मैं तुझे ओढ़ता बिछाता रहू
तुम से तुम को सनम चुराता रहू .
तू मेरी ज़िन्दगी है जान.ए.गज़ल
ज़िन्दगी भर तुझे ही गाता रहू.
तुम यूँही मेरे साथ साथ चलो ,
मैं जमाने के नभ पे छाता रहू .
गुल जो पूछे कि महक कैसी कहो?
तेरी खुशबु से मैं मिलाता रहू .
ऐ मुहब्बत नगर की देवी सुनो ,
तेरे दर पर दीप इक जलाता रहू
दीप जीर्वी
Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 8:05pm —
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घास कहीं भी उग आती है
जहाँ भी उसे काम चलाऊ पोषक तत्व मिल जाँय,
इसीलिए उसे बेशर्म कहा जाता है,
इतनी बेइज्जती की जाती है;
घास का कसूर ये है
कि उसे जानवरों को खिलाया जाता है
इसीलिए उसकी बेइज्जती करने के लिए
मुहावरे तक बना दिये गए हैं
कोई निकम्मा हो तो उसे कहते हैं
वो घास छील रहा है;
जिस दिन घास असहयोग आन्दोलन करेगी
उगना बन्द कर देगी
और लोगों को अपने हिस्से का खाना
जानवरों को देना पड़ेगा
अपने बच्चों को दूध पिलाने के…
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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 7, 2010 at 8:00pm —
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एक दिन बिजली के जाने पर
ढूंढ रहा था
प्रकाश का साधन
करने को
तमस निस्तारण
तभी हाथों से
कोई चीज टकराई
देखा
पुराना दीया
जिस पर हरा काला
मैल बैठा हुआ
झंकृत कर गया मुझे
याद मेरे बचपन का
इसी दीये तले
पाया ज्ञान का प्रकाश
मैं क्या
मुझसे भी पहले
औरों ने भी इसी दीये
के आँचल तले
आँखों को काले धुँए में
झोंकते हुए
पाया अपने लक्ष्य को
वही दीया न…
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Added by Shashi Ranjan Mishra on October 7, 2010 at 4:35pm —
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सब भर जाएगा !
रॉबिन तुम एकदम रॉबिन चिड़िया जैसे हो
छल्लेदार बाल , अकसर लाल रहने वाली दो गोल बड़ी आँखें
कभी उंघते नहीं देखा तुम्हे
माँ को कभी उठाना नहीं पड़ता
मुर्गे की एक सरल बांग पर उमड़ जाती है सुबह
और तुम नंगे पैर ही दौड़ जाते हो सागर के अंचल पर
अंतहीन बढ़ते कदम
रेत पर छापती चलती हैं नन्ही इच्छाओं के पैर
तुम चलते कहाँ…
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Added by Aparna Bhatnagar on October 7, 2010 at 7:00am —
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पंखियों को उड़ने दो ,
पानीओं को बहने दो ,
आंसुओं को कहने दो ,
कहने दो कोई कथा
अवयस्क कोई व्यथा
पीर किसी नांव की
पीर किसी ठांव की
पीर किसी नांव की
पीर किसी ठांव की
ओढते बिछाते हुए
दर्द को सुनाते हुए
कसमसा कसमसा
अश्रु है कोई रुका
अश्रु वो न बहने दो
बात कोई कहने दो
----------------
भूख की आ बात कर
प्यास के आ गीत गा
ख़ाली ख़ाली हाथ हैं तो
कुछ तू कह कुछ सुन आ
बीती बात भूख हो
घिसा सा गीत प्यास…
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Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:30pm —
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ये भी मैं हूँ वो भी मैं ही ..
एक बूँद गिरी पर गिरे कभी जो मैं ही हूँ .
एक बूँद धरा पर गिरी कभी जो मैं ही हूँ .
एक बूँद अरिहंता बन गिरी समर-आँगन में ,
एक बूँद किसी घर गिरी नवोढा नयनन से ,
एक बूँद कही पर चली श्यामल गगनन से '
एक बूँद कहीं पर मिली सागर प्रियतम से ,
वो बूँद बनी हलाहल जानो मैं ही हूँ ,
वो बूँद बनी जो सागर जानो मैं ही हूँ,
वो बूँद बनी पावन तन जानो मैं ही था ,
वो बूँद बनी प्यासा मन जानो मै ही हूँ .
हर बूँद बूँद में व्यापक व्याप्त…
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Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:00pm —
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मेरे दिल से पूछो ये चाहता क्या हैं ,
चाह थी मंजिल तो मुश्किल से मिला ,
पैसे जुटाया लुट गया तो फायदा क्या हैं ,
अपने ही साथ नहीं दिए तो वो रिश्ता कैसे ,
महसूस किया मैंने ये जीवन जिसमे ,
राहों में ओ छोर चले तो जीना क्या हैं ,
खुशिया दूर से निकल गई समझ ना सका ,
वो आखे चुराने लगे समझा मजरा क्या हैं ,
मेरे दिल से पूछो ये चाहता क्या हैं ,
उनकी ख़ुशी खुश रहने के लिए कम न था ,
हा ओ किसी और के हो गए इसका गम हैं ,
लोगो को नजर आता हैं हंसता चेहरा…
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Added by Rash Bihari Ravi on October 5, 2010 at 8:48pm —
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कुछ तितलियाँ
फूलों की तलहटी में तैरती
कपड़े की गुथी गुड़ियाँ
कपास की धुनी बर्फ
उड़ते बिनौले
और पीछे भागता बचपन
मिट्टी की सौंध में रमी लाल बीर बहूटियाँ
मेमनों के गले में झूलते हाथ
नदी की छार से बीन-बीन कर गीतों को उछालता सरल नेह
सूखे पत्तों की खड़-खड़ में
अचानक बसंत की लुका-छिपी
और फिर बसंत -सा ही बड़ा हो जाना -
तब दीखना…
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Added by Aparna Bhatnagar on October 4, 2010 at 5:00pm —
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याद उस गरीब को भी ....
याद उस गरीब को भी कर लीजै
अदना सा था वो गोद में भर लीजै.
इरादा फौलादी था उसका, दोस्तों
नाम आज तो उसका भी ले लीजै.
पैंसठ में जो मार दी जुनूनी को, उसे
आज तक नहीं भूला, याद कर लीजै.
जय जवान-जय किसान का नारा दिया
जगाया भारत को उसे याद कर लीजै.
रहबर ही दुश्मनों से साज था, 'चेतन'
शास्त्री जी की आज तो खबर ले लीजै
Added by chetan prakash on October 2, 2010 at 7:30pm —
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ज़िन्दगी... ... ...
देती रही तमन्नायें...
उन्हें सहेजती रही मैं...
खुद में... ... ...
इस उम्मीद से...
कि कभी... किसी रोज़...
कहीं ना कहीं...
इन्हें भी दूँगी पूर्णता...
और करूँगी...
खुद को भी पूर्ण...
जिऊँगी तृप्त हो...
इस दुनिया से...
बेखबर... ... ...
पर... ... ...
नहीं जानती थी मैं...
कि तमन्नायें होतीं हैं...
सिर्फ सहेजने के लिये...
इन समंदर… Continue
Added by Julie on October 1, 2010 at 10:05pm —
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वाह जनाब वाह, आप लोगों ने कर दिया कमाल ,
खुश हो गया हिंद, राम लला का मिल गया माल ,
तीन भाग में बट गया मिटीं सब मुश्किलात ,
कितना अच्छा था ये मौका दिखे सब एक साथ ,
अब गुजारिश मेरी सब से यही चाहे हिंदुस्तान ,
राम लला का मंदिर बने जो हैं देव तुल्य समान ,
गरिमा बढ़ जाएगी सब की देखेगा सारा जहान ,
हिन्दू मुस्लिम भाई भाई साथ रहेंगे सिख ईसाई ,
चारो की ताकत से ही हिंद में नई जान हैं आई ,
कौन कहता हैं हम लड़ते पूरे विश्व से हैं सवाल ,
वाह जनाब वाह आप लोग कर…
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Added by Rash Bihari Ravi on October 1, 2010 at 12:30pm —
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क्या लेना
मुझे मंदिर से क्या लेना
मुझे मस्जिद से क्या लेना
मैं दिल से इबादत करता हूँ
मुझे राम, रहीम संग रहना
मैं गीता पढ़ सकता हूँ
गुरु ग्रन्थ साहिब रट सकता हूँ
कुरान और बाइवल मेरे दिल में बसे
मुझे इन सब के संग रहना
मुझे सियासत नहीं आती
बिलकुल भी नहीं भाती
इक सीधा सदा हूँ इन्सान
मुझे इन्सान बनके ही रहना
में 'दीपक कुल्लुवी' हूँ
मुझे है प्यार दुनिया से
मुझे सबसे मुहब्बत है
मुझे और नहीं कुछ…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 1, 2010 at 9:47am —
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आप प्रकृति की अनुपम रचना है
मगर ...
कृत्रिम प्रसाधनो का लेपन
बनावटीपन जैसा लगता है ॥
मैं आपको रंगना चाहता हूँ
प्रकृति के रंगों से ॥
मैं आपको देना चाहता हूँ
टेसू के फूलों की लालिमा
कपोलों पर लगाने के लिए ॥
मृग के नाभि की थोड़ी सी कस्तूरी
देह -यष्टि पर लगाने के लिए ॥
फूलों के रंग -बिरंगे परागकण
माथे की बिंदी सजाने के लिए ॥
और तो और
थोड़ी सी लज्जा मांग कर लाई है मैंने
आपके लिए
लाजवंती के पौधों से ॥
इसके…
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Added by baban pandey on October 1, 2010 at 9:10am —
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सामयिक कविता:
फेर समय का........
संजीव 'सलिल'
*
फेर समय का ईश्वर को भी बना गया- देखो फरियादी.
फेर समय का मनुज कर रहा निज घर की खुद ही बर्बादी..
फेर समय का आशंका, भय, डर सारे भारत पर हावी.
फेर समय का चैन मिला जब सुना फैसला, हुई मुनादी..
फेर समय का कोई न जीता और न हारा कोई यहाँ पर.
फेर समय का वहीं रहेंगे राम, रहे हैं अभी जहाँ पर..
फेर समय का ढाँचा टूटा, अब न दुबारा बन पायेगा.
फेर समय का न्यायालय से खुश न कोई भी रह…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 1, 2010 at 12:43am —
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वह बोझिल मन लिए
उदास उदास
निहार रहा अपनी कुदरत
खड़ा क्षितिज के पास
मिल कर भी
नहीं मिलते जहाँ
दो जहां
अपनी अपनी आस्था की धरा पे
कायम हैं उसके बनाये इंसान
हो गए हैं जिनके मन प्रेम विहीन
बिसरा दिए हैं जिन्होंने दुनिया और दीं
इस रक्त रंजित धरा पर बिखरे
खून के निशाँ
वही नही बता सकता
उन्हें में कौन है
राम और कौन रहमान
बिसूरती मानवता के यह अवशेष
लुटती अस्मत,मलिन चेहरे,बिखरे केश
सुर्ख…
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Added by rajni chhabra on September 30, 2010 at 3:00pm —
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सुरज निकला है पुरब की ओर,
बिखरी है रोशनी चारो ओर।
आसमान के चाँद-तारे छिप गये,
जमीन के सारे नजारे दिख गये।।
मुर्गे ने बांग सबको सुना दिया,
हो गया सवेरा सबको बता दिया।
लोगों ने अपना बसेरा छोड़ दिया,
लगे काम पर कह सेबेरा हो गया।।
चिड़ियों ने गाना शुरू किया,
मिठे स्वर को फैलाना शुरू किया।
निकली चिड़ियाँ खुले आसमान में,
लग गयी भोजन की तलाश में।।
फुलों ने अपना खोला बदन,
लगीं फैलाने मनोहर पवन।
खुशबु ने इसके किया है…
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Added by Deepak Kumar on September 30, 2010 at 10:30am —
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जब तक अथ से इति तक
ना हो सब कुछ ठीक ठाक ,
सुख की पीड़ा से अच्छा है
पीड़ा का सुख उठाना.
जब तक सुनी ना जाएँ आवाज़े
सिलने वाले हो हज़ार सूइयों वाले
और होंठों पर पहरे पड़े हों ,
चुप्प रहने से अच्छा है,
शब्दों की अलगनी पर खुद टंग जाना .
जब तक जले न पचास तीलियों वाली माचिस
या ख़ाक न हो जाएँ सडांध लिए मुद्दे
हल वाले हांथों का बुरा हो हाल
मेंड़ पर बैठने से अच्छा है बीज बन जाना .
जब तक मदारी का चलता हो खेल
और एक से एक मंतर हो रहें हो…
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Added by Abhinav Arun on September 29, 2010 at 3:00pm —
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भूलना मत दीन और ईमान को.
या खुदा दे अक्ल हम इन्सान को.
अमन से सुन्दर है कुछ दूजा नहीं.
प्रेम से बढ़कर कोई पूजा नहीं.
बांटना क्या राम और रहमान को.
या खुदा दे अक्ल हम इन्सान को.
प्यार और खुशियाँ ही बसती थी जहाँ.
हिन्द वो इकबाल का खोया कहाँ.
किसने जख्मी कर दिया मुस्कान को.
या खुदा दे अक्ल हम इन्सान को.
स्वार्थ से हरगिज़ ना तौलो प्यार को.
दुःख मे पुरी बदलो ना व्यवहार को.
थाम लो तुम गिर रहे इंसान को.
या खुदा दे अक्ल हम इन्सान…
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Added by satish mapatpuri on September 29, 2010 at 2:43pm —
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पीड़ा का इक पल दर्पण
टूटा पल मे, पल मे बिखर गया |
इक मोती सा विश्वास मगर,
अन्तस मे कहीं ठहर गया |
उमडाया ये खालीपन,
गहराया ये सूनापन,
एकान्त अकेला कहीं गुजर गया |
मन ने वीणा के फ़िर तार कसे
उठो, कोई चुपके से ये कह गया |
विचलित होता अन्त:मन,
उभरा हर क्षण ये चिन्तन,
मन अनजाने ये किधर गया |
ह्र्द्य मे अपना सा एह्सास लिये
भींगी आंखो मे जो उभर गया |
करता पल पल ये क्रन्दन,
धडका बूंद बूंद ये जीवन,
छांव ममता…
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Added by Rajesh srivastava on September 25, 2010 at 9:00am —
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सोचता है एक गरीब,
मैं कैसे अमीर बन पाउँगा।
इन गरीबों के दिनों को,
मैं कैसे भगाउँगा।।
कट जाता है समय,
दो शाम की रोटी जुटाने में।
फिर भी भरता नहीं पेट,
इस महगाई भरे जमाने में।।
रोते हैं बीबी और बच्चे,
जब मैं शाम को घर जाता हूँ।
कोशते हैं इस गरीबी को,
फिर भी मैं इसे नहीं भगा पाता हूँ।।
सोचता है एक गरीब,
मै कैसे अमीर बन पाउँगा।
इन गरीबों के दिनों को,
मैं कैसे भगाउँगा।।
Added by Deepak Kumar on September 24, 2010 at 11:19am —
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