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अरुणोदय के अभिनन्दन में
खगकुल गाते गीत सुहाने |
शैल शिखर हो रहे सुशोभित
चुनरी ओढ़ी लाल, धरा ने ||

हुआ तेज जब अरुणोदय का
निशा सशंकित लगी भागने
हँसता पूरब देख चंद्र को
पल्लव सभी लगे मुस्काने ||

पंकज आतुर खिलने को अब
देख कुमुदिनी तब मुरझाई |
अलिदल दौड़ पड़े फूलो पर
कीट पंख में हलचल आई ||

मलय समीर की मन्द बयार
मदहोश कर रही अधरों को |
रवि की नव किरणों को पाकर,
शीतलता मिलती नजरो को ||

स्वागत करती है वसुंधरा
नव बेला का बाहें पसार |
दिनकर भी प्रमुदित मिलन हेतु
स्वर्ण रश्मियों पर हो सवार ||

मनुज उठो, देखो नव विहान
संचार करो फिर यौवन का|
काल चक्र के साथ चलो तुम
क्यों व्यर्थ करें पल जीवन का ||

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by नाथ सोनांचली on January 15, 2017 at 4:27am
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवादत्व जी सादर अभिवादन, मैंने पूरी रचना 16-16 की मात्रा और लिया है। आप इसमें शुरू से अंत तक एक ही मात्रा विधान पाएंगे, चुकि अभी मुझे छंद का ज्ञासँ नहीं, इसलिए सीखने की अवस्था में हूँ, फिर भी समान मात्रा में ही लिखने की भरपूर कोशिश करता हूँ, आप थोड़ा और विस्तार से मार्गदर्शन करें तो मुझे सुधारने में सुविधा होंगी।सादार
आपने समय निकल कर सुझाव दिया, उसके लिए हृदय तल से आभार,
एक निवेदन और कुशवाहा जी शायद आपने भूल वस लिख दिया, मैं कुशक्षत्रप हूँ, सादर
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 14, 2017 at 9:24pm

आ ० कुशवाहा जी , आपके प्रारम्भिक तीन छंद  चार चौकल पर चले .  पर आगे यह रिदम बरकरार नहीं रहा . आप आगे के छंद फिरसे सुधारे  तब कविता उत्कृष्ट बनेगी .  सादर .

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