Comments - तुम क्या हो? (अतुकांत कविता) - Open Books Online2024-03-29T01:40:23Zhttp://www.openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A820250&xn_auth=noयह अतुकांत साहित्य का कितना प…tag:www.openbooksonline.com,2016-12-15:5170231:Comment:8204182016-12-15T08:31:39.907Zkanta royhttp://www.openbooksonline.com/profile/kantaroy
यह अतुकांत साहित्य का कितना प्रायोजन सिद्ध करेगा जो कि समाज के हितार्थ ही सृजन की महत्ता को स्वीकारता है फिर भी इसे पढ़ते ही मेरा पाठक मन इस सृजन पर सोचने को मजबूर हुआ है कि कविता अतुकांत हो या छंद, यह अधिकतर प्रेम के अनुभव से ही सबसे ज्यादा विमोहित रही है, इसी के ईर्द-गिर्द कविता ने सदियों से स्थायी रूप में अपनी इस विशाल परम्परा को निभाया है।<br />
प्रायः कवि की कविता में कवि मन का ही भाव शामिल होता है। कवि अंतर्मन से जो महसूस करता है उन्हीं चित्तवृत्तियों को अपनी संकल्पना में रचते हुए शब्दों में…
यह अतुकांत साहित्य का कितना प्रायोजन सिद्ध करेगा जो कि समाज के हितार्थ ही सृजन की महत्ता को स्वीकारता है फिर भी इसे पढ़ते ही मेरा पाठक मन इस सृजन पर सोचने को मजबूर हुआ है कि कविता अतुकांत हो या छंद, यह अधिकतर प्रेम के अनुभव से ही सबसे ज्यादा विमोहित रही है, इसी के ईर्द-गिर्द कविता ने सदियों से स्थायी रूप में अपनी इस विशाल परम्परा को निभाया है।<br />
प्रायः कवि की कविता में कवि मन का ही भाव शामिल होता है। कवि अंतर्मन से जो महसूस करता है उन्हीं चित्तवृत्तियों को अपनी संकल्पना में रचते हुए शब्दों में उकेरता है।<br />
आपकी इस कविता में शब्दों का ताना- बाना पुरुष-मन की कुंठाओं को युक्तिसंगत कथ्य में निर्वाह करता है।<br />
<br />
//तुम क्या हो?<br />
किसी समुद्री मछली के उदर में<br />
किसी ब्रह्मचारी के पथभ्रष्ट शुक्राणु का अंश मात्र<br />
किन्तु उसका निषेचन?<br />
अभी बहुत समय बाकी है उसमे<br />
बहुत.....//-----------<br />
<br />
यहाँ कविता में नारी को सम्बोधित किया गया है जो कि कवि के पुरुष-मन की प्रेयषी होने का बोध कराती प्रतीत होती है तभी तो यहाँ कवि उसे 'प्रिये' का सम्बोधन देते हुए कहते हैं कि 'तुम क्या हो?'<br />
इस कविता में पुरुष-मन के अंदर निहित व्याभिचार-भाव का समावेश बाहर निकल कर आया है जो स्वंय के उक्त स्त्री द्वारा 'पथभ्रष्ट' होना स्वीकारता भी है और उसे पुरुष-मन के ब्रह्मचारी के शुक्राणु का अंश मात्र कहने की चेष्टा।<br />
दरअसल कवि के पुरुष-मन का स्वंय को ब्रह्मचारी और परशुराम कहना व वृहस्पति का दर्जा देना चरित्र को सर्वोत्तम दर्जे में रखता है और नारी चरित्र जो 'प्रिये' है उसको समुद्री मछली के उदर में ब्रह्मचारी के शुक्राणु के अंश मात्र के समान कहने की चेष्टा की है। यहाँ कवि बड़े ही जतन से उसे,उसके सर्वश्रेष्ठ होने को, अमरत्व के प्राप्ती को लताड़ता हुआ प्रतीत होता है यानि कवि के इस पुरुष-मन में कहीं न कहीं अपनी अवचेतनता में अपने अंतर्मन से उसके सर्वश्रेष्ठ होने को , उसके अमरत्व को स्वीकारता भी है तभी तो इन शब्दों की अनुगूँज कविता में चिन्हित हुई है।वह सिर्फ उसके इस "समझने को" ही प्रतिपादित कर रहा हैं यानि यह समझने का दर्जा भी पुरुष-मन की निज सोच को दर्शाता है क्योंकि यहाँ कविता के शब्दों में प्रेम से पराजित पौरुष का बोध सहसा अनकहे में जाग जाता है। तभी तो कहते हैं कि<br />
<br />
//प्रिये!<br />
बुरा नहीं स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना<br />
अमरत्व का दिवा-स्वप्न भी बुरा नहीं<br />
किन्तु समझना आवश्यक है<br />
यह जान लेना आवश्यक है कि<br />
अमर होने ने लिए मरण आवश्यक है<br />
मरण हेतु जन्म अति आवश्यक<br />
फिर तुम्हें तो अभी जन्म लेना है<br />
जन्म लेने से पूर्व ही<br />
अमरत्व की स्वयम्भू उपाधि?//<br />
<br />
यहाँ उसके आस्तित्व को स्वीकारता है और नकारने की असफल कोशिश भी है। कि वह जन्म लेने से पहले..... अगर वह जन्मी ही नहीं तो कवि की कविता किस अजन्में को संदर्भित कर रही है? किस अजन्में पर परशुराम वृहस्पति सम ब्रह्मचारी यहाँ 'पथभ्रष्ट' हो गया है?<br />
खैर, इन्हीं विरोधाभासों में यहाँ गौर करने की बात यह है कि अगर वह पात्र जैसा कि कवि कहते हैं कि वे ब्रह्मचारी,परशुराम और वृहस्पति के समान जिनके जिव्हा पर सरस्वती का वास हो के समान हैं और वे 'पथभ्रष्ट' हुए हैं तो यहाँ नारी जो 'प्रिये' है वह साधारण हो ही नहीं सकती है। अति साधारण नारी द्वारा परशुराम, वृहस्पति सम ब्रह्मचारी का 'पथभ्रष्ट' होना असंभव है। इस कविता में नारी चरित्र मजबूती से उभरकर आया है।<br />
<br />
//क्या अपमान नहीं उस ब्रह्मचारी का?<br />
जिसकी भुजाओं में विराजमान है परशुराम<br />
जिसकी जिव्हा पर सुरसति का दूसरा घर है<br />
स्वयं बृहस्पति जिसके आज्ञा चक्र में हैंI//<br />
<br />
स्त्री द्वारा जब परशुराम और वृहस्पति समान ब्रह्मचारी ठुकराया जाता है तो अपमान की वह अवस्था "पुरुष-मन की आत्ममुग्धता" प्रतिध्वनि कथ्य बनकर कविता में गुँजायमान हो उठती है।<br />
वह असाधारण नारी जिसनें पौरुष को उसका आत्मछवि को दाँव पर लगाने हेतु विवश करती है सशक्त विवेचन को दर्शाता है।<br />
<br />
<br />
इस कविता के अनकहे में नारी चरित्र मजबूती से उभरकर आया है। स्त्री द्वारा जब परशुराम और वृहस्पति समान ब्रह्मचारी ठुकराया जाता है तो ऐसी ही प्रतिध्वनि कथ्य बनकर कविता में गुँजायमान हो उठती है।<br />
<br />
//बस इतना स्मरण रहे<br />
आत्मविश्वास की सीमा का अतिक्रमण<br />
अति घातक और विनाशक होता है<br />
क्योंकि<br />
न तो कभी केंचुए ही तक्षक बन पाए<br />
न ही छिपकली के बच्चे मगरI//<br />
<br />
वह असाधारण नारी जिसके आत्मविश्वास से घबराया हुआ, जिसनें पौरुष को उसका आत्मछवि को दाँव पर लगाने हेतु विवश करती है वह केंचुआ और छिपकली की सम्भावना को पाठक मन को ऊहापोह में डालती है।<br />
सादर। हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज भा…tag:www.openbooksonline.com,2016-12-15:5170231:Comment:8203662016-12-15T06:50:45.162ZTEJ VEER SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज भाई जी।एक बेहद चुस्त, दुरुस्त और बहु आयामी अतुकांत कविता। कितना कुछ कह दिया आपने अपनी इस अनुपम प्रस्तुति में।पुनः आभार।</p>
<p>हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज भाई जी।एक बेहद चुस्त, दुरुस्त और बहु आयामी अतुकांत कविता। कितना कुछ कह दिया आपने अपनी इस अनुपम प्रस्तुति में।पुनः आभार।</p> न तो कभी केंचुए ही तक्षक बन प…tag:www.openbooksonline.com,2016-12-14:5170231:Comment:8205082016-12-14T21:26:40.115Zनाथ सोनांचलीhttp://www.openbooksonline.com/profile/SurendraNathSingh
न तो कभी केंचुए ही तक्षक बन पाए<br />
न ही छिपकली के बच्चे मगरI<br />
<br />
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी सादर अभिवादन, आप क्या कमाल के लिखते है जनाब, वाह। इतनी गूढ़ विषय पर इतना बेहतरीन भाव लिए, अद्भूत प्रतिबिम्ब गढ़ती खुबसूरत सर्जना, आपको को हार्दिक बधाई इस तरह की शानदार सर्जना पर निवेदित है।
न तो कभी केंचुए ही तक्षक बन पाए<br />
न ही छिपकली के बच्चे मगरI<br />
<br />
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी सादर अभिवादन, आप क्या कमाल के लिखते है जनाब, वाह। इतनी गूढ़ विषय पर इतना बेहतरीन भाव लिए, अद्भूत प्रतिबिम्ब गढ़ती खुबसूरत सर्जना, आपको को हार्दिक बधाई इस तरह की शानदार सर्जना पर निवेदित है। // आत्मविश्वास की सीमा का अति…tag:www.openbooksonline.com,2016-12-14:5170231:Comment:8202062016-12-14T16:58:46.083ZSheikh Shahzad Usmanihttp://www.openbooksonline.com/profile/SheikhShahzadUsmani
// आत्मविश्वास की सीमा का अतिक्रमण<br />
अति घातक और विनाशक होता है// ..विचारोत्तेजक संदेश सम्प्रेषित करती बेहतरीन शिल्पबद्ध अतुकांत रचना का अध्ययन कर धन्य हुआ। अतुकांत रचना की गंभीरता, शब्द चयन व निशाने साधती उपमायें वास्तविक अतुकांत सृजन को समझाती हैं। सादर हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय सर श्री योगराज प्रभाकर जी।
// आत्मविश्वास की सीमा का अतिक्रमण<br />
अति घातक और विनाशक होता है// ..विचारोत्तेजक संदेश सम्प्रेषित करती बेहतरीन शिल्पबद्ध अतुकांत रचना का अध्ययन कर धन्य हुआ। अतुकांत रचना की गंभीरता, शब्द चयन व निशाने साधती उपमायें वास्तविक अतुकांत सृजन को समझाती हैं। सादर हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय सर श्री योगराज प्रभाकर जी। बुरा नहीं स्वयं को सर्वश्रेष्…tag:www.openbooksonline.com,2016-12-14:5170231:Comment:8202612016-12-14T12:09:19.455ZMahendra Kumarhttp://www.openbooksonline.com/profile/Mahendra
बुरा नहीं स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना<br />
अमरत्व का दिवा-स्वप्न भी बुरा नहीं<br />
किन्तु समझना आवश्यक है<br />
यह जान लेना आवश्यक है कि<br />
अमर होने ने लिए मरण आवश्यक है<br />
मरण हेतु जन्म अति आवश्यक<br />
फिर तुम्हें तो अभी जन्म लेना है<br />
जन्म लेने से पूर्व ही<br />
अमरत्व की स्वयम्भू उपाधि? ...वाह!<br />
आदरणीय योगराज सर, मैं पहली बार आपकी किसी अतुकान्त कविता से गुज़र रहा हूँ। क्या ज़बरदस्त वैचारिक कविता लिखी है आपने। अतिआत्मविश्वास निश्चित ही आत्मघाती होता है। मेरी तरफ से ढेरों बधाई और शुभकामनाएँ। सादर।
बुरा नहीं स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना<br />
अमरत्व का दिवा-स्वप्न भी बुरा नहीं<br />
किन्तु समझना आवश्यक है<br />
यह जान लेना आवश्यक है कि<br />
अमर होने ने लिए मरण आवश्यक है<br />
मरण हेतु जन्म अति आवश्यक<br />
फिर तुम्हें तो अभी जन्म लेना है<br />
जन्म लेने से पूर्व ही<br />
अमरत्व की स्वयम्भू उपाधि? ...वाह!<br />
आदरणीय योगराज सर, मैं पहली बार आपकी किसी अतुकान्त कविता से गुज़र रहा हूँ। क्या ज़बरदस्त वैचारिक कविता लिखी है आपने। अतिआत्मविश्वास निश्चित ही आत्मघाती होता है। मेरी तरफ से ढेरों बधाई और शुभकामनाएँ। सादर। जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदा…tag:www.openbooksonline.com,2016-12-14:5170231:Comment:8203582016-12-14T11:25:14.944ZSamar kabeerhttp://www.openbooksonline.com/profile/Samarkabeer
जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,आपकी शख़सियत को अगर में हर फ़न मौला कहूँ तो ग़लत न होगा,लघुकथा हो छन्द हो ग़ज़ल हो या अतुकान्त कविता आपके क़लम के जौहर हर विधा में अपना अलग मक़ाम रखते हैं ।<br />
इस अतुकान्त कविता में आपने इंसान को उसकी सही औक़ात से रूबरू कराया है,बहुत ही प्रभावशाली लगी आपकी ये कविता,इस प्रस्तुति पर दिल की गहराइयों से देरों बधाई स्वीकार करें ।
जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,आपकी शख़सियत को अगर में हर फ़न मौला कहूँ तो ग़लत न होगा,लघुकथा हो छन्द हो ग़ज़ल हो या अतुकान्त कविता आपके क़लम के जौहर हर विधा में अपना अलग मक़ाम रखते हैं ।<br />
इस अतुकान्त कविता में आपने इंसान को उसकी सही औक़ात से रूबरू कराया है,बहुत ही प्रभावशाली लगी आपकी ये कविता,इस प्रस्तुति पर दिल की गहराइयों से देरों बधाई स्वीकार करें । बस इतना स्मरण रहेआत्मविश्वास…tag:www.openbooksonline.com,2016-12-14:5170231:Comment:8203532016-12-14T08:08:44.215ZSushil Sarnahttp://www.openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>बस इतना स्मरण रहे<br/>आत्मविश्वास की सीमा का अतिक्रमण<br/>अति घातक और विनाशक होता है<br/>क्योंकि<br/>न तो कभी केंचुए ही तक्षक बन पाए<br/>न ही छिपकली के बच्चे मगरI<br/>...... बहुत सुंदर आदरणीय योगराज सर .... एक विचार बिंदु का इतना सूक्ष्म विश्लेषण ... शब्दों के प्रहार से भाव की गहनता को उसकी चरम सीमा तक अपने सुंदर प्रवाह से एक सारगर्भित अंत देना ये आपकी ही सशक्त लेखनी कर सकती है। इस सार्थक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।</p>
<p>बस इतना स्मरण रहे<br/>आत्मविश्वास की सीमा का अतिक्रमण<br/>अति घातक और विनाशक होता है<br/>क्योंकि<br/>न तो कभी केंचुए ही तक्षक बन पाए<br/>न ही छिपकली के बच्चे मगरI<br/>...... बहुत सुंदर आदरणीय योगराज सर .... एक विचार बिंदु का इतना सूक्ष्म विश्लेषण ... शब्दों के प्रहार से भाव की गहनता को उसकी चरम सीमा तक अपने सुंदर प्रवाह से एक सारगर्भित अंत देना ये आपकी ही सशक्त लेखनी कर सकती है। इस सार्थक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।</p>