Comments - सावन के झूलों ने मुझको बुलाया - Open Books Online2024-03-28T15:29:04Zhttp://www.openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A561385&xn_auth=noआपकी रचना पढ़ कर बचपन के कितने…tag:www.openbooksonline.com,2014-07-27:5170231:Comment:5625642014-07-27T11:41:00.091Zvijay nikorehttp://www.openbooksonline.com/profile/vijaynikore
<p>आपकी रचना पढ़ कर बचपन के कितने सावन याद आ गए। अब वह सावन कहाँ।</p>
<p>बधाई।</p>
<p>आपकी रचना पढ़ कर बचपन के कितने सावन याद आ गए। अब वह सावन कहाँ।</p>
<p>बधाई।</p> आदरणीया डॉ. हृदयेश चौधरी जी,…tag:www.openbooksonline.com,2014-07-25:5170231:Comment:5618282014-07-25T10:09:49.603ZSantlal Karunhttp://www.openbooksonline.com/profile/SantlalKarun
<p>आदरणीया डॉ. हृदयेश चौधरी जी,</p>
<p>आप की संस्मरणात्मक पीड़ा अत्यंत मार्मिक और पठनीय है ---</p>
<p></p>
<p><span>"संस्कृति में रची बसी मौज मस्ती अब क्लबों और होटलों की चमक दमक में गुम होती जा रही है। जो हमारी भारतीय परम्पराओं को दीमक की तरह चाट रही है। हमे सहेजना होगा प्रकृति की इस अनुपम छटा को और इससे उपजे हुये उल्लास को, ताकि दिन प्रतिदिन अवसाद से ग्रसित होती जा रही हमारी संवेदनाओं को पुनर्जन्म मिल सके।"</span></p>
<p></p>
<p>इस आलेख के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !</p>
<p>आदरणीया डॉ. हृदयेश चौधरी जी,</p>
<p>आप की संस्मरणात्मक पीड़ा अत्यंत मार्मिक और पठनीय है ---</p>
<p></p>
<p><span>"संस्कृति में रची बसी मौज मस्ती अब क्लबों और होटलों की चमक दमक में गुम होती जा रही है। जो हमारी भारतीय परम्पराओं को दीमक की तरह चाट रही है। हमे सहेजना होगा प्रकृति की इस अनुपम छटा को और इससे उपजे हुये उल्लास को, ताकि दिन प्रतिदिन अवसाद से ग्रसित होती जा रही हमारी संवेदनाओं को पुनर्जन्म मिल सके।"</span></p>
<p></p>
<p>इस आलेख के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !</p> आदरणीया
इसी को nostalgia कहते…tag:www.openbooksonline.com,2014-07-25:5170231:Comment:5617762014-07-25T05:18:42.667Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://www.openbooksonline.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p>आदरणीया</p>
<p>इसी को nostalgia कहते है i बचपन की वो बाते जो आज नहीं है एक हूक सी जगाते है i हर युग में अपने ढंग से यह सबके साथ होता है i हो सकता है आजसे सौ-पचास साल बाद लोग कहें कि हमारे बचपन में वेव सिनेमा था , माल थे, शौपिंग काम्प्लेक्स थे i जीवन के उतार के साथ साथ nostalgia बढ़ती जाती है और हमें व्यथित भी करती है i पर यह भी जीवन का हिस्सा है i आपका आलेख सुन्दर और ताजगी भरा है i आपको बधाई i</p>
<p>आदरणीया</p>
<p>इसी को nostalgia कहते है i बचपन की वो बाते जो आज नहीं है एक हूक सी जगाते है i हर युग में अपने ढंग से यह सबके साथ होता है i हो सकता है आजसे सौ-पचास साल बाद लोग कहें कि हमारे बचपन में वेव सिनेमा था , माल थे, शौपिंग काम्प्लेक्स थे i जीवन के उतार के साथ साथ nostalgia बढ़ती जाती है और हमें व्यथित भी करती है i पर यह भी जीवन का हिस्सा है i आपका आलेख सुन्दर और ताजगी भरा है i आपको बधाई i</p> आदरणीया , आपको इस आलेख के लिय…tag:www.openbooksonline.com,2014-07-24:5170231:Comment:5616382014-07-24T16:21:02.910Zगिरिराज भंडारीhttp://www.openbooksonline.com/profile/girirajbhandari
<p>आदरणीया , आपको इस आलेख के लिये बहुत बधाइयाँ । बचपने की कुछ यादें ताज़ा हो गईं ॥</p>
<p>आदरणीया , आपको इस आलेख के लिये बहुत बधाइयाँ । बचपने की कुछ यादें ताज़ा हो गईं ॥</p> उत्तम रचना के लिए आप को बहुत…tag:www.openbooksonline.com,2014-07-24:5170231:Comment:5617262014-07-24T15:39:34.172Zkalpna mishra bajpaihttp://www.openbooksonline.com/profile/kalpnamishrabajpai
<p>उत्तम रचना के लिए आप को बहुत बधाई । बचपन की याद दिलाती रचना </p>
<p>उत्तम रचना के लिए आप को बहुत बधाई । बचपन की याद दिलाती रचना </p> आदरणीया डॉ साहिबा, आधुनिक मॉल…tag:www.openbooksonline.com,2014-07-24:5170231:Comment:5615342014-07-24T15:19:52.480ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://www.openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>आदरणीया डॉ साहिबा, आधुनिक मॉल संस्कृति, टीवी, कंप्यूटर, स्मार्ट फोन के सामने वो सावन के झूले कहाँ ठहरते हैं, इस लेख के माध्यम से कई कई बातों को आपने सामने रख दिया है, बधाई इस प्रस्तुति पर। </p>
<p>आदरणीया डॉ साहिबा, आधुनिक मॉल संस्कृति, टीवी, कंप्यूटर, स्मार्ट फोन के सामने वो सावन के झूले कहाँ ठहरते हैं, इस लेख के माध्यम से कई कई बातों को आपने सामने रख दिया है, बधाई इस प्रस्तुति पर। </p> कहते हैं न, जो बीत गयी सो बात…tag:www.openbooksonline.com,2014-07-24:5170231:Comment:5616162014-07-24T08:31:13.073ZSaurabh Pandeyhttp://www.openbooksonline.com/profile/SaurabhPandey
<p>कहते हैं न, जो बीत गयी सो बात गयी.<br></br>परन्तु, परंपराओं के बीतने और उनकी छूट जाने की क्सक हर उसको होती है जिसने उन परंपराओं को निभाते हुए जीया है. अन्यथा नावाकिफ़ पीढ़ी इस भाव से भी निर्पेक्ष हुआ करती है कि जो छूट गया है उसका मूल्य क्या था. परन्तु, यह भी उतना ही सही है कि समय सतत प्रवहमान इकाई है. समय के अनुसार ही परंपरायें और परिपाटियाँ आकार पाती हैं. या, फिर छूट जाती हैं.<br></br>सावनोत्सव ग्राम्य-जीवन का अन्योन्याश्रय हिस्सा हुआ करते थे. आज व्यवहार करते बहुसंख्यक पाठकों के लिए गाँव ही स्वयं में…</p>
<p>कहते हैं न, जो बीत गयी सो बात गयी.<br/>परन्तु, परंपराओं के बीतने और उनकी छूट जाने की क्सक हर उसको होती है जिसने उन परंपराओं को निभाते हुए जीया है. अन्यथा नावाकिफ़ पीढ़ी इस भाव से भी निर्पेक्ष हुआ करती है कि जो छूट गया है उसका मूल्य क्या था. परन्तु, यह भी उतना ही सही है कि समय सतत प्रवहमान इकाई है. समय के अनुसार ही परंपरायें और परिपाटियाँ आकार पाती हैं. या, फिर छूट जाती हैं.<br/>सावनोत्सव ग्राम्य-जीवन का अन्योन्याश्रय हिस्सा हुआ करते थे. आज व्यवहार करते बहुसंख्यक पाठकों के लिए गाँव ही स्वयं में अबूझी इकाई है. फिर क्या गाँव, गाँव के व्यवहार या परिपाटियाँ. है न ?<br/>परन्तु, आपके इस संस्मरण से गुजरते हुए हम जैसे कई पाठक अपने-अपने बचपने में लगाये झूलों की पेंगों के आनन्द को दुबारा जी पाये, इसके लिए हार्दिक धन्यवाद.<br/><br/></p> डॉ ह्रदेश चौधरी जी ,क्या सजीव…tag:www.openbooksonline.com,2014-07-24:5170231:Comment:5616092014-07-24T06:56:39.607Zrajesh kumarihttp://www.openbooksonline.com/profile/rajeshkumari
<p>डॉ ह्रदेश चौधरी जी ,क्या सजीव चित्र खींचा है आपने सावन का अपने भी बचपन के दिन याद आ गए ,कितना उल्लास होता था इस पर्व का जाने कहाँ आज आधुनिकता की चमक दमक में धूमिल हो गए ये पर्व ,इन्हें हमे बचा कर रखना होगा प्रयास करना होगा की हमारी संस्कृति के द्योतक ये पर्व परम्पराएं जीवित रहें |बहुत सार्थक आलेख लिखा आपने ,हार्दिक बधाई और आने वाले तीज की शुभकामनायें </p>
<p>डॉ ह्रदेश चौधरी जी ,क्या सजीव चित्र खींचा है आपने सावन का अपने भी बचपन के दिन याद आ गए ,कितना उल्लास होता था इस पर्व का जाने कहाँ आज आधुनिकता की चमक दमक में धूमिल हो गए ये पर्व ,इन्हें हमे बचा कर रखना होगा प्रयास करना होगा की हमारी संस्कृति के द्योतक ये पर्व परम्पराएं जीवित रहें |बहुत सार्थक आलेख लिखा आपने ,हार्दिक बधाई और आने वाले तीज की शुभकामनायें </p>