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MUKESH SRIVASTAVA's Blog – November 2014 Archive (3)

साँझ होते ही सो जाता हूँ अतीत की चादर ओढ़ कर,

साँझ होते ही

सो जाता हूँ

अतीत की चादर

ओढ़ कर,

बेसुध

न जाने कब

चादर विरल होने लगती है

इतनी विरल कि

चादर तब्दील हो जाती है

एक खूबसूरत बाग़ में

जिसमे तुम मुस्कुराती हो

फूल बन कर

और मै मंडराता हूँ

भँवरे सा

तुम इठलाती,

इतराती रात भर,

तो कभी ऐसा भी हुआ

जब मै बृक्ष बन उग आता हूँ

और तुम, बेल बन लिपट जाती हो

मै हँसता हूँ तुम मुस्कुराती हो

फिर तुम चाँद बन जाती हो

और मै - चकोर

और मै लगाने लगता…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 25, 2014 at 5:00pm — 9 Comments

मेरे पास, थोडे से बीज हैं

मेरे पास,

थोडे से बीज हैं

जिन्हे मै छींट आता हूं,

कई कई जगहों पे



जैसे,



इन पत्थरों पे,

जहां जानता हूं

कोई बीज न अंकुआयेगा

फिर भी छींट देता हूं कुछ बीज

इस उम्मीद से, शायद

इन पत्थरों की दरारों से

नमी और मिटटी लेकर

कभी तो कोई बीज अंकुआएगा

और बनजायेगा बटबृक्ष

इन पत्थरों के बीच



कुछ बीज छींट आया हूं

उस धरती पे,

जहां काई किसान हल नही चलाता

और अंकुआए पौधों को

बिजूका गाड़ कर

परिंदो से…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 20, 2014 at 3:00pm — 14 Comments

आईना तो सच दिखा रहा था

आईना तो

सच दिखा रहा था

जाला,

हमारी ही आखों में था



दुनिया जिसे

बेदाग़ समझती रही

धब्बा,

उसी केे दामन में था



वो बहुत पहले की बात है

जब लोग

दो रोटी और दो लंगोटी में

खुश रहा करते थे



तुम

ये जो राजपथ देखते हो

कभी वहां पगडंडी

हुआ करती थी

और एक

छांवदार पेड भी हुआ करता था



ये तब की बात है

जब लोग

धन में नही धर्म में

आस्था रखा करते थे



खैर छोडो मुकेश बाबू

इन बातों…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 17, 2014 at 11:00am — 10 Comments

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