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सिखाता रावणों के गुर - ग़ज़ल - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

1222    1222    1222    1222

किया माथे तिलक झट से कहा नाकाम भी मुझको
बहुत  ठोका  लुहारों  सा  दिया आराम  भी मुझको

*
गिरा तो भी  समझ मेरी  न आयी  शातिरी उसकी
बिठाया  पास  भी अपने किया बदनाम भी मुझको

*
पता  है  साथ  उसके तो  न आया  था कभी  सूरज
जलाता क्यो न जाने फिर शरद का घाम भी मुझको

*
हसाता  चोट  देकर  भी  बड़ा  जालिम  खुदा  पाया
रूला  देता  न मरने  का सुना  पैगाम  भी  मुझको

*
अजब सी रहमतें  उसकी  अजब ही  सब सजाएं हैं
न रखता भोर  के काबिल न  देता शाम भी मुझको

*
बनाना चाहता  है क्या ‘मुसाफिर ’ मैं न समझा ये
सिखाता  रावणों  के  गुर  पुकारे  राम  भी  मुझको


मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 20, 2014 at 4:48pm

आदरणीय भाई गिरिराज जी , आपको ग़ज़ल अच्छी लगी लिखना सार्थक हुआ . हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 20, 2014 at 4:47pm

भाई श्याम नारायण जी , ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .


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Comment by गिरिराज भंडारी on March 20, 2014 at 2:34pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , लाजवाब ग़ज़ल कही है , तहे दिल से बधाइयाँ कुबूल करें ॥

बनाना चाहता  है क्या ‘मुसाफिर ’ मैं न समझा ये
सिखाता  रावणों  के  गुर  पुकारे  राम  भी  मुझको --- मक़्ता खूब पसन्द आया भाई , अनेकों बधाइयाँ

Comment by Shyam Narain Verma on March 20, 2014 at 12:26pm
सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर

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