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सियाह ज़ुल्फ़ के साये में शाम हो जाये

1212 1122 1212 22*
ये ख्वाहिशें हैं कि दिल तक मुकाम हो जाये ।
सियाह ज़ुल्फ़ के साये में शाम हो जाये ।।

हैं मुन्तज़िर सी ये आंखे कभी तू मिल तो सही।
नए रसूख़ पे मेरा कलाम हो जाये ।।


बड़े गुरुर से उसने उठाई है बोतल ।
ये मैकदा न कहीं फिर हराम हो जाये ।।

फिदा है आज तलक वो भी उस की सूरत पर ।
कहीं न वो भी सनम का गुलाम हो जाये ।।

अदा में तेज हुकूमत की ख्वाहिशें लेकर ।
खुदा करे कि वो दिल का निजाम हो जाए ।।


किसी की बज्म में आना है एक दिन उसको ।
मेरे नसीब में वह एहतराम हो जाये ।।

जफ़ा की राह पे चलने लगे वफ़ा वाले ।
वफ़ा की बात से किस्सा तमाम हो जाये ।।

नावीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Naveen Mani Tripathi on September 13, 2017 at 9:12pm
आ0 गिरिराज भंडारी साहब शुक्रिया

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Comment by गिरिराज भंडारी on September 13, 2017 at 9:04pm

आ. नवीन भाई , अच्छी गज़ल कही है . हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 11, 2017 at 9:35am
सूंदर
Comment by Naveen Mani Tripathi on September 11, 2017 at 9:12am
आ0मो0 आरिफ़ साहब शुक्रिया
Comment by Naveen Mani Tripathi on September 11, 2017 at 9:11am
आ0 सलीम रजा रेवा जी आभार
Comment by Naveen Mani Tripathi on September 11, 2017 at 9:10am
आ0 कबीर सर सादर आभार ।
Comment by SALIM RAZA REWA on September 10, 2017 at 10:44pm
आ. नवीन जी ग़ज़ल के लिए बधाई,
Comment by Samar kabeer on September 10, 2017 at 6:21pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
'किसी के बज़्म में आना है एक दिन उसको'
इस मिसरे को यूँ करें :-
'किसी की बज़्म में आना है एक दिन उसको'
'बज़्म'शब्द स्त्रीलिंग है ।
Comment by Mohammed Arif on September 10, 2017 at 4:29pm
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, बहुत प्यारी ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

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