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वो दिखे ही नहीं इन दिनों 

दूज का चन्द्रमा हो गए 

इतने बीमार हम भी नहीं 

अपनी खुद ही दवा हो गए 

हैं सु-फल आपकी दृष्टि के 

क्या थे हम और क्या हो गए 

लोग सुनते हैं अब शौक से 

अपने चर्चे कथा हो गए 

कल की किलकारियां याद हैं 

दर्द देखो युवा हो गए 

खेल कर के कहीं रख दिया 

यार,हम झुनझुना हो गए 

अक्स चेहरे का आँखों में है 

हम स्वयं आइना हो गए 
____________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल 

(मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment by Sumit Naithani on June 15, 2013 at 9:19am

अतिसुन्दर,.............बधाई स्वीकार करेँ

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 15, 2013 at 8:41am

आ0 विश्वम्भर सर जी, ‘अक्स चेहरे का आँखों में है, हम स्वयं आइना हो गए‘  अतिसुन्दर, बधाई स्वीकारें।  सादर,

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 15, 2013 at 8:34am
आदरणीय..विश्वम्भर जी, बहुत खूब! बड़ी ही सुंदर पंक्तियों में आपने बहुत खूब कह दिया..."वो दिखे ही नहीं इन दिनों, दूज का चंद्रमा हो गए...इतने बीमार हम भी नहीं, अपनी खुद दवा हो गए...है सु फल आपकी द्रष्टि के, क्या थे हम क्या हो गए...लोग सुनते हैं अब शौक से, अपने चर्चे कथा हो गए..खेल कर के कहीं रख दिया, यार, हम झुनझुना हो गए..."आदरणीय...उम्दा रचना के लिए शुभकामनाऐं स्वीकार कीजीऐ...

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