Comments - "दर्श तुम्हारा" - Open Books Online2024-03-29T08:25:45Zhttp://www.openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A372619&xn_auth=noआपका अत्यंत आभार आदरणीय किशोर…tag:www.openbooksonline.com,2013-06-24:5170231:Comment:3846412013-06-24T20:06:59.065Zवेदिकाhttp://www.openbooksonline.com/profile/vedikagitika
<p>आपका अत्यंत आभार आदरणीय किशोर कान्त जी! </p>
<p>आपका अत्यंत आभार आदरणीय किशोर कान्त जी! </p> इंतजार और विरह की पराकाष्ठा द…tag:www.openbooksonline.com,2013-06-24:5170231:Comment:3848542013-06-24T20:06:37.514Zवेदिकाhttp://www.openbooksonline.com/profile/vedikagitika
<p><span>इंतजार और विरह की पराकाष्ठा </span><br/><span>दर्शाती पंक्तियां..// आदरणीय माथुर जी! आप ने रचना में अंतर्निहित तत्व को स्पर्श किया </span></p>
<p><span>आभार आपका !!</span></p>
<p><span>इंतजार और विरह की पराकाष्ठा </span><br/><span>दर्शाती पंक्तियां..// आदरणीय माथुर जी! आप ने रचना में अंतर्निहित तत्व को स्पर्श किया </span></p>
<p><span>आभार आपका !!</span></p> तेरा गाली से श्रंगार करूं बड़ा…tag:www.openbooksonline.com,2013-06-21:5170231:Comment:3811672013-06-21T02:39:12.868ZD P Mathurhttp://www.openbooksonline.com/profile/DPMathur
<p>तेरा गाली से श्रंगार करूं <br/>बड़ा निठुर व्यवहार करूं<br/>खो दूँ तुझको <br/>खुरपी लेकर फरुआ से<br/>महा प्रहार करूं<br/>इंतजार और विरह की पराकाष्ठा <br/>दर्शाती पंक्तियां..</p>
<p>तेरा गाली से श्रंगार करूं <br/>बड़ा निठुर व्यवहार करूं<br/>खो दूँ तुझको <br/>खुरपी लेकर फरुआ से<br/>महा प्रहार करूं<br/>इंतजार और विरह की पराकाष्ठा <br/>दर्शाती पंक्तियां..</p> ये कैसा मीठा परिचय
अवकाश में…tag:www.openbooksonline.com,2013-06-11:5170231:Comment:3772282013-06-11T16:34:24.857ZKishorekanthttp://www.openbooksonline.com/profile/Kishorekant
ये कैसा मीठा परिचय<br />
अवकाश में ही हो गया<br />
शब्द मिलते नित्य लेकिन<br />
मैं राह तकता रह गया
ये कैसा मीठा परिचय<br />
अवकाश में ही हो गया<br />
शब्द मिलते नित्य लेकिन<br />
मैं राह तकता रह गया शुक्रिया आदरणीया महिमा जी!
tag:www.openbooksonline.com,2013-06-09:5170231:Comment:3750472013-06-09T08:42:33.831Zवेदिकाhttp://www.openbooksonline.com/profile/vedikagitika
<p><font size="3"><span>शुक्रिया आदरणीया महिमा जी! </span></font></p>
<p><font size="3"><span> </span></font></p>
<p><font size="3"><span>शुक्रिया आदरणीया महिमा जी! </span></font></p>
<p><font size="3"><span> </span></font></p> आभार आदरणीय राजेश झा जी!
रचना…tag:www.openbooksonline.com,2013-06-09:5170231:Comment:3751322013-06-09T08:40:14.482Zवेदिकाhttp://www.openbooksonline.com/profile/vedikagitika
<p><font size="3"><span>आभार आदरणीय राजेश झा जी!</span></font></p>
<p><font size="3"><span>रचना पर विचार प्रकटीकरन के लिए </span></font></p>
<p><font size="3"><span>आभार आदरणीय राजेश झा जी!</span></font></p>
<p><font size="3"><span>रचना पर विचार प्रकटीकरन के लिए </span></font></p> ये बैरन संध्या हो जाये बंध्य…tag:www.openbooksonline.com,2013-06-07:5170231:Comment:3737792013-06-07T09:14:39.123Zराजेश 'मृदु'http://www.openbooksonline.com/profile/RajeshKumarJha
<p>ये बैरन संध्या <br/> हो जाये बंध्या <br/> न लगन करे चंदा से <br/> न जन्में शिशु तारे <br/> बस यहीं ठहर जाये <br/> <br/> ये शाम मुंहजली <br/> जो मुड़ के लौट नही पाती ...</p>
<p>बड़ा ही मीठा उलाहना, सुंदर रचना के लिए ढेरों बधाई</p>
<p>ये बैरन संध्या <br/> हो जाये बंध्या <br/> न लगन करे चंदा से <br/> न जन्में शिशु तारे <br/> बस यहीं ठहर जाये <br/> <br/> ये शाम मुंहजली <br/> जो मुड़ के लौट नही पाती ...</p>
<p>बड़ा ही मीठा उलाहना, सुंदर रचना के लिए ढेरों बधाई</p> आपने तो संयोग और वियोग की परि…tag:www.openbooksonline.com,2013-06-06:5170231:Comment:3734812013-06-06T20:03:46.873Zवेदिकाhttp://www.openbooksonline.com/profile/vedikagitika
<p><span>आपने तो संयोग और वियोग की परिभाषा सुघड़ता से रच दी! </span></p>
<div>आप सही कहते है, संयोग के क्षण में सारी दुनिया ही सुंदर लगती है और वियोग में सुन्दरता भी सुंदर नही लगती। </div>
<div>सुंदर सी प्रतिक्रिया के लिए अनन्य आभार <span>आदरनीय बृजेश जी!</span></div>
<p><span>आपने तो संयोग और वियोग की परिभाषा सुघड़ता से रच दी! </span></p>
<div>आप सही कहते है, संयोग के क्षण में सारी दुनिया ही सुंदर लगती है और वियोग में सुन्दरता भी सुंदर नही लगती। </div>
<div>सुंदर सी प्रतिक्रिया के लिए अनन्य आभार <span>आदरनीय बृजेश जी!</span></div> वियोग में प्रकृति की हर अंगड़ा…tag:www.openbooksonline.com,2013-06-06:5170231:Comment:3734592013-06-06T17:00:26.832Zबृजेश नीरजhttp://www.openbooksonline.com/profile/BrijeshKumarSingh
<p>वियोग में प्रकृति की हर अंगड़ाई, हर दृश्य मन को अखरते ही हैं और संयोग के क्षण आते ही बबूल में हरीतिमा दिखने लगती है। इन भावों को आपने बहुत सुन्दरता से पिरोया है अपनी रचना में। आपको ढेरों बधाई इस रचना पर।</p>
<p>वियोग में प्रकृति की हर अंगड़ाई, हर दृश्य मन को अखरते ही हैं और संयोग के क्षण आते ही बबूल में हरीतिमा दिखने लगती है। इन भावों को आपने बहुत सुन्दरता से पिरोया है अपनी रचना में। आपको ढेरों बधाई इस रचना पर।</p> विश्वास अगर है तो ही है नई है…tag:www.openbooksonline.com,2013-06-06:5170231:Comment:3733182013-06-06T08:01:11.235Zवेदिकाhttp://www.openbooksonline.com/profile/vedikagitika
<p><span>विश्वास अगर है तो ही है नई है तो वो अविश्वास ...</span></p>
<div>अनेक अनेक आभार आपका आदरणीय सौरभ जी </div>
<p><span>विश्वास अगर है तो ही है नई है तो वो अविश्वास ...</span></p>
<div>अनेक अनेक आभार आपका आदरणीय सौरभ जी </div>