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Sushil Sarna's Blog – September 2017 Archive (6)

तुम चली आना ...

तुम चली आना   ... 



जब 

दिन भर का

शेष

थोड़ा सा

उजाला हो

थोड़ी सी

सांझ हो

मेरे प्रतीक्षा द्वार पर

निस्संकोच

तुम चली आना

जब

थके हारे विहग

अंधकार में

विलीन होती

सांझ के डर से

अपने अपने

तृण निर्मित घोंसलों में

अपनी

चहचहाट के साथ

लौट आएं

तब

मेरी आशाओं के घरौंदों में

अपनी प्रीत का

दीप जलाने

निस्संकोच

तुम चली आना

जब…

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Added by Sushil Sarna on September 29, 2017 at 8:30pm — 4 Comments

अवशेष ...

अवशेष ...

गोली
बारूद
धुंआ
चीत्कार
रक्तरंजित
गर्द में
डूबा
अन्धकार
शून्यता
इस पार
शून्यता
उस पार
बिछ गयी लाशें
हदों के
इस पार
हदों के
उस पार
बस
रहे शेष
अनुत्तरित प्रश्नों को
बंद पलकों में समेटे
क्षत-विक्षित
शवों के
ख़ामोश
अवशेष

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on September 28, 2017 at 5:10pm — 6 Comments

तेरे इंतज़ार में ...

तेरे इंतज़ार में ...

गज़ब करता रहा

तेर हर वादे पे

यकीं करता रहा

हर लम्हा

तेरी मोहब्बत में

कई कई सदियाँ

जीता रहा

और हर बार

सौ सौ बार

मरता रहा

पर अफ़सोस

तू

मुझे न जी सकी

मैं

तुझे न जी सका

पी लिया

सब कुछ मगर

इक अश्क न पी सका

मेरी ख़ामोशी को तूने

मेरी नींद का

बहाना समझा

तू

ग़फ़लत में रही

और

मैं

अजल का हो गया

तिश्नागर आँखों के …

Continue

Added by Sushil Sarna on September 25, 2017 at 2:00pm — 19 Comments

ज़िद कर रही हूँ ...

ज़िद कर रही हूँ ...

जानती हूँ

हर नसीब में

हर शै

नहीं हुआ करती

फिर भी

मैं असंभव को

संभव करने की

ज़िद कर रही हूँ

कुछ और नहीं

बस

उम्र के हर पड़ाव पर

सिर्फ

प्यार करने की

ज़िद कर रही हूँ

मैं नहीं जानती

सात जन्म क्या होते हैं

पर उम्र की उस अवस्था पर

जब सब ख्वाहिशें

दम तोड़ देती हैं

चाहती हूँ

तब भी तुम

किसी मठ के

सन्यासी सी एकाग्रता लिए

मुझ से प्यार करने चले आना…

Continue

Added by Sushil Sarna on September 21, 2017 at 3:10pm — 6 Comments

तुम ही बताओ न ...

तुम ही बताओ न ...

क्या हुआ

हासिल

फासलों से

आ के ज़रा

तुम ही बताओ न

इक लम्हा

इक उम्र को

जीता है

ख़ामोशियों के

सैलाब पीता है

उल्फ़त के दामन पे

हिज़्र की स्याही से

ये कैसी तन्हाई

लिख डाली

आ के

ज़रा

तुम ही बताओ न

ये किन

आरज़ूओं के अब्र हैं

जो रफ्ता रफ़्ता

पिघल रहे हैं

एक लावे की तरह

चश्मे साहिल से

क्यूँ हर शब्

तेरी…

Continue

Added by Sushil Sarna on September 5, 2017 at 5:30pm — 8 Comments

तुम ही बताओ न ...

तुम ही बताओ न ...

क्या हुआ

हासिल

फासलों से

आ के ज़रा

तुम ही बताओ न

इक लम्हा

इक उम्र को

जीता है

ख़ामोशियों के

सैलाब पीता है

उल्फ़त के दामन पे

हिज़्र की स्याही से

ये कैसी तन्हाई

लिख डाली

आ के

ज़रा

तुम ही बताओ न

ये किन

आरज़ूओं के अब्र हैं

जो रफ्ता रफ़्ता

पिघल रहे हैं

एक लावे की तरह

चश्मे साहिल से

क्यूँ हर शब्

तेरी…

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Added by Sushil Sarna on September 5, 2017 at 5:30pm — No Comments

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मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
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Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
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"आदरणीय दयाराम जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीय सौरभ पांडेय सर, बहुत दिनों बाद छंद का प्रयास किया है। आपको यह प्रयास पसंद आया, जानकर खुशी…"
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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
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मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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"आदरणीय दयाराम मथानी जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार "
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