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विनय कुमार's Blog (201)

यातना ( लघुकथा )

"पहले तो हमें नौकरी ही नहीं मिलती। अगर मिल भी जाए तो सालों साल रगड़ते रहो, कोई प्रमोशन नहीं। और एक ये हैं ?"

"और लो जन्म ऊँची जात में।"

पिघले हुए सीसे की तरह ये शब्द उसके कानों में उतर रहे थे । 

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on June 2, 2015 at 1:00am — 17 Comments

उसके हिस्से का उजाला (लघुकथा)

" अरे छोटका क माई , देख तो तनिख । काम भर का पत्तल बन गया है न की अउर बनायें "। मुसहराने का दुखिया बहुत खुश था , आखिरकार गाँव में शादी थी और पत्तल उसी के यहाँ से जाती थी ।

" काल तनिक अउर पत्तल बना लेना , कहीं कम न पड़ जाये । याद है न पिछले बियाह में घट गया था पत्तल , केतना गाली सुनाये थे हमको अउर पइसो पूरा नहीं मिला था "। दुखिया ने हामी में सर हिलाया , कइसे भुला सकता था उसको ।

अगले दिन भिन्सहरे ही वो लग गया अउर पत्तल बनाने में , इस बार कम न पड़े । छोटका भी लगा हुआ था उसके साथ और…

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Added by विनय कुमार on June 1, 2015 at 10:30am — 18 Comments

अर्थ --

एकदम उसके ज़बान पर चढ़ गया था ये शब्द " काना ", हंसी मज़ाक में किसी को भी बोल देता था वो ।
आज भी वही हुआ जब बचपन का एक मित्र आया और उसके साथ मज़ाक चल रहा था । अचानक किसी बात पर उसने बोल दिया " क्या यार काने हो क्या , इतना भी नहीं दिखता "।
और फिर वो एकदम से खामोश हो गया , दरअसल उसका बचपन का दोस्त वास्तव में काना था । उसे उस शब्द की पीड़ा का एहसास हो गया था ।
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 31, 2015 at 6:46pm — 10 Comments

एक कविता--

आज फिर आँधियाँ उठीं दिल में
आज फिर नज़र , आप आये हैं !

खाक़ हो जाते ,ग़र नहीं मिलते
खत्म अब , गर्दिशों के साये हैं !

सोचते रहते जिनको शामो सहर,
ख्वाबों में भी , कब वो आये हैं !

खिल उठी है ये सारी कायनात,
मन ही मन जब वो मुस्कुराएं हैं!

शायद करेंगे ,आज वादे वफ़ा,
फिर से पहलू में आज आये हैं!

आज फिर आँधियाँ उठीं दिल में
आज फिर नज़र , आप आये हैं !!

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 29, 2015 at 10:30pm — 16 Comments

खोट--

" ज़रा इसको सिल कर बढ़िया पॉलिश कर देना "।
उसने सर हिला कर जूता ले लिया और साहब ने बड़े अनमने मन से वहाँ रखी टूटी चप्पल पैर में डाल ली ।
" लीजिये साहब , जूता ठीक हो गया ", पर उन्होंने जैसे ही पैर निकाला , मोज़ा चप्पल में लगी कील में फंस गया।
" कैसी चप्पल रखते हो तुम लोग ", नाराज़गी दिखाते हुए उन्होंने उसके बताये पैसों का आधा दिया और चल दिए।
वो अपनी टूटी चप्पल की कील दुरुस्त करते हुए सोच रहा था कि छेद मोज़े में हुआ था या नीयत में।
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 29, 2015 at 2:09am — 18 Comments

नासूर (लघुकथा))

" तुमको बुरा नहीं लगता इसमें , बिना अपनी मर्ज़ी के ये सब ", उसने पूछ लिया |
" हाँ , बहुत तक़लीफ़ हुई थी मुझे , जब अस्मत लुटी थी मेरी | और उससे भी ज्यादा तक़लीफ़ तब हुई थी , जब घर वालों ने भी दरवाज़ा बंद कर दिया था "|
उसने अपना चेहरा घुमा लिया , पुराना दर्द फिर उभर आया था |

.
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 27, 2015 at 2:00pm — 16 Comments

बदलती गंध--

भागते हुए किसी तरह सबको चढ़ाकर वो ट्रेन में घुसे और अपनी फूली हुई साँसों को क़ाबू में करने की चेष्टा करने लगे। पत्नी और बच्चे उस भीड़ में घुस गए थे और बैठने की जगह तलाश रहे थे। गर्मी के दिन , छुटियों का समय , आरक्षण मिलना लगभग नामुमकिन था इसलिए आज ऐसी यात्रा करनी पड़ रही थी उनको।

सांसें सामान्य हुईं तो अजीब सी दुर्गन्ध महसूस होने लगी , लोगों के पसीने और सांसों की गंध। अब उनको बेचैनी महसूस होने लगी , फिर ध्यान आया कि परिवार को जगह मिली की नहीं, और थोड़ा अंदर घुसे। पत्नी और बच्चे किसी तरह सीट…

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Added by विनय कुमार on May 25, 2015 at 1:49pm — 20 Comments

दाँव--

गाँव में एक नयी बीमारी का प्रकोप फैला और लगातार कुछ बच्चों की मौत हो गयी । एक तरफ जहाँ लोग भयभीत थे वहीँ दूसरी तरफ ठाकुर के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी ।
अगले दिन उसके कोठी के पास अपनी कोठरी में रहने वाली अकेली विधवा को लोगों के हुजूम ने डायन कह कर गाँव से बाहर खदेड़ दिया ।
बच्चों की मौत का सिलसिला तो नहीं रुका लेकिन वो ज़मीन अब ठाकुर की थी ।
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 24, 2015 at 2:34am — 12 Comments

बड़प्पन--

" मैंने तो बिना पैसे दिए ही शॉपिंग कर ली | वो बाजार में एक छोटी सी किराने की दुकान है न , आज वहां चली गयी थी | सामान लेने के बाद उसने पैसे लेने से इंकार कर दिया, बोला कि वो आपको जानता है और इसलिए पैसे नहीं लेगा "|
वो सोच में पड़ गया , अपने गाँव का छोटी जात का दुकानदार , जिसकी बेटी की शादी में १०१ रुपये देकर उसने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली थी |
आज वो अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रहा था |
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 22, 2015 at 9:48pm — 12 Comments

ज़रूरत--

आज नयी बहू ने नौकर को बड़ी बहू के कमरे से रात में निकलते देख लिया । रात आँखों आँखों में बीत गयी , किससे क्या पूछे | अगली सुबह बड़ी बहू ने उसके चेहरे को पढ़ लिया और उसे अपने कमरे में बुलाया ।
" मेरे चरित्र के बारे में कुछ धारणा बनाने से पहले मेरे पति को भी जान लो , कई कई महीने घर नहीं आता है और वहाँ क्या क्या करता है , ये सबको पता है "।
छोटी बहू स्तब्ध , कुछ कहे उससे पहले ही वो फिर बोली " और हाँ , जब शरीर को ज़रूरत होती है तो सही गलत कुछ नहीं होता "।
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 21, 2015 at 12:28am — 6 Comments

अपने अपने फ़र्ज़--

" पापा , आपने अगर मुझे बेटी माना है तो मुझे इस अधिकार से कभी वंचित मत कीजियेगा ", विदा होते समय वो उनसे लिपट कर रो पड़ी थी और वहाँ मौज़ूद लोगों की आँखें नम हो गयी थीं ।

वो अपने एकलौते पुत्र को खो बैठे थे जिसकी नयी नयी शादी हुई थी , और हर उस आवाज़ के सामने चट्टान बन कर खड़े हो गए थे जो उनकी बहू को इस हादसे के लिए दोषी ठहरा रहे थे । फिर उन्होंने बहू को धीरे धीरे सँभाला और उसे अपनी बेटी का दर्ज़ा दे दिया । उसके अपने माता पिता भी संतुष्ट थे कि वो अब उस घर की बेटी बन गयी थी ।

आजीवन उनका…

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Added by विनय कुमार on May 19, 2015 at 2:47am — 14 Comments

फ़िक्र--

" हेलो , पापा , आप समय से अपनी दवा खा लेना "| बेटी के शब्द सुनकर उन्होंने सुकून की सांस ली | अभी कल ही उसने फोन नहीं किया तो एकदम परेशान हो गए और वापस आते ही पूरा लेक्चर दे डाला |
आज भी हड़बड़ी में वो भूल ही गयी थी पर एक बुज़ुर्ग को सामने देखते ही याद आ गया | पता तो उसको भी है और पापा को भी है , फोन तो सिर्फ बहाना है ये बताने के लिए कि आज भी वो सकुशल पहुँच गयी है |
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 18, 2015 at 2:04am — 20 Comments

ग्राहक सेवा--

" साहब , पइसा जमा करना है , पर्ची नाहीं दिखत है | मिल ज़ात त बड़ा मेहरबानी होत ", डरते डरते उसने कहा |

" अब केतना पर्ची छपवायें हम लोग , पता नाहीं कहा चुरा ले जाते हैं सब ", बड़बड़ाते और घूरते हुए हरिराम स्टेशनरी रूम में घुसे | थोड़ी देर बाद जमा पर्ची लाकर उसके सामने पटक दिया और बोले " बस एक ही लेना , कुछ भी नहीं छोड़ते लोग यहाँ "|

पूरे गाँव को पता था , हरिराम के व्यवहार के बारे में लेकिन सब झेल जाते थे | एक ही तो शाखा थी बैंक की वहां और सबको वहीँ जाना होता था | एकाध ने मैनेजर से शिकायत की…

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Added by विनय कुमार on May 17, 2015 at 2:48am — 15 Comments

विसंगति--

" अरे रामू , तुम वापस कब आये , फिर से घर का काम करोगे "?
" क्या करता साहब , बेटा तो अपनी नौकरी पर चला जाता था और रात देर से लौटता था "।
" तो क्या , आराम से घर पर रहते , बहू और बच्चों के साथ समय बिताते "।
" अब क्या कहूँ साहब , आप कम से कम हमें नौकरों जैसा तो समझते हो , पर बहू तो .."!

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 13, 2015 at 3:00am — 14 Comments

चेहरे--

" अंकल " , बस यही आवाज़ निकल पायी थी उसके मुँह से |
पहले भी यही आवाज़ निकलती थी , पर वो आवाज़ ख़ुशी की होती थी |
आज वो अपनी सहेली के घर बिना फोन किये आई , और अब अस्पताल में बेसुध पड़ी थी |
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 9, 2015 at 9:02pm — 16 Comments

पाप --

आज फिर से बादल , मौसम को ई का हो गया है , रामदीन सोच में डूब गया | आधे से ज्यादी फसल तो पहले ही चौपट हो गयी है , ऊपर से अगर घाम न हुआ तो पकेगी कैसे बची खुची फसल | कुछ समझ नहीं आ रहा था उसको | थोड़ी देर बाद वो उठा और कुम्हार टोला की ओर निकल गया | वहां रघू भी अपने सर पर हाँथ रख कर बैठा था , उसे देखते ही बोला " अरे ई मौसम को का हो गवा है , एकदम समझ नहीं आवत है एकर मिज़ाज़ | बर्तन तो तैयार ही नहीं हो पावत हैं , कइसे दो जून की रोटी का इंतज़ाम होई "|

कोई जवाब नहीं था उसके पास , चुपचाप उठा और…

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Added by विनय कुमार on April 15, 2015 at 11:21pm — 10 Comments

रिहाई--

जेल से रिहा होकर बहुत प्रसन्न था वो , कदम उसके उत्साह का साथ नहीं दे पा रहे थे | बस मन में एक ही इच्छा , कितनी जल्दी पहुंचे अपने घर , अपनों के बीच | भागते हुए अपने मोहल्ले में घुसा , नुक्कड़ की दुकान वाले चाचा ने जैसे अनदेखा कर दिया | उसे थोड़ा अजीब तो लगा लेकिन जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते हुए वो घर की ओर लपका | अचानक उसके कान में आवाज़ आई " किसने सोचा था कि ये भी इसमें शामिल हो सकता है , कितना मासूम चेहरा और ऐसी नापाक हरक़त "|

शक के बिना पर उसकी गिरफ्तारी हुई थी , वज़ह थी उसके कुछ दोस्त जो सामाजिक…

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Added by विनय कुमार on March 24, 2015 at 10:48pm — 14 Comments

आत्म मुग्धता--

नया बना भवन अपने रूप और बनावट पर मुग्ध हो रहा था | तभी अंदर से ईंट ने आवाज़ दी " क्यों इतने आत्ममुग्ध दिख रहे हो , रूपवान तो हम भी हैं "|

" हुँह , तुम्हारा रूप किसे दिखता है , सब तो मुझे ही देखते हैं ", भवन ने इतराते हुए कहा |

छड़ ने , कंक्रीट ने भी यही बात दुहरायी , भवन ने वैसे ही जवाब दिया |

ईंट बोली गर मैं हट जाऊं ? कंक्रीट बोला मैं पकड़ ढीली कर दूँ ? छड ने कहा मैं टेढ़ी हो लटक जाऊं?

भवन थोड़ा सोच में पड़ गया |

" तुम इसलिए खूबसूरत दिख रहे हो क्योंकि तुममे हमने अपनी खूबसूरती…

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Added by विनय कुमार on March 22, 2015 at 12:18am — 26 Comments

वचन--

बहुत लगाव था अपने ज़मीन के इस टुकड़े से रघू को , ये आखिरी जो था | पत्नी की बीमारी में एक एक करके सभी जमीनें गिरवी रखता गया था , इस उम्मीद में की जब वो ठीक हो जाएगी तो दोनों मियां बीबी मिलकर , पसीना बहाकर , छुड़ा लेंगें उन्हें | लेकिन जैसे जैसे ज़मीन के टुकड़े कम होते गए , पत्नी की सांसें भी कम होती गयीं |

आखिरी वक़्त में पत्नी ने वचन लिया था कि अब वो किसी भी सूरत में ज़मीन के इस आखिरी टुकड़े को नहीं बेचेगा | जिंदगी किसी तरह गुजर रही थी लेकिन उसकी ज़मीन पर एक उद्योगपति की नज़र पड़ गयी | वहाँ…

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Added by विनय कुमार on March 12, 2015 at 2:14am — 14 Comments

आतंकवादी (लघुकथा)

दिन भर खाक छान कर वो वापस घर लौट रहा था | चारो तरफ अँधेरा , सुनसान गलियां और गूंजती हुई बूटों की आवाज़ एक अजीब सा माहौल पैदा कर रहीं थीं | आज भी निराशा हाथ लगी थी उसे , कई जगह उसे रिजेक्ट कर दिया गया था | गली में घुसते ही घर के सामने उसे भीड़ दिखाई पड़ी , उसका दिल जोर जोर से धड़कने लगा | लगभग दौड़ते हुए वो घर में घुसा , देखा एक किनारे माँ ज़मीन पर निढाल पड़ी थी |

उसने झकझोरते हुए पूछा " क्या हुआ माँ ", तभी पड़ोसी चाचा की आवाज़ आई " तुम्हारे भाई को पुलिस पकड़कर ले गयी है "|

उलटे पांव भागा…

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Added by विनय कुमार on March 10, 2015 at 2:30am — 16 Comments

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