनित भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है हार्दिक बधाइयाँ । आ. नूर भाई और समर भाई की सलाह उचित हैं .. खयाल कीजियेगा ।</p> आ. जयनित भाई ग़ज़ल पर तो सार…tag:www.openbooksonline.com,2017-04-21:5170231:Comment:8503782017-04-21T10:54:56.448Zशिज्जु "शकूर"http://www.openbooksonline.com/profile/ShijjuS
<p><span>आ. जयनित भाई ग़ज़ल पर तो सार्थक चर्चा हो गई है, मेरी तरफ से इस कोशिश के लिए बधाई</span></p>
<p><span>आ. जयनित भाई ग़ज़ल पर तो सार्थक चर्चा हो गई है, मेरी तरफ से इस कोशिश के लिए बधाई</span></p> आ. जयनीत भाई अच्छी ग़ज़ल के लिय…tag:www.openbooksonline.com,2017-04-20:5170231:Comment:8503162017-04-20T11:07:14.121ZNilesh Shevgaonkarhttp://www.openbooksonline.com/profile/NileshShevgaonkar
<p>आ. जयनीत भाई <br/>अच्छी ग़ज़ल के लिये बधाई ..<br/>समर सर की बातों का संज्ञान लें ..<br/>.<br/><span>हम वो आईने नहीं हैं जो बिखर जाते हैं.... यहाँ दो न साथ आने से शिकस्ते नारवा हो रहा है. साथ ही आईने के ने को गिराने से आईन बनता है जो सार्थक शब्द है अत: इसे गिराने से बचें. <br/></span>.<br/><span>देखता मैं भी उधर जा के, जिधर जाते हैं... या <br/><strong>देखता हूँ मैं उधर जा के, जिधर जाते हैं<br/></strong></span>,<br/>बधाई </p>
<p>आ. जयनीत भाई <br/>अच्छी ग़ज़ल के लिये बधाई ..<br/>समर सर की बातों का संज्ञान लें ..<br/>.<br/><span>हम वो आईने नहीं हैं जो बिखर जाते हैं.... यहाँ दो न साथ आने से शिकस्ते नारवा हो रहा है. साथ ही आईने के ने को गिराने से आईन बनता है जो सार्थक शब्द है अत: इसे गिराने से बचें. <br/></span>.<br/><span>देखता मैं भी उधर जा के, जिधर जाते हैं... या <br/><strong>देखता हूँ मैं उधर जा के, जिधर जाते हैं<br/></strong></span>,<br/>बधाई </p> आदरणीय जयनित जी बढि़या गजल कह…tag:www.openbooksonline.com,2017-04-20:5170231:Comment:8500592017-04-20T07:39:07.511ZRavi Shuklahttp://www.openbooksonline.com/profile/RaviShukla
<p>आदरणीय जयनित जी बढि़या गजल कही है आपने बधाई स्वीकार करें ।</p>
<p>आदरणीय जयनित जी बढि़या गजल कही है आपने बधाई स्वीकार करें ।</p> आदरणीय जयनित भाई .....उम्दा ग़…tag:www.openbooksonline.com,2017-04-20:5170231:Comment:8501412017-04-20T03:08:08.353Zरोहित डोबरियाल "मल्हार"http://www.openbooksonline.com/profile/Rk78
<p>आदरणीय जयनित भाई .....उम्दा ग़ज़ल के के शुक्रिया एवम बधाई .....</p>
<p>आदरणीय जयनित भाई .....उम्दा ग़ज़ल के के शुक्रिया एवम बधाई .....</p> आदरणीय जयनित भाई,हारदिक बधाई…tag:www.openbooksonline.com,2017-04-19:5170231:Comment:8501382017-04-19T16:36:34.671Zसतविन्द्र कुमार राणाhttp://www.openbooksonline.com/profile/28fn40mg3o5v9
आदरणीय जयनित भाई,हारदिक बधाई स्वीकारें इस उम्दा गजल के लिए!
आदरणीय जयनित भाई,हारदिक बधाई स्वीकारें इस उम्दा गजल के लिए! जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदा…tag:www.openbooksonline.com,2017-04-19:5170231:Comment:8499912017-04-19T16:02:32.750ZSamar kabeerhttp://www.openbooksonline.com/profile/Samarkabeer
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।<br />
कई अशआर में अल्फ़ाज़ की बंदिश चुस्त नहीं है,मतले का ऊला मिसरा :-<br />
'संग जितने सहें उतना ही सँवर जाते हैं'<br />
इस मिसरे में 'संग'के साथ 'सहें'शब्द मुनासिब नहीं है,संग खाये जाते हैं,लगते हैं,पड़ते हैं,ये मिसरा इस तरह ठीक हो सकता है :-<br />
'संग जितने लगें उतना ही सँवर जाते हैं'(आप के विकल्प सुरक्षित हैं)<br />
<br />
"पारस-ए-इश्क़ का इक लम्स जिन्हें मिल जाये'<br />
इस मिसरे में 'पारस'शब्द में इज़ाफ़त नहीं लगाई जा सकती,ये हिन्दी भाषा का शब्द…
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।<br />
कई अशआर में अल्फ़ाज़ की बंदिश चुस्त नहीं है,मतले का ऊला मिसरा :-<br />
'संग जितने सहें उतना ही सँवर जाते हैं'<br />
इस मिसरे में 'संग'के साथ 'सहें'शब्द मुनासिब नहीं है,संग खाये जाते हैं,लगते हैं,पड़ते हैं,ये मिसरा इस तरह ठीक हो सकता है :-<br />
'संग जितने लगें उतना ही सँवर जाते हैं'(आप के विकल्प सुरक्षित हैं)<br />
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"पारस-ए-इश्क़ का इक लम्स जिन्हें मिल जाये'<br />
इस मिसरे में 'पारस'शब्द में इज़ाफ़त नहीं लगाई जा सकती,ये हिन्दी भाषा का शब्द है ।