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अरुणोदय के अभिनन्दन में
खगकुल गाते गीत सुहाने |
शैल शिखर हो रहे सुशोभित
चुनरी ओढ़ी लाल, धरा ने ||

हुआ तेज जब अरुणोदय का
निशा सशंकित लगी भागने
हँसता पूरब देख चंद्र को
पल्लव सभी लगे मुस्काने ||

पंकज आतुर खिलने को अब
देख कुमुदिनी तब मुरझाई |
अलिदल दौड़ पड़े फूलो पर
कीट पंख में हलचल आई ||

मलय समीर की मन्द बयार
मदहोश कर रही अधरों को |
रवि की नव किरणों को पाकर,
शीतलता मिलती नजरो को ||

स्वागत करती है वसुंधरा
नव बेला का बाहें पसार |
दिनकर भी प्रमुदित मिलन हेतु
स्वर्ण रश्मियों पर हो सवार ||

मनुज उठो, देखो नव विहान
संचार करो फिर यौवन का|
काल चक्र के साथ चलो तुम
क्यों व्यर्थ करें पल जीवन का ||

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by नाथ सोनांचली on January 17, 2017 at 3:56am
आदरणीय बृजेश नीरज जी सादर अभिवादन, जिन पंक्तियो की और आपीने इशारा कोय, मेरे समझ से उनका भाव स्पष्ट है। यह रचना को मैंने महाकवि बाण के प्रभात वर्णन को पढ़कर लिखा है, और हंसता पूरब देख चन्द्र को का बड़ा विस्तृत चर्चा वहाँ पर है। सादर। यह गीत नहीं है। यह एक आधुनिक कविता के पुट लिए रचना है। इस रचना में इन दो पंक्तियो के अलावा कुछ तो अच्छा लगा होंगा, आप थोड़ा ही सही पर हौसला अफजाई करेंगे तो धीरे धीरे मैं भी लिख पाऊंगा। सादार
Comment by नाथ सोनांचली on January 17, 2017 at 3:52am
आद0 भाई गिरिराज जी सादर अभिवादन, रचना को आपने पढ़ा, यही मेरे लिए आशीर्वाद है, बहुत बहुत आभार आपका।
Comment by नाथ सोनांचली on January 17, 2017 at 3:50am
आदरणीय मिथिलेश जी अभिवादन, आपने जिस ढंग से समझाया, वह मुझे आगे लिखने में मदद करेगा, सच भी मिथिलेस जी यही है कि मै रचना का abcd भी नही जानता, ऐसे ही भाव को कलमबद्ध कर रहा था, पर जब ओ बी ओ पर आया तो कुछ छंद लिखने लगा, जिसमे चौपाई, चौपई, ताटंक और समर सर के इस्लाह से गजल। पर कभी कभी आधुनिक कविता के प्रवाह में बहकर भी रचना करने का प्रयास करता हूँ, यह रचना कुछ उसी श्रेणी में है। रही बात शब्दकल को बैठाने की तो आपका उदहारण से हमे एकदम समझ में आ गया है, आगे की रचनाओं में मेरी भरसक कोशिश यही होंगी, की शब्द कल सटीक बैठा पाऊँ, पर मिथिलेश जी आपसे निवेदन भी है कि आप कृपया मेरी हर रचना पर इसी तरह शिल्पगत कमियो को चिन्हित भी करें , जिससे मुझे और फायदा हो, ।

मेरी एक और कमी असम में होना है , जहाँ कोई मुखे भाषागत ज्ञान नहीं दे पता क्योकि हिंदी वहां बोली जाने वाली भाषा नही है, फिर भी आप सभी से जुड़ कर सीखूंगा। इस रचना को गीत न समझ कर आधुनिक कविता की मान्यता दीजिये, और मेरा उत्साह बढाइये, जिससे मुझे आगे लिखने में मदद मिल सके।सादर|

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 16, 2017 at 9:33pm

आदरणीय बृजेश जी, यह प्रस्तुति गीत कैसे हो गई ? मैं समझ नहीं सका, कृपया मार्गदर्शन निवेदित है. सादर 

Comment by बृजेश नीरज on January 16, 2017 at 9:30pm

भाई जी प्रणाम! आपका गीत पढ़ा. पहले दो बन्दों पर अटक गया.

इन पंक्तियों को कृपया देखें और इनका आशय समझने में मेरी सहायता करें-

'हुआ तेज जब अरुणोदय का'
'हँसता पूरब देख चंद्र को'
क्षमा सहित, इसे एक पाठक की जिज्ञासा समझें.


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 16, 2017 at 9:21pm

आदरणीय सुरेन्द्र नाथ जी, इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. आपकी प्रस्तुति 16-16 मात्रा आधारित प्रस्तुति है जिसमें शुरुआत के तीन बंद गेय हैं और प्रवाह भी बहुत बढ़िया है किन्तु बाद में यह प्रवाह बाधित होता सा लग रहा है. ऐसा क्यों? जबकि मात्रात्मक भार 16-16 मात्रा ही है. इसका कारण है पंक्तियों का मात्रात्मक भार समान होने के बावजूद शब्द-कलों के अनुसार संयोजित न होना.

शब्द-कलों को समझने के लिए यह उदाहरण मैं अक्सर देता हूँ, प्राचीन काल से ही मंदिरों और कई पुरानी इमारतों के बनाने में पत्थरों की कटिंग की एक विशिष्ट तकनीक अपना कर बड़ी बड़ी इमारतें तैयार कर ली जाती थी. इसमें एक पत्थर के एक तरफ ऐसी कटिंग करते थे कि दूसरे पत्थर की वैसी ही कटिंग में वह फिट बैठ जाए. बस ऐसे ही पत्थरों को एक दुसरे के साथ फिट करते हुए विशाल इमारत बन जाती थी. शब्द-कलों को मैंने भी ऐसे ही समझा है. एक त्रिकल आये तो दूसरा त्रिकल लाकर उसे फिट कर दो. जैसे  

[शैल शि ] [खर हो] [रहे सु] [शोभित]

अब आप देखिये कि आपने इस पंक्ति में कितने बढ़िया त्रिकल मिलाकर चौकल बनाए है. आपने 'शैल' के अकेले पड़े 'ल' को 'शिखर' के 'शि' से पूर्ण कर चौकल बना दिया. ऐसे ही देखिये 'रहे+सु' का भी चौकल पूर्ण हुआ 

आपकी प्रस्तुति 16-16 मात्रा यानी चौपाई छंद आधारित है. चौपाई का छन्द वास्तव में समकलों का समुच्चय है. यानि पंक्ति के शब्द मुख्यतः समकल, यानी, द्विकल, चौकल आदि का समूह होते हैं. कोई त्रिकल शब्द हो भी तो वह अन्य त्रिकल शब्द द्वारा सपोर्ट पाकर समकल बन जाता है. पंक्तियों के अंतिम भाग में त्रिकल शब्द आते हैं तो भले ही कुल मात्रा 16 हो लेकिन चौपाई की पंक्ति के प्रवाह को तोड़ देते हैं. जैसा कि //मलय समीर की मन्द बयार// और //मनुज उठो, देखो नव विहान// इन पंक्तियों में हुआ है. 

संभवतः मैं अपनी बात स्पष्ट कर सका हूँ. सादर 


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Comment by गिरिराज भंडारी on January 16, 2017 at 8:11pm

आदरणीय सुरेन्द्र भाई , बढ़िया गीत रचना हुई है , हार्दिक बधाइयाँ । आदरणेय गोपाल भी जी की बात से मुझे भी सही लग रही है , आखिरी के दो बन्द मे गेय्ता सधी नही है ।

Comment by नाथ सोनांचली on January 16, 2017 at 1:08pm
आद0 समर साहब प्रयास को सराहने के लिए आभार,
Comment by Samar kabeer on January 16, 2017 at 11:10am
जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आदाब,अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई इसके लिये ।
जनाब गोपाल नारायण जी की बात पर ध्यान दें ।
Comment by नाथ सोनांचली on January 15, 2017 at 4:28am
त्रुटि सुधार आद0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी

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