((( यूँ तो हूँ साधारण-सी इंसान बस... पर आजकल भावनाओं को शब्द देने आ गया है और लोग मुझे 'कवि' (कवयित्री) के नाम से पुकारने लगे हैं... पर अभी इस उपाधि से हमें नवाज़ा जाए ये हम सही नहीं समझते... अभी ऐसे किसी विषय पर लिखा नहीं... मैं अभी "कवि" नहीं...!! ये रचना बस यही सोचते सोचते बन पड़ी के मैं कवि क्यूँ नहीं और कब होउंगी...!! -जूली )))
मैं "कवि" 'नहीं' हूँ... ...… Continue
Added by Julie on October 20, 2010 at 8:30pm —
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ढलती हुई शाम ने
अपना सिंदूरी रंग
सारे आकाश में फैला दिया है,
और सूरज आहिस्ता -आहिस्ता
एक-एक सीढ़ी उतरता हुआ
झील के दर्पण में
खुद को निहारता
हो रहा हो जैसे तैयार
जाने को किसी दूर देश
एक लंबे सफ़र पर I
काली नागिन सी,
बल खाती सड़कों पर
अधलेते पेड़ों के सायों के बीच
मैं,
अकेला,
तन्हा,
चला जा रहा हूँ
करता एक सफ़र,
इस उम्मीद पर
कि अगले किसी मोड़ पर
राहों पर अपनी धड़कनें बिछाए
तुम करती होगी…
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Added by Veerendra Jain on October 20, 2010 at 1:08am —
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तन्हाई का कैसा यारो फंडा
कोई कैसे तन्हा भी हो सकता है ?
फूल कही
हो खुशबु उसके साथ रहे ,
खुशबू हो जो वो भी हवा के साथ बहे
खुशबु से
हम सब का दामन भरता है ,
तन्हाई का कैसा यारो फंडा है ,
कोई कैसे
तन्हा भी हो सकता है ?
दिल के साथ है धड़कन ,
आँख के साथ स्वप्न ,
सुखदुख
साथ में मिलके बनता है जीवन ।
जीवन धार में मिलके जीवन चलता है ,
तन्हाई
का कैसा यारो फंडा है ।
कोई कैसे तन्हा भी हो सकता है ?
दीप के साथ
है…
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Added by DEEP ZIRVI on October 18, 2010 at 9:00pm —
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धड़कते दिल की सदा है तू
मुहब्बतों की खुदा है तू
के तेरा नाम है मुहब्बत
किसे खबर है के क्या है तू
तेरी ज़रूरत है इस जहाँ को
दहकती हुई हर इक फ़िज़ा को
तू ही मंदिर तू ही मस्जिद
तू ही बच्चे की तोतली बोली
तू ही ममता का बे हिसाब साया
तू ही है पापा की डांट जानूं
तू ही चिड़ियों की चहचहाहट
तू ही है कलियों की मुस्कुराहट
तेरे दम से बहार क़ायम
मैं क्या गिनाऊँ तेरे गुणों को
के तू मुहब्बत है तू…
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Added by mohd adil on October 18, 2010 at 6:30pm —
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(हर नारी मिनौती है .. यहाँ दृश्य अरुणाचल का है , इसलिए बांस, धान , सूरज , सीतापुष्प , पहाड़ के बिम्ब भी उसी प्रदेश के हैं. बरई, न्यिओगा वहाँ के लोक जीवन से जुड़े गीत हैं - जैसे हम बन्ना- बन्नी , आला , बिरहा से जुड़े हैं ... इस संगीत को बांसों से जोड़ा है .. जैसे बांस के खोखल से निसृत होकर ये मिनौती की आत्मा में पैठ गए हैं ... नारी के मन और आत्म को समझाते हुए पुरुष से अंतिम प्रश्न पर कविता समाप्त होती है ...)
मेरे बांस
पहचानते…
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Added by Aparna Bhatnagar on October 16, 2010 at 5:00pm —
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इक अट्टहास... गूंजा...
पल को चौंक... देखा चारो ओर...
पसरा था सन्नाटा... ... ...
वहम समझ, बंद की फिर आँखें...
मगर फिर हुई पहले से भयानक, और ज्यादा रौद्र गूँज...
उठ बैठ... तलाशा हर कोना डर से भरी आँखों ने...
सिवाए मेरे और सन्नाटे के, ना था किसी का वजूद मगर...
तभी सन्नाटे को चीरती इक आवाज नें छेड़ा मेरा नाम...
कौन... ... ...???
बदहवास-सी... इक दबी चीख निकली मेरी भी...
तभी देखा... अपना साया... जुदा हो…
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Added by Julie on October 15, 2010 at 10:30pm —
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► निर्झरण से झरण की ओर ::: ©
समय का बहाव, पवन का प्रवाह,
सख्त भौंथरी चट्टान,
अब तीखे नक्श पाने लगी है,
न चाहते हुए भी,
मन का खुद को बरगलाना,
जैसे पानी का बर्फ बन,
चट्टान के भ्रम संग,
खुद को बरगलाना,
वक्ती थपेड़े पड़े हैं मगर,
आज नहीं कल ही सही,
बदलेगा प्रारब्ध मेरा भी,
क्षण-भंगुर हो,
भटक-चटक रही है,
चंचलता-कोमलता, मेरे मन की,
पिघल-बहाल हो रही…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on October 14, 2010 at 2:08am —
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देखा न तुझे
जाना भी नहीं
तेरा रूप है क्या
और रंग कैसा
पर माँ तू मुझमें रहती है.
मैं चलता हूँ
पर राह है तू
हैं शब्द तेरे और भाव तेरे
माँ फूलों सा सहलाती तू
और काँटों को तू चुनती है.
हैं हाँथ मेरे कविता तेरी
ये अलंकार ये छंद सभी
माँ तू ही सबकुछ गढ़ती है
मैं लिखता रहता हूँ बेशक
तू सबसे पहले पढ़ती है.
तू पालक है और पोषक भी
तू ही माँ सुबह का सूरज
और चाँद की शीतल छाँव भी तू
माँ मैं जब भी तितली…
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Added by Abhinav Arun on October 13, 2010 at 4:09pm —
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दस रंग भरे
दस रूप धरे
दशहरा हरा कर दे जग को.
दस आशाएं
दस उम्मीदें
दस आकांक्षाएं पूरी हों.
दस आँचल हों
दस गोद भरें
दस बूटे बेल सजे संग संग.
दस द्वेष जलें
दस ईर्ष्याएँ
दस तर्क वितर्क हों धूमिल भी.
दस अलंकार
दस विद्याएँ
दस सिद्धि मिलें दस दीप जलें.
दस ओर हमारा यश गूंजे
दस पदकों की खन-खन भी हो
दस पद अंतर की ओर चलें
दस परिमार्जित हों इच्छाएं .
दस मित्र बने
दस बातें…
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Added by Abhinav Arun on October 13, 2010 at 3:30pm —
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जिसके पैर न रुकना जाने ,
जिसके हाथ न थकना जाने
सुनो ध्यान से ;
हरदम उसका
भाग्य-लक्ष्मी पीछा करती...
सखा उसी का होता ईश्वर...
जग में वही सफल होता है .
और वही रोता है हरदम...
दुखी दरिद्री भी होता है
पाप उसी को सदा दबाते
कर्महीन जो नर होता है.
त्याग नींद आलस्य इसीसे
शुभ कर्मो को करो निरंतर ...
.......चलो निरंतर -१-
सोये पड़े व्यक्ति का देखो
सोया पड़ा भाग्य रहता है
उठ बैठे तो भाग्य उठेगा
चल पड़ने से चल निकलेगा…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 12, 2010 at 11:00pm —
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उदासी के अँधेरे हटा कर
नई रौशनी फैलाये गी
मेरे मन के वन उपवन में
सबरंग के फूल खिलाये गी
आस कि मासूम कली
नहीं जब मुर्झायेगी
मेरी उम्मीदों की नय्या
लहरों पर समय की .
चलेगी
पर जायेगी'
मन हर्शाएगी;
कभी तो कोई सुबह,
मेरे लिए
ढेर खुशियाँ लेकर आयेगी .
वो सुबह जरूर आयेगी
--
दीप्ज़िर्वि९८१५५२४६००
Added by DEEP ZIRVI on October 12, 2010 at 10:28pm —
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बिरहा अग्नि
सुंदर छटा बिखरी उपवन में
खुशबु भरी मदमस्त पवन में
अजब सोच है मेरे मन में
सजन संग आज मिलन होगा
बलम संग आज मिलन होगा
---
मैं चातक हूँ स्वाति साजन ,
मैं मयूर सावन है साजन ,'
दीप हो तुम तो स्वाति मैं हूँ
जो तुम सीप तो मोती मैं हूँ ,
हूँ मैं चकोर तेरी मेरे चंदा
क्यों चकोर से दूर है चंदा
वन उपवन सब झूम रहा है ,
मस्त पवन भी घूम रहा है
जाने क्यों… Continue
Added by DEEP ZIRVI on October 12, 2010 at 4:30pm —
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दिल दिल है शीशा नहीं,
शीशे से भी नाजुक दिल ।
ये दिल दिल का साथी है,
ये दिल दिल का है कातिल ।
यार तुम्हारी बात कहू,
यार तुम्ही तो हो मेरे ।
तुम्ही हो जीवन मेरा,
तुम्ही जीवन का हासिल ।
तेरे दिल की कहता हू,
तेरे दिल की सुनता हु
मेरे दिल की जाने न,
क्यों हो मुझ से तू गाफिल,
deepzirvi@yahoo.co.in
--
deepzirvi9815524600
Added by DEEP ZIRVI on October 12, 2010 at 7:00am —
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मैंने पूछा था
तट की गीली रेत से
जीवन क्या है
और क्या है
तेरी नियति ?
कुचली जाती पैरों से
क्या हुआ विलुप्त
दर्द की
अनुभूति !!!?
उसने हँसकर
कहा-
जीवन क्या
और मरण क्या
नश्वरता का है
प्रहशन ,
कूल**
परिवर्तन
ही बंधन है
मध्य है
जीवन की
निर्बाध गति ।
~शशि रंजन मिश्र
** कूल=…
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Added by Shashi Ranjan Mishra on October 11, 2010 at 7:00pm —
1 Comment
जीवन... जीतें हैं लोग...
वही... जो, जैसा मिल जाता है उन्हें...
पर इस एक जीवन में... है एक और जीवन...
जिसे, अक्सर भूल जातें हैं हम...
वो है 'रंगों' का जीवन...
हर रंग एक जीवन खुद में...
हर जीवन एक रंग खुद में....
हर रंग की अपनी कहानी...
हर कहानी का अपना रंग...
खुशियाँ, उदासियाँ, उल्लास, विश्वास...
जीवन की तरह हर मोड़ है यहाँ...
हर खुशबू है, हर सपना है...
कभी उदासी में साथ…
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Added by Julie on October 9, 2010 at 5:00pm —
10 Comments
(सब से पहले यहीं पर प्रस्तुती कर रहा हूँ इस रचना की , आशीर्वाद दीजियेगा)
जलने दो मुझे जलने दो ,अपनी ही आग में जलने दो .
ये आग जलाई है में ने , मुझे अपनी आग में जलने दो .
तू मेरी चिंता मत करना ,ठंडी आहें भी मत भरना ;
मैं जलता था मैं जलता हूँ ,सम्पूर्णता को मचलता हूँ ,
मन मचल रहा है मचलने दो ;मुझे अपनी आग में जलने दो .
दाहक,दैहिक पावक न ये ,मानस तल का दावानल है,
ज्वाला मैं जन्म पिघलने दो ,मन को शोलों में ढलने दो
मुझे जलने दो…
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Added by DEEP ZIRVI on October 9, 2010 at 3:00pm —
2 Comments
आदि शक्ति वंदना
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 8, 2010 at 5:30pm —
3 Comments
जय माँ दुर्गे -जय महाकाली, जय माँ -जय माँ जय शेरावाली.
तू दानी माता महारानी, बाकी सब ही सवाली.
जय माँ दुर्गे --------------------------------------------------
तुम्हरी शरण में जो भी आते , जो भी तुमसे नेह लगाते.
तुम्हरी महिमा को नहीं जाने, मईया सब तुम्हरे गुण गाते.
हाथ पसारे सब ही आते - जाते ना पर खाली.
जय माँ दुर्गे ---------------------------------------------
शेर सवारी- भुजा कटारी, मुंडमालिनी-खप्परधारी.
ऐसा कौन जो तुमसे बचा हो , सब दुष्टन पर तुम हो…
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Added by satish mapatpuri on October 8, 2010 at 12:07pm —
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हाँ मै ने भी किया है प्रेम, मै ने भी पिया है प्रेम रस ;
मेरी प्रेयसी नित नूतन सद सनातन ;किन्तु पुरातन
कोमल भाव की सरस सरिता ,निज चेतना निज प्रेयसी .
मंथर कभी तीर्व कभी ,होती है चंचल सी गति .
निज प्रेयसी निज चेतना ;
प्रथम प्रेम का प्रथम पल्लव ,पल्लवित कुसमित प्रेम अविलम्बित .
निज धारणा निज चेतना ,प्रखर गुंजन से गुंजित ,
वल्लरी प्रेम कुसुम सुरभित ,अमर प्रेम की सी थाती .
प्रेम दीप की वो बाती;निज चेतना प्रिय…
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Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 8:09pm —
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भ्रमर
मेरा मन
पतंगे सा कोमल
भ्रमर सा चंचल
अस्थिर
पारे सम
कोशिश करे
कैद करने की
इस मन को तेरा मन
पर
पारे सम
मेरा मन
न हो सके गा स्थिर
न ही
बंदी बन पाए गा कभी
जैसे कि भ्रमर
किसी उपवन का
----
यह भ्रमर नहीं है उपवन का
भ्रमर है ये मेरे मन का
स्वछन्द
हवा सम
स्व्त्न्त्त्र रहेगा यह
---
दीप जीर्वी
Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 8:06pm —
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