बासुदेव अग्रवाल 'नमन''s Posts - Open Books Online2024-03-29T11:45:06Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeohttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991291333?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://www.openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=37jj2i02ud8ph&xn_auth=noओ बी ओ मंच को 12वीं सालगिरह पर समर्पित ग़ज़लtag:www.openbooksonline.com,2022-04-03:5170231:BlogPost:10821502022-04-03T02:34:08.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>ओ बी ओ मंच को 12वीं सालगिरह पर समर्पित ग़ज़ल (1222*4)</p>
<p></p>
<p>किये हैं पूर्ण बारह वर्ष ओ बी ओ बधाई है,<br></br>हमारे दिल में चाहत बस तेरी ही रहती छाई है।</p>
<p></p>
<p>मिला इक मंच तुझ जैसा हमें अभिमान है इसका,<br></br>हमारी इस जहाँ में ओ बी ओ से ही बड़ाई है।</p>
<p></p>
<p>सभी इक दूसरे से सीखते हैं और सिखाते हैं,<br></br>हमारी एकता की ओ बी ओ ही बस इकाई है।</p>
<p></p>
<p>लगा जो मर्ज लिखने का, दिखाते ओ बी ओ को ही,<br></br>उसी के पास इसकी क्यों कि इकलौती दवाई है।</p>
<p></p>
<p>तुझे शत शत 'नमन' मेरा बधाई…</p>
<p>ओ बी ओ मंच को 12वीं सालगिरह पर समर्पित ग़ज़ल (1222*4)</p>
<p></p>
<p>किये हैं पूर्ण बारह वर्ष ओ बी ओ बधाई है,<br/>हमारे दिल में चाहत बस तेरी ही रहती छाई है।</p>
<p></p>
<p>मिला इक मंच तुझ जैसा हमें अभिमान है इसका,<br/>हमारी इस जहाँ में ओ बी ओ से ही बड़ाई है।</p>
<p></p>
<p>सभी इक दूसरे से सीखते हैं और सिखाते हैं,<br/>हमारी एकता की ओ बी ओ ही बस इकाई है।</p>
<p></p>
<p>लगा जो मर्ज लिखने का, दिखाते ओ बी ओ को ही,<br/>उसी के पास इसकी क्यों कि इकलौती दवाई है।</p>
<p></p>
<p>तुझे शत शत 'नमन' मेरा बधाई फिर से ओ बी ओ,<br/>यहीं मेरी पढ़ाई है यहीं मेरी लिखाई है।</p>
<p></p>
<p>बासुदेव अग्रवाल 'नमन'<br/>तिनसुकिया</p>शारदी छंद "चले चलो पथिक"tag:www.openbooksonline.com,2021-05-18:5170231:BlogPost:10601242021-05-18T10:31:33.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>(शारदी छंद)</p>
<p></p>
<p>चले चलो पथिक।<br></br>बिना थके रथिक।।<br></br>थमे नहीं चरण।<br></br>भले हुवे मरण।।</p>
<p></p>
<p>सुहावना सफर।<br></br>लुभावनी डगर।।<br></br>बढ़ा मिलाप चल।<br></br>सदैव हो अटल।।</p>
<p></p>
<p>रहो सदा सजग।<br></br>उठा विचार पग।।<br></br>तुझे लगे न डर।<br></br>रहो न मौन धर।।</p>
<p></p>
<p>प्रसस्त है गगन।<br></br>उड़ो महान बन।।<br></br>समृद्ध हो वतन।<br></br>रखो यही लगन।।<br></br>===========</p>
<p>*शारदी छंद* विधान:-</p>
<p></p>
<p>"जभाल" वर्ण धर।<br></br>सु'शारदी' मुखर।।</p>
<p>"जभाल" = जगण भगण लघु<br></br>।2। 2।। । =7…</p>
<p>(शारदी छंद)</p>
<p></p>
<p>चले चलो पथिक।<br/>बिना थके रथिक।।<br/>थमे नहीं चरण।<br/>भले हुवे मरण।।</p>
<p></p>
<p>सुहावना सफर।<br/>लुभावनी डगर।।<br/>बढ़ा मिलाप चल।<br/>सदैव हो अटल।।</p>
<p></p>
<p>रहो सदा सजग।<br/>उठा विचार पग।।<br/>तुझे लगे न डर।<br/>रहो न मौन धर।।</p>
<p></p>
<p>प्रसस्त है गगन।<br/>उड़ो महान बन।।<br/>समृद्ध हो वतन।<br/>रखो यही लगन।।<br/>===========</p>
<p>*शारदी छंद* विधान:-</p>
<p></p>
<p>"जभाल" वर्ण धर।<br/>सु'शारदी' मुखर।।</p>
<p>"जभाल" = जगण भगण लघु<br/>।2। 2।। । =7 वर्ण, 4चरण दो दो सम तुकान्त<br/>*****************</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>पावन छंद "सावन छटा"tag:www.openbooksonline.com,2021-05-13:5170231:BlogPost:10599492021-05-13T03:30:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>(पावन छंद)</p>
<p></p>
<p>सावन जब उमड़े, धरणी हरित है।<br></br> वारिद बरसत है, उफने सरित है।।<br></br> चातक नभ तकते, खग आस युत हैं।<br></br> मेघ कृषक लख के, हरषे बहुत हैं।।</p>
<p></p>
<p>घोर सकल तन में, घबराहट रचा।<br></br> है विकल सजनिया, पिय की रट मचा।।<br></br> देख हृदय जलता, जुगनू चमकते।<br></br> तारक अब लगते, मुझको दहकते।।</p>
<p></p>
<p>बारिस जब तन पे, टपकै सिहरती।<br></br> अंबर लख छत पे, बस आह भरती।।<br></br> बाग लगत उजड़े, चुपचाप खग हैं।<br></br> आवन घर उन के, सुनसान मग हैं।।</p>
<p></p>
<p>क्यों उमड़ घुमड़ के, घन व्याकुल…</p>
<p>(पावन छंद)</p>
<p></p>
<p>सावन जब उमड़े, धरणी हरित है।<br/> वारिद बरसत है, उफने सरित है।।<br/> चातक नभ तकते, खग आस युत हैं।<br/> मेघ कृषक लख के, हरषे बहुत हैं।।</p>
<p></p>
<p>घोर सकल तन में, घबराहट रचा।<br/> है विकल सजनिया, पिय की रट मचा।।<br/> देख हृदय जलता, जुगनू चमकते।<br/> तारक अब लगते, मुझको दहकते।।</p>
<p></p>
<p>बारिस जब तन पे, टपकै सिहरती।<br/> अंबर लख छत पे, बस आह भरती।।<br/> बाग लगत उजड़े, चुपचाप खग हैं।<br/> आवन घर उन के, सुनसान मग हैं।।</p>
<p></p>
<p>क्यों उमड़ घुमड़ के, घन व्याकुल करो।<br/> आ झटपट बरसो, विरहा सब हरो।।<br/> हे प्रियतम लख लो, तन का लरजना।<br/> आ कर तुम सुध लो, बन मेघ सजना।।<br/> ===================</p>
<p><br/> *पावन छंद*</p>
<p></p>
<p>लक्षण छंद:-</p>
<p>"भानजुजस" वरणी, यति आठ सपते।<br/> 'पावन' यह मधुरा, सब छंद जपते।।</p>
<p></p>
<p>"भानजुजस" = भगण नगण जगण जगण सगण<br/> यति आठ सपते = यति आठ और सात वर्ण पे।</p>
<p>211 111 121 121 112 = 15 वर्ण,यति 8,7</p>
<p><br/> चार चरण दो दो समतुकांत।<br/> ************************</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>सायली (कोरोना)tag:www.openbooksonline.com,2021-04-29:5170231:BlogPost:10594712021-04-29T04:48:13.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>सायली (कोरोना)</p>
<p></p>
<p>आसुरी<br></br>कोरोना मगरूरी<br></br>कायम रखें दूरी<br></br>मास्क जरूरी<br></br>मजबूरी! <br></br>*****</p>
<p></p>
<p>महाकाल<br></br>कोरोना विकराल<br></br>देश पर भूचाल<br></br>सरकारी अस्पताल<br></br>बदहाल।<br></br>*****</p>
<p></p>
<p>चमगादड़ी<br></br>कोरोना जकड़ी<br></br>संकट की घड़ी<br></br>आफत बड़ी<br></br>पड़ी।<br></br>*****</p>
<p></p>
<p>भड़की<br></br>कोरोना कलंकी<br></br>चमगादड़ से फड़की<br></br>मासूमों की<br></br>सिसकी।<br></br>*****</p>
<p></p>
<p>लाचारी<br></br>कोरोना महामारी<br></br>भर रही सिसकारी<br></br>दुनिया…</p>
<p>सायली (कोरोना)</p>
<p></p>
<p>आसुरी<br/>कोरोना मगरूरी<br/>कायम रखें दूरी<br/>मास्क जरूरी<br/>मजबूरी! <br/>*****</p>
<p></p>
<p>महाकाल<br/>कोरोना विकराल<br/>देश पर भूचाल<br/>सरकारी अस्पताल<br/>बदहाल।<br/>*****</p>
<p></p>
<p>चमगादड़ी<br/>कोरोना जकड़ी<br/>संकट की घड़ी<br/>आफत बड़ी<br/>पड़ी।<br/>*****</p>
<p></p>
<p>भड़की<br/>कोरोना कलंकी<br/>चमगादड़ से फड़की<br/>मासूमों की<br/>सिसकी।<br/>*****</p>
<p></p>
<p>लाचारी<br/>कोरोना महामारी<br/>भर रही सिसकारी<br/>दुनिया सारी<br/>हाहाकारी।<br/>*****</p>
<p></p>
<p>अतिक्रमण<br/>चीनी आक्रमण<br/>फैला कोरोना संक्रमण<br/>अवरुद्ध परिभ्रमण<br/>गृह-रमण।<br/>*****</p>
<p></p>
<p>वायरस<br/>चीनी राक्षस<br/>सब तहस नहस<br/>लोग बेबस<br/>नीरस<br/>*****</p>
<p></p>
<p>कोरोना<br/>चीनी टोना<br/>विश्व शांति खोना<br/>रोना धोना<br/>होना।<br/>*****</p>
<p>क्रमशः 1-2-3-2-1 शब्द प्रति पंक्ति।<br/>*****</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>समान सवैया "रस और कविता"tag:www.openbooksonline.com,2021-03-21:5170231:BlogPost:10567892021-03-21T06:14:34.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>विश्व कविता दिवस की हार्दिक शुभकामना।</p>
<p></p>
<p>32 मात्रिक छंद "रस और कविता"</p>
<p></p>
<p>मोहित होता जब कोई लख, पग पग में बिखरी सुंदरता।<br></br>दाँतों तले दबाता अंगुल, देख देख जग की अद्भुतता।।<br></br>जग-ज्वाला से या विचलित हो, वैरागी सा शांति खोजता।<br></br>ध्यान भक्ति में ही खो कर या, पूर्ण निष्ठ भगवन को भजता।।</p>
<p></p>
<p>या विरहानल जब तड़पाती, धू धू कर के देह जलाती। <br></br>पूर्ण घृणा वीभत्स भाव की, या फिर मानव हृदय लजाती।।<br></br>जग में भरी भयानकता या, रोम रोम भय से कम्पाती।।<br></br>ओतप्रोत…</p>
<p>विश्व कविता दिवस की हार्दिक शुभकामना।</p>
<p></p>
<p>32 मात्रिक छंद "रस और कविता"</p>
<p></p>
<p>मोहित होता जब कोई लख, पग पग में बिखरी सुंदरता।<br/>दाँतों तले दबाता अंगुल, देख देख जग की अद्भुतता।।<br/>जग-ज्वाला से या विचलित हो, वैरागी सा शांति खोजता।<br/>ध्यान भक्ति में ही खो कर या, पूर्ण निष्ठ भगवन को भजता।।</p>
<p></p>
<p>या विरहानल जब तड़पाती, धू धू कर के देह जलाती। <br/>पूर्ण घृणा वीभत्स भाव की, या फिर मानव हृदय लजाती।।<br/>जग में भरी भयानकता या, रोम रोम भय से कम्पाती।।<br/>ओतप्रोत वात्सल्य भाव से, माँ की ममता जिसे लुभाती।।</p>
<p></p>
<p>अरि की छाती वीर भाव से, छलनी करने भुजा फड़कती।<br/>या पर पीड़ निमज्जित छाती, जिसकी करुणा भरी धड़कती।।<br/>या शोषकता सबलों की लख, रौद्र रूप से नसें कड़कती।<br/>या अटपटी बात या घटना, मन में हास्य फुहार छिड़कती।।</p>
<p></p>
<p>अभियन्ता ज्यों निर्माणों को, परियोजित कर के सँवारता।<br/>बार बार परिरूप देख वह, प्रस्तुतियाँ दे कर निखारता।।<br/>तब वह ईंटा, गारा, लोहा, जोड़ धैर्य से आगे बढ़ता।<br/>और अंत में वास्तुकार सा, नवल भवन सज्जा से गढ़ता।।</p>
<p></p>
<p>भावों को कवि-मन वैसे ही, नया रूप दे दे संजोता।<br/>अलंकार, छंदों, उपमा से, भाव सजा कर शब्द पिरोता।।<br/>एक एक कड़ियों को जोड़े, गहन मनन से फिर दमकाता।<br/>और अंत में भाव मग्न हो, प्रस्तुत कर कर के चमकाता।।</p>
<p></p>
<p>जननी जैसे नवजाता को, लख विभोर मन ही मन होती।<br/>नये नये परिधानों में माँ, सजा उसे पुत्री में खोती।।<br/>वही भावना कवि के मन को, नयी रचित कविता देती है।<br/>तब नव भावों शब्दों से सज, कविता पूर्ण रूप लेती है।।</p>
<p></p>
<p>बासुदेव अग्रवाल 'नमन'<br/>तिनसुकिया</p>
<p></p>
<p>(अभियन्ता= इंजीनियर; परियोजीत= प्रोजेक्टींग; परिरूप= डिजाइन; प्रस्तुती= प्रेजेन्टेशन )</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल (तीर नज़रों का उनका चलाना हुआ)tag:www.openbooksonline.com,2019-09-30:5170231:BlogPost:9936472019-09-30T12:19:25.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>212*</p>
<p></p>
<p>तीर नज़रों का उनका चलाना हुआ,<br></br>और दिल का इधर छटपटाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>हाल नादान दिल का न पूछे कोई,<br></br>वो तो खोया पड़ा आशिक़ाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>ये शब-ओ-रोज़, आब-ओ-हवा आसमाँ,<br></br>शय अज़ब इश्क़ है सब सुहाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>अब नहीं बाक़ी उसमें किसी की जगह,<br></br>जिनकी यादों का दिल आशियाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>क्या यही इश्क़ है, रूठा दिलवर उधर,<br></br>और दुश्मन इधर ये जमाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>जो परिंदा महब्बत का दिल में बसा,<br></br>बाग़ उजड़ा तो वो बेठिकाना…</p>
<p>212*</p>
<p></p>
<p>तीर नज़रों का उनका चलाना हुआ,<br/>और दिल का इधर छटपटाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>हाल नादान दिल का न पूछे कोई,<br/>वो तो खोया पड़ा आशिक़ाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>ये शब-ओ-रोज़, आब-ओ-हवा आसमाँ,<br/>शय अज़ब इश्क़ है सब सुहाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>अब नहीं बाक़ी उसमें किसी की जगह,<br/>जिनकी यादों का दिल आशियाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>क्या यही इश्क़ है, रूठा दिलवर उधर,<br/>और दुश्मन इधर ये जमाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>जो परिंदा महब्बत का दिल में बसा,<br/>बाग़ उजड़ा तो वो बेठिकाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>शायरी ग़म भुलाती थी तेरे 'नमन',<br/>शौक़ उल्फ़त का दिल को जलाना हुआ।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>असबंधा छंद "हिंदी गौरवtag:www.openbooksonline.com,2019-09-14:5170231:BlogPost:9921532019-09-14T03:40:48.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>असबंधा छंद "हिंदी गौरव</p>
<p></p>
<p>भाषा हिंदी गौरव बड़पन की दाता।<br></br>देवी-भाषा संस्कृत मृदु इसकी माता।।<br></br>हिंदी प्यारी पावन शतदल वृन्दा सी।<br></br>साजे हिंदी विश्व पटल पर चन्दा सी।।</p>
<p></p>
<p>हिंदी भावों की मधुरिम परिभाषा है।<br></br>ये जाये आगे बस यह अभिलाषा है।।<br></br>त्यागें अंग्रेजी यह समझ बिमारी है।<br></br>ओजस्वी भाषा खुद जब कि हमारी है।।</p>
<p></p>
<p>गोसाँई ने रामचरित इस में राची।<br></br>मीरा बाँधे घूँघर पग इस में नाची।।<br></br>सूरा ने गाये सब पद इस में प्यारे।<br></br>ऐसी थाती पा कर हम सब से…</p>
<p>असबंधा छंद "हिंदी गौरव</p>
<p></p>
<p>भाषा हिंदी गौरव बड़पन की दाता।<br/>देवी-भाषा संस्कृत मृदु इसकी माता।।<br/>हिंदी प्यारी पावन शतदल वृन्दा सी।<br/>साजे हिंदी विश्व पटल पर चन्दा सी।।</p>
<p></p>
<p>हिंदी भावों की मधुरिम परिभाषा है।<br/>ये जाये आगे बस यह अभिलाषा है।।<br/>त्यागें अंग्रेजी यह समझ बिमारी है।<br/>ओजस्वी भाषा खुद जब कि हमारी है।।</p>
<p></p>
<p>गोसाँई ने रामचरित इस में राची।<br/>मीरा बाँधे घूँघर पग इस में नाची।।<br/>सूरा ने गाये सब पद इस में प्यारे।<br/>ऐसी थाती पा कर हम सब से न्यारे।।</p>
<p></p>
<p>शोभा पाता भारत जग मँह हिंदी से।<br/>जैसे नारी भाल सजत इक बिंदी से।।<br/>हिंदी माँ को मान जगत भर में देवें।<br/>ये प्यारी भाषा हम सब मन से सेवें।।<br/>============<br/>लक्षण छंद:-</p>
<p>"मातानासागाग" रचित 'असबंधा' है।<br/>ये तो प्यारी छंद सरस मधु गंधा है।।</p>
<p></p>
<p>"मातानासागाग" = मगण, तगण, नगण, सगण गुरु गुरु<br/>222 221 111 112 22= 14 वर्ण<br/>दो दो या चारों चरण समतुकांत।<br/>********************</p>
<p>बासुदेव अग्रवाल 'नमन'<br/>तिनसुकिया<br/><br/></p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल (देते हमें जो ज्ञान का भंडार)tag:www.openbooksonline.com,2019-07-16:5170231:BlogPost:9875622019-07-16T10:00:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>गुरु पूर्णिमा के विशेष अवसर पर:-</p>
<p style="text-align: right;"></p>
<p>बह्र:- 2212*4</p>
<p></p>
<p>देते हमें जो ज्ञान का भंडार वे गुरु हैं सभी,<br></br>दुविधाओं का सर से हरें जो भार वे गुरु हैं सभी।</p>
<p></p>
<p>हम आ के भवसागर में हैं असहाय बिन पतवार के,<br></br>जो मन की आँखें खोल कर दें पार वे गुरु हैं सभी।</p>
<p></p>
<p>ये सृष्टि क्या है, जन्म क्या है, प्रश्न सारे मौन हैं,<br></br>जो इन रहस्यों से करें निस्तार वे गुरु हैं सभी।</p>
<p></p>
<p>छंदों का सौष्ठव, काव्य के रस का न मन में भान…</p>
<p>गुरु पूर्णिमा के विशेष अवसर पर:-</p>
<p style="text-align: right;"></p>
<p>बह्र:- 2212*4</p>
<p></p>
<p>देते हमें जो ज्ञान का भंडार वे गुरु हैं सभी,<br/>दुविधाओं का सर से हरें जो भार वे गुरु हैं सभी।</p>
<p></p>
<p>हम आ के भवसागर में हैं असहाय बिन पतवार के,<br/>जो मन की आँखें खोल कर दें पार वे गुरु हैं सभी।</p>
<p></p>
<p>ये सृष्टि क्या है, जन्म क्या है, प्रश्न सारे मौन हैं,<br/>जो इन रहस्यों से करें निस्तार वे गुरु हैं सभी।</p>
<p></p>
<p>छंदों का सौष्ठव, काव्य के रस का न मन में भान है,<br/>साहित्य के साधन का दें आधार वे गुरु हैं सभी।</p>
<p></p>
<p>चर या अचर जो सृष्टि में देते हैं शिक्षा कुछ न कुछ,<br/>जिनसे हमारा ये खिला संसार वे गुरु हैं सभी।</p>
<p></p>
<p>गीता हो, रामायण हो या फिर दूसरे सद्ग्रन्थ हों,<br/>जो सद्विचारों का करें संचार वे गुरु हैं सभी।</p>
<p></p>
<p>गुरुपूर्णिमा के दिन करें गुरु वृंद का वंदन 'नमन',<br/>संसार का जिनसे मिला है सार वे गुरु हैं सभी।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p></p>बह्र-ए-वाफ़िर मुरब्बा सालिम (ग़ज़ल)tag:www.openbooksonline.com,2019-07-14:5170231:BlogPost:9875002019-07-14T10:00:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>ग़ज़ल (वो जब भी मिली)</p>
<p></p>
<p>बह्र-ए-वाफ़िर मुरब्बा सालिम (12112*2)</p>
<p></p>
<p>वो जब भी मिली, महकती मिली,<br></br> गुलाब सी वो, खिली सी मिली।</p>
<p></p>
<p>हो गगरी कोई, शराब की ज्यों,<br></br> वो वैसी मुझे, छलकती मिली।</p>
<p></p>
<p>दिखाई पड़ीं, वे जब भी मुझे,<br></br> उन_आँखों में बस, खुमारी मिली।</p>
<p></p>
<p>लगाने की दिल, ये कैसी सज़ा,<br></br> वफ़ा की जगह, जफ़ा ही मिली।</p>
<p></p>
<p>कभी वो मुझे,बताए ज़रा,</p>
<p>जो मुझ में उसे, ख़राबी मिली।</p>
<p></p>
<p>गिला भी किया, ज़रा भी अगर,<br></br> पुरानी…</p>
<p>ग़ज़ल (वो जब भी मिली)</p>
<p></p>
<p>बह्र-ए-वाफ़िर मुरब्बा सालिम (12112*2)</p>
<p></p>
<p>वो जब भी मिली, महकती मिली,<br/> गुलाब सी वो, खिली सी मिली।</p>
<p></p>
<p>हो गगरी कोई, शराब की ज्यों,<br/> वो वैसी मुझे, छलकती मिली।</p>
<p></p>
<p>दिखाई पड़ीं, वे जब भी मुझे,<br/> उन_आँखों में बस, खुमारी मिली।</p>
<p></p>
<p>लगाने की दिल, ये कैसी सज़ा,<br/> वफ़ा की जगह, जफ़ा ही मिली।</p>
<p></p>
<p>कभी वो मुझे,बताए ज़रा,</p>
<p>जो मुझ में उसे, ख़राबी मिली।</p>
<p></p>
<p>गिला भी किया, ज़रा भी अगर,<br/> पुरानी मगर, सफाई मिली।</p>
<p></p>
<p>'नमन' तो चला, भलाई की राह,<br/> उसे तो सदा, बुराई मिली।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>तोटक छंद "विरह"tag:www.openbooksonline.com,2019-05-08:5170231:BlogPost:9834582019-05-08T08:51:42.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>तोटक छंद "विरह"</p>
<p></p>
<p>सब ओर छटा मनभावन है।<br></br>अति मौसम आज सुहावन है।।<br></br>चहुँ ओर नये सब रंग सजे।<br></br>दृग देख उन्हें सकुचाय लजे।।</p>
<p></p>
<p>सखि आज पिया मन माँहि बसे।<br></br>सब आतुर होयहु अंग लसे।।<br></br>कछु सोच उपाय करो सखिया।<br></br>पिय से किस भी विध हो बतिया।।</p>
<p></p>
<p>मन मोर बड़ा अकुलाय रहा।<br></br>विरहा अब और न जाय सहा।।<br></br>तन निश्चल सा बस श्वांस चले।<br></br>किस भी विध ये अब ना बहले।।</p>
<p></p>
<p>जलती यह शीत बयार लगे।<br></br>मचले मचले कुछ भाव जगे।।<br></br>बदली नभ की न जरा…</p>
<p>तोटक छंद "विरह"</p>
<p></p>
<p>सब ओर छटा मनभावन है।<br/>अति मौसम आज सुहावन है।।<br/>चहुँ ओर नये सब रंग सजे।<br/>दृग देख उन्हें सकुचाय लजे।।</p>
<p></p>
<p>सखि आज पिया मन माँहि बसे।<br/>सब आतुर होयहु अंग लसे।।<br/>कछु सोच उपाय करो सखिया।<br/>पिय से किस भी विध हो बतिया।।</p>
<p></p>
<p>मन मोर बड़ा अकुलाय रहा।<br/>विरहा अब और न जाय सहा।।<br/>तन निश्चल सा बस श्वांस चले।<br/>किस भी विध ये अब ना बहले।।</p>
<p></p>
<p>जलती यह शीत बयार लगे।<br/>मचले मचले कुछ भाव जगे।।<br/>बदली नभ की न जरा बदली।<br/>पर मैं बदली अब हो पगली।।<br/>=============<br/>लक्षण छंद:-</p>
<p>जब द्वादश वर्ण "ससासस" हो।<br/>तब 'तोटक' पावन छंदस हो।।</p>
<p>"ससासस" = चार सगण<br/>112 112 112 112 = 12 वर्ण<br/>******************</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>कनक मंजरी छंद "गोपी विरह"tag:www.openbooksonline.com,2019-04-22:5170231:BlogPost:9815662019-04-22T05:24:04.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>कनक मंजरी छंद "गोपी विरह"</p>
<p></p>
<p>तन-मन छीन किये अति पागल,<br></br>हे मधुसूदन तू सुध ले।<br></br>श्रवणन गूँज रही मुरली वह,<br></br>जो हम ली सुन कूँज तले।।<br></br>अब तक खो उस ही धुन में हम,<br></br>ढूंढ रहीं ब्रज की गलियाँ।<br></br>सब कुछ जानत हो तब दर्शन,<br></br>देय खिला मुरझी कलियाँ।।</p>
<p></p>
<p>द्रुम अरु कूँज लता सँग बातिन,<br></br>में यह वे सब पूछ रही।<br></br>नटखट श्याम सखा बिन जीवित,<br></br>क्यों अब लौं, निगलै न मही।।<br></br>विहग रहे उड़ छू कर अम्बर,<br></br>गाय रँभाय रही सब हैं।<br></br>हरित सभी ब्रज के तुम पादप,<br></br>बंजर…</p>
<p>कनक मंजरी छंद "गोपी विरह"</p>
<p></p>
<p>तन-मन छीन किये अति पागल,<br/>हे मधुसूदन तू सुध ले।<br/>श्रवणन गूँज रही मुरली वह,<br/>जो हम ली सुन कूँज तले।।<br/>अब तक खो उस ही धुन में हम,<br/>ढूंढ रहीं ब्रज की गलियाँ।<br/>सब कुछ जानत हो तब दर्शन,<br/>देय खिला मुरझी कलियाँ।।</p>
<p></p>
<p>द्रुम अरु कूँज लता सँग बातिन,<br/>में यह वे सब पूछ रही।<br/>नटखट श्याम सखा बिन जीवित,<br/>क्यों अब लौं, निगलै न मही।।<br/>विहग रहे उड़ छू कर अम्बर,<br/>गाय रँभाय रही सब हैं।<br/>हरित सभी ब्रज के तुम पादप,<br/>बंजर तो हम ही अब हैं।।</p>
<p></p>
<p>मधुकर एक लखी तब गोपिन,<br/>बोल पड़ी फिर वे उससे।<br/>भ्रमर कहो किस कारण गूँजन,<br/>से बतियावत हो किससे।।<br/>इन परमार्थ भरी कटु बातन,<br/>से नहिं काम हमें अब रे।<br/>रख अपने मँह ज्ञान सभी यह,<br/>भूल गईं सुध ही जब रे।।</p>
<p></p>
<p>भ्रमर तु श्यामल मोहन श्यामल,<br/>तू न कहीं छलिया वह ही।<br/>कलियन रूप चखे नित नूतन,<br/>है गुण श्याम समान वही।।<br/>परखन प्रीत हमार यहाँ यदि,<br/>रूप मनोहर वो धर लें।<br/>यदि न सँदेश हमार पठावहु,<br/>दर्श दिखा दुख वे हर लें।।<br/>=================<br/>लक्षण छंद:-</p>
<p>प्रथम रखें लघु चार तबै षट "भा" गण संग व 'गा' रख लें।<br/>सु'कनकमंजरि' छंद रचें यति तेरह वर्ण तथा दश पे।।</p>
<p>लघु चार तबै षट "भा" गण संग व 'गा' = 4लघु+6भगण(211)+1गुरु]=23 वर्ण</p>
<p>{1111+211+211+211+211+211+211+2}<br/>*********<br/>बासुदेव अग्रवाल 'नमन'<br/>तिनसुकिया<br/><br/></p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>अहीर छंद "प्रदूषण"tag:www.openbooksonline.com,2019-04-18:5170231:BlogPost:9811102019-04-18T07:48:50.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p dir="ltr">अहीर छंद "प्रदूषण"</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">बढ़ा प्रदूषण जोर।<br></br> इसका कहीं न छोर।।<br></br> संकट ये अति घोर।<br></br> मचा चतुर्दिक शोर।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">यह दावानल आग।<br></br> हम सब पर यह दाग।।<br></br> जाओ <span>मान</span>व जाग।<br></br> छोड़ो भागमभाग।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मनुज दनुज सम होय।<br></br> मर्यादा वह खोय।।<br></br> स्वारथ का बन भृत्य।<br></br> करे असुर सम कृत्य।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">जंगल करत विनष्ट।<br></br> सहे जीव-जग कष्ट।।<br></br> प्राणी सकल…</p>
<p dir="ltr">अहीर छंद "प्रदूषण"</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">बढ़ा प्रदूषण जोर।<br/> इसका कहीं न छोर।।<br/> संकट ये अति घोर।<br/> मचा चतुर्दिक शोर।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">यह दावानल आग।<br/> हम सब पर यह दाग।।<br/> जाओ <span>मान</span>व जाग।<br/> छोड़ो भागमभाग।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मनुज दनुज सम होय।<br/> मर्यादा वह खोय।।<br/> स्वारथ का बन भृत्य।<br/> करे असुर सम कृत्य।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">जंगल करत विनष्ट।<br/> सहे जीव-जग कष्ट।।<br/> प्राणी सकल कराह।<br/> भरते दारुण आह।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">यंत्र-धूम्र विकराल।<br/> ज्यों यह विषधर व्याल।।<br/> जकड़ जगत निज दाढ़।<br/> विपदा करे प्रगाढ़।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">दूषित वायु व नीर।<br/> जंतु समस्त अधीर।।<br/> संकट में अब प्राण।<br/> उनको कहीं न त्राण।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">प्रकृति-संतुलन ध्वस्त।<br/> सकल विश्व अब त्रस्त।।<br/> अन्धाधुन्ध विकास।<br/> आया जरा न रास।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">विपद न यह लघु-काय।<br/> पर अब जग-समुदाय।।<br/> मिलजुल करे उपाय।<br/> तब यह टले बलाय।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">(यह 11 मात्रा का छंद है जिसका अंत जगण 121 से होना आवश्यक है)</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मौलिक व अप्रकाशित</p>ओ बी ओ मंच को समर्पित ग़ज़ल (1222*4)tag:www.openbooksonline.com,2019-04-01:5170231:BlogPost:9798862019-04-01T06:30:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>तुझे इस वर्ष नौवें की ओ बी ओ बधाई है,<br></br> हमारे दिल में चाहत बस तेरी ही रहती छाई है।</p>
<p></p>
<p>मिला इक मंच तुझ जैसा हमें अभिमान है इसका,<br></br> हमारी इस जहाँ में ओ बी ओ से ही बड़ाई है।</p>
<p></p>
<p>सभी इक दूसरे से सीखते हैं और सिखाते हैं,<br></br> हमारी एकता की ओ बी ओ ही बस इकाई है।</p>
<p></p>
<p>सभी झूमें, सभी गायें यहाँ ओ बी ओ में मिल के,<br></br> सभी हम भक्त तेरे हैं तू ही प्यारा कन्हाई है।</p>
<p></p>
<p>लगा जो मर्ज लिखने का, दिखाते ओ बी ओ को ही,<br></br> उसी के पास इसकी क्यों कि इकलौती दवाई…</p>
<p>तुझे इस वर्ष नौवें की ओ बी ओ बधाई है,<br/> हमारे दिल में चाहत बस तेरी ही रहती छाई है।</p>
<p></p>
<p>मिला इक मंच तुझ जैसा हमें अभिमान है इसका,<br/> हमारी इस जहाँ में ओ बी ओ से ही बड़ाई है।</p>
<p></p>
<p>सभी इक दूसरे से सीखते हैं और सिखाते हैं,<br/> हमारी एकता की ओ बी ओ ही बस इकाई है।</p>
<p></p>
<p>सभी झूमें, सभी गायें यहाँ ओ बी ओ में मिल के,<br/> सभी हम भक्त तेरे हैं तू ही प्यारा कन्हाई है।</p>
<p></p>
<p>लगा जो मर्ज लिखने का, दिखाते ओ बी ओ को ही,<br/> उसी के पास इसकी क्यों कि इकलौती दवाई है।</p>
<p></p>
<p>तुझे शत शत 'नमन' मेरा बधाई फिर से ओ बी ओ,<br/> यहीं मेरी पढ़ाई है यहीं मेरी लिखाई है।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>जागो भाग्य विधाताओtag:www.openbooksonline.com,2019-02-16:5170231:BlogPost:9751262019-02-16T11:30:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p></p>
<p>(प्रति चरण 8+8+8+7 वर्णों की रचना)</p>
<p></p>
<p>देखा अजब तमाशा, छायी दिल में निराशा,<br></br> चार गीदड़ ले गये, मूँछ तेरी नोच के।<br></br> सोये हुए शेर तुम, भूतकाल में हो गुम,<br></br> पुरखों पे नाचते हो, नाक नीची सोच के।।</p>
<p></p>
<p>पूर्वजों ने घी था खाया, नाम तूने वो गमाया,<br></br> सूंघाने से हाथ अब, कोई नहीं फायदा।<br></br> ताव झूठे दिखलाते, गाल खूब हो बजाते,<br></br> मुँह से काम हाथ का, होने का ना कायदा।।</p>
<p></p>
<p>हाथ धरे बैठे रहो, आँख मीच सब सहो,<br></br> पानी पार सर से हो, मुँह तब फाड़ते।…<br></br></p>
<p></p>
<p>(प्रति चरण 8+8+8+7 वर्णों की रचना)</p>
<p></p>
<p>देखा अजब तमाशा, छायी दिल में निराशा,<br/> चार गीदड़ ले गये, मूँछ तेरी नोच के।<br/> सोये हुए शेर तुम, भूतकाल में हो गुम,<br/> पुरखों पे नाचते हो, नाक नीची सोच के।।</p>
<p></p>
<p>पूर्वजों ने घी था खाया, नाम तूने वो गमाया,<br/> सूंघाने से हाथ अब, कोई नहीं फायदा।<br/> ताव झूठे दिखलाते, गाल खूब हो बजाते,<br/> मुँह से काम हाथ का, होने का ना कायदा।।</p>
<p></p>
<p>हाथ धरे बैठे रहो, आँख मीच सब सहो,<br/> पानी पार सर से हो, मुँह तब फाड़ते।<br/> देश में है लोकतन्त्र, फैला पर भ्रष्टतन्त्र,<br/> दोष एक दूसरे को, दे के हाथ झाड़ते।।</p>
<p></p>
<p>ग़ुलामी की ठण्ड शख्त, जमा गयी तेरा रक्त,<br/> आज़ादी की कड़ी धूप, पिघला न पायी है।<br/> चाहे देश प्रतिशोध, कोई न बर्दाश्त रोध,<br/> जागो भाग्य विधाताओं, मर्यादा लजायी है।।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>षट ऋतु हाइकुtag:www.openbooksonline.com,2019-01-31:5170231:BlogPost:9723702019-01-31T06:30:54.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>षट ऋतु हाइकु</p>
<p></p>
<p>चैत्र वैशाख<br/>छायी 'बसंत'-साख।<br/>बौराई शाख।<br/>**<br/>ज्येष्ठ आषाढ़<br/>जकड़े 'ग्रीष्म'-दाढ़<br/>स्वेद की बाढ़।<br/>**<br/>श्रावण भाद्र<br/>'वर्षा' से धरा आर्द्र<br/>मेघ हैं सांद्र।<br/>**<br/>क्वार कार्तिक<br/>'शरद' अलौकिक<br/>शुभ्र सात्विक।<br/>**<br/>अग्हन पोष<br/>'हेमन्त' भरे रोष<br/>रजाई तोष।<br/>**<br/>माघ फाल्गुन<br/>'शिशिर' है पाहुन<br/>तापे आगुन।<br/>*******</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>षट ऋतु हाइकु</p>
<p></p>
<p>चैत्र वैशाख<br/>छायी 'बसंत'-साख।<br/>बौराई शाख।<br/>**<br/>ज्येष्ठ आषाढ़<br/>जकड़े 'ग्रीष्म'-दाढ़<br/>स्वेद की बाढ़।<br/>**<br/>श्रावण भाद्र<br/>'वर्षा' से धरा आर्द्र<br/>मेघ हैं सांद्र।<br/>**<br/>क्वार कार्तिक<br/>'शरद' अलौकिक<br/>शुभ्र सात्विक।<br/>**<br/>अग्हन पोष<br/>'हेमन्त' भरे रोष<br/>रजाई तोष।<br/>**<br/>माघ फाल्गुन<br/>'शिशिर' है पाहुन<br/>तापे आगुन।<br/>*******</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल (आज फैशन है)tag:www.openbooksonline.com,2018-05-02:5170231:BlogPost:9278492018-05-02T03:00:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>ग़ज़ल (आज फैशन है)</p>
<p></p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p></p>
<p>लतीफ़ों में रिवाजों को भुनाना आज फैशन है,<br></br>छलावा दीन-ओ-मज़हब को बताना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>ठगों ने हर तरह के रंग के चोले रखे पहने,<br></br>सुनहरे स्वप्न जन्नत के दिखाना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>दबे सीने में जो शोले जमाने से रहें महफ़ूज़,<br></br>पराई आग में रोटी पकाना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>कभी बेदर्द सड़कों पे न ऐ दिल दर्द को बतला,<br></br>हवा में आह-ए-मुफ़लिस को उड़ाना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>रहे आबाद हरदम ही अना की बस्ती…</p>
<p>ग़ज़ल (आज फैशन है)</p>
<p></p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p></p>
<p>लतीफ़ों में रिवाजों को भुनाना आज फैशन है,<br/>छलावा दीन-ओ-मज़हब को बताना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>ठगों ने हर तरह के रंग के चोले रखे पहने,<br/>सुनहरे स्वप्न जन्नत के दिखाना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>दबे सीने में जो शोले जमाने से रहें महफ़ूज़,<br/>पराई आग में रोटी पकाना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>कभी बेदर्द सड़कों पे न ऐ दिल दर्द को बतला,<br/>हवा में आह-ए-मुफ़लिस को उड़ाना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>रहे आबाद हरदम ही अना की बस्ती दिल पे रब,<br/>किसी वीराँ जमीं पे हक़ जमाना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>गली कूचों में बेचें ख्वाब अच्छे दिन के लीडर अब,<br/>जहाँ मौक़ा लगे मज़मा लगाना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>इबादत हुस्न की होती जहाँ थी देश भारत में,<br/>नुमाइश हुस्न की करना कराना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>नहीं उम्मीद औलादों से पालो इस जमाने में,<br/>बड़े बूढ़ों के हक़ को बेच खाना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>नहीं इतना भी गिरना चाहिए फिर से न उठ पाओ,<br/>गिरें जो हैं उन्हें ज्यादा गिराना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>तिज़ारत का नया नुस्ख़ा है लूटो जितनी मन मर्ज़ी,<br/>'नमन' मज़बूरियों से धन कमाना आज फैशन है।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल (कैसी ये मज़बूरी है)tag:www.openbooksonline.com,2018-04-22:5170231:BlogPost:9259682018-04-22T10:00:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>ग़ज़ल (कैसी ये मज़बूरी है)</p>
<p>22 22 22 22 22 22 22 2</p>
<p></p>
<p>गदहे को भी बाप बनाऊँ कैसी ये मज़बूरी है,<br></br> कुत्ते सा बन पूँछ हिलाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>एक गाम जो रखें न सीधा चलना मुझे सिखायें वे,<br></br> उनकी सुन सुन कदम बढ़ाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>झूठ कपट की नई बस्तियाँ चमक दमक से भरी हुईं,<br></br> उन बस्ती में घर को बसाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>सबसे पहले ऑफिस आऊँ और अंत में घर जाऊँ,<br></br>मगर बॉस को रिझा न पाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>ऊँचे घर…</p>
<p>ग़ज़ल (कैसी ये मज़बूरी है)</p>
<p>22 22 22 22 22 22 22 2</p>
<p></p>
<p>गदहे को भी बाप बनाऊँ कैसी ये मज़बूरी है,<br/> कुत्ते सा बन पूँछ हिलाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>एक गाम जो रखें न सीधा चलना मुझे सिखायें वे,<br/> उनकी सुन सुन कदम बढ़ाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>झूठ कपट की नई बस्तियाँ चमक दमक से भरी हुईं,<br/> उन बस्ती में घर को बसाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>सबसे पहले ऑफिस आऊँ और अंत में घर जाऊँ,<br/>मगर बॉस को रिझा न पाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>ऊँचे घर में तोरण मारा पहले सोच नहीं पाया,<br/> अब नित उनके नाज़ उठाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>सास ससुर से माथा फोड़ूं साली सलहज एक नहीं,<br/>मैं ऐसे ससुराल में जाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>डायटिंग घर में कर कर के पीठ पेट मिल एक हुये,<br/> पर दावत में ठूँस के खाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>कारोबार किया चौपट है चंदे के इस धंधे ने,<br/> हर नेता से आँख चुराऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>पहुँच बना कर लगी नौकरी गई सेंध लग तनख्वाह में,<br/> ऊपर सबका भाग भिजाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p>झूठी वाह का दौर सुखन में 'नमन' आज ऐसा आया,<br/> नौसिखियों को "मीर" बताऊँ कैसी ये मज़बूरी है।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल(याद आती हैं जब)tag:www.openbooksonline.com,2018-04-03:5170231:BlogPost:9232432018-04-03T03:00:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>ग़ज़ल(याद आती हैं जब)<br></br> 212 212 212 212</p>
<p></p>
<p>याद आतीं हैं जब आपकी शोखियाँ,<br></br>और भी तब हसीं होतीं तन्हाइयाँ।</p>
<p></p>
<p>आपसे बढ़ गईं इतनी नज़दीकियाँ,<br></br>दिल के लगने लगीं पास अब दूरियाँ।</p>
<p></p>
<p>डालते गर न दरिया में कर नेकियाँ,<br></br>हारते हम न यूँ आपसे बाज़ियाँ।</p>
<p></p>
<p>गर न हासिल वफ़ा का सिला कुछ हुआ,<br></br>उनकी शायद रही कुछ हों मज़बूरियाँ।</p>
<p></p>
<p>मिलता हमको चराग-ए-मुहब्बत अगर,<br></br>राह में स्याह आतीं न दुश्वारियाँ।</p>
<p></p>
<p>हुस्नवालों से दामन बचाना ए…</p>
<p>ग़ज़ल(याद आती हैं जब)<br/> 212 212 212 212</p>
<p></p>
<p>याद आतीं हैं जब आपकी शोखियाँ,<br/>और भी तब हसीं होतीं तन्हाइयाँ।</p>
<p></p>
<p>आपसे बढ़ गईं इतनी नज़दीकियाँ,<br/>दिल के लगने लगीं पास अब दूरियाँ।</p>
<p></p>
<p>डालते गर न दरिया में कर नेकियाँ,<br/>हारते हम न यूँ आपसे बाज़ियाँ।</p>
<p></p>
<p>गर न हासिल वफ़ा का सिला कुछ हुआ,<br/>उनकी शायद रही कुछ हों मज़बूरियाँ।</p>
<p></p>
<p>मिलता हमको चराग-ए-मुहब्बत अगर,<br/>राह में स्याह आतीं न दुश्वारियाँ।</p>
<p></p>
<p>हुस्नवालों से दामन बचाना ए दिल,<br/>मात दानिश को दें उनकी नादानियाँ।</p>
<p></p>
<p>आग मज़हब की जो भी लगातें 'नमन',<br/>इसमें अपनी ही वे सेकतें रोटियाँ।</p>
<p></p>
<p>पुछल्ला</p>
<p></p>
<p>आठ पूरे किए साल खुशहाली के,</p>
<p>ओ बी ओ यूँ ही छूएगा ऊँचाइयाँ।</p>
<p><br/> दानिश=अक्ल, बुद्धि</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल ,(तेरे चहरे की जब भी अर्गवानी याद आएगी।)tag:www.openbooksonline.com,2018-03-02:5170231:BlogPost:9172142018-03-02T06:00:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>ग़ज़ल ,(तेरे चहरे की जब भी अर्गवानी याद आएगी।)</p>
<p></p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p></p>
<p>तेरे चहरे की रंगत अर्गवानी याद आएगी,<br></br>हमें होली के रंगों की निशानी याद आएगी।</p>
<p></p>
<p>तुझे जब भी हमारी छेड़खानी याद आएगी<br></br>यकीनन यार होली की सुहानी याद आएगी।</p>
<p></p>
<p>मची है धूम होली की जरा खिड़की से झाँको तो,<br></br>इसे देखोगे तो अपनी जवानी याद आएगी।</p>
<p></p>
<p>जमीं रंगीं फ़ज़ा रंगीं तेरे आगे नहीं कुछ ये,<br></br>झलक इक बार दिखला दे पुरानी याद आएगी।</p>
<p></p>
<p>नहीं कम ब्लॉग में मस्ती…</p>
<p>ग़ज़ल ,(तेरे चहरे की जब भी अर्गवानी याद आएगी।)</p>
<p></p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p></p>
<p>तेरे चहरे की रंगत अर्गवानी याद आएगी,<br/>हमें होली के रंगों की निशानी याद आएगी।</p>
<p></p>
<p>तुझे जब भी हमारी छेड़खानी याद आएगी<br/>यकीनन यार होली की सुहानी याद आएगी।</p>
<p></p>
<p>मची है धूम होली की जरा खिड़की से झाँको तो,<br/>इसे देखोगे तो अपनी जवानी याद आएगी।</p>
<p></p>
<p>जमीं रंगीं फ़ज़ा रंगीं तेरे आगे नहीं कुछ ये,<br/>झलक इक बार दिखला दे पुरानी याद आएगी।</p>
<p></p>
<p>नहीं कम ब्लॉग में मस्ती मज़ा लेंगे जो होली का,<br/>'नमन' मेरी सभी को शेर-ख्वानी याद आएगी।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p></p>ग़ज़ल(रहे गर्दिश में जो हरदम)tag:www.openbooksonline.com,2018-02-06:5170231:BlogPost:9128702018-02-06T10:34:41.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>जनाब साहिर लुधियानवी के मिसरे पर तरही ग़ज़ल।</p>
<p></p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p></p>
<p>रहे गर्दिश में जो हरदम, उन_अनजानों पे क्या गुजरी,<br></br>किसे मालूम ऐसे दफ़्न अरमानों पे क्या गुजरी।</p>
<p></p>
<p>कमर झुकती गयी वो बोझ को फिर भी रहें थामे,<br></br>न जाने आज की औलाद उन शानों पे क्या गुजरी।</p>
<p></p>
<p>अगर हो बात फ़ितरत की नहीं तुम जानवर से कम,<br></br>*जब_इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुजरी।*</p>
<p></p>
<p>मुहब्बत की शमअ पर मर मिटे जल जल पतंगे जो,<br></br>खबर किसको कि उन नाकाम परवानों…</p>
<p>जनाब साहिर लुधियानवी के मिसरे पर तरही ग़ज़ल।</p>
<p></p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p></p>
<p>रहे गर्दिश में जो हरदम, उन_अनजानों पे क्या गुजरी,<br/>किसे मालूम ऐसे दफ़्न अरमानों पे क्या गुजरी।</p>
<p></p>
<p>कमर झुकती गयी वो बोझ को फिर भी रहें थामे,<br/>न जाने आज की औलाद उन शानों पे क्या गुजरी।</p>
<p></p>
<p>अगर हो बात फ़ितरत की नहीं तुम जानवर से कम,<br/>*जब_इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुजरी।*</p>
<p></p>
<p>मुहब्बत की शमअ पर मर मिटे जल जल पतंगे जो,<br/>खबर किसको कि उन नाकाम परवानों पे क्या गुजरी।</p>
<p></p>
<p>'नमन' इतनी बढ़ी क्यों बेरुखी लोगों में अपनों से,<br/>सभी को है यही अब फ़िक्र बेगानों पे क्या गुजरी।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>लम्बे रदीफ़ की ग़ज़ल (कज़ा मेरी अगर जो हो)tag:www.openbooksonline.com,2017-10-22:5170231:BlogPost:8910982017-10-22T05:41:05.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
गुणीजनों के सुझाव के हेतु।<br />
काफ़िया=आ<br />
रदीफ़= *मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर*<br />
1222×4<br />
<br />
खता मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर,<br />
सजा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
वतन के वास्ते जीना, वतन के वास्ते मरना,<br />
वफ़ा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
नशा ये देश-भक्ति का, रखे चौड़ी सदा छाती,<br />
अना मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
रहे चोटी खुली मेरी, वतन में भूख है जब तक,<br />
शिखा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
गरीबों के सदा हक़ में, उठा आवाज़ जीता हूँ,<br />
सदा मेरी अगर जो हो, तो हो…
गुणीजनों के सुझाव के हेतु।<br />
काफ़िया=आ<br />
रदीफ़= *मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर*<br />
1222×4<br />
<br />
खता मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर,<br />
सजा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
वतन के वास्ते जीना, वतन के वास्ते मरना,<br />
वफ़ा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
नशा ये देश-भक्ति का, रखे चौड़ी सदा छाती,<br />
अना मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
रहे चोटी खुली मेरी, वतन में भूख है जब तक,<br />
शिखा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
गरीबों के सदा हक़ में, उठा आवाज़ जीता हूँ,<br />
सदा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
रखूँ जिंदा शहीदों को, निभा किरदार मैं उनका,<br />
अदा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
मेरी मर्जी तो ये केवल, बढ़े ये देश आगे ही,<br />
रज़ा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
रहे रोशन सदा सब से, वतन का नाम हे भगवन,<br />
दुआ मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
चढ़ातें सीस माटी को, 'नमन' वे सब अमर होते,<br />
कज़ा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितग़ज़ल (दीपावली)tag:www.openbooksonline.com,2017-10-19:5170231:BlogPost:8902912017-10-19T04:12:31.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
ग़ज़ल (दीपावली)<br />
212×4<br />
<br />
जगमगाते दियों से मही खिल उठी,<br />
शह्र हो गाँव हो हर गली खिल उठी।<br />
<br />
लायी खुशियाँ ये दीपावली झोली भर,<br />
आज चेह्रों पे सब के हँसी खिल उठी।<br />
<br />
आप देखो जिधर नव उमंगें उधर,<br />
हर महल खिल उठा झोंपड़ी खिल उठी।<br />
<br />
सुर्खियाँ सब के गालों पे ऐसी लगे,<br />
कुमकुमे हँस दिये रोशनी खिल उठी।<br />
<br />
ओ बी' ओ को बधाई 'नमन' पर्व की<br />
मंच पर आज दीपावली खिल उठी।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
ग़ज़ल (दीपावली)<br />
212×4<br />
<br />
जगमगाते दियों से मही खिल उठी,<br />
शह्र हो गाँव हो हर गली खिल उठी।<br />
<br />
लायी खुशियाँ ये दीपावली झोली भर,<br />
आज चेह्रों पे सब के हँसी खिल उठी।<br />
<br />
आप देखो जिधर नव उमंगें उधर,<br />
हर महल खिल उठा झोंपड़ी खिल उठी।<br />
<br />
सुर्खियाँ सब के गालों पे ऐसी लगे,<br />
कुमकुमे हँस दिये रोशनी खिल उठी।<br />
<br />
ओ बी' ओ को बधाई 'नमन' पर्व की<br />
मंच पर आज दीपावली खिल उठी।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितग़ज़लtag:www.openbooksonline.com,2017-10-02:5170231:BlogPost:8864712017-10-02T10:30:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
1222 1222 122<br />
<br />
तिजारत हुक्मरानी हो गई है।<br />
कहीं गुम शादमानी हो गई है।।<br />
<br />
न अब गांधी न शास्त्री से हैं रहबर।<br />
शहादत उनकी फ़ानी हो गई है।।<br />
<br />
तेरा तो हुश्न ही दुश्मन है नारी।<br />
कठिन इज्जत बचानी हो गई है।।<br />
<br />
लगी जब बोलने बिटिया हमारी।<br />
वो घर में सबकी नानी हो गई है।।<br />
<br />
हमीं से चार लेकर एक दे कर।<br />
'नमन' सरकार दानी हो गई है।।<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
1222 1222 122<br />
<br />
तिजारत हुक्मरानी हो गई है।<br />
कहीं गुम शादमानी हो गई है।।<br />
<br />
न अब गांधी न शास्त्री से हैं रहबर।<br />
शहादत उनकी फ़ानी हो गई है।।<br />
<br />
तेरा तो हुश्न ही दुश्मन है नारी।<br />
कठिन इज्जत बचानी हो गई है।।<br />
<br />
लगी जब बोलने बिटिया हमारी।<br />
वो घर में सबकी नानी हो गई है।।<br />
<br />
हमीं से चार लेकर एक दे कर।<br />
'नमन' सरकार दानी हो गई है।।<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितछोटी बहर की ग़ज़लtag:www.openbooksonline.com,2017-09-24:5170231:BlogPost:8838372017-09-24T10:00:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
बहर - 2112<br />
काफ़िया - आम; रदीफ़ - चले<br />
<br />
जाम चले<br />
काम चले।<br />
<br />
मौत लिये<br />
आम चले।<br />
<br />
खुद का कफ़न<br />
थाम चले।<br />
<br />
सांसें आठों<br />
याम चले।<br />
<br />
सुब्ह हो या<br />
शाम चले।<br />
<br />
लोग अवध<br />
धाम चले।<br />
<br />
मन में बसा<br />
राम चले।<br />
<br />
पैसा हो तो<br />
नाम चले।<br />
<br />
जग में 'नमन'<br />
दाम चले<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
बहर - 2112<br />
काफ़िया - आम; रदीफ़ - चले<br />
<br />
जाम चले<br />
काम चले।<br />
<br />
मौत लिये<br />
आम चले।<br />
<br />
खुद का कफ़न<br />
थाम चले।<br />
<br />
सांसें आठों<br />
याम चले।<br />
<br />
सुब्ह हो या<br />
शाम चले।<br />
<br />
लोग अवध<br />
धाम चले।<br />
<br />
मन में बसा<br />
राम चले।<br />
<br />
पैसा हो तो<br />
नाम चले।<br />
<br />
जग में 'नमन'<br />
दाम चले<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितग़ज़ल (सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी)tag:www.openbooksonline.com,2017-09-14:5170231:BlogPost:8806372017-09-14T06:00:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
<p>भाषा बड़ी है प्यारी जग में अनोखी हिन्दी,<br></br> चन्दा के जैसे सोहे नभ में निराली हिन्दी।<br></br> <br></br> पहचान हमको देती सबसे अलग ये जग में,<br></br> मीठी जगत में सबसे रस की पिटारी हिन्दी।<br></br> <br></br> हर श्वास में ये बसती हर आह से ये निकले,<br></br> बन के लहू ये बहती रग में ये प्यारी हिन्दी।<br></br> <br></br> इस देश में है भाषा मजहब अनेकों प्रचलित,<br></br> धुन एकता की डाले सब में सुहानी हिन्दी।<br></br> <br></br> शोभा हमारी इससे करते 'नमन' हम इसको,<br></br> सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी।<br></br> <br></br> <br></br> आज हिन्दी दिवस…</p>
<p>भाषा बड़ी है प्यारी जग में अनोखी हिन्दी,<br/> चन्दा के जैसे सोहे नभ में निराली हिन्दी।<br/> <br/> पहचान हमको देती सबसे अलग ये जग में,<br/> मीठी जगत में सबसे रस की पिटारी हिन्दी।<br/> <br/> हर श्वास में ये बसती हर आह से ये निकले,<br/> बन के लहू ये बहती रग में ये प्यारी हिन्दी।<br/> <br/> इस देश में है भाषा मजहब अनेकों प्रचलित,<br/> धुन एकता की डाले सब में सुहानी हिन्दी।<br/> <br/> शोभा हमारी इससे करते 'नमन' हम इसको,<br/> सबसे रहे ये ऊँची मन में हमारी हिन्दी।<br/> <br/> <br/> आज हिन्दी दिवस पर<br/> 22 122 22 // 22 122 22 बहर में<br/> <br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>आज़ादी का गीतtag:www.openbooksonline.com,2017-08-15:5170231:BlogPost:8739342017-08-15T07:59:58.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
"आज़ादी का गीत"<br />
(2212 122 अंतरा 22×4 // 22×3)<br />
(तर्ज़- दिल में तुझे बिठा के)<br />
<br />
भारत तु जग से न्यारा, सब से तु है दुलारा,<br />
मस्तक तुझे झुकाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।<br />
<br />
सन सैंतालिस मास अगस्त था, तारिख पन्द्रह प्यारी,<br />
आज़ादी जब हमें मिली थी, भोर अज़ब वो न्यारी।<br />
चारों तरफ खुशी थी, छायी हुई हँसी थी,<br />
ये पर्व हम मनाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।<br />
<br />
आज़ादी के नभ का यारों, मंजर था सतरंगा,<br />
उतर गया था जैक वो काला, लहराया था तिरंगा।<br />
भारत की जय थी गूँजी, अनमोल थी ये पूँजी,<br />
सपने नये सजाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।<br />
<br />
बहुत दिये बलिदान मिली…
"आज़ादी का गीत"<br />
(2212 122 अंतरा 22×4 // 22×3)<br />
(तर्ज़- दिल में तुझे बिठा के)<br />
<br />
भारत तु जग से न्यारा, सब से तु है दुलारा,<br />
मस्तक तुझे झुकाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।<br />
<br />
सन सैंतालिस मास अगस्त था, तारिख पन्द्रह प्यारी,<br />
आज़ादी जब हमें मिली थी, भोर अज़ब वो न्यारी।<br />
चारों तरफ खुशी थी, छायी हुई हँसी थी,<br />
ये पर्व हम मनाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।<br />
<br />
आज़ादी के नभ का यारों, मंजर था सतरंगा,<br />
उतर गया था जैक वो काला, लहराया था तिरंगा।<br />
भारत की जय थी गूँजी, अनमोल थी ये पूँजी,<br />
सपने नये सजाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।<br />
<br />
बहुत दिये बलिदान मिली तब, आज़ादी ये हमको,<br />
हर कीमत दे इसकी रक्षा, करनी है हम सबको।<br />
दुश्मन जो सर उठाएँ, उनको सबक सिखाएँ,<br />
मन में यही बसाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।<br />
<br />
भारत तु जग से न्यारा, सब से तु है दुलारा,<br />
मस्तक तुझे झुकाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितकृष्णावतारtag:www.openbooksonline.com,2017-08-14:5170231:BlogPost:8738432017-08-14T06:05:22.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
"कृष्णावतार"<br />
<br />
रास छंद। 8,8,6 मात्रा पर यति। अंत 112 से आवश्यक और 2-2 पंक्ति तुकांत आवश्यक।)<br />
<br />
हाथों में थी, मात पिता के, सांकलियाँ।<br />
घोर घटा में, कड़क रही थी, बीजलियाँ<br />
हाथ हाथ को, भी ना सूझे, तम गहरा।<br />
दरवाजों पर, लटके ताले, था पहरा।।<br />
<br />
यमुना मैया, भी ऐसे में, उफन पड़ी।<br />
विपदाओं की, एक साथ में, घोर घड़ी।<br />
मास भाद्रपद, कृष्ण पक्ष की, तिथि अठिया।<br />
कारा-गृह में, जन्म लिया था, मझ रतिया।।<br />
<br />
घोर परीक्षा, पहले लेते, साँवरिया।<br />
जग को करते, एक बार तो, बावरिया।<br />
सन्देश छिपा, हर विपदा में, धीर रहो।<br />
दर्शन चाहो, प्रभु…
"कृष्णावतार"<br />
<br />
रास छंद। 8,8,6 मात्रा पर यति। अंत 112 से आवश्यक और 2-2 पंक्ति तुकांत आवश्यक।)<br />
<br />
हाथों में थी, मात पिता के, सांकलियाँ।<br />
घोर घटा में, कड़क रही थी, बीजलियाँ<br />
हाथ हाथ को, भी ना सूझे, तम गहरा।<br />
दरवाजों पर, लटके ताले, था पहरा।।<br />
<br />
यमुना मैया, भी ऐसे में, उफन पड़ी।<br />
विपदाओं की, एक साथ में, घोर घड़ी।<br />
मास भाद्रपद, कृष्ण पक्ष की, तिथि अठिया।<br />
कारा-गृह में, जन्म लिया था, मझ रतिया।।<br />
<br />
घोर परीक्षा, पहले लेते, साँवरिया।<br />
जग को करते, एक बार तो, बावरिया।<br />
सन्देश छिपा, हर विपदा में, धीर रहो।<br />
दर्शन चाहो, प्रभु के तो हँस, कष्ट सहो।।<br />
<br />
अर्जुन से बन, जीवन रथ का, स्वाद चखो।<br />
कृष्ण सारथी, रथ हाँकेंगे, ठान रखो।<br />
श्याम बिहारी, जब आते हैं, सब सुख है।<br />
कृष्ण नाम से,जग से मिटता, हर दुख है।।<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितराखीtag:www.openbooksonline.com,2017-08-07:5170231:BlogPost:8720282017-08-07T12:51:12.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
"राखी" (चौपइया छंद)<br />
<br />
पर्वों में न्यारी, राखी प्यारी,<br />
सावन बीतत आई।<br />
करके तैयारी, बहन दुलारी,<br />
घर आँगन महकाई।<br />
पकवान पकाए, फूल सजाए,<br />
भेंट अनेकों लाई।<br />
वीरा जब आया, वो बँधवाया,<br />
राखी थाल सजाई।।<br />
<br />
मन मोद मनाए, बलि बलि जाए,<br />
नव उमंग है छाई।<br />
भाई मन भाए, गीत सुनाए,<br />
खुशियों में बौराई।<br />
डाले गलबैयाँ, लेत बलैयाँ,<br />
छोटी बहन लडाई।<br />
भाल पे बिंदिया, ओढ़ चुनरिया,<br />
जीजी मंगल गाई।।<br />
<br />
जब जीवन चहका, बचपन महका,<br />
तुम थी तब हमजोली।<br />
संग संग खेली, तुम अलबेली,<br />
आए याद ठिठोली।<br />
पूरा घर चटके, लटकन लटके,<br />
आंगन में रंगोली।<br />
रक्षा की साखी,…
"राखी" (चौपइया छंद)<br />
<br />
पर्वों में न्यारी, राखी प्यारी,<br />
सावन बीतत आई।<br />
करके तैयारी, बहन दुलारी,<br />
घर आँगन महकाई।<br />
पकवान पकाए, फूल सजाए,<br />
भेंट अनेकों लाई।<br />
वीरा जब आया, वो बँधवाया,<br />
राखी थाल सजाई।।<br />
<br />
मन मोद मनाए, बलि बलि जाए,<br />
नव उमंग है छाई।<br />
भाई मन भाए, गीत सुनाए,<br />
खुशियों में बौराई।<br />
डाले गलबैयाँ, लेत बलैयाँ,<br />
छोटी बहन लडाई।<br />
भाल पे बिंदिया, ओढ़ चुनरिया,<br />
जीजी मंगल गाई।।<br />
<br />
जब जीवन चहका, बचपन महका,<br />
तुम थी तब हमजोली।<br />
संग संग खेली, तुम अलबेली,<br />
आए याद ठिठोली।<br />
पूरा घर चटके, लटकन लटके,<br />
आंगन में रंगोली।<br />
रक्षा की साखी, है ये राखी,<br />
बहना तुम मुँहबोली।।<br />
<br />
हम भारतवासी, हैं बहु भाषी,<br />
मन से भेद मिटाएँ।<br />
यह देश हमारा, बड़ा सहारा,<br />
इसका मान बढ़ाएँ।<br />
बहना हर नारी, राखी प्यारी,<br />
सबसे ही बँधवाएँ।<br />
त्योहार अनोखा, लागे चोखा,<br />
हमसब साथ मनाएँ।।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितग़ज़ल (मधुर मास सावन लगा है)tag:www.openbooksonline.com,2017-07-10:5170231:BlogPost:8656402017-07-10T06:30:00.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
ग़ज़ल (मधुर मास सावन लगा है)<br />
<br />
बहर:- 122 122 122<br />
<br />
मधुर मास सावन लगा है,<br />
दिवस सोम लगते पड़ा है।<br />
<br />
महादेव को सब रिझाएँ,<br />
ये संयोग अद्भुत हुआ है।<br />
<br />
तेरा रूप सबसे निराला,<br />
गले सर्प माथे जटा है।<br />
<br />
कुसुम बिल्व चन्दन चढ़ाएँ,<br />
ये शुभ फल का अवसर बना है।<br />
<br />
शिवाले में अभिषेक जल से,<br />
करें भक्त मोहक छटा है।<br />
<br />
करें कावड़ें तुझको अर्पित,<br />
सभी पुण्य पाते महा है।<br />
<br />
करो पूर्ण आशा मेरी शिव,<br />
'नमन' हाथ जोड़े खड़ा है।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
<br />
(भगवान शिव को अर्पित एक मुसलसल ग़ज़ल)
ग़ज़ल (मधुर मास सावन लगा है)<br />
<br />
बहर:- 122 122 122<br />
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मधुर मास सावन लगा है,<br />
दिवस सोम लगते पड़ा है।<br />
<br />
महादेव को सब रिझाएँ,<br />
ये संयोग अद्भुत हुआ है।<br />
<br />
तेरा रूप सबसे निराला,<br />
गले सर्प माथे जटा है।<br />
<br />
कुसुम बिल्व चन्दन चढ़ाएँ,<br />
ये शुभ फल का अवसर बना है।<br />
<br />
शिवाले में अभिषेक जल से,<br />
करें भक्त मोहक छटा है।<br />
<br />
करें कावड़ें तुझको अर्पित,<br />
सभी पुण्य पाते महा है।<br />
<br />
करो पूर्ण आशा मेरी शिव,<br />
'नमन' हाथ जोड़े खड़ा है।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
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(भगवान शिव को अर्पित एक मुसलसल ग़ज़ल)ग़ज़ल(रमजान गया आई नज़र ईद मुबारक)tag:www.openbooksonline.com,2017-06-26:5170231:BlogPost:8631882017-06-26T05:08:59.000Zबासुदेव अग्रवाल 'नमन'http://www.openbooksonline.com/profile/Basudeo
221 1221 1221 122<br />
<br />
रमजान गया आई नज़र ईद मुबारक,<br />
खुशियों का ये दे सबको असर ईद मुबारक।<br />
<br />
घुल आज फ़िज़ा में हैं गये रंग नये से,<br />
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक।<br />
<br />
पाँवों से ले सर तक है धवल आज नज़ारा,<br />
दे कर के दुआ कहता है हर ईद मुबारक।<br />
<br />
सब भेद भुला ईद गले लग के मनायें,<br />
ये पर्व रहे जग में अमर ईद मुबारक।<br />
<br />
ये ईद है त्योहार मिलापों का अनोखा,<br />
दूँ सब को 'नमन' आज मैं कर ईद मुबारक।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
221 1221 1221 122<br />
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रमजान गया आई नज़र ईद मुबारक,<br />
खुशियों का ये दे सबको असर ईद मुबारक।<br />
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घुल आज फ़िज़ा में हैं गये रंग नये से,<br />
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक।<br />
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पाँवों से ले सर तक है धवल आज नज़ारा,<br />
दे कर के दुआ कहता है हर ईद मुबारक।<br />
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सब भेद भुला ईद गले लग के मनायें,<br />
ये पर्व रहे जग में अमर ईद मुबारक।<br />
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ये ईद है त्योहार मिलापों का अनोखा,<br />
दूँ सब को 'नमन' आज मैं कर ईद मुबारक।<br />
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मौलिक व अप्रकाशित