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बृजेश कुमार 'ब्रज''s Blog (106)

ग़ज़ल....अब कहाँ गुम हुये आसरे भीड़ में

212 212 212 212

अब कहाँ गुम हुये आसरे भीड़ में

चलते चलते कदम रुक गये भीड़ में



मुख़्तलिफ़ दर्द में हम पुकारा किये

घुट गयी आह थे कहकहे भीड़ में



बाँह को थामकर हमने रोका बहुत

तुम गये भीड़ में खो गये भीड़ में



है सभी का मुकददर परेशानियाँ

दे किसे कौन अब मशविरे भीड़ में



मुंतज़िर हैं बड़े दिल ए नाशाद के

अनकहे प्यार के फलसफे भीड़ में



दिल के ज़ज्बात 'ब्रज' रायगाँ मत करो

फिर रहे हैं कई मसखरे भीड़ में

(मौलिक एवं… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 19, 2017 at 7:30pm — 6 Comments

हिन्दी गीतिका...​साँसों का तरपन कर दूँ

22 22 22 22 22 22 22

रम जाओ अंतस में जीवन मधुरम चन्दन कर दूँ

जो तुम झाँको आँखों में आँखों को दरपन कर दूँ



तुम बिन जीवन मिथ्या है साँसों का आना जाना

बस जाओ मम साँसों में साँसों को अरपन कर दूँ



कल देखा था ख्वाबों में दुल्हन सी तुम मुस्काईं

पलकों में आ बस जाओ सपनों का तरपन कर दूँ



प्यासी धरती प्यासा अम्बर प्यासा है उर आँगन

छा जाओ बन के बदली मरुथल को मधुबन कर दूँ



​​पलकों में आकुल आँसू बहने को व्याकुल आँसू

बन साथी झरते आँसू पतझर… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 5, 2017 at 7:34pm — 8 Comments

ग़ज़ल...आँसू तभी छलक पड़े बेबस किसान के

221 2121 1221 212
.
ये बेरुखी ये ज़ुल्म सितम आसमान के
आँसू तभी छलक पड़े बेबस किसान के

दिल में छुपा लिये थे सभी गम जहान के
रुख पे नुमायाँ हो गए लम्हे थकान के

वीरां है मुददतों से मगर टूटता नहीं
ये हौंसले तो देखिये जर्जर मकान के

है मजहबी अलाव, सुलगते सभी बशर
बदहाल गाँव घर हुए भारत महान के

वो अनमनी सबा, हुआ रंजूर ये चमन
निकली लवों से आह किसी बेजुबान के
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 26, 2017 at 9:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल....मुहब्बत आह भरती है इबादत हार जाती है

1222 1222 1222 1222

सदा पत्थर से टकरा कर मेरी बेकार जाती है

मुहब्बत आह भरती है इबादत हार जाती है



हमारे दर्द के किस्से बराए आम हैं कब से

तुम्हारे आसरों तक भी कुई चीत्कार जाती है ?



अज़ब सी बहशतों में आजकल डूबा हुआ है दिल

सँभालूँ जो मैं दरवाजा दरक दीवार जाती है



जरा सा रोक लो ये गम जरा सीं राहतें दे दो

मुसलसल बेरुखी भी अब ह्रदय के पार जाती है



तुम्हें भी इल्म हो जायेगा तुम भी जान जाओगे

क्षितिज के पार सच्चे इश्क़ की झनकार जाती… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 14, 2017 at 5:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल...गम जहाँ के पहलू में दो चार आ कर बैठ गए

फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन

2122 2122 2122 212

गम जहाँ के पहलु में दो चार आ कर रुक गये

हम उसी दोराहे पे तब सकपका कर रुक गये



रहगुज़र तपती हुई होती बसर भी कब तलक

दर्द था इफरात में वो छटपटा कर रुक गये



ये अदा भी खूब है उस संगदिल महबूब की

बिन बताये दिल में आये मुस्कुरा कर रुक गये



ज़ुस्तज़ू दीदार की होती मुकम्मल किस तरह

वो अदा से ओढ़ कर घूँघट लजा कर रुक गये



है फ़ज़ाओं में खबर गुजरेंगे वो इस राह से

मोड़ पर हम सर झुका आँखें… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 3, 2017 at 8:30pm — 26 Comments

ग़ज़ल...पत्ते चिनारों के

बहरे हज़ज़ सालिम मुसम्मन

1222 1222 1222 1222

सुनाऊँ किस तरह किस्से बता दे खाकसारों के

चली ऐसी हवा की झर गये पत्ते चिनारों के



हुईं क्या हैं खतायें आसमां से चाँद ने पूँछा

कि सारी रात क्यों बहते रहे आँसू सितारों के



तुम्हारे साथ लौटी है दरो दीवार पर रौनक

तड़फते रह गये हैं नीव के पत्थर मिनारों के



चमन के सुर्खरू मंज़र घुली खुशबू फिजाओं में

ये क्या दस्तूर है की देखना अब गम बहारों के



वहीँ खुशियाँ वहीँ पे गम अज़ब आलम विदाई का

शिकन… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 21, 2017 at 9:30am — 16 Comments

कविता..मेरे मुस्कुराने का कारण हो तुम

मेरे मुस्कुराने का कार हो तुम

तन्हाई में गुनगुनाने का कार हो

तपती दोपहर में बरसते सावन में

भीड़ में और दूर तलक

वीरान उदास राहों में

कभी फूलों भरी और

कभी छितराए हुए काँटों में

बेपरवाह चलते जाने का कार हो

जब कभी तन्हाई मुझे सताती है

दिल को झकझोरती है और

आत्मा को जलाती है

लेकिन वो भूल जाती है

उसके साथ-साथ तुम्हारी याद

हर लम्हा मुझे सहलाती है

और अहसास ये होता

तुम मेरे साथ हो…

Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 15, 2017 at 5:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल...बे-रंग-ओ-बू है ये ज़िंदगानी

121 22 121 22 121 22 121 22

बशर परेशां दरकतीं राहें पहाड़ सी ज़िन्दगी हुई है

कदम जहाँ सकपका के रक्खा वहीँ ज़मीं दलदली हुई है



बे-रंग-ओ-बू है ये ज़िंदगानी हँसी सा कोई मक़ाम दे दो

कि ये उदासी मेरे लवों पे कई दिनों से बसी हुई है



जिन्हें संभाला जिन्हें सँवारा वो ख्वाब जाने क्यों रूठ बैठे

सुबह से पलकों पे ओस आई औ आँख भी शबनमी हुई है



कफ़स से तो हम निकाल लाये मगर छुपाया ज़माने भर से

कि शूल बन कर वही सदा अब ह्रदय के अन्दर चुभी हुई है



अज़ब… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 5, 2017 at 9:30am — 23 Comments

ग़ज़ल...ओ चन्दा

22 22 22 22 22 2
दिल की बात उन्हें समझाना ओ चन्दा
गुजरी कैसे रात बताना ओ चन्दा

छाँव तले तेरी निकलेंगे जब भी वो
मखमल से ज़ज़्बात बिछाना ओ चन्दा

आह भरे ख़ामोशी तन्हा रातों में
सोये हैं अरमान जगाना ओ चन्दा

आयेगा वो मीत जरा शर्मीला है
बदरी बीच तनिक छुप जाना ओ चन्दा

थम जाऊँ मैं हर आहट पे ,चौंक उठूँ
'ब्रज' के सब हालात सुनाना ओ चन्दा

(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 17, 2016 at 5:09pm — 8 Comments

ग़ज़ल...भुलाने में मुझको ज़माने लगेंगे

बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम

फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन् फऊलुन्

122 122 122 122

वो पलछिन सभी याद आने लगेंगे

भुलाने में मुझको ज़माने लगेंगे



यहाँ बैठ कर हमने खाई हैं कसमें

ये पत्थर सनम गुनगुनाने लगेंगे



यूँ ही रूठने मान जाने के मंजर

यकीं मानिये सब सुहाने लगेंगे



सरे आइना जो मेरा अक्स होगा

वो दर्पन से नजरें चुराने लगेंगे



सखी हाल दिल का कभी पूँछ लेगी

कभी हाले दिल आजमाने लगेंगे



(मौलिक एवं अप्रकाशित)

बृजेश कुमार… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 20, 2016 at 4:30pm — 16 Comments

ग़ज़ल...तड़प बेबसी बेमुरब्बत की बातें

इस्लाह के लिए



बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम

फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फऊलुन्

122  122   122   122

तड़प बेबसी बेमुरब्बत की बातें

न हमसे करो ये मुहब्बत की बातें



बयां है तुम्हारी अदब बामुल्ह्जा

कहानी सितम औ नजाकत की बातें



फँसाना ए उल्फत दफ़न सरज़मीने

परिष्तिश ए बुत ये इबादत की बातें



न बाकी अमन भाई चारे के रिश्ते

नजर आए हर सू अदावत की बातें



बसर इस तरह है सफ़र मुफलिसी का

ज़लालत के किस्से हिकारत की बातें

(मौलिक एवं… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 29, 2016 at 12:00am — 2 Comments

ग़ज़ल....ऐ मुहब्बत मैं तेरा सजदा करूँ

बहरे रमल मुसद्दस् महज़ूफ़
फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
2122 2122 212
ऐ मुहब्बत मैं तेरा सजदा करूँ
रुख बदलती ज़िन्दगी है क्या करूँ

मोड़ पे रुकना पलट कर देखना
हाय उनकी सादगी का क्या करूँ

कुछ घड़ी बैठो हमारे रूबरू
भूल कर जग को तुम्हें देखा करूँ

थरथराती धड़कनों को थाम लो
दर्द को रख ताक पर जलसा करूँ

दूरियाँ हों लाख पर मुमकिन नहीं
नाम लूँ उनका उन्हें रुसवा करूँ

(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 23, 2016 at 12:14am — 8 Comments

ग़ज़ल...हादसा गुजर गया

बहरे हज़ज़ मुसम्मन मक्बुज.....

मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन  मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन 

1212      1212       1212      1212

सरे निगाह शाम से ये क्या नया ठहर गया 

​​कदम बढ़ा सके न थे कि हादसा गुजर गया

ये कौन सीं हैं मंजिलें ये क्या गज़ब है आरजू 

जिसे सँभाल कर रखा वही समा बिखर गया

अभी है वक़्त बेवफा अभी हवा भी तेज है 

अभी यहीं जो साथ था वो हमनवा किधर गया

ये वादियाँ ये बस्तियाँ ये महफ़िलें ये रहगुजर 

हज़ार गम गले पड़े…

Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 12, 2016 at 9:53pm — 8 Comments

ग़ज़ल ....हर सू तुम्हारा नाम है आ जाइये

2212       2212      2212

ढलती सुहानी शाम है आ जाइये 
हर सू तुम्हारा नाम है आ जाइये

ये वादियाँ ये खुश्बुएं हैरान हैं 
हर फूल पे इल्जाम है आ जाइये

कैसी चुभन है ये दिले नासाज़ की
दिल टूटना तो आम है आ जाइये

उजड़ा हुआ है मुद्दतों से आशियाँ
सूनी तभी से बाम है आ जाइये

नासूर बन जो रूह पे आयद हुआ 
उस ज़ख्म का पैगाम है आ जाइये

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

©बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 2, 2016 at 3:00pm — 14 Comments

ग़ज़ल...आँसुओं की आँख से सौगात बैरन आ गई

2122     2122     2122      212

तुम पिया आये नहीं बरसात बैरन आ गई 

दिन गुजारा बेबसी में रात बैरन आ गई

था हवाओं ने कहा मनमीत का सन्देश है 

ले जुदाई बेशरम की बात बैरन आ गई

ढोल ताशे बज उठे हैं गूंजती शहनाइयाँ 

हाय रे महबूब की बारात बैरन आ गई

मुट्ठियों में दिल समेटा होंठ भी भींचे खड़े 

आँसुओं की आँख से सौगात बैरन आ गई

भाइचारा भूल जाओ अब मियाँ तकरीर में 

धर्म मजहब आदमी की जात बैरन आ…

Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 13, 2016 at 8:00pm — 12 Comments

ग़ज़ल....ख्वाब सारे अनमने हैं

​2122        2122        2122
बेदिली के अनवरत ये सिलसिले हैं
इसलिये तो ख्वाब सारे अनमने हैं

बाद मुद्दत के सफ़र आया वतन तो
थे बशर बिखरे हुये घर अधजले हैं

बादलों औ बारिशों ने साजिशें कीं 
भूख की संभावनायें सामने हैं

अस्ल ए इंसानियत मजबूत रक्खो
हर कदम पे ज़िन्दगी में जलजले हैं

इस शहर में चीखने से कुछ न होगा
गूंगी जनता शाह भी बहरे हुये हैं

(​मौलिक एवं अप्रकाशित)

बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 27, 2016 at 12:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल...कहीं से तुम चले आओ

1222         1222         1222        1222



तड़फते हैं सभी मंज़र कहीं से तुम चले आओ

​हवा की पालकी लेकर कहीं से तुम चले आओ 



खमोशी रात की औ दूर तक तन्हाई का आलम

रुके से जल में है कंकर कहीं से तुम चले आओ



क्षितिज के पार से किरणें सुहानी मुस्कुराईं यूँ

चुभे ज्यूँ रूह में खंजर कहीं से तुम चले आओ



मिटाने से नहीं मिटता ये रिश्ता आसमानी है

रहेगा जन्म जन्मान्तर कहीं से तुम चले आओ



अज़ब सी बेबसी हर सूं सफ़र भी कातिलाना…

Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 6, 2016 at 10:00pm — 4 Comments

ग़ज़ल ...... ये चुप्पी

1222       1222       1222       1222

​जहाँ के गम तुम्हें देगी किसी भी रोज ये चुप्पी 

तुम्हारी जान ले लेगी किसी भी रोज ये चुप्पी

चलो माना ये चुप रहने से हल होंगे कई मुददे

कि सारे राज खोलेगी किसी भी रोज ये चुप्पी

जो रखते हैं लगा के होंठ पे ताले रिवाजों के 

जुबां से उनके बोलेगी किसी भी रोज ये चुप्पी

तमस की आँधियों ने बाग को बर्बाद कर डाला 

नयन अपने भिंगोयेगी किसी भी रोज ये…

Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 26, 2016 at 10:00am — 9 Comments

ग़ज़ल ....ढलने चला सूरज अभी बढ़ने लगी परछाइयाँ

​गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल ​

2212       2212       2212       2212

भरने लगीं आँहें तड़फ के संगदिल तनहाइयाँ 

ढलने चला सूरज अभी बढ़ने लगी परछाइयाँ 

थीं कोशिशें की थाम लें उड़ता हुआ दामन तेरा 

पर मुददतों से फासले पसरे हुये हैं दरमियाँ 

ये कौन सा माहौल है ये वादियाँ हैं कौन सीं ?

हर ओर सन्नाटा ज़हन में चीखतीं खामोशियाँ 

तुमभी परेशां हो बड़े दिल की खलाओं से अभी 

छू कर तुझे आईं हवायें करती हैं…

Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 12, 2016 at 5:13pm — 4 Comments

ग़ज़ल.....अब आजमा लें दर्द को

इस्लाह के लिए विशेषकर काफ़िए को लेकर मन में शंकायें हैं 

2122       2122       2122       212

​क्यों नहीं अपनी रगों से हम निकालें दर्द को

है ग़मों की इन्तहां अब आजमा लें दर्द को

बात पहले प्यार से फिर भी नहीं जो मानता 

गेंद की तरहा हवा में फिर उछालें दर्द को

गर ग़मों की चाहतें हैं ज़िन्दगी भर साथ की 

हमसफ़र अपना बना उर में छुपा लें दर्द को

नफरतों के राज में क्या रीत…

Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 2, 2016 at 8:36pm — 12 Comments

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