Comments - ग़ज़ल - हैं ख़ाक फिर भी उठाकर जो सर खड़े हैं पहाड़ - Open Books Online2024-03-28T15:58:38Zhttp://www.openbooksonline.com/profiles/comment/feed?attachedTo=5170231%3ABlogPost%3A1094929&xn_auth=noमोहतरम Zaif जी आदाब ग़ज़ल तक…tag:www.openbooksonline.com,2022-12-31:5170231:Comment:10965462022-12-31T14:26:31.723ZAnjuman Mansury 'Arzoo'http://www.openbooksonline.com/profile/Anjuman
<p>मोहतरम <span> </span><a href="http://www.openbooksonline.com/profile/YamitPunethaZaif" class="fn url">Zaif</a> जी आदाब ग़ज़ल तक पहुंचने और हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया</p>
<p>मोहतरम <span> </span><a href="http://www.openbooksonline.com/profile/YamitPunethaZaif" class="fn url">Zaif</a> जी आदाब ग़ज़ल तक पहुंचने और हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया</p> मुहतरमा आरज़ू जी, भावपूर्ण ग़ज़ल…tag:www.openbooksonline.com,2022-12-24:5170231:Comment:10958412022-12-24T08:57:23.411ZZaifhttp://www.openbooksonline.com/profile/YamitPunethaZaif
<p>मुहतरमा आरज़ू जी, भावपूर्ण ग़ज़ल, वाह! सादर</p>
<p>मुहतरमा आरज़ू जी, भावपूर्ण ग़ज़ल, वाह! सादर</p> मोहतरम जनाब Ravi Shukla साहब…tag:www.openbooksonline.com,2022-12-21:5170231:Comment:10954312022-12-21T14:15:14.514ZAnjuman Mansury 'Arzoo'http://www.openbooksonline.com/profile/Anjuman
<p>मोहतरम जनाब Ravi Shukla साहब आदाब, जी ! हौसला अफजाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया, तरमीम की कोशिश करूंगी, इंशा अल्लाह ।</p>
<p>मोहतरम जनाब Ravi Shukla साहब आदाब, जी ! हौसला अफजाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया, तरमीम की कोशिश करूंगी, इंशा अल्लाह ।</p> मोहतरम जनाब Samar kabeer साह…tag:www.openbooksonline.com,2022-12-21:5170231:Comment:10954292022-12-21T14:13:07.038ZAnjuman Mansury 'Arzoo'http://www.openbooksonline.com/profile/Anjuman
<p>मोहतरम जनाब <span> </span><a href="http://www.openbooksonline.com/profile/Samarkabeer" class="fn url">Samar kabeer</a> साहब आदाब, तरमीम का बहुत सारा काम निकल आया, कोशिश करूंगी सुधार कर सकूं, खूबसूरत इस्लाह के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया ।</p>
<p>मोहतरम जनाब <span> </span><a href="http://www.openbooksonline.com/profile/Samarkabeer" class="fn url">Samar kabeer</a> साहब आदाब, तरमीम का बहुत सारा काम निकल आया, कोशिश करूंगी सुधार कर सकूं, खूबसूरत इस्लाह के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया ।</p> आदरणीया अंजुमन 'आरज़ू' जी , उम…tag:www.openbooksonline.com,2022-12-20:5170231:Comment:10950932022-12-20T07:59:11.820ZRavi Shuklahttp://www.openbooksonline.com/profile/RaviShukla
<p><span>आदरणीया अंजुमन 'आरज़ू' जी , उम्दा ग़ज़ल कही है आपने बधाई स्वीकार करें I आदरणीय समर साहब की विस्तृत इस्लाह से ग़ज़ल और भी अच्छी हो जाएगी । गौर करियेगा । </span></p>
<p><span>आदरणीया अंजुमन 'आरज़ू' जी , उम्दा ग़ज़ल कही है आपने बधाई स्वीकार करें I आदरणीय समर साहब की विस्तृत इस्लाह से ग़ज़ल और भी अच्छी हो जाएगी । गौर करियेगा । </span></p> मुहतरमा अंजुमन 'आरज़ू' जी आदाब…tag:www.openbooksonline.com,2022-12-12:5170231:Comment:10950462022-12-12T09:30:44.669ZSamar kabeerhttp://www.openbooksonline.com/profile/Samarkabeer
<p>मुहतरमा अंजुमन 'आरज़ू' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I </p>
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<p><span>'हैं ख़ाक फिर भी उठाकर जो सर खड़े हैं पहाड़</span><br></br><span>तो हौसला रखो क्या हमसे भी बड़े हैं पहाड़ ' --मतले के दोनों मिसरों में मुझे रब्त की कमी लगी, ऊला का वाक्य विन्यास भी ठीक नहीं है ,देखिएगा I </span></p>
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<p><span>'है इनके दिल में नदी-सी बड़ी नमी लेकिन<br></br>मुग़ालता* है कि वालिद-से ही कड़े हैं पहाड़़'--इस शे`र का ऊला मिसरा अच्छा है लेकिन सानी अभी मिहनत चाहता है, ग़ौर करें…</span></p>
<p>मुहतरमा अंजुमन 'आरज़ू' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I </p>
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<p><span>'हैं ख़ाक फिर भी उठाकर जो सर खड़े हैं पहाड़</span><br/><span>तो हौसला रखो क्या हमसे भी बड़े हैं पहाड़ ' --मतले के दोनों मिसरों में मुझे रब्त की कमी लगी, ऊला का वाक्य विन्यास भी ठीक नहीं है ,देखिएगा I </span></p>
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<p><span>'है इनके दिल में नदी-सी बड़ी नमी लेकिन<br/>मुग़ालता* है कि वालिद-से ही कड़े हैं पहाड़़'--इस शे`र का ऊला मिसरा अच्छा है लेकिन सानी अभी मिहनत चाहता है, ग़ौर करें I </span></p>
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<p><span>'पहाड़ कह के कोई तंज़ गर करे इन पर<br/>तो आबशार बने अश्क से झड़े हैं पहाड़ '--- इस शे`र के दोनों मिसरों में 'पहाड़' शब्द खटकता है आ, सानी अच्छा है लेकिन इस पर ऊला अभी नहीं लगा, ग़ौर करें I </span></p>
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<p><span>'पहाड़ जैसी मुसीबत उठा के हम यूंँ चले<br/>कि हम को देखते ही शर्म से गड़े हैं पहाड़ '--- इस शे`र को उचित लगे तो यूँ कहें :-</span></p>
<p><span>'बड़ी सी कोई मुसीबत उठा के हम जो चले<br/>तो हम को देखते ही शर्म से गड़े हैं पहाड़' </span></p>
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<p><span>'हम अपने पैर गँवा कर भी चढ़ गए इन पर<br/>हमारे जैसे तलातुम* से कब लड़े हैं पहाड़़'--दोनों मिसरों में रब्त की कमी लगी मुझे, देखें I </span></p>
<p><span>बाक़ी शुभ शुभ I </span></p>