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धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog – September 2015 Archive (6)

ग़ज़ल : मैं पागल था मगर इतना नहीं था

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

 

सनम जब तक तुम्हें देखा नहीं था

मैं पागल था मगर इतना नहीं था

 

बियर, रम, वोदका, व्हिस्की थे कड़वे

तुम्हारे हुस्न का सोडा नहीं था

 

हुआ दिल यूँ तुम्हारा क्या बताऊँ

मुआँ जैसे कभी मेरा नहीं था

 

यकीनन तुम हो मंजिल जिंदगी की

ये दिल यूँ आज तक दौड़ा नहीं था

 

तुम्हारे हुस्न की जादूगरी थी

कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 26, 2015 at 10:33am — 20 Comments

ग़ज़ल : जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २

 

चेहरे पर मुस्कान लगाकर बैठे हैं

जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

 

कहते हैं वो हर बेघर को घर देंगे

जो कितने संसार जलाकर बैठे हैं

 

उनकी तो हर बात सियासी होगी ही

यूँ ही सब के साथ बनाकर बैठे हैं?

 

दम घुटने से रूह मर चुकी है अपनी

मुँह उसका इस कदर दबाकर बैठे हैं

 

रब क्यूँकर ख़ुश होगा इंसाँ से, उसपर

हम फूलों की लाश चढ़ाकर बैठे हैं

------------

(मौलिक एवं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 20, 2015 at 10:29pm — 16 Comments

धर्मान्धों की नगरी में (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

पर पत्थर पूजे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

शब्दों से नारी की पूजा होती है लेकिन उस पर

ज़ुल्म सभी ढाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

नफ़रत फैलाने वाले बन जाते हैं नेता, मंत्री

पर प्रेमी मारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

दिन भर मेहनत करने वाले मुश्किल से खाना पाते

ढोंगी सब खाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 9, 2015 at 5:50pm — 18 Comments

रोबोट (कविता)

रोबोट घंटों लगातार काम करता है

और कुछ ही समय में फिर से रीचार्ज हो जाता है

 

कारखाने से कबाड़खाने तक

रोबोट कहीं नियम नहीं तोड़ता

 

रोबोट चुपचाप सुनता है उच्चाधिकारियों की सारी बातें

और इजाज़त मिलने पर ही बोलता है

 

रोबोट बिना किसी विरोध के उन सारी बातों में यकीन कर लेता है

जो उसकी मेमोरी में भरी जाती हैं

 

रोबोट अपने मालिकों के लिए ढेर सारा पैसा कमाता है

और बदले में उसे सिर्फ़…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 8, 2015 at 6:36pm — 10 Comments

राजधानी में ब्लैक होल (कविता)

देशों की चमचमाती हुई राजधानियाँ

हर आकाशगंगा के केन्द्र में

बैठा हुआ एक ब्लैक होल

 

किसी गाँव के सूरज से करोड़ों गुना बड़ा

अपने आसपास मौजूद तारों को

अपने इशारों पर नचाता हुआ

 

उसके पास खुद का कोई प्रकाश नहीं है

फिर भी वो चमचमा रहा है लगातार

उनके प्रकाश से

जो शिकार हो रहे हैं

उसकी कभी न खत्म होने वाली भूख का

 

ऊष्मागतिकी का तीसरा नियम मुझे सबसे ज़्यादा कष्ट देता है

जिसके अनुसार किसी बंद…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 3, 2015 at 1:45am — 8 Comments

ग़ज़ल : मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

अपनी ताक़त के बलबूते हाथी ज़िन्दा है

मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है

 

कैसे मानूँ रूठ गया है मेरा रब मुझसे

मैं ज़िन्दा हूँ, पैमाना है, साकी ज़िन्दा है

 

सारे साँचे देख रहे हैं मुझको अचरज से

कैसे अब तक मेरे भीतर बागी ज़िन्दा है

 

लड़ते हैं मौसम से, सिस्टम से मरते दम तक

इसीलिए ज़िन्दा हैं खेत, किसानी ज़िन्दा है

 

सबकुछ बेच रही, मानव से लेकर ईश्वर तक

ऐसे थोड़े ही…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 2, 2015 at 12:34pm — 14 Comments

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