दोहे -पिता
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पिता एक उम्मीद सह, हैं जीवन की आस
वो हिम्मत परिवार की, हैं मन का विश्वास।१।
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जीवन जग में तात ही, केवल ऐसा गाँव
सघन शीत जो धूप दें, और धूप में छाँव।२।
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जो करते सुत को सरल, जीवन की हर राह
अनुभव से अर्जित हमें, देकर सीख अथाह।२।
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डाँट-डपट करते भले, भोर, दिवस या रात
सम्बल सबके पर रहे, कठिन समय में तात।४।
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नित सुख में परिवार हो, होती मन में चाह
हँसते -हँसते झेलते, इस को पीर अथाह।५।
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पत्थर से व्यवहार…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 18, 2022 at 3:53pm — 4 Comments
(1)
सुनी सुनाई बात पर, मत करना विश्वास ।
चक्कर में गौमूत्र के, थम ना जाए श्वास ।।
(2)
कोरोना से तेज अब, फैल रही अफ़वाह ।
सोच समझ कर पग रखो, कठिन बहुत है राह ।।
(3)
कोरोना के संग यदि, लड़ना है अब जंग ।
धरना-वरना बस करो, बंद करो सत्संग ।।
(4)
साफ सफाई स्वच्छता, सजग रहें दिन रात ।
दें साबुन से हाथ धो, कोरोना को मात ।
(5)
मुश्किल के इस दौर में, मत घबराओ यार ।
बस वैसा करते रहो, जो कहती सरकार ।।
(मौलिक एवं…
ContinueAdded by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 20, 2020 at 10:00am — 4 Comments
जले दिवस भर धूप में, चलते - चलते पाँव
क्यों ओ! प्यारी शाम तुम, जा बैठी हो गाँव।१।
रोज शाम को झील पर, आओ प्यारी शाम
गोद तुम्हारी सिर रखूँ, कर लूँ कुछ आराम।२।
जब तक हो यूँ पास में, तुम ओ! प्यारी शाम
थकन भरे हर पाँव को, मिल जाता आराम।३।
बेघर पन्छी डाल पर, बैठा है उस पार
आयी प्यारी शाम है, खोलो कोई द्वार।४।
कितनी प्यारी शाम है, इत उत फैली छाँव
निकले चादर छोड़ कर, जी बहलाने पाँव।५।
आयी प्यारी शाम…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 19, 2019 at 6:00am — 10 Comments
दोहे
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वो तो बढ़चढ़ बाँटते, नफरत जिसका नाम
जन्नत में सद्भावना, शेष वतन का काम।१।
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वैसे तो हम सब रहे, विविध रंग के फूल
किन्तु सूख अब हो गये, जैसे तीखे शूल।२।
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पड़े जंग आतंक की, निसदिन जिन पर मार
उन्हें जिन्दगी फिर लगे, बोलो क्यों ना भार।३।
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तन से तो अब देश में, बिलय हुआ कश्मीर
मन से भी जब हो बिलय, बदलेगी तस्वीर।४।
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बिस्थापित थे जो हुये, समझो उनकी पीर
जा पायें निज ठाॅ॑व वो, कश्मीरी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 12, 2019 at 6:55am — No Comments
गाँव के दोहे
संगत में जब से पड़ा, सभ्य नगर की गाँव
अपना घर वो त्याग कर, चला गैर के ठाँव।१।
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मिलना जुलना बतकही, पनघट पर थी खूब
सब अपनापन मर गया, मोबाइल में डूब।२।
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बिछी सड़क कंक्रीट की, झुलसे जिसमें पाँव
पीपल कटकर गुम हुये, कौन करे फिर छाँव।३।
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सेज माल के वास्ते, कटे खेत खलिहान
जिससे लोगों मिट गयी, गाँवों की पहचान।४।
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सड़क योजना खा गयी, पगडंडी हर ओर
पहले सी होती नहीं, अब गाँवों की…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 5, 2019 at 8:36am — 10 Comments
कभी किसी को ना करे, भूख यहाँ बेहाल
रोटी सब दो जून की, पाकर हों खुशहाल।१।
मुश्किल से दो जून की, रोटी आती हाथ
खाने को यूँ आज तो, मिल बैठो सब साथ।२।
रोटी को दो जून की, अजब गजब से खेल
इसकी खातिर जग करे, दुश्मन से भी मेल।३।
रोटी को दो जून की, क्या ना करते लोग
झूठ ठगी दैहिक व्यसन, सब इसके ही योग।४।
रोटी बिन दो जून की, बिलखाती है भूख
रोटी पा दो जून की, ढूँढें लोग रसूख।५।
सदा भाग्य ने है लिखा,…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 11, 2019 at 4:30pm — 6 Comments
नेताओं की मौज है, राजनीति के गाँव
छाले लेकर घूमती, जनता दोनों पाँव।१।
सत्ता बाहर सब करें, यूँ तो हाहाकार
पर मनमानी नित करें, बनने पर सरकार।२।
जन की चिंता कब रही, धन की चिंता छोड़
कौन मचाये लूट बढ़, केवल इतनी होड़।३।
कत्ल,डैकेती,अपहरण, करके लोग हजार
सिखा रहे हैं देश को, हो कैसा व्यवहार।४।
साठ बरस पहले जहाँ, मुद्दा रहा विकास
आज वही संसद करे, बेमतलब बकवास।५।
राजनीति में आ बसे, अब तो खूब…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 17, 2018 at 1:04pm — 4 Comments
सुखिया को संसार में, सब कुछ मिलता मोल
पर दुखिया के वास्ते, सकल जिन्दगी झोल।१।
हर देहरी पर चाह ले, आँगन बैठे लोग
भूखों को दुत्कार नित, मंदिर मंदिर भोग।२।
पाले कैसी लालसा, हर मानव मजबूर
हुआ पड़ोसी पास अब, सगा सहोदर दूर।३।
बिकने को कोई बिके, पर ये दुख का योग
औने-पौने बिक रहे, ऊँचे कद के लोग।४।
घुट्टी में सँस्कार की, अब क्या क्या खास
रिश्तों से आने लगी, अब जो खट्टी बास।५।
मौलिक व…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 19, 2018 at 5:28pm — 12 Comments
हाथ लगा जो गाल पर, पटकेंगे धर केश ।
दुनिया संग बदल रहा, गाँधी का ये देश।।
नैतिकता का पाठ अब, पढ़े-पढ़ाये कौन ?
मात-पिता-बच्चे सभी, ले मोबाइल मौन।।
'तुम' धन 'मैं' जब 'हम' हुए, दोनों हुए विशेष।
'हम' ऋण 'तुम' जैसे हुए, नहीं बचा अवशेष ।।
रीति जहां की देख कर, मन चंचल, मुख मौन।
मतलब के सधते सभी, पूछें तुम हो कौन ?
छप कर बिकता था कभी, जिंदा था आचार।
जबसे बिक छपने लगा, मृत लगते अखबार।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 5, 2018 at 9:51pm — 13 Comments
करे सुबह से शाम तक, काम भले भरपूर।
निर्धन का निर्धन रहा, लेकिन हर मजदूर।१।
कहने को सरकार ने, बदले बहुत विधान।
शोषण से मजदूर का, मुक्त कहाँ जहान।२।
हरदम उसकी कामना, मालिक को आराम।
सुनकर अच्छे बोल दो, करता दूना काम।३।
वंचित अब भी खूब है, शिक्षा से मजदूर।
तभी झेलता रोज ही, शोषण हो मजबूर।४।
आँधी वर्षा या रहे, सिर पर तपती धूप।
प्यास बुझाने के लिए, खोदे हर दिन कूप।५।
पी लेता दो घूँट मय, तन जब थककर…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2018 at 7:39pm — 13 Comments
सूँघा हमने फूल को, महज समझ कर फूल
था कागज का तो मना, अपना 'अप्रैल फूल'।१।
हम में दस ही मूर्ख हैं, नब्बे हैं हुशियार
लेकिन ये दस कर रहे, हर दुख का उपचार।२।
मूरख कब देता भला, मूर्ख दिवस को मान
इस पर कृपा कर रहा, सहज भाव विद्वान।३।
भोले भाले का उड़ा, खूब कुटिल उपहास
मूर्ख दिवस पर सोचते, वो हैं खासमखास।४।
दसकों से सर पर रहा, बेअक्लों का…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 1, 2018 at 7:28am — 20 Comments
कविता कोरी कल्पना, कविता मन का रूप
कविता को कवि ले गया, जहाँ न पहुँचे धूप।१।
किसी फूल की पंखुड़ी, किसी कली का गाल
कविता रंगत प्यार की, नहीं शब्द का जाल।२।
आँचल में रचती रही, सुख दुख कविता रोज
पड़ी जरूरत जब कभी, भरती सब में ओज।२।
भूखों की ले भूख जब, दुखियों की ले पीर
कविता सबकी तब भरे, आँखों में बस नीर।४।
युगयुग से भाये नहीं, कविता को अनुबंध
हवा सरीखी ये बहे, लिए अनौखी गंध।५।
कविता सुख की थाल तो, है…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 21, 2018 at 3:30pm — 12 Comments
होली के दोह
मन करता है साल में, फागुन हों दो चार
देख उदासी नित डरे, होली का त्योहार।१।
चाहे जितना भी करो, होली में हुड़दंग
प्रेम प्यार सौहार्द्र को, मत करना बदरंग।२।
तज कृपणता खूब तुम, डालो रंग गुलाल
रंगहीन अब ना रहे, कहीं किसी का गाल।३।
फागुन में गाते फिरें, सब रंगीले फाग
उस पर होली में लगे, भीगे तन भी आग।४।
घोट-घोट के पी रहे, शिव बूटी कह भाँग
होली में जायज नहीं, छेड़छाड़ का…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 1, 2018 at 7:43pm — 23 Comments
शीत के दोहे
बालापन सा हो गया, चहुँदिश तपन अतीत
यौवन सा ठिठुरन लिए, लो आ पहुँची शीत।१।
मौसम बैरी हो गया, धुंध ढके हर रूप
कैसै देखे अब भला, नित्य धरा को धूप।२।
शीत लहर के तीर नित, जाड़ा छोड़े खूब
नभ के उर में पीर है, आँसू रोती दूब।३।
हाड़ कँपाती ठंड से , सबका ऐसा हाल
तनमन मागे हर समय, कम्बल स्वेटर शॉल।४।
शीत लहर फैला रही, जाने क्या क्या बात
दिन घूँघट में फिर रहा, थरथर काँपे रात।५।
लगी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2018 at 7:27am — 8 Comments
विपदा से हारो नहीं, झेलो उसे सहर्ष
नित्य खुशी औ' प्यार से, बीते यह नववर्ष।१।
नभ मौसम सागर सभी, कृपा करें अपार
जनजीवन पर ना पड़े, विपदाओं की मार।२।
इंद्रधनुष के रंग सब, बिखरे हों हर बाग
नये वर्ष में मिट सके, भेद भाव का दाग।३।
खुशियों का मकरंद हो, हर आँगन हर द्वार
हो सब में सदभावना, जीने का आधार।४।
विदा है बीते साल को, अभिनंदन नव वर्ष
ऋद्धि सिद्धि सुख…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 4, 2018 at 8:00am — 12 Comments
सर पर छत थी वो गयी , भीत भीत चहुँ ओर
रक्ष रक्ष मैं रेंकता , चोर मचाये शोर
सबकी चिंता है अलग, सब में थोड़ा फर्क
सब कहते वो पाप है, वो जायेगा नर्क
स्वार्थ सदा रहता छिपा, सब रिश्तों के बीच
लेकिन वह जो बोल दे, कहलाता है नीच
सबकी अपनी व्यस्तता, सब के अपने राग
सर्व समाहित सोच से , तू भी थोड़ा भाग
सब तक सीढ़ी है बना , पायेगा अनुराग
पत्थर को ठोकर मिली , रे मानुष तू…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 8, 2016 at 9:00am — 6 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 22, 2016 at 12:45pm — 6 Comments
Added by आशीष यादव on November 20, 2015 at 7:30am — 8 Comments
ईश कृपा से ही हुऐ, सात दशक ये पार,
बाँट सका सुख-दुख सदा,उन सबका आभार | - 1
सहयोगी मन भाव से, दिया जिन्होनें साथ,
आभारी उनका सदा, भली करेंगे नाथ | - 2
सीख मिली जिनसे सदा, उनका ऐसा कर्ज,
चुका सकूँ क्या मौल मै, पूरा करने फर्ज | = 3
गुरुजन को मै दे सकूँ, क्या ऐसी सौगात,
सूरज सम्मुख दीप की, आखिर क्या औकात |-4
कृपा करे माँ शारदा, तब कुछ मिलता ज्ञान,
विद्वजनों के योग से, लिया सदा संज्ञान | =…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 19, 2015 at 5:00pm — 8 Comments
झुमका झांझर चूड़ियाँ, करधन नथ गलहार |
बिंदी देकर मांग भर,.....कर साजन सिंगार ||
सूनी सेज न भाय रे, छलकें छल-छल नैन |
पी-पी कर रतिया कटे,....दिन करते बेचैन ||
उस आँगन की धूल भी, करती है तकरार |
अपनेपन से लीपकर , जहां बिछाया प्यार ||
हरियाली घटने लगी, कृषक हुए सब दीन |
राजनीति जब देश की, खाने लगी जमीन ||
टहनी के हों पात या, हों फुनगी के फूल |
दोनों तरु की शान हैं, तरु दोनों का मूल ||…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on October 8, 2015 at 7:00pm — 8 Comments
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