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केवल प्रसाद 'सत्यम''s Blog – March 2014 Archive (9)

नवगीत-----झील चुप सी.......!

नवगीत--झील चुप सी.......!

झील चुप सी राह तकती,

नाव डगमग

भाव भर कर

राज सारे पूछती है।

रेत फिसली

तट सॅवर कर,

हाथ पल पल

धो रही नित,

मल घुला जल

विष भरे तन

मीन प्यासी कोसती है।।1



सूर्य किरनों से

पिए नित रक्त

नदियों के बदन का,

धर्म की

पतवार भी अब

तीर सम तन छेदती है।।2



वन-सरोवर

तन उचट कर

छॉंव गिर कर

दूर जाती।

प्रेम का

सम्बन्ध रचकर

सांझ तक मन सोखती…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 30, 2014 at 8:53am — 17 Comments

दोहे.....................मानव !

मानव

मानव इस संसार का, स्वयं बृह्म साकार।

दंगा आतंक द्वेष को, खुद देता आकार।।1

मानव मन का दास है, पल पल रचता रास।

अन्तर्मन को भूल कर, बना लोक का हास।।2

तंत्र-मंत्र मनु सीख कर, चढ़ा व्यास की पीठ।

करूणाकर सम बोलता, इन्द्रराज अति ढीठ।।3

स्वर्ग जिसे दिखता नहीं, वह है दुर्जन धूर्त।

मात-पिता के चरण में, चौदह भू-नभ मूर्त।।4

पाठ पढ़े हित प्रेम का, कर्म करे विस्तार।

ज्ञान सुने ज्ञानी बने, भाव भरें…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 29, 2014 at 8:30pm — 8 Comments

दोहा........राम हुए भव पार

दोहा........

कददू -पूड़ी ही सदा, शुभ मुहुर्त में भोग।

वर्जित अरहर दाल जब, शुभ विवाह का योग।।1

अन्तर्मन की आंख से, देखो जग व्यवहार ।

धोखा पर धोखा सदा, देता यह संसार ।।2

तन मन में सागर भरा, जीव प्राण आाधार।

सम्यक कश्ती साध कर, राम हुए भव पार ।।3

धर्म कर्म अति मर्म से, विषम समय को साध।

मन की माया जीत लें, मिले प्रेम आगाध ।।4

जैसी जिसकी नियति है, तैसा भाग्य लिलार।

लेकिन आत्मा राम नित, सदा करें…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 25, 2014 at 8:30pm — 6 Comments

रेत उड़ती रही धरा बेबस

रेत  उड़ती  रही  धरा  बेबस

गजल -  2122, 1212, 22

पथ के पत्थर कहे परी हो क्या?

ठोकरों से कभी बची हो क्या ?



रात  ठहरी  हुयी   सितारों  में,

दोस्तों, चॉंद की खुशी हो क्या ?



लूटते  रोशनी  अमावस  जो,

दास्तां आज भी सही हो क्या ?



आदमी धर्म - जाति का खंजर,

आग ही आग आदमी हो क्या ?



रोशनी आज भी नहीं आयी,

राह की भीड़ में फसी हो क्या ?



रेत  उड़ती  रही  धरा  बेबस,

अब हवा धूप आदमी हो क्या…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 25, 2014 at 7:20pm — 6 Comments

घनाक्षरी- (कलाधर) -छन्द........होली....!

घनाक्षरी- (कलाधर) -छन्द........होली....!
गुरू लघु गुणे 15 अन्त में एक गुरू कुल 31 वर्ण होते हैं।

अंग अंग में तरंग, बोलचाल में बिहंग, धूप सृष्टि में रसाल, बौर रूप आम है।
रूप रंग बाग लिए, अग्नि बाण ढाक लिए, शम्भु ने कहा अनंग, सौम्य रूप काम है।।
प्राण-प्राण में उमंग, रास रंग में बसंत, ऊंच - नीच, भेद - भाव, टूटता धड़ाम है।
प्रेम का प्रसंग फाग, रंग - भंग भी सुहाग, अंग से मिला सुअंग, हर्ष को प्रणाम है।।

के0पी0सत्यम-मौलिक व अप्रकाशित

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 22, 2014 at 10:30am — 3 Comments

बीज मन्त्र..................!

बीज मन्त्र..................!

दोहा- बीज बीज से बन रहा, बीज  बनाता  कौन?

        बीज सकल संसार ही, बीज मन्त्र बस मौन।।

चौ0- निष्ठुर बीज गया गहरे में। संशय शोक हुआ पहरे में।।

        मां की आखों का वह तारा। दिल का टुकड़ा बड़ा दुलारा।।

        सींचा तन को दूध पिलाकर। दीन धर्म की कथा सुनाकर।।

        बड़े प्रेम से सिर सहलाती। अंकुर की महिमा समझाती।।

        शिशु की गहरी निन्द्रा टूटी। अहं द्वेष माया भी छूटी।।

        अंकुर ने जब ली…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 22, 2014 at 9:30am — 5 Comments

द्वार चार पर उड़े परिन्दे....

नवगीत



जनसंख्या औ

मंहगार्इ बहने,

लम्बी गर्दन में

पहने गहने।।

तंत्र यंत्र सम

चुप्पी साधें,

स्रोत आयकर

रिश्वत मांगें।

शिवा-सिकन्दर

प्याज हुर्इ अब,

साड़ी पर साड़ी है पहने।।1

शासक वर की

पहुंच बड़ी है,

कन्या धन की

होड़ लगी है।

सैलाबों में

त्रस्त हुए शिव,

बेबस जन के टूटे टखने।।2

चोरी-दंगा

व्यभिचारों की,

उत्साहित

बारात सजी…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 5, 2014 at 8:51pm — 8 Comments

देश सोने की चिरैया----

गजल- देश सोने की चिरैया----

जब बुजुर्गों की कमी होने लगी।

गर्म खूं में सनसनी होने लगी।।

नेक है दुनियां वजह भी नेक है,

दौर कलियुग का बदी होने लगी।

धर्म में र्इमान में सच्चे सभी,

घूस-चोरी अब बड़ी होने लगी।

प्यार हमदर्दी करें नेता यहां

सारी बातें खोखली होने लगी।

सिक्ख, हिन्दू और मुस्लिम भार्इ हैं,

घर में दीवारें खड़ी होने लगी।

देश सोने की चिरैया थी कभी,

खा गए चिडि़या गमी होने…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 5, 2014 at 7:37pm — 8 Comments

चॉंद मुस्काता रहा हर रात में

तरही गजल- 2122 2122 212

आग में तप कर सही होने लगी।

प्यार में मशहूर भी होने लगी।।

जब कभी यादों के मौसम में मिली,

राज की बातें तभी होने लगी।

तुम बहारों से हॅंसीं हस्ती हुर्इं,

आँंख में घुलकर नमी होने लगी।

उम्र से लम्बी सभी राहें कठिन,

पास ही मंजिल खुशी होने लगी।

तुम नजर भी क्या मिलाओगी अभी,

शाम सी मुश्किल घड़ी होने लगी।

चॉंदनी अब चांद से मिलती नहीं,

खौफ हैं बादल…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 1, 2014 at 6:53pm — 6 Comments

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