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जहाँ की नज़र में वो शैतान हैं..( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

122 122 122 12

जहाँ की नज़र में वो शैतान हैं
समझते हैं हम वो भी इंसान हैं

न हिंदू न यारो मुसलमान हैं
यहाँ सबसे पहले हम इंसान हैं

खु़दा कितने हैं ,कितने भगवान हैं
यही सोचकर लोग हैरान हैं

नहीं उनको हमसे महब्बत अगर
हमारे लिये क्योंं परेशान हैं

रिहा कर मुझे या तू क़ैदी बना

तेरे हैं क़फ़स तेरे ज़िंदान हैं

*मौलिक एवं अप्रकाशित.

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Comment by Samar kabeer on September 14, 2020 at 7:33pm

'किसी की नज़र में वो शैतान हैं
हमारे लिए वो भी इंसान हैं'

मतला यूँ कर लें:-

'जहाँ की नज़र में जो शैतान हैं

समझते हैं हम वो भी इंसान हैं'

पहली टिप्पणी में बताना भूल गया था ।

Comment by सालिक गणवीर on September 14, 2020 at 6:15pm

मुहतरम समर कबीर साहिब.

आदाब

इस्लाह के लिए मश्कूर-ओ-ममनून हूँ. सलामत रहें.

Comment by Samar kabeer on September 14, 2020 at 6:10pm

'सुना है वो बेचैन हैं आजकल'

इस मिसरे को यूँ कर लें:-

'नहीं उनको हमसे महब्बत अगर'

'कई लोग ऐसे घरों में मिले
दरीचे नहीं हैं हवा-दान हैं

ज़माने को कैसे ख़बर हो गई
यहाँ की दीवारों में भी कान हैं'

ये दो शैर ग़ज़ल से हटा दें ।

Comment by सालिक गणवीर on September 13, 2020 at 4:03pm

आदरणीय समर कबीर साहब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.ग़ज़ल दुरूस्त करने की कोशिश की है, अगर अब भी दोषपूर्ण है तो हटा दूंगा, जनाब.

Comment by Samar kabeer on September 13, 2020 at 2:37pm

जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'किसी की नज़र में वो शैतान हैं
हमारी तरह वो भी इंसान हैं'

मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,देखियेगा ।

'न हिंदू कोई न मुसलमान हैं'
इस मिसरे में रदीफ़ 'हैं' की जगह "है" हो रही है, मिसरा यूँ कर सकते हैं:-

'न हिन्दू न यारो मुसलमान हैं'

'उन्हीं के हवाले मेरी जान है
पता है वो सब पे मिह्रबान हैं'

इस मतले के ऊला में रदीफ़ 'हैं' की बजाय "है" हो गई है,और सानी मिसरा बह्र में नहीं है, "मह्रबान" शब्द का वज़्न 2121 होता है,देखियेगा ।

'सुना है वो बेचैन हैं आजकल
बड़े दिन हुए हम परेशान हैं'

इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं हुआ ।

'जहाँ दर नहीं , न हवा-दान हैं'

ये मिसरा बह्र में नहीं,देखियेगा ।

'न दीवार है न वहाँ कान हैं'

ये मिसरा बह्र में नहीं ,देखियेगा ।

'रखो क़ैद में या रिहा कर मुझे
तुम्हारे हवालात - ज़िंदान हैं'

इस शैर के ऊला में शुतर गुरबा दोष है,और सानी मिसरा भर्ती का है ।

कुल मिलाकर ग़ज़ल में कोई दम नहीं है,हटा दें तो बहतर होगा ।

Comment by सालिक गणवीर on September 12, 2020 at 5:42pm

आदरणीय अमीरूद्दीन अमीर साहिब 
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 12, 2020 at 3:39pm

मुहतरम जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकार करें। सादर। 

Comment by सालिक गणवीर on September 12, 2020 at 2:40pm

भाई हर्ष महाजन जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.

Comment by सालिक गणवीर on September 12, 2020 at 2:39pm

भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.

Comment by Harash Mahajan on September 12, 2020 at 7:04am

आदरणीय सालिक जी अच्छी ग़ज़ल प्रस्तुत की है । मुबारकबाद क़बूल कीजियेगा ।

सादर

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