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हिसाब ना माँगा कभी 

अपने गम का उनसे 

पर हर बात का मेरी वो 

मुझसे हिसाब माँगते रहे ।

जिन्दगी की उलझनें थीं 

पता नही कम थी या ज्यादा 

लिखती रही मैं उन्हें और वो 

मुझसे किताब माँगते रहे ।

 

काश ऐसा होता जो कभी 

बीता लम्हा लौट के आता 

मैं उनकी चाहत और वो 

मुझसे मुलाकात माँगते रहे ।

 

कुछ सवाल अधूरे  रह गये 

जो मिल ना सके कभी 

मैंने आज भी ढूंढे और वो 

मुझसे जवाब माँगते रहे ।

- दीप्ति शर्मा

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Comment by Ashok Kumar Raktale on July 24, 2012 at 1:24pm

सादर,
        काश ऐसा होता जो कभी
    बीता लम्हा लौट के आता
    मैं उनकी चाहत और वो
    मुझसे मुलाकात माँगते रहे ।
   जिंदगी के अन्यायपूर्ण हिसाब किताब पर लिखी सुन्दर रचना.बधाई.
     कभी गैरों में भी वो अपना नजर आता है,
     आता है जब भी निशाँ दर्द के छोड़ जाता है,

Comment by Sanjay Mishra 'Habib' on July 23, 2012 at 6:27pm

सुन्दर रचना के लिए सादर बधाई स्वीकारें आदरणीया दीप्ती जी...

Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 23, 2012 at 1:39pm

दीप्ति जी,

सवाल-जवाब और हिसाब-किताब का कोइ अंत नहीं ! यही हाल इस सब के पीछे छिपे दर्द  का भी है .....इस रचना के माध्यम से आप अपने उद्देश्य में सफल रही हैं .... बहुत बहुत बधाई स्वीकारें |

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 23, 2012 at 10:30am
सुन्दर भावो की रचना दीप्ती जी,
हिसाब का सिलसिला तो इस जनम तक 
नहीं,यह तो चलता रहेगा सात जनम तक 
Comment by Albela Khatri on July 22, 2012 at 10:50pm

वाह दीप्ति जी,.
बहुत सुन्दर रचना

कुछ सवाल अधूरे  रह गये 

जो मिल ना सके कभी 

मैंने आज भी ढूंढे और वो 

मुझसे जवाब माँगते रहे ।

__अभिनन्दन !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 22, 2012 at 10:44pm

दीप्ति जी, आपकी रचना को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ 

जिस ओर आपकी यह रचना इंगित करती है उस ओर एकाकी संवदना का अबाध बहता हुआ दरिया है. आपने उसे बखूबी स्वर दिया है.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 22, 2012 at 10:34pm
"अपनों के प्रश्नचिन्ह ही
तोड़ देते हैं उसे
इतना
कि कभी 
जुड़  न  पाए वो दुबारा..."
बहुत सुन्दर, एक नारी द्वारा पल पल मांगे जाने वाले जवाबों पर उसकी चीत्कार को दिखाती भावपरक रचना के लिए बधाई प्रिय दीप्ति जी.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 22, 2012 at 9:25pm

ना जाने क्यूँ हमेशा नारी ही को ही जबाबदेही बनना पड़ता है उन्ही को जबाब देना पड़ता है जो खुद ही सवाल खड़े करते हैं बहुत अच्छे से दिखाया है अपनी रचना में दीप्ति आपने ...बहुत सुन्दर 

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