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Nilesh Shevgaonkar's Blog (182)

ग़ज़ल नूर की - तमन्नाओं को फिर रोका गया है

तमन्नाओं को फिर रोका गया है

बड़ी मुश्किल से समझौता हुआ है.

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किसी का खेल है सदियों पुराना

किसी के वास्ते मंज़र नया है.

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यही मौक़ा है प्यारे पार कर ले

ये दरिया बहते बहते थक चुका है.

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यही हासिल हुआ है इक सफ़र से  

हमारे पाँव में जो आबला है.

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कभी लगता है अपना बाप मुझ को  

ये दिल  इतना ज़ियादा टोकता है.

.

नहीं है अब वो ताक़त इस बदन में

अगरचे खून अब भी खौलता है.

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हम अपनी आँखों से ख़ुद देख आए

वहाँ बस…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 14, 2021 at 9:00am — 20 Comments

ग़ज़ल नूर की - जिस दिन से इकतरफ़ा रिश्ता टूट गया

जिस दिन से इकतरफ़ा रिश्ता टूट गया 

सुनते हैं वो पागल लड़का टूट गया.

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थामा ही था हाथ तुम्हारा मैंने बस

और अचानक मेरा सपना टूट गया.

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अब ये आँखें कोई ख्वाब नहीं बुनतीं

पिछली नींद में मेरा करघा टूट गया.

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अपने लालच को तुम काबू में रक्खो

वो देखो इक और सितारा टूट गया.

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एक ज़रा सी बात से बातें यूँ बिगडीं

फिर तो जैसे हर समझौता टूट गया.

.

आप अदू से दूर हुए ये नेमत है

बिल्ली की क़िस्मत से छींका टूट गया.

.

कह…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 3, 2021 at 9:30am — 16 Comments

ग़ज़ल नूर की -ख़ुद को ऐसे सँवार कर जागा

ख़ुद को ऐसे सँवार कर जागा

यानी उस को पुकार कर जागा.   

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एक अरसा गुज़ार कर जागा

ख्व़ाब में ख़ुद से हार कर जागा.

.

तेरी दुनिया बहुत नशीली थी

जिस्म को अपने पार कर जागा.

.

आंखें तस्वीर की बिगाड़ी थीं   

उनका काजल सुधार कर जागा.

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ख़ुद-परस्ती में मैं उनींदा था  

फिर अना अपनी मार कर जागा.

.

शम्स ने तीरगी पहन ली थी

सुब’ह चोला उतार कर जागा.

.

रात भर आईने की आँखों में

दर्द अपने उभार कर जागा. …

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Added by Nilesh Shevgaonkar on June 15, 2021 at 9:30am — 8 Comments

ग़ज़ल नूर की - दिल लगाएँ, दिल जलाएँ, दिल को रुसवा हम करें

दिल लगाएँ, दिल जलाएँ, दिल को रुसवा हम करें

चार दिन की ज़िन्दगी में और क्या क्या हम करें?

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एक दिन बौनों की बस्ती से गुज़रना क्या हुआ

चाहने वो यह लगे क़द अपना छोटा हम करें.

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हाथ बेचे ज़ह’न बेचा और फिर ईमाँ बिका  

पेट की ख़ातिर भला अब और कितना हम करें?

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चाहते हैं हम को पाना और झिझकते भी हैं वो  

मसअला यानी है उनका ख़ुद को सस्ता हम करें.

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इक सितम से रू-ब-रु हैं पर ज़ुबां ख़ुलती नहीं

ये ज़माना चाहता है उस का चर्चा हम करें.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on June 8, 2021 at 12:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल नूर की- मेरी आँखों में तुम को ख़ाब मिला?

मेरी आँखों में तुम को ख़ाब मिला?

या निचोडे से  सिर्फ आब मिला.

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सोचने दो मुझे समझने दो

जब मिला बस यही जवाब मिला.

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दिल ने महसूस तो किया उस को   

पर न आँखों को ये सवाब मिला.

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मैकदे में था जश्न-ए-बर्बादी

जिस में हर रिन्द कामयाब मिला.

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इतना अच्छा जो मिल गया हूँ मैं

इसलिए कहते हो “ख़राब मिला.”

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“नूर” चलने से पहले इतना कर

अपने हर कर्म का…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 31, 2020 at 10:01am — 12 Comments

ग़ज़ल- नूर की .. शेख़ ओ बरहमन में यारी रहेगी

जो शेख़ ओ बरहमन में यारी रहेगी

जलन जलने वालों की जारी रहेगी.

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मियाँ जी क़वाफ़ी को समझे हैं नौकर  

अना का नशा है ख़ुमारी रहेगी.  

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गले में बड़ी कोई हड्डी फँसी है

अभी आपको बे-क़रारी रहेगी.

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हुज़ूर आप बंदर से नाचा करेंगे

अकड आपकी गर मदारी रहेगी.

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हमारे ये तेवर हमारे रहेंगे

हमारी अदा बस हमारी रहेगी.

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हुज़ूर इल्तिजा है न हम से उलझिये

वगर्ना यूँ ही दिल-फ़िगारी रहेगी.

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ग़ज़ल “नूर” तुम पर न ज़ाया करेंगे …

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 29, 2020 at 6:00pm — 14 Comments

ग़ज़ल नूर की- जिन की ख़ातिर हम हुए मिस्मार; पागल हो गये

जिन की ख़ातिर हम हुए मिस्मार; पागल हो गये

उन से मिल कर यूँ लगा बेकार पागल हो गये.

.

सुन के उस इक शख्स की गुफ़्तार पागल हो गये

पागलों से लड़ने को तैयार पागल हो गये.

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छोटे लोगों को बड़ों की सुहबतें आईं  न रास

ख़ुशबुएँ पाकर गुलों से ख़ार पागल हो गये.

.

थी दरस की आस दिल में तो भी कम पागल न थे

और जिस पल हो गया दीदार; पागल हो गये.

.

एक ही पागल था मेरे गाँव में पहले-पहल

रफ़्ता रफ़्ता हम सभी हुशियार पागल हो गये.

.

इल्तिजा थी…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 15, 2020 at 3:00pm — 13 Comments

ग़ज़ल नूर की- ख़ूब इतराते हैं हम अपना ख़ज़ाना देख कर

ख़ूब इतराते हैं हम अपना ख़ज़ाना देख कर

आँसुओं पर तो कभी उन का मुहाना देख कर.

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ग़ैब जब बख्शे ग़ज़ल तो बस यही कहता हूँ मैं  

अपनी बेटी दी है उसने और घराना देख कर. 

.

साँप डस ले या मिले सीढ़ी ये उस के हाथ है,

हम को आज़ादी नहीं चलने की ख़ाना देख कर.

.

इक तजल्ली यक-ब-यक दिल में मेरे भरती गयी

एक लौ का आँधियों से सर लड़ाना देख कर.

.

ऐसे तो आसान हूँ वैसे मगर मुश्किल भी हूँ

मूड कब…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 3, 2020 at 12:37pm — 8 Comments

ग़ज़ल नूर की- तुम्हें लगता है रस्ता जानता हूँ

तुम्हें लगता है रस्ता जानता हूँ

मगर मैं सिर्फ चलना जानता हूँ.

.

तेरे हर मूड को परखा है मैंने

तुझे तुझ से ज़ियादा जानता हूँ.

.

गले मिलकर वो ख़ंजर घोंप देगा

ज़माने का इरादा जानता हूँ.

.

मैं उतरा अपने ही दिल में तो पाया  

अभी ख़ुद को ज़रा सा जानता हूँ.

.

बहा लायी है सदियों की रवानी

मगर अपना किनारा जानता हूँ.

.

बता कुछ भी कभी माँगा है तुझ से?

मैं अपना घर चलाना जानता हूँ.      

.

निलेश…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on September 30, 2020 at 1:46pm — 8 Comments

ग़ज़ल नूर की - तर्क-ए-वफ़ा का जब कभी इल्ज़ाम आएगा

तर्क-ए-वफ़ा का जब कभी इल्ज़ाम आएगा

हर बार मुझ से पहले तेरा नाम आएगा.

.

अच्छा हुआ जो टूट गया दिल तेरे लिए

वैसे भी तय नहीं था कि किस काम आएगा.

.

अब रात घिर चुकी है इसे लौट जाने दे

यादों का क़ाफ़िला तो हर इक शाम आएगा.`

`

उर्दू की बज़्म में कभी हिन्दी चला के देख

तेरे कलाम में नया आयाम आएगा.

.

उस सुब’ह धमनियों में ठहर जाएगा ख़िराम  

जिस भोर मेरे नाम का पैग़ाम…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on September 27, 2020 at 12:00pm — 10 Comments

ग़ज़ल नूर की -वो कहता है मेरे दिल का कोना कोना देख लिया

वो कहता है मेरे दिल का कोना कोना देख लिया

तो क्या उस ने तेरी यादों वाला कमरा देख लिया?

.

वैसे उस इक पल में भी हम अपनों ही की भीड़ में थे

जिस पल दिल के आईने में ख़ुद को तन्हा देख लिया.

.

उस के जैसा दिल तो फिर से मिलता हम को और कहाँ

सो हमने इक राह निकाली, मिलता जुलता देख लिया.

.

मैख़ाने में एक शराबी अश्क मिलाकर पीता है

यादों की आँधी ने शायद उसे अकेला देख लिया.

.

महशर पर हम उठ आए उस की महफ़िल से ये कहकर

तेरी दुनिया तुझे मुबारक़!…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on September 14, 2020 at 5:30pm — 15 Comments

ग़ज़ल नूर की- तू ये कर और वो कर बोलता है.

तू ये कर और वो कर बोलता है.

न जाने कौन अन्दर बोलता है

.

मेरे दुश्मन में कितनी ख़ामियाँ हैं

मगर मुझ से वो बेहतर बोलता है.

.

जुबां दिल की; मेरे दिल से गुज़रकर

मेरे दुश्मन का ख़ंजर बोलता है.

.

मैं कट जाऊं मगर झुकने न देना

मेरे शानों धरा सर बोलता है.

.

मैं हारा हर लड़ाई जीत कर भी

जहां सुन ले! सिकंदर बोलता है.

.

बहुत भारी पडूँगा अब कि तुम पर

अकेलों से दिसम्बर बोलता है.

.

नया मज़हब नई दुनिया बनाओ

ये…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on November 30, 2019 at 11:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल नूर की - उन  के बंटे जो  खेत तो  कुनबे बिखर गए

उन  के बंटे जो  खेत तो  कुनबे बिखर गए,

पंछी जो उड़ चले तो घरौंदे बिख़र गए.

.

सरहद पे गोलियों ने किया रक्स रात भर,

कितने घरों के नींद में सपने बिखर गए.

.

यादों की आँधियों ने रँगोली बिगाड़ दी

बरसों जमे हुए थे वो चेहरे बिखर गए.

.

समझा था जिस को चोर गदागर था वो कोई

ली जब तलाशी रोटी के टुकड़े बिखर गए.

.

तुम जो सँवार लेते तो मुमकिन था ये बहुत

उतना नहीं बिखरते कि जितने बिखर गए .

.

मुझ में कहीं छुपे थे अँधेरों के क़ाफ़िले…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on November 16, 2019 at 8:30pm — 13 Comments

ग़ज़ल नूर की- लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना

लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना

जाने अब कैसे कटेंगी सर्दियाँ तेरे बिना.

.

फैलता जाता है तन्हाई का सहरा ज़ह’न में

सूखती जाती हैं दिल की क्यारियाँ तेरे बिना.

.

साथ तेरे जो मुसीबत जब पड़ी, आसाँ लगी

हो गयीं दुश्वार सब आसानियाँ तेरे बिना.

.

तू कहीं तो है जो अक्सर याद करता है मुझे

क्यूँ सताती हैं वगर्ना हिचकियाँ तेरे बिना?

.

वक़्त लेकर जा चुका आँखों से ख़ुशियों के गुहर   

अब भरी हैं ख़ाक से ये सीपियाँ तेरे बिना.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on July 2, 2019 at 7:30am — 7 Comments

ग़ज़ल नूर की- सोचिये फिर डूबने में कितनी आसानी रहे

.

सोचिये फिर डूबने में कितनी आसानी रहे

उनकी आँखों में जो मेरे वास्ते पानी रहे.

.

मैं किसी को जोड़ने में घट भी जाऊँ ग़म न हो

ज़िन्दगानी के गणित में इतनी नादानी रहे.

.

क़त्ल होते वक़्त भी मैं मुस्कुराता ही रहूँ

ताकि क़ातिल को मेरे ता-उम्र हैरानी रहे.

.

क़ाफ़िला यादों का गुज़रे रेगज़ार-ए-दिल से जब

आँखों में लाज़िम है सारी रात तुग़्यानी रहे.

.

क्यूँ भला सोचूँ वो दुश्मन है मेरा या कोई दोस्त

मैं रहूँ…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on November 2, 2018 at 6:45pm — 29 Comments

ग़ज़ल नूर की- सँभाले थे तूफ़ाँ उमड़ते हुए

सँभाले थे तूफ़ाँ उमड़ते हुए

मुहब्बत से अपनी बिछड़ते हुए.

.

समुन्दर नमाज़ी लगे है कोई

जबीं साहिलों पे रगड़ते हुए.

.

हिमालय सा मानों कोई बोझ है

लगा शर्म से मुझ को गड़ते हुए.

.

“हर इक साँस ने”; उन से कहना ज़रूर  

उन्हें ही पुकारा उखड़ते हुए.  

.

हराना ज़माने को मुश्किल न था  

मगर ख़ुद से हारा मैं लड़ते  हुए.

.

ज़रा देर को शम्स डूबा जो “नूर”

मिले मुझ को जुगनू अकड़ते हुए.

.

निलेश "नूर"

मौलिक/…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 28, 2018 at 10:30am — 22 Comments

ग़ज़ल नूर की - मुझ को कहा था राह में रुकना नहीं कहीं

मुझ को कहा था राह में रुकना नहीं कहीं

सदियों को नाप कर भी मैं पहुँचा नहीं कहीं.

.

ज़ुल्फ़ें पलक दरख़्त सभी इक तिलिस्म हैं

इस रेग़ज़ार-ए-ज़ीस्त में साया नहीं कहीं.

.

तुम क्या गए तमाम नगर अजनबी हुआ

मुद्दत हुई है घर से मैं निकला नहीं कहीं.

.

अँधेर कैसा मच गया सूरज के राज में

जुगनू, चराग़ कोई सितारा नहीं कहीं.

.

खेतों को आस थी कि मिटा देगा तिश्नगी

गरजा फ़क़त जो अब्र वो बरसा नहीं कहीं.

.

ये और बात है कि अदू को चुना गया…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 23, 2018 at 12:00pm — 18 Comments

ग़ज़ल नूर की - रफ़्ता रफ़्ता अपनी मंज़िल से जुदा होते गए

रफ़्ता रफ़्ता अपनी मंज़िल से जुदा होते गए,

राह भटके लोग जिनके रहनुमा होते गए.

.

तज़र्बे मिलते रहे कुछ ज़िन्दगी में बारहा

कुछ तो मंज़िल बन गए कुछ रास्ता होते गए.

.  

चुस्कियाँ ले ले के अक्सर मय हमें पीती रही  

वो नशा होती गयी हम पारसा होते गए.

.

उन चिराग़ों के लिए सूरज ने माँगी है दुआ

सुब्ह तक जलते रहे जो फिर हवा होते गए.

.

ज़िन्दगी की राहों पर जब धूप झुलसाने लगी

पल तुम्हारे साथ जो गुज़रे घटा होते गए.

.

फिर मुहब्बत के सफ़र…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on August 8, 2018 at 1:46pm — 14 Comments

ग़ज़ल-ग़ालिब की ज़मीन पर

था उन को पता अब है हवाओं की ज़ुबाँ और

उस पर भी रखे अपने चिराग़ों ने गुमाँ और. 

.

रखता हूँ छुपा कर जिसे, होता है अयाँ और 

शोले को बुझाता हूँ तो उठता है धुआँ और

.

ले फिर तेरी चौखट पे रगड़ता हूँ जबीं मैं  

उठकर तेरे दर से मैं भला जाऊँ कहाँ और?

.

इस बात पे फिर इश्क़ को होना ही था नाकाम    

दुनिया थी अलग उन की तो अपना था जहाँ और.

.

आँखों की तलाशी कभी धडकन की गवाही 

होगी तो अयाँ होगा कि क्या क्या है निहाँ और.

.

करते हैं…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 13, 2018 at 9:12am — 13 Comments

ग़ज़ल नूर की -कब है फ़ुर्सत कि तेरी राहनुमाई देखूँ?

कब है फ़ुर्सत कि तेरी राहनुमाई देखूँ?

मुझ को भेजा है जहाँ में कि सचाई देखूँ.

.

ये अजब ख़ब्त है मज़हब की दुकानों में यहाँ

चाहती हैं कि मैं ग़ैरों में बुराई देखूँ.

.

उन की कोशिश है कि मानूँ मैं सभी को दुश्मन

ये मेरी सोच कि दुश्मन को भी भाई देखूँ.

.

इन किताबों पे भरोसा ही नहीं अब मुझ को,   

मुस्कुराहट में फ़क़त उस की लिखाई देखूँ.

.

दर्द ख़ुद के कभी गिनता ही नहीं पीर मेरा  

मुझ पे लाज़िम है फ़क़त पीर-पराई देखूँ.

.

अब कि बरसात में…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 10, 2018 at 8:43pm — 12 Comments

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