योगराज प्रभाकर's Posts - Open Books Online2024-03-28T18:02:04Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakarhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/12360349862?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://www.openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=2a7asyqsrz19k&xn_auth=noकविता: ज़माने में बनी है हिंद की पहचान हिंदी सेtag:www.openbooksonline.com,2021-09-14:5170231:BlogPost:10685172021-09-14T05:30:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>अगर है एक तो है एक हिंदुस्तान हिंदी सेI <br></br> ज़माने में बनी है हिंद की पहचान हिंदी सेI</p>
<p>.<br></br> ये दुनिया एक ही कुनबा सदा इसने सिखाया है,<br></br> मोहब्बत का सदाक़त का मिला वरदान हिंदी सेI </p>
<p>.</p>
<p>जो तुलसी जायसी के लाल, अंग्रेजी के अनुयायीI <br></br> उन्हें तुम दूर ही रखना मेरे भगवान हिंदी सेI </p>
<p>.</p>
<p>तुम हिंदी काव्य को रसहीन होने से बचा लेना, <br></br> नहीं तो फिर न निकलेगा कोई रसखान हिंदी सेI </p>
<p></p>
<p>ये उर्दू फ़ारसी अब तक दिवंगत हो गई होतीं, <br></br> मिला भारत में दोनों को…</p>
<p>अगर है एक तो है एक हिंदुस्तान हिंदी सेI <br/> ज़माने में बनी है हिंद की पहचान हिंदी सेI</p>
<p>.<br/> ये दुनिया एक ही कुनबा सदा इसने सिखाया है,<br/> मोहब्बत का सदाक़त का मिला वरदान हिंदी सेI </p>
<p>.</p>
<p>जो तुलसी जायसी के लाल, अंग्रेजी के अनुयायीI <br/> उन्हें तुम दूर ही रखना मेरे भगवान हिंदी सेI </p>
<p>.</p>
<p>तुम हिंदी काव्य को रसहीन होने से बचा लेना, <br/> नहीं तो फिर न निकलेगा कोई रसखान हिंदी सेI </p>
<p></p>
<p>ये उर्दू फ़ारसी अब तक दिवंगत हो गई होतीं, <br/> मिला भारत में दोनों को ही जीवनदान हिंदी सेI</p>
<p>.</p>
<p>मेरे दाता वो मेरी जिंदगी का आखरी दिन हो, </p>
<p>जरा भी दूर हो जिस पल मेरी संतान हिंदी सेI </p>
<p></p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>तरही ग़ज़ल-2 (आ० समर कबीर जी को समर्पित)tag:www.openbooksonline.com,2017-05-07:5170231:BlogPost:8551172017-05-07T14:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<div dir="ltr">1222 1222 122</div>
<div dir="ltr">.</div>
<div dir="ltr">हमारा धर्म दहशत है? नहीं तो! <br></br> तो पूरी क़ौम सहमत है? नहीं तो!</div>
<div dir="ltr">.</div>
<div dir="ltr"><div dir="ltr">तेरे हाथों में ख़ंजर है, मेरे भी</div>
ये क्या अच्छी अलामत है? नही तो<br></br> <br></br> फ़क़त मंदिर ओ मस्जिद के मसौदे, <br></br> यही क़ौमी क़यादत है? नही तो! <br></br> <br></br> अज़ीमुश्शां मक़ाबिर के जो खालिक, <br></br> कहीं उनकी भी तुर्बत है? नही तो!</div>
<div dir="ltr"><br></br> जहाँ पत्थर की हर देवी सुरक्षित, <br></br> वहाँ बेटी…</div>
<div dir="ltr">1222 1222 122</div>
<div dir="ltr">.</div>
<div dir="ltr">हमारा धर्म दहशत है? नहीं तो! <br/> तो पूरी क़ौम सहमत है? नहीं तो!</div>
<div dir="ltr">.</div>
<div dir="ltr"><div dir="ltr">तेरे हाथों में ख़ंजर है, मेरे भी</div>
ये क्या अच्छी अलामत है? नही तो<br/> <br/> फ़क़त मंदिर ओ मस्जिद के मसौदे, <br/> यही क़ौमी क़यादत है? नही तो! <br/> <br/> अज़ीमुश्शां मक़ाबिर के जो खालिक, <br/> कहीं उनकी भी तुर्बत है? नही तो!</div>
<div dir="ltr"><br/> जहाँ पत्थर की हर देवी सुरक्षित, <br/> वहाँ बेटी सलामत है? नही तो!<br/> <br/> मेरी झोली ख़सारों से भरी है <br/> ये मामूली सी ने'मत है? नहीं तो!</div>
<div dir="ltr">.</div>
<div dir="ltr">जड़ों से दूर जाना, कट के रहना </div>
<div dir="ltr">तरक़्क़ी की ज़मानत है? नहो तो</div>
<p></p>
<div dir="ltr">हज़ारों शे'र यूँ तो कह चुका हूँ <br/> किसी में भी नफ़ासत है? नहीं तो!</div>
<div dir="ltr">.</div>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>आते जाते पल (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2016-12-31:5170231:BlogPost:8246252016-12-31T18:31:48.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>वह अपनी धुंधली आँखों से बीत रहे वर्ष की पीठ पर बने रंग बिरंगे चित्रों को बहुत गौर से निहार रही थी, वह अभी उनमें छुपे चेहरों को पहचानने का प्रयास ही कर रही थी कि सहसा वे चित्र चलने फिरने और बोलने लग पड़ेI </p>
<p>"माँ जी! कितनी दफा कहा है कि इन बर्तनों को हाथ मत लगाया करोI" <br></br>नये टी सेट का कप उससे क्या टूटा उसके घर में कलेश ने पाँव पसार लिए थेI <br></br>अगले दृश्य में नए साल की इस झांकी को होली के रंगों ने ढक लियाI <br></br>"बेटा ये बहू की पहली होली है, तो इस बार त्यौहार धूमधाम से..."…</p>
<p>वह अपनी धुंधली आँखों से बीत रहे वर्ष की पीठ पर बने रंग बिरंगे चित्रों को बहुत गौर से निहार रही थी, वह अभी उनमें छुपे चेहरों को पहचानने का प्रयास ही कर रही थी कि सहसा वे चित्र चलने फिरने और बोलने लग पड़ेI </p>
<p>"माँ जी! कितनी दफा कहा है कि इन बर्तनों को हाथ मत लगाया करोI" <br/>नये टी सेट का कप उससे क्या टूटा उसके घर में कलेश ने पाँव पसार लिए थेI <br/>अगले दृश्य में नए साल की इस झांकी को होली के रंगों ने ढक लियाI <br/>"बेटा ये बहू की पहली होली है, तो इस बार त्यौहार धूमधाम से..." <br/>"नहीं माँ! इस बार होली मनाने मैं अपने ससुराल जा रहा हूँI" बेटे ने माँ की बात काट दी थीI <br/>अब गुज़रे साल की पीठ पर उभरा "गर्मियाँ" और नेपथ्य से छोटी बहू का आदेशात्मक स्वर: <br/>"तुम कुछ रोज़ बाहर बरामदे में सो जाना माँ! मेरे पिता जी को बिना कूलर नींद नहीं आतीI"<br/>पर्दे पर दृश्य बदलते ही वह अपने बेटे के सामने खड़ी थीI <br/>"बेटा! पण्डित जी तुम्हारे बाबू जी के श्राद्ध का पूछ रहे थेI" उसने डरते डरते बेटे से कहा थाI <br/>"ये श्राद्ध व्राद्ध दकिआनूसी बातें हैं माँ, छोड़ो इनकोI सौ पचास दान कर देना मन्दिर में जाकरI" बेटा बिना उसकी तरफ देखे अपने कमरे में जा घुसा थाI<br/>अगले चलचित्र में हर तरफ रौशनी ही रौशनी थीI वह उस रौशनी को चुरा कर अपने घर आंगन में सजा लेना चाहती थी कि छोटा बेटा सामने आ खड़ा हुआ था: <br/>"अम्मा दिवाली पर हमारे कुछ ख़ास मेहमान आ रहे हैं, भगवान के लिए तुम अपने कमरे में ही रहनाI" <br/>अब चित्रपट पर अँधेरा छा गयाI उसने चश्मा उतारने के लिए हाथ बढाया ही था कि चित्रपट बर्फ से ढक गयाI <br/>"हो हो हो - हा हा हा!!" उस सर्द शाम को लाल पोशाक में सफ़ेद दाढ़ी मूछ लगाये नन्हा पोता अचानक उसके कमरे में प्रकट हुआ थाI <br/>"अरे कौन हो तुम?"<br/>"मैं सांता क्लौज़ हूँ दादी!" भारी आवाज़ में वह बोला थाI<br/>"अरे तो संता इस बुढ़िया के पास क्या करने आया है?" प्यार से उसे गोदी में बिठाते हुए उसने पूछा थाI</p>
<p>"अपनी दादी माँ को गिफ्ट देने आया है!" जेब से टॉफ़ी निकाल कर दादी के मुँह में डालते हुए पोता खिलखिलाकर हँसा थाI <br/>यह अन्तिम दृश्य उसके चेहरे पर मुस्कुराहट बन कर छा गया, दीवार पर टँगी पति की तस्वीर को निहारते हुए उसके मुँह से निकला:<br/>"ये पिछला साल बहुत अच्छा रहा मुन्नू के बापूI" </p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>अधूरी कथा के पात्र (लघुकथा) .tag:www.openbooksonline.com,2016-12-27:5170231:BlogPost:8226932016-12-27T04:30:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p><span>अचानक स्कूटर खराब हो जाने के कारण वापिस लौटने में काफी देर हो चुकी थी अत: वह काफी तेज़ी से स्कूटर चला रहा थाI एक तो अँधेरा ऊपर से आतंकवादियों का डरI इस सुनसान रास्ते पर बहुत से निर्दोष लोगों की हत्याएँ हो चुकी थींI वह अपने अंदर के भय को पीछे बैठी पत्नी से छुपाने का प्रयास तो कर रहा था, किन्तु उसकी पत्नी स्कूटर तेज़ रफ़्तार से सब कुछ समझ चुकी थीI स्कूटर नहर की तरफ मुड़ा ही था कि अचानक हाथों में बंदूकें पकडे पाँच सात नकाबपोश साए सड़क के बीचों बीच प्रकट हो गएI</span></p>
<div>“रुक जा ओये!” एक…</div>
<p><span>अचानक स्कूटर खराब हो जाने के कारण वापिस लौटने में काफी देर हो चुकी थी अत: वह काफी तेज़ी से स्कूटर चला रहा थाI एक तो अँधेरा ऊपर से आतंकवादियों का डरI इस सुनसान रास्ते पर बहुत से निर्दोष लोगों की हत्याएँ हो चुकी थींI वह अपने अंदर के भय को पीछे बैठी पत्नी से छुपाने का प्रयास तो कर रहा था, किन्तु उसकी पत्नी स्कूटर तेज़ रफ़्तार से सब कुछ समझ चुकी थीI स्कूटर नहर की तरफ मुड़ा ही था कि अचानक हाथों में बंदूकें पकडे पाँच सात नकाबपोश साए सड़क के बीचों बीच प्रकट हो गएI</span></p>
<div>“रुक जा ओये!” एक लम्बी चौड़ी कद काठी वाले ने बंदूक तानते हुए कहा, मौत को सामने देखते हुए उसे स्कूटर रोकना पड़ाI<br/> “क्या नाम है बे तेरा?” बन्दूक की नली उसके गले से सटाते हुए एक आवाज़ कौंधीI <br/> “जी... मैं...भोला..” उसकी आवाज़ गले में ही अटक गईI<br/> तभी पीछे से एक नाटे क़द के बंदूकधारी ने गौर से उसकी तरफ देखते हुए पूछा: <br/> “तेरा घर कपड़ा मार्कीट के पीछे वाली गली में है न?”<br/> “जी हाँ...” पत्नी का हाथ कसकर पकड़ते हुए वह बस इतना ही कह सकाI<br/> “बातचीत छोडो और उड़ा दो इन दोनों कोI” एक और आवाज़ गूँजीI<br/> “जाने दो इनको सरदार!” नाटे क़द वाले ने लगभग बिनती करते हुए सरदार से कहाI <br/> “अबे इन दुश्मनों से तुम्हें इनसे इतनी हमदर्दी क्यों हो रही है?” सरदार ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछाI<br/> “भाई जी! ये जो औरत है न, मेरा बापू इसकी माँ को अपनी बहन मानता थाI” सरदार के कान में फुसफुसताते हुए उसने कहाI “और मैं उसे बुआ जी कहता थाI” <br/> सरदार पति-पत्नी की तरफ मुड़ा और कड़कते हुए स्वर में बोला:<br/> “भाग जा साले अपनी जनानी को लेकर, और पीछे मुड़कर मत देखना वर्ना ठोक दूँगा दोनों कोI”<br/> उसने साथियों को उँगली से चलने का इशारा किया और नाटे कद वाले की तरफ देखकर भुनभुनाया:<br/> “साली यही रिश्तेदारियों हमे कामयाब नहीं होने देतींI”<br/> .<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</div>तुम क्या हो? (अतुकांत कविता)tag:www.openbooksonline.com,2016-12-14:5170231:BlogPost:8202502016-12-14T07:12:34.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>तुम क्या हो? </p>
<p>किसी समुद्री मछली के उदर में</p>
<p>किसी ब्रह्मचारी के पथभ्रष्ट शुक्राणु का अंश मात्र</p>
<p>किन्तु उसका निषेचन?</p>
<p>अभी बहुत समय बाकी है उसमे </p>
<p>बहुत.....</p>
<p>हे प्रिये!</p>
<p>बुरा नहीं स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना</p>
<p>अमरत्व का दिवा-स्वप्न भी बुरा नहीं</p>
<p>किन्तु समझना आवश्यक है</p>
<p>यह जान लेना आवश्यक है कि</p>
<p>अमर होने ने लिए मरण आवश्यक है</p>
<p>मरण हेतु जन्म अति आवश्यक</p>
<p>फिर तुम्हें तो अभी जन्म लेना है</p>
<p>जन्म लेने से पूर्व…</p>
<p>तुम क्या हो? </p>
<p>किसी समुद्री मछली के उदर में</p>
<p>किसी ब्रह्मचारी के पथभ्रष्ट शुक्राणु का अंश मात्र</p>
<p>किन्तु उसका निषेचन?</p>
<p>अभी बहुत समय बाकी है उसमे </p>
<p>बहुत.....</p>
<p>हे प्रिये!</p>
<p>बुरा नहीं स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना</p>
<p>अमरत्व का दिवा-स्वप्न भी बुरा नहीं</p>
<p>किन्तु समझना आवश्यक है</p>
<p>यह जान लेना आवश्यक है कि</p>
<p>अमर होने ने लिए मरण आवश्यक है</p>
<p>मरण हेतु जन्म अति आवश्यक</p>
<p>फिर तुम्हें तो अभी जन्म लेना है</p>
<p>जन्म लेने से पूर्व ही</p>
<p>अमरत्व की स्वयम्भू उपाधि?</p>
<p>क्या अपमान नहीं उस ब्रह्मचारी का?</p>
<p>जिसकी भुजाओं में विराजमान है परशुराम</p>
<p>जिसकी जिव्हा पर सुरसति का दूसरा घर है</p>
<p>स्वयं बृहस्पति जिसके आज्ञा चक्र में हैंI</p>
<p>बस इतना स्मरण रहे</p>
<p>आत्मविश्वास की सीमा का अतिक्रमण</p>
<p>अति घातक और विनाशक होता है</p>
<p>क्योंकि</p>
<p>न तो कभी केंचुए ही तक्षक बन पाए</p>
<p>न ही छिपकली के बच्चे मगरI</p>
<p>. </p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>ग़ज़ल - आग यूँ ही नहीं लगी होगीtag:www.openbooksonline.com,2016-10-17:5170231:BlogPost:8085552016-10-17T05:54:30.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>2122 1212 22/112</p>
<div>.<br></br>आह मज़लूम ने भरी होगी. <br></br>आग यूँ ही नहीं लगी होगीI<br></br><br></br>एक गोली कहीं चली होगी.<br></br>एक दुनिया उजड़ गई होगीI<br></br><br></br>शर्म से लाल हो गया पीपल,<br></br>बेल कोई लिपट गई होगीI <br></br><font color="#FF0000"><span style="color: #9900ff;"><span style="color: #000000;"><br></br>झूमकर नाचने लगी मीरा, </span></span></font> <b><font color="#FF0000"><span style="color: #9900ff;"><br></br></span></font></b>शाम की बांसुरी बजी होगीI<br></br><br></br>जुगनुओं का हुजूम जब निकला,<br></br>चाँद की नींद…</div>
<p>2122 1212 22/112</p>
<div>.<br/>आह मज़लूम ने भरी होगी. <br/>आग यूँ ही नहीं लगी होगीI<br/><br/>एक गोली कहीं चली होगी.<br/>एक दुनिया उजड़ गई होगीI<br/><br/>शर्म से लाल हो गया पीपल,<br/>बेल कोई लिपट गई होगीI <br/><font color="#FF0000"><span style="color: #9900ff;"><span style="color: #000000;"><br/>झूमकर नाचने लगी मीरा, </span></span></font> <b><font color="#FF0000"><span style="color: #9900ff;"><br/></span></font></b>शाम की बांसुरी बजी होगीI<br/><br/>जुगनुओं का हुजूम जब निकला,<br/>चाँद की नींद उड़ गई होगीI<br/><br/>आज तक भी है अनगढ़ा पत्थर,<br/>जिसको छैनी बुरी लगी होगीI</div>
<div><div><span style="color: #000000;"><br/>रो रही अब कटी फटी सी पतंग, <br/></span></div>
<div><span style="color: #000000;">डोर की बाँह छोड़ दी होगीI <br/></span></div>
</div>
<p><br/><font color="#FF0000"><span style="color: #000000;">दर्द से आज तक हो नावाकिफ,<br/>यार! तुम से न शायरी होगीI <br/></span></font>.<br/>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>दिल (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2016-10-09:5170231:BlogPost:8067712016-10-09T04:30:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>घर का माहौल ग़मगीन था, डॉक्टर ने दोपहर को ही बता गया था कि माँ बस <strong>कुछ</strong> <span>देर की</span> ही की मेहमान हैI माँ की साँसें रह रह उखड रही थीं, धड़कन शिथिल पड़ती जा रही थी <span>किन्तु </span>फिर भी वह अप्रत्याशित तरीके से संयत दिखाई दे रही थीI ज़मीन पर बैठा पोता भगवत गीता पढ़ कर सुना रहा था, अश्रुपूरित नेत्र लिए बहू और बेटा माँ के पाँवों की तरफ बैठे सुबक रहे थेI</p>
<div>“तुम्हें कुछ नहीं होगा माँ जी, तुम अच्छी हो जाओगीI” सास के मुँह में गँगाजल डालते हुए बहू की रुलाई फूट पड़ीI…<br></br></div>
<p>घर का माहौल ग़मगीन था, डॉक्टर ने दोपहर को ही बता गया था कि माँ बस <strong>कुछ</strong> <span>देर की</span> ही की मेहमान हैI माँ की साँसें रह रह उखड रही थीं, धड़कन शिथिल पड़ती जा रही थी <span>किन्तु </span>फिर भी वह अप्रत्याशित तरीके से संयत दिखाई दे रही थीI ज़मीन पर बैठा पोता भगवत गीता पढ़ कर सुना रहा था, अश्रुपूरित नेत्र लिए बहू और बेटा माँ के पाँवों की तरफ बैठे सुबक रहे थेI</p>
<div>“तुम्हें कुछ नहीं होगा माँ जी, तुम अच्छी हो जाओगीI” सास के मुँह में गँगाजल डालते हुए बहू की रुलाई फूट पड़ीI<br/> “तुमने तो उम्र भर मेरी इतनी सेवा की जितनी मेरी अपनी बेटी भी न कर पातीI”<br/> “हमे माफ़ कर देना माँ, <span>गरीबी के कारण</span>..." माँ के ठन्डे पड़ते हाथ-पाँव को मालिश करता हुआ बेटा बस इतना ही बोल पायाI<br/> “अरे बेटा! मैं तो बहुत खुश खुश जा रही हूँI” माँ के चेहरे पर संतोष के भाव थेI<br/> “माँ! रूखी सूखी खाकर भी तुमने कभी कोई शिकायत नहीं <span>की</span>....”<br/> “न हम कुछ देने के लायक थे न तुम ने कभी कुछ माँगा...."</div>
<div>"अगर कोई इच्छा हो तो बताओ माँI"<br/> “आज मैं एक चीज़ माँगूंगी तुमसे, इनकार मत करना बेटाI" <span>डूबते हुए स्वर में माँ ने कहाI </span><br/> “हाँ हाँ, बोलो माँI"<br/> “एक वचन चाहिए तुम दोनों सेI”<br/> "मैं वचन देता हूँ माँ, तुम कहो तो...”<br/> <span>ठण्डे चूल्हे और </span>आटे के खाली कनस्तर की तरफ ताकते हुए माँ ने कहा:</div>
<div>“वचन दो कि मेरे मरने के बाद तुम कभी मेरा श्राद्ध नहीं करोगे.”<br/> . </div>
<div>(मौलिक और अप्रकाशित)</div>अपनी अपनी भूख (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2016-06-01:5170231:BlogPost:7723412016-06-01T07:21:18.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थीI कभी नन्हे दीपू को डॉक्टर के पास ले जाया जाता तो कभी डॉक्टर उसे देखने घर आ जाताI दीपू स्कूल भी नहीं जा रहा थाI घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थीI घर की नौकरानी इस सब को चुपचाप देखती रहतीI कई बार उसने पूछना भी चाहा किन्तु दबंग स्वाभाव मालकिन से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुईI आज जब फिर दीपू को डॉक्टर के पास ले वापिस घर लाया गया तो मालकिन की आँखों में आँसू थेI रसोई घर के सामने से गुज़र रही मालकिन से नौकरानी ने हिम्मत जुटा कर पूछ…</p>
<p>पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थीI कभी नन्हे दीपू को डॉक्टर के पास ले जाया जाता तो कभी डॉक्टर उसे देखने घर आ जाताI दीपू स्कूल भी नहीं जा रहा थाI घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थीI घर की नौकरानी इस सब को चुपचाप देखती रहतीI कई बार उसने पूछना भी चाहा किन्तु दबंग स्वाभाव मालकिन से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुईI आज जब फिर दीपू को डॉक्टर के पास ले वापिस घर लाया गया तो मालकिन की आँखों में आँसू थेI रसोई घर के सामने से गुज़र रही मालकिन से नौकरानी ने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया:<br/> "बीबी जी! क्या हुआ है छोटे बाबू को ?"<br/> "देखती नहीं कितने दिनों से तबीयत ठीक नहीं है उसकी?" मालकिन ने बेहद रूखे स्वर में कहा I<br/> "मगर हुआ क्या है उसको जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा?" <br/> "बहुत भयंकर रोग है!" एक गहरी सांस लेते हुए मालिकन ने कहा I<br/> "हाय राम! कैसा भयंकर रोग बीबी जी?" नौकरानी पूछे बिना रह न सकी I <br/> मालकिन ने अपने कमरे की तरफ मुड़ते हुए एक गहरी साँस लेते हुए उत्तर दिया:<br/> "उसको भूख नहीं लगती रीI" <br/> मालकिन के जाते ही अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई नौकरानी बुदबुदाई: <br/> "मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी I"<br/> ----------------------------------------</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>कुल्हाड़ियाँ और दस्ते: लघुकथा:tag:www.openbooksonline.com,2016-03-16:5170231:BlogPost:7504362016-03-16T05:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<div>हॉल कमरे के बीचों बीच मौजूद गोल मेज़ पर आज फिर गंभीर मंत्रणा का एक और दौर जारी थाI विभिन्न देशों से आए प्रतिनिधिमंडल<span> </span><span class="replaced">काफ़ी</span><span> </span>दिन गुज़र जाने के बाद भी किसी निष्कर्ष पर पहुँच पाने में असफल रहे थेI जब भी उन्हें आशा की कोई किरण दिखाई देती तो<span> </span><span class="replaced">कोई-न-कोई</span><span> </span>नई समस्या सामने आ खड़ी होतीI माहौल में निराशा तारी होने लगी थी जो सभी के चेहरों से साफ़<span> …</span></div>
<div>हॉल कमरे के बीचों बीच मौजूद गोल मेज़ पर आज फिर गंभीर मंत्रणा का एक और दौर जारी थाI विभिन्न देशों से आए प्रतिनिधिमंडल<span> </span><span class="replaced">काफ़ी</span><span> </span>दिन गुज़र जाने के बाद भी किसी निष्कर्ष पर पहुँच पाने में असफल रहे थेI जब भी उन्हें आशा की कोई किरण दिखाई देती तो<span> </span><span class="replaced">कोई-न-कोई</span><span> </span>नई समस्या सामने आ खड़ी होतीI माहौल में निराशा तारी होने लगी थी जो सभी के चेहरों से साफ़<span> </span><span class="replaced">साफ़</span><span> </span>झलक रही थीI</div>
<div>"लगता है इस बार हमारे मंसूबे कामयाब<span> </span><span class="replaced">नहीं</span><span> </span>होंगेI" सिकंदर महान ने घोर निराशा में कहाI<br/><div>"दरअसल वो देश अब वैसा<span> </span><span class="replaced">नहीं</span><span> </span>रहा जैसा हमारे पूर्वजों के ज़माने<span> </span><span class="replaced">में</span><span> </span><span class="replaced">हुआ</span><span> </span>करता थाI" नादिर शाह ने एक ठंडी आह भरते हुए कहाI<br/><div>"<span class="replaced">जबसे</span><span> </span>सभी रियासतें एक ही झंडे के तले आ गई हैं, तबसे वो मुल्क भी एक हो चुका हैI" महमूद गज़नवी ने ने अपने मन की बात कहीI<br/>"सीधा हमला करना भी तो मुश्किल है, क्योंकि वह भी अब हथियारों से पूरी तरह लैस हो चुका हैI" चंगेज़ खान ने हाथ मलते हुए कहाI "पुराना वक़्त होता तो इसे लूटना बहुत आसान होताI" अहमद शाह अब्दाली के स्वर में भी निराशा थीI<br/>"अब किया क्या जाए? हम हाथ पर हाथ<span> </span><span class="replaced">रखकर</span><span> </span>भी तो बैठ<span> </span><span class="replaced">नहीं</span><span> </span>सकतेI" मोहम्मद गौरी ने<span> </span><span class="replaced">थोड़ा</span><span> </span><span class="replaced">उत्तेजित</span><span> </span>होते हुए कहाI<br/>"बिल्कुल सही कहा, अगर यूँ ही चुपचाप बैठे रहे तो सोने की चिड़िया हाथ से निकल जाएगीI" सिकंदर ने हाँ में हाँ मिलते हुए कहाI<br/>"समस्या यह भी है कि अगर<span> </span><span class="replaced">हमनें</span><span> </span>एक भी<span> </span><span class="replaced">क़दम</span><span> </span><span class="replaced">ग़लत</span><span> </span>उठाया तो हम दुनिया भर के मीडिया की नज़र में आ जाएंगेI" एक फ्रांसीसी जनरल ने चेतावनी भरे स्वर में चिंता व्यक्त कीI<br/>बातचीत का सिलसिला एक बार फिर से थम गयाI कमरे में पूरी तरह चुप्पी फैलने ही वाली थी कि एक गोरी महिला मेज़ के पास आकर बोली:<br/>"देखिए साहिबान! उम्र और तजुर्बे में मैं आप सबसे बहुत छोटी हूँ, लेकिन इस समस्या का एक उपाय है मेरे दिमाग़ मेंI इजाज़त हो तो कुछ कहूँI"<br/>उस महिला के इन शब्दों से सबको आशा की एक<span> </span><span class="replaced">धुँधली</span><span> </span>सी किरण दिखाई देने लगीI<br/>"हाँ हाँ! जो कहना है खुल कर कहो ईस्ट इंडिया<span> </span><span class="replaced">कंपनी</span>! आख़िर तुमसे<span> </span><span class="replaced">ज़्यादा</span><span> </span>उस उस देश के बारे में और कौन जानता हैI" तैमूर लंग ने उत्साह भरे स्वर में पूछाI<br/>"सबसे पहले हमें अपनी जंगी पोशाकों को त्यागना होगा और व्यापारियों के भेष में वहाँ धावा बोलना होगाI"<br/>"लेकिन ऐसा क्यों?" अहमद शाह अब्दाली ने आश्चर्य भरे स्वर में पुछाI<br/>"क्योंकि अब उन्हें डरा धमका कर<span> </span><span class="replaced">नहीं</span>, बल्कि एक मंडी बनाकर ही लूटा जा सकता हैI"<br/>"लेकिन उसे मंडी बनाकर हम बेचेंगे क्या?" यह स्वर सामूहिक थाI<br/>"हम उन्हें सपने बेचेंगेI उन्हीं<span> </span><span class="replaced">सपनों</span><span> </span>की चकाचौंध से उन्हें<span> </span><span class="replaced">अंधा</span><span> </span>करेंगेI और फिर उसी अंधेपन का<span> </span><span class="replaced">फ़ायदा</span><span> </span>उठाकर सोने की चिड़िया का एक-एक पंख नोच लेंगेI"<br/>"लेकिन इस मुश्किल काम में वहाँ हमारा साथ कौन देगा?"<br/>गोरी महिला ने मेज़ पर दोनों हाथ रखे, और चेहरे पर कुटिलतापूर्ण मुस्कुराहट लाते हुए उत्तर दिया:<br/>"भारत की सत्ता में मौजूद मीर जाफर और जयचन्द के वंशजI"<br/>----------------------------------------------------------------------<br/>(मौलिक और अप्रकाशित)</div>
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</div>कसक (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2016-03-07:5170231:BlogPost:7479182016-03-07T11:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>"ये मिठाई कहाँ से आई जी ?" अपने खेत के किनारे चारपाई पर चुपचाप लेटे शून्य को निहारते हुए पति से पूछाI <br></br> "अरी, वो गुलाबो का लड़का दे गया था दोपहर को।" उसने चारपाई से उठते हुए उत्तर दियाI <br></br> "कौन? वही जो शहर में सब्ज़ी का ठेला लगाता है?"<br></br> "हाँ वही! बता रहा था कि अब उसने दुकान खोल ली है, उसकी ख़ुशी में मिठाई बाँट रहा थाI" पति ने मिठाई का डिब्बा उसकी तरफ सरकाते हुए कहाI <br></br> "चलो अच्छा हुआI" पत्नी ने चेहरे पर कृत्रिम सी मुस्कुराहट आईI <br></br> "वो बता रहा था कि उसने बेटे को भी टैम्पो डलवा…</p>
<p>"ये मिठाई कहाँ से आई जी ?" अपने खेत के किनारे चारपाई पर चुपचाप लेटे शून्य को निहारते हुए पति से पूछाI <br/> "अरी, वो गुलाबो का लड़का दे गया था दोपहर को।" उसने चारपाई से उठते हुए उत्तर दियाI <br/> "कौन? वही जो शहर में सब्ज़ी का ठेला लगाता है?"<br/> "हाँ वही! बता रहा था कि अब उसने दुकान खोल ली है, उसकी ख़ुशी में मिठाई बाँट रहा थाI" पति ने मिठाई का डिब्बा उसकी तरफ सरकाते हुए कहाI <br/> "चलो अच्छा हुआI" पत्नी ने चेहरे पर कृत्रिम सी मुस्कुराहट आईI <br/> "वो बता रहा था कि उसने बेटे को भी टैम्पो डलवा दिया है, और बेटी को भी कॉलेज में भर्ती करवा दिया है।"<br/> "अच्छा?" <br/> "हाँ! काफी तरक्की कर गया ये लौंडा शहर जाकरI" <br/> बेमौसम बरसात से उजड़े हुए खेत को निहार, पहाड़ जैसे क़र्ज़ और घर में बैठी दो दो कुँवारी बेटियों को याद करते हुए एक ठण्डी आह भरते हुए वह बोली :<br/> "हमसे तो वो ही अच्छा है जी ।"</p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>जमूरे (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2016-02-23:5170231:BlogPost:7428072016-02-23T09:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>स्क्रिप्ट के पन्ने पलटते हुए अचानक प्रोड्यूसर के माथे पर त्योरियाँ पड़ गईं, पास बैठे युवा स्क्रिप्ट राइटर की ओर मुड़ते हुए वह भड़का:</p>
<p>"ये तुम्हारी अक्ल को हो क्या गया है?"</p>
<p>"क्या हुआ सर जी, कोई गलती हो गई क्या?" स्क्रिप्ट राइटर ने आश्चर्य से पूछाI <br></br> "अरे इनको शराब पीते हुए क्यों दिखा दिया?"<br></br> "सर जो आदमी ऐसी पार्टी में जाएगा वो शराब तो पिएगा ही न?"<br></br> "अरे नहीं नहीं, बदलो इस सीन कोI" <br></br> "मगर ये तो स्क्रिप्ट की डिमांड हैI"<br></br> "गोली मारो स्क्रिप्ट कोI यह सीन फिल्म में…</p>
<p>स्क्रिप्ट के पन्ने पलटते हुए अचानक प्रोड्यूसर के माथे पर त्योरियाँ पड़ गईं, पास बैठे युवा स्क्रिप्ट राइटर की ओर मुड़ते हुए वह भड़का:</p>
<p>"ये तुम्हारी अक्ल को हो क्या गया है?"</p>
<p>"क्या हुआ सर जी, कोई गलती हो गई क्या?" स्क्रिप्ट राइटर ने आश्चर्य से पूछाI <br/> "अरे इनको शराब पीते हुए क्यों दिखा दिया?"<br/> "सर जो आदमी ऐसी पार्टी में जाएगा वो शराब तो पिएगा ही न?"<br/> "अरे नहीं नहीं, बदलो इस सीन कोI" <br/> "मगर ये तो स्क्रिप्ट की डिमांड हैI"<br/> "गोली मारो स्क्रिप्ट कोI यह सीन फिल्म में नहीं होना चाहिएI" <br/> "लेकिन सर नशे में चूर होकर ही तो इसका असली चेहरा उजागर होगाI"<br/> "जो मैं कहता हूँ वो सुनोI ये पार्टी में आएगा, मगर दारू नहीं सिर्फ पानी पिएगा क्योंकि इसे धार्मिक आदमी दिखाना हैI"<br/> "लेकिन ड्रग्स का धंधा करने वाला आदमी और शराब से परहेज़? ये क्या बात हुई?"<br/> "तुम अभी इस लाइन में नए हो, इसको कहते हैं कहानी में ट्विस्टI" <br/> "अगर ये धार्मिक आदमी है तो फिर उस रेप सीन का क्या होगा?"<br/> "अरे यार तुम ज़रुर कम्पनी का दिवाला पिटवाओगेI खुद भी मरोगे और मुझे भी मरवाओगेI ऐसा कोई सीन फिल्म में नहीं होना चाहिएI" <br/> "तो फिर क्या करें?" <br/> "करना क्या है? कुछ अच्छा सोचोI स्क्रिप्ट राइटर तुम हो या मैं? प्रोड्यूसर ने उसे डांटते हुए कहाI <br/> स्क्रिप्ट राइटर कुछ समझने का प्रयास ही कर रहा था कि प्रोड्यूसर स्क्रिप्ट का एक पन्ना उसके सामने पटकते हुए चिल्लाया: <br/> "और ये क्या है? इसको अपने देश के खिलाफ ज़हर उगलते हुए क्यों दिखाया है?"<br/> "कहानी आगे बढ़ाने लिए यह निहायत ज़रूरी है सर, यही तो पूरी कहानी का सार हैI" उसने समझाने का प्रयास कियाI <br/> "सार वार गया तेल लेने! थोडा समझ से काम लो, यहाँ देश की बजाय इसे पुलिस और प्रशासन के ज़ुल्मों के खिलाफ बोलता हुआ दिखाओ ताकि पब्लिक की सिम्पथी मिलेI" प्रोड्यूसर ने थोड़े नर्म लहजे में उसे समझाते हुए कहाI <br/> "नहीं सर! इस तरह तो इस आदमी की इमेज ही बदल जाएगीI एक माफ़िया डॉन जो विदेश में बैठकर हमारे देश की बर्बादी चाहता है, जो बम धमाके करवा कर सैकड़ों लोगों की जान ले चुका है, उसके लिए पब्लिक सिम्पथी पैदा करना तो सरासर पाप हैI" स्क्रिप्ट राइटर के सब्र का बाँध टूट चुका थाI <br/> उसे यूँ भड़कता देख, अनुभवी और उम्रदराज़ अभिनता जो सारी बातें बहुत गौर से सुन रहा था, उठकर पास आया और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए धीमे से बोला: <br/> "राइटर साहिब! हमारी लाइन में एक चीज़ पाप और पुण्य से भी बड़ी होती हैI"<br/> "वो क्या?"<br/> "वो है फाइनेंसI फिल्म बनाने के लिए पुण्य नहीं, पैसा चाहिए होता है पैसा! कुछ समझे?"<br/> "समझने की कोशिश कर रहा हूँ सरI" ठंडी सांस लेते हुए उसने जवाब दियाI <br/> सच्चाई सामने आते ही स्क्रिप्ट राइटर की मुट्ठियाँ बहुत जोर से भिंचने लगीं और वहाँ मौजूद हर आदमी अब उसको माफ़िया डॉन का हमशक्ल दिखाई दे रहा थाI <br/> .<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>नीला, पीला, हरा (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2016-01-29:5170231:BlogPost:7352002016-01-29T10:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>बृहस्पति और राहू के टकराव से सभी बहुत व्यथित थेI जब भी बृहस्पति के शुभ कार्य प्रारंभ होते तो राहू शरारत करने से कोई अवसर न चूकताI और जब कभी बृहस्पति पाप कर्म पर अंकुश लगाने की कोशिश करते तो राहू कुपित हो जाताI न तो राहू अपनी क्रूरता व अहंकार त्यागने को तैयार था न ही बृहस्पति अपनी नेकी व सौम्यताI बृहस्पति के साधु स्वाभाव तथा राहू की क्रूरता व दंभ के मध्य प्रतिदिन होने वाले टकराव से पृथ्वी त्राहिमाम त्राहिमाम कर रही थीI धर्म-कर्म के ह्रास से और बढते हुए पाप से त्रस्त देवगण ब्रह्मदेव के समक्ष…</p>
<p>बृहस्पति और राहू के टकराव से सभी बहुत व्यथित थेI जब भी बृहस्पति के शुभ कार्य प्रारंभ होते तो राहू शरारत करने से कोई अवसर न चूकताI और जब कभी बृहस्पति पाप कर्म पर अंकुश लगाने की कोशिश करते तो राहू कुपित हो जाताI न तो राहू अपनी क्रूरता व अहंकार त्यागने को तैयार था न ही बृहस्पति अपनी नेकी व सौम्यताI बृहस्पति के साधु स्वाभाव तथा राहू की क्रूरता व दंभ के मध्य प्रतिदिन होने वाले टकराव से पृथ्वी त्राहिमाम त्राहिमाम कर रही थीI धर्म-कर्म के ह्रास से और बढते हुए पाप से त्रस्त देवगण ब्रह्मदेव के समक्ष जा पहुँचेI</p>
<p>"हे ब्रह्मदेव! मातलोक की वर्तमान स्थिति से आप कदाचित परिचित ही हैंI गुरू बृहस्पति से राहू की शुत्रुता के चलते वहाँ बहुत अनर्थ हो रहा हैI" देवराज इंद्र ने अपने आगमन का कारण बतायाI <br/> "कहिए इसमें मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ?"<br/> "हे ब्रह्मदेव! हम चाहते हैं कि यह दोनों परस्पर विरोध त्याग दें, ताकि मानव जाति का कल्याण होI" <br/> "किन्तु ऐसा होना तो असंभव हैI"<br/> "असंभव क्यों ब्रह्मदेव?" <br/> "क्योंकि यह दोनों एक दुसरे से बिलकुल विपरीत गुणों की स्वामी हैं, और वह इनके नैसर्गिक स्वभाव हैं जिन्हें परिवर्तित कर पाना संभव नहींI" बृहस्पति और राहू की तरफ देखते हुए ब्रह्मदेव ने कारण बतायाI <br/> "किन्तु हे देव! यदि ऐसा न हुआ तो मेरा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगाI और यदि मैं ही समाप्त हो गई तो मानव जाति का क्या होगा?" पृथ्वी ने हाथ जोड़ते हुए कहाI <br/> "आपको इस समस्या का समाधान करना ही होगा हे ब्रह्मदेव!" पृथ्वी ने रुंधे हुए स्वर में बिनती कीI <br/> ब्रह्मदेव कुछ समय के लिए अविचल रहे, फिर सहसा कुछ सोचकर उन्होंने एक हाथ से गुरु बृहस्पति की पीतवर्ण ऊर्जा को खींचा और दूसरे हाथ से राहू की नीलवर्ण ऊर्जा कोI पीले और नीले रंग को मिश्रित करते हुए सभागारों को संबोधित करते हुए कहा:<br/> "मैंने पीले और नीले रंग को मिलाकर एक नए रंग का आविष्कार किया हैI"<br/> "किन्तु इस प्रयोजन का अर्थ समझ नहीं आया ब्रह्मदेवI"<br/> ब्रह्मदेव ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया:<br/> "किसी भी ऊर्जा की अंत असंभव है, अत: सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जाओं के मिश्रण से यह हरा रंग बनाया हैI"<br/> "किन्तु इससे क्या होगा?"<br/> "हरा रंग हरियाली और उर्वरता का प्रतीक है, इसके आने से पृथ्वी और मानव जाति का उद्धार होगाI"<br/> हरे रंग का औचित्य और महत्त्व जान कर चारों दिशायों से जय जयकार की ध्वनियां गुंजयमान होने लगींI<br/> देवताओं के चेहरे खिल उठे थे, किन्तु बृहस्पति और राहू की भृकुटियाँ तन रही थींI <br/> .<br/> (मौलिक और प्रकाशित)</p>गिरह (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2016-01-18:5170231:BlogPost:7325662016-01-18T09:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>"अजी आधी रात होने को है, अब तो खाना खा लोI", <br></br> "मैंने कह दिया न कि मुझे भूख नहीं हैI" <br></br> "अरे मगर हुआ क्या? दोपहर को भी तुमने कुछ नहीं खायाI" <br></br> "बस मन नहीं है खाने का, तुम खा लोI" <br></br> दरअसल, कई दिनों से वे बहुत बेचैन थेI पड़ोसी के बेटे ने नया स्कूटर खरीदा था, जिसे देखकर उनके सीने पर साँप लोट रहे थेI घर के आगे खड़ा नया स्कूटर जैसे उन्हें मुँह चिढ़ाता लग रहा थाI उनकी पत्नी तीन चार बार उन्हें खाने के लिए बुला चुकीं थी, किन्तु वे हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर टाले जा रहे थेI …<br></br></p>
<p>"अजी आधी रात होने को है, अब तो खाना खा लोI", <br/> "मैंने कह दिया न कि मुझे भूख नहीं हैI" <br/> "अरे मगर हुआ क्या? दोपहर को भी तुमने कुछ नहीं खायाI" <br/> "बस मन नहीं है खाने का, तुम खा लोI" <br/> दरअसल, कई दिनों से वे बहुत बेचैन थेI पड़ोसी के बेटे ने नया स्कूटर खरीदा था, जिसे देखकर उनके सीने पर साँप लोट रहे थेI घर के आगे खड़ा नया स्कूटर जैसे उन्हें मुँह चिढ़ाता लग रहा थाI उनकी पत्नी तीन चार बार उन्हें खाने के लिए बुला चुकीं थी, किन्तु वे हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर टाले जा रहे थेI <br/> कमरे की खिड़की से स्कूटर को देखकर उनकी भृकुटियाँ तन रही थीं, क्रोध से नथुने फूलने लगे, वे अचानक कुढ़कर बड़बड़ाते हुए घर से बाहर निकल गएI <br/> "बाप दादा सारी जिंदगी कैंची-उस्तरा चलाते मर गए, और बेटा साला नवाब बनकर नया स्कूटर लिए घूम रहा हैI"<br/> बाहर अँधेरा था, उन्होंने चारों ओर देखकर खुद को आश्वस्त किया, और फिर उनकी जेब से निकला हुआ तेज़ चाकू स्कूटर की पूरी गद्दी चीरता हुआ निकल गयाI फटी हुई गद्दी देख उनकी आँखों में चमक आ गई जैसे मनों बोझ उनके दिल से उतर गया होI तेज़ी से अपने घर में प्रवेश करते ही उन्होंने पत्नी को आवाज़ दी: <br/> "अब ले आओ खाना भागवान, बहुत ज़ोरों की भूख लगी हैI और हाँ, इस चाकू को अच्छी तरह गंगाजल से धो देनाI"<br/> .<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>परछाईयाँ (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2016-01-15:5170231:BlogPost:7323402016-01-15T10:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>सुजाता इस रोज़ रोज़ के झगड़ों से तंग आ चुकी थीI शादी के लगभग तीन साल बाद भी हर काम में सास की टोका टाकी अब उसकी बर्दाश्त से बाहर होती जा रही थीI छोटी-छोटी बात पर उसका अपमान करना, रसोई और सफाई को लेकर गलतियाँ निकालना, बात बात पर ताने देने सास का हर रोज़ का काम बन चुका थाI किन्तु अब उसने भी पक्का निश्चय कर लिया था कि वह भी सास को ईंट का जवाब पत्थर से देगीI आज जब वह सफाई कर रही थी तो हर रोज़ का सिलसिला फिर से शुरू हो गया I<br></br>"इतनी धूल काहे उड़ा रही है? ज़रा ध्यान से मार झाड़ूI तेरी माँ ने…</p>
<p>सुजाता इस रोज़ रोज़ के झगड़ों से तंग आ चुकी थीI शादी के लगभग तीन साल बाद भी हर काम में सास की टोका टाकी अब उसकी बर्दाश्त से बाहर होती जा रही थीI छोटी-छोटी बात पर उसका अपमान करना, रसोई और सफाई को लेकर गलतियाँ निकालना, बात बात पर ताने देने सास का हर रोज़ का काम बन चुका थाI किन्तु अब उसने भी पक्का निश्चय कर लिया था कि वह भी सास को ईंट का जवाब पत्थर से देगीI आज जब वह सफाई कर रही थी तो हर रोज़ का सिलसिला फिर से शुरू हो गया I<br/>"इतनी धूल काहे उड़ा रही है? ज़रा ध्यान से मार झाड़ूI तेरी माँ ने इतनी भी अक्ल नहीं दी तुझे?"</p>
<p>"ज़रा मुँह संभाल कर बात करो अम्मा जीI मुझे तो कहना हो कहो पर खबरदार जो मेरी माँ पर गई तोI" उसके अन्दर का लावा अंतत: फूट ही पड़ाI<br/> "जुबान लड़ाती है? तू कर क्या लेगी री नासपीटी?" <br/> "छठी का दूध याद दिला दूँगीI" सास की आँखों में आँखें डालते हुए वह बोलीI <br/> "ठहर कमीनीI" यह कहकर हाथ उठाया ही था कि सुजाता ने बीच में ही उसकी कलाई को कसकर पकड़ लियाI<br/> "ये गलती मत कर देना अम्मा, वर्ना मेरा भी हाथ उठ जाएगाI" सास को पलंग पर लगभग धकेलते हुए बोलीI<br/> उसके इस अप्रत्याशित व्यवहार से सास काँप उठीI उसकी आँखों में भय के भाव देखकर उसका मन जीत की ख़ुशी से भर गयाI आज बरसों से सुलग रही अपमान की अग्नि शांत हुई थी, और वह खुद को बहुत ही हल्का फुल्का महसूस कर रही थीI पलंग पर दुबक कर बैठी हुई सास को घूरते हुए वह बाहर निकल ही रही थी कि अचानक चौबारे से उतर कर सुजाता की विवाहित ननद कमरे में दाखिल हुईI <br/> "अम्मा ! ये भाभी तुमसे क्यों झगड़ रही थी? क्या उसने हाथापाई की है तुम्हारे साथ?" <br/> "सुन री! यह हमारा सास-बहू का मामला है, तू कौन होती है बीच में टांग अडाने वाली?"<br/> "पर माँ मैं बेटी हूँ तुम्हारीI" <br/> "याद रख, हमारा ख्याल बहू को रखना है न कि तुझेI इसलिए बेहतर होगा कि तू अपना ध्यान अपनी घर गृहस्थी में लगाI"</p>
<p>यह सुनते ही सुजाता के चेहरे के भाव बदलने शुरू हो गए, जीत की ख़ुशी किसी लानत की तरह उसकी अंतरात्मा पर चाबुक बरसाने लगीI वह अचानक पलटी और दरवाज़े के पास आते हुए धीमे से स्वर में बोली:</p>
<p>"तुम्हार लिए चाय बनाऊँ अम्मा जी?" <br/> .<br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>भारत माता (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2015-12-08:5170231:BlogPost:7223222015-12-08T11:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p><span>कुछ ही दिन पहले हुई पिता की मृत्यु से वह अभी उबर भी न पाया था कि अचानक शोक संतप्त माँ को दिल का भयंकर दौरा पड़ गयाI डॉक्टरों ने साफ़-साफ़ बता दिया था कि उसकी माँ अब ज़्यादा देर की मेहमान नहींI</span><br></br><br></br><span>कुछ ही समय पहले उसके पिता की गोलियों से छलनी लाश एक सुनसान क्षेत्र में पाई गई थीI पुलिस का कहना था कि यह आतंकवादियों का काम है, जबकि स्थानीय कट्टरपंथी इसे सेना द्वारा की गई फर्जी मुठभेड़ कह कर लगातार विष वमन कर रहे थेI शवयात्रा के दौरान पूरे रास्ते में देश और सेना विरोधी नारे…</span></p>
<p><span>कुछ ही दिन पहले हुई पिता की मृत्यु से वह अभी उबर भी न पाया था कि अचानक शोक संतप्त माँ को दिल का भयंकर दौरा पड़ गयाI डॉक्टरों ने साफ़-साफ़ बता दिया था कि उसकी माँ अब ज़्यादा देर की मेहमान नहींI</span><br/><br/><span>कुछ ही समय पहले उसके पिता की गोलियों से छलनी लाश एक सुनसान क्षेत्र में पाई गई थीI पुलिस का कहना था कि यह आतंकवादियों का काम है, जबकि स्थानीय कट्टरपंथी इसे सेना द्वारा की गई फर्जी मुठभेड़ कह कर लगातार विष वमन कर रहे थेI शवयात्रा के दौरान पूरे रास्ते में देश और सेना विरोधी नारे लगते रहे थेI अपने पिता का शव देखकर बार-बार उसकी मुठ्ठियाँ तनीं थीं और आँखों से अंगारे बरसने को हो रहे थेI</span><br/><br/><span>कट्टरपंथियों ने उसके दिल में नफरत का ज़हर इस तरह दिया था कि अब वह पहले जैसा शांत स्वभाव नहीं रह गया थाI माँ से कभी कभार बात करना, अनजान लोगों से मुलाकातें करना और रात-रात भर से बाहर रहना उसकी दिनचर्या में शामिल हो चुका थाI विधवा माँ अपने इकलौते जवान बेटे का यह रूप देखकर किसी अनजाने भय से अन्दर तक काँप उठती थीI वह जब भी नौजवान लड़कों के सीमा पार जाकर आतंकवादी बनने या उनके मारे जाने की बातें सुनती तो उसका दिल धक से बैठ जाता, शायद इसी कारण उसे ह्रदयघात हुआ थाI </span><br/><br/><span>वह अस्पताल के बिस्तर पर आखरी साँसे गिन रही माँ ने पास बैठा सुबक रहा थाI</span><br/><span>"माँ...I" उसका गला बेहद भरा हुआ था I </span><br/><span>"मैं जा रही हूँ बेटा... दिल में बहुत से अरमान थेI ... बस...बस... तुम अपना ख्याल रखना I" माँ की आँखों से अश्रुधारा बह निकलीI</span><br/><span>"ऐसा मत कहो माँ, रुम्हें कुछ नही होगा.... पर मुझ से यूँ नाराज़ मत होI तू जो कहेगी मैं वही करूँगाI"</span><br/><span>"तो मेरी एक बात मानेगा बेटा?" </span><br/><span>"हाँ माँ, तू हुक्म तो करI" माँ के आँसू पोंछते हुए उसने उत्तर दिया I </span><br/><span>"तो मेरे सर पर हाथ रख कर कसम खाI" बेटे का हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रखते हुए माँ ने कहाI</span><br/><span>"बोल माँ बोल, मैं तेरी कसम खाकर कहता हूँ कि जान दे कर भी अपना कौल निभाऊँगाI" </span><br/><span>उखड़ती हुई साँसों के कारण बहुत कठिनाई से, डूबते हुए स्वर में माँ बोली: </span><br/><span>"बेटाI वादा कर कि चाहे कुछ भी हो जाए, पर तू अपनी इस ज़मीन को छोड़कर सरहद के उस पार कभी नहीं जाएगाI"</span></p>
<p></p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>ग़ज़ल : रिश्तों में खटाई जारी हैtag:www.openbooksonline.com,2015-11-10:5170231:BlogPost:7137982015-11-10T05:30:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>२२ २२ २२ २२</p>
<p>नफरत की बुआई जारी है <br></br> दहशत की कटाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>ऊपर वाला है खौफज़दा <br></br> शैताँ की खुदाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>गुड बंटना बंद हुआ जबसे <br></br> रिश्तों में खटाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>मेजों पर अम्न की बातें हैं <br></br> सरहद पे लड़ाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>दिल भी मैला रूह भी मैली <br></br> सड़कों की सफाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>नादां को दानां का तमगा <br></br> ऐसी दानाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>गुमशुद हैं दाना पंछी का <br></br> जालों की बुनाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>बारिश…</p>
<p>२२ २२ २२ २२</p>
<p>नफरत की बुआई जारी है <br/> दहशत की कटाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>ऊपर वाला है खौफज़दा <br/> शैताँ की खुदाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>गुड बंटना बंद हुआ जबसे <br/> रिश्तों में खटाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>मेजों पर अम्न की बातें हैं <br/> सरहद पे लड़ाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>दिल भी मैला रूह भी मैली <br/> सड़कों की सफाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>नादां को दानां का तमगा <br/> ऐसी दानाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>गुमशुद हैं दाना पंछी का <br/> जालों की बुनाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>बारिश है गैर यकीनी, पर<br/>खेतों में जुताई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>दफना डाला हर जिंदा कुआँ<br/> खंडहर में खुदाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>दिल करता है धक धक धक धक<br/> उनकी अँगड़ाई जारी है</p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>एक और पड़ाव (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2015-10-28:5170231:BlogPost:7098422015-10-28T10:30:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>बहुत बरसों के बाद वह स्वयं को को बहुत ही हल्का हल्का महसूस कर रहा थाl न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता थी, न जिम जाने की हड़बड़ी और न ही अभ्यास सत्र में जाने की फ़िक्रl लगभग ढाई दशक तक अपने खेल के बेताज बादशाह रहे रॉबिन ने जब खेल से संन्यास की घोषणा की थी तो पूरे मीडिया ने उसकी प्रशंसा में क़सीदे पढ़े थेl समूचे खेल जगत से शुभकामनाओं के संदेश आए थेl कोई उस पर किताब लिखने की बात कर रहा था तो कोई वृत्तचित्र बनाने कीl उसकी उपलब्धियों पर गोष्ठियाँ की जा रही थींl किन्तु वह इन सबसे दूर एक शांत…</p>
<p>बहुत बरसों के बाद वह स्वयं को को बहुत ही हल्का हल्का महसूस कर रहा थाl न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता थी, न जिम जाने की हड़बड़ी और न ही अभ्यास सत्र में जाने की फ़िक्रl लगभग ढाई दशक तक अपने खेल के बेताज बादशाह रहे रॉबिन ने जब खेल से संन्यास की घोषणा की थी तो पूरे मीडिया ने उसकी प्रशंसा में क़सीदे पढ़े थेl समूचे खेल जगत से शुभकामनाओं के संदेश आए थेl कोई उस पर किताब लिखने की बात कर रहा था तो कोई वृत्तचित्र बनाने कीl उसकी उपलब्धियों पर गोष्ठियाँ की जा रही थींl किन्तु वह इन सबसे दूर एक शांत पहाड़ी इलाक़े में अपनी पत्नी के साथ छुट्टियाँ मनाने आया हुआ थाl इस शांत वातावरण में वह भी पक्षियों की भाँति चहचहा रहा थाl हर समय खेल, टीम, जीत के दबाव और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला रॉबिन प्राकृतिक नज़ारों में खो सा गया थाl</p>
<p>“देखो नंदा, ये पहाड़ और झरने कितने सुंदर लग रहे हैंl” <br/> “अरे! आप कब से प्रकृति प्रेमी हो गए?” <br/> “शुरू से ही हूँ जानूँl” <br/> “मगर कभी बताया तो नहीं अपने इस बारे मेंl” <br/> “ज़िंदगी की आपाधापी नें कभी समय ही नहीं दियाl” <br/> जवाब में नंदा केवल मुस्कुरा भर दी, फिर रॉबिन के चेहरे पर गंभीरता पसरती देख उसने उसने कहा,<br/> “क्या सोच रहे हो?” <br/> “सोच रहा हूँ, क्यों न हम भी महानगर छोड़ कर यहीं आकर बस जाएँ?” नंदा का हाथ मज़बूती से थामते हुए कहाl<br/> “मगर हम करेंगे क्या यहाँ?” नंदा के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आए थेl<br/> “थोड़ी सी ज़मीन ख़रीदेंगे और उस पर फूलों की खेती करेंगेl” <br/> “और आपको जो चीफ सेलेक्टर की जॉब ऑफर हुई है, उसका क्या होगा?” <br/> “मैं उनको साफ़ मना कर दूँगाl” <br/> “ऐसा सुनहरी मौक़ा हाथ से जाने देंगे? मगर क्यों?” <br/> नंदा का चेहरा अपने दोनो हाथों में भरते हुए रॉबिन ने जवाब दिया,<br/> “आज पहली बार गौर किया नंदा क़ि तुम कितनी ख़ूबसूरत होl”</p>
<p>.</p>
<p> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>गुरु गोविन्द (लघुकथा) - शिक्षक दिवस पर विशेषtag:www.openbooksonline.com,2015-09-05:5170231:BlogPost:6952122015-09-05T11:49:23.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>"देख ली अपने चेले की करतूत?" वयोवृद्ध शायर के सामने एक पत्रिका को लगभग फेंकते हुए एक समकालीन ने कहा। </p>
<p>"क्या हो गया भाई ? इतना भड़क क्यों रहे हो ?"</p>
<p>"इसमें अपने चेले का आलेख पढ़िए ज़रा।" </p>
<p>"कैसा आलेख है?"</p>
<p>"आपकी ग़ज़लों में नुक्स निकाले हैं उसने इस पत्रिका में, आपकी ग़ज़लों में। मैं कहता था न कि मत सिखाओ ऐसे कृतघ्न लोगों को?" </p>
<p>समकालीन बोले जा रहे थे, किन्तु वयोवृद्ध शायर बड़ी तल्लीनता से आलेख पढ़ने में व्यस्त थे। </p>
<p>"देख लिया न? अब बताइए, क्या मिला आपको ऐसे लोगों…</p>
<p>"देख ली अपने चेले की करतूत?" वयोवृद्ध शायर के सामने एक पत्रिका को लगभग फेंकते हुए एक समकालीन ने कहा। </p>
<p>"क्या हो गया भाई ? इतना भड़क क्यों रहे हो ?"</p>
<p>"इसमें अपने चेले का आलेख पढ़िए ज़रा।" </p>
<p>"कैसा आलेख है?"</p>
<p>"आपकी ग़ज़लों में नुक्स निकाले हैं उसने इस पत्रिका में, आपकी ग़ज़लों में। मैं कहता था न कि मत सिखाओ ऐसे कृतघ्न लोगों को?" </p>
<p>समकालीन बोले जा रहे थे, किन्तु वयोवृद्ध शायर बड़ी तल्लीनता से आलेख पढ़ने में व्यस्त थे। </p>
<p>"देख लिया न? अब बताइए, क्या मिला आपको ऐसे लोगों पर दिन रात मेहनत करके ?"</p>
<p>"उम्र के आखरी पड़ाव में अपने शिष्य की इतनी प्रगति और ईमानदारी देखकर मुझे बहुत कुछ मिल गया भाई।" पत्रिका एक तरफ रखते हुए उनके चेहरे पर एक अनोखी चमक थी। </p>
<p>"ऐसा क्या कुबेर का खज़ाना मिल गया आपको?" </p>
<p>"आज मुझे अपना सच्चा उत्तराधिकारी मिल गया है।"</p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>दोगला सावन (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2015-07-14:5170231:BlogPost:6769082015-07-14T15:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कच्ची छत से पानी की धाराएं निरंतर बह रहीं थीं। टपकते पानी के लिए घर में जगह जगह रखे छोटे बड़े बर्तन भी बार बार भर जाते। उसके बीवी बच्चे एक कोने में दुबके बैठे थे। परेशानी के इसी आलम में कवि सुधाकर टपकती हुई छत के लिए बाजार से प्लास्टिक की तरपाल खरीदने चल पड़ा। चौक पर पहुँचते ही पीछे से किसी ने आवाज़ दी:</p>
<p dir="ltr">"सुधाकर जी, ज़रा रुकिए।" आवाज़ देने वाला उसका एक परिचित लेखक मित्र था। <br></br> "जी भाई साहिब, कहिए।" <br></br> "अरे भाई कहाँ रहते हैं…</p>
<p>बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कच्ची छत से पानी की धाराएं निरंतर बह रहीं थीं। टपकते पानी के लिए घर में जगह जगह रखे छोटे बड़े बर्तन भी बार बार भर जाते। उसके बीवी बच्चे एक कोने में दुबके बैठे थे। परेशानी के इसी आलम में कवि सुधाकर टपकती हुई छत के लिए बाजार से प्लास्टिक की तरपाल खरीदने चल पड़ा। चौक पर पहुँचते ही पीछे से किसी ने आवाज़ दी:</p>
<p dir="ltr">"सुधाकर जी, ज़रा रुकिए।" आवाज़ देने वाला उसका एक परिचित लेखक मित्र था। <br/> "जी भाई साहिब, कहिए।" <br/> "अरे भाई कहाँ रहते हैं आजकल? परसों सावन कवि सम्मलेन है। मैं चाहता हूँ कि आप बरसात पर कोई ऐसा फड़कता हुआ गीत पेश करें ताकि लोगबाग मस्ती में झूम उठें।"<br/> सावन और बरसात का नाम सुनते ही घर टपकती हुई छत उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई, टपकते हुए पानी को संभालने में असमर्थ बर्तन उसे मुँह चिढ़ाने लगे। <br/> "क्या सोच रहे हैं? अरे देश के बड़े बड़े कवियों की मौजूदगी में कवितापाठ करना तो बड़े गर्व की बात है।" <br/> "वह सब तो ठीक है, लेकिन मुझसे झूठ नहीं बोला जाएगा।" <br/> .</p>
<p dir="ltr">(मौलिक और अप्रकाशित) </p>सुबह का भूला (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2015-06-18:5170231:BlogPost:6657972015-06-18T07:30:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<div>इस बार बनवास सीता को मिला था। पीत वस्त्र धारण कर श्री राम और लक्ष्मण भी बन गमन हेतु तैयार खड़े थे। लेकिन सीता जी ने लक्ष्मण को साथ चलने से साफ़ मना कर दिया। अश्रुपूर्ण नेत्र लिए भरे हुए गले से लक्ष्मण ने पूछा: </div>
<p>"क्या हुआ माते ?" <br></br> "कुछ नहीं हुआ लक्ष्मण, तुम अयोध्या में ही रहोगे।" <br></br> "मुझ से कोई भूल हो गई क्या ?"<br></br> "भूल तुमसे नहीं श्री राम से हो गई थी, जिसे सुधारने का प्रयास कर रही हूँ।"<br></br> "भूल और मर्यादा पुरुषोत्तम से ? मैं कुछ समझा नहीं माते।"<br></br> "उर्मिला के हृदय…</p>
<div>इस बार बनवास सीता को मिला था। पीत वस्त्र धारण कर श्री राम और लक्ष्मण भी बन गमन हेतु तैयार खड़े थे। लेकिन सीता जी ने लक्ष्मण को साथ चलने से साफ़ मना कर दिया। अश्रुपूर्ण नेत्र लिए भरे हुए गले से लक्ष्मण ने पूछा: </div>
<p>"क्या हुआ माते ?" <br/> "कुछ नहीं हुआ लक्ष्मण, तुम अयोध्या में ही रहोगे।" <br/> "मुझ से कोई भूल हो गई क्या ?"<br/> "भूल तुमसे नहीं श्री राम से हो गई थी, जिसे सुधारने का प्रयास कर रही हूँ।"<br/> "भूल और मर्यादा पुरुषोत्तम से ? मैं कुछ समझा नहीं माते।"<br/> "उर्मिला के हृदय में झाँकोगे तो समझ जाओगे लक्ष्मण।" <br/> <br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>भारत भाग्य विधाता (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2015-06-02:5170231:BlogPost:6614922015-06-02T06:55:09.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>"अरे ताऊ इलेक्शन आ गए हैं, इस बार वोट किस को दे रहे हो ?"<br></br>"अरे हमें तो अभी ये ही नहीं पता कि इस बार ससुरा खड़ा कौन कौन है।" <br></br>"एक तो वही कुर्सी पार्टी वाला है।"<br></br>"अरे वो चोर ? छोडो, साले पूरा देश लूट कर खा गये।"<br></br>"नई पार्टी वाला भी खड़ा है।" <br></br>"कौन ? वो जो आपस में लोगों को लड़ाता फिरता है? दफ़ा करो उसको।"<br></br>"एक नीली पार्टी वाली भी है न।" <br></br>"उसको वोट दे दिया तो पीछे वाली बस्ती सर पर मूतेगी हमारे।"<br></br>"तो फिर कामरेडों को वोट किया जाए?"<br></br>"कौन वो ज़िंदाबाद मुर्दाबाद…</p>
<p>"अरे ताऊ इलेक्शन आ गए हैं, इस बार वोट किस को दे रहे हो ?"<br/>"अरे हमें तो अभी ये ही नहीं पता कि इस बार ससुरा खड़ा कौन कौन है।" <br/>"एक तो वही कुर्सी पार्टी वाला है।"<br/>"अरे वो चोर ? छोडो, साले पूरा देश लूट कर खा गये।"<br/>"नई पार्टी वाला भी खड़ा है।" <br/>"कौन ? वो जो आपस में लोगों को लड़ाता फिरता है? दफ़ा करो उसको।"<br/>"एक नीली पार्टी वाली भी है न।" <br/>"उसको वोट दे दिया तो पीछे वाली बस्ती सर पर मूतेगी हमारे।"<br/>"तो फिर कामरेडों को वोट किया जाए?"<br/>"कौन वो ज़िंदाबाद मुर्दाबाद वाले? अरे वो तो होम्योपैथी की दवाई जैसे हैं - न कोई फायदा न नुकसान।"<br/>"तो आख़िर वोट डालोगे किस को ?"<br/>"हम तो अपनी जात वाले को ही डालेंगे, वोट ख़राब थोड़े न करना है।"<br/><br/>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>बुनियाद (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2015-05-05:5170231:BlogPost:6510782015-05-05T17:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>"कितने शर्म की बात है, हमारे आका लोग दुनिया भर से अरबों खरबों भेज चुके हैं, मगर तुम लोग फिर भी आज तक हिन्दुस्तान के टुकड़े नही कर पाए।"<br></br> "हमने हरचन्द कोशिश की, मगर ....."<br></br> "मगर क्या ?"<br></br> "ये लोग टूटते ही नहीI"<br></br> "क्यों नही टूटेंगे ? तुम इनको धर्म के नाम पर क्यों नही तोड़ते?"<br></br> "हम कश्मीर और पंजाब समेत कई जगहों पर ये कोशिश पहले ही कर चुके हैं सर।"<br></br> "कोशिश कर चुके हो तो कामयाब क्यों नही हुए अब तक?"<br></br> "क्योंकि इस देश की बुनियाद नफ़रत पर नही प्रेम पर रखी गई है…</p>
<p>"कितने शर्म की बात है, हमारे आका लोग दुनिया भर से अरबों खरबों भेज चुके हैं, मगर तुम लोग फिर भी आज तक हिन्दुस्तान के टुकड़े नही कर पाए।"<br/> "हमने हरचन्द कोशिश की, मगर ....."<br/> "मगर क्या ?"<br/> "ये लोग टूटते ही नहीI"<br/> "क्यों नही टूटेंगे ? तुम इनको धर्म के नाम पर क्यों नही तोड़ते?"<br/> "हम कश्मीर और पंजाब समेत कई जगहों पर ये कोशिश पहले ही कर चुके हैं सर।"<br/> "कोशिश कर चुके हो तो कामयाब क्यों नही हुए अब तक?"<br/> "क्योंकि इस देश की बुनियाद नफ़रत पर नही प्रेम पर रखी गई है सर।"</p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>बोझ (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2015-04-21:5170231:BlogPost:6439462015-04-21T11:34:41.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>"बापू, हमारे साथ शहर क्यों नहीं चलते ?"<br/>"शहर जा बसेंगे तो खेती कौन करेगा ?" <br/>"क्या रखा है खेती में ? कभी सूखा फसल को मार जाता है तो कभी बेमौसम बरसात।"<br/>"तुम्हें कैसे समझाऊँ बेटा।"<br/>"खुल कर बताओ बापू, दिल पर कोई बोझ है क्या ?"<br/>"ये अन्नदाता की उपाधि का बोझ है बेटा, तुम नहीं समझोगे ।" <br/>-------------------------------------------------------------------<br/>(मौलिक एवँ अप्रकाशित)</p>
<p>"बापू, हमारे साथ शहर क्यों नहीं चलते ?"<br/>"शहर जा बसेंगे तो खेती कौन करेगा ?" <br/>"क्या रखा है खेती में ? कभी सूखा फसल को मार जाता है तो कभी बेमौसम बरसात।"<br/>"तुम्हें कैसे समझाऊँ बेटा।"<br/>"खुल कर बताओ बापू, दिल पर कोई बोझ है क्या ?"<br/>"ये अन्नदाता की उपाधि का बोझ है बेटा, तुम नहीं समझोगे ।" <br/>-------------------------------------------------------------------<br/>(मौलिक एवँ अप्रकाशित)</p>दो लघुकथाएँ - (अम्बेदकर जयंती पर)tag:www.openbooksonline.com,2015-04-15:5170231:BlogPost:6418652015-04-15T10:30:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>(१). बदरंग संवेदनाएँ<br></br> <br></br> "घोषणा करवा दो कि कल हम पूरा दिन अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे।" <br></br> "क्यों नेता जी ? कल तो कोई व्रत उपवास भी नहीं है।"<br></br> "अरे कल अम्बेदकर जयंती है न, पता नहीं किस किस बस्ती में जाना पड़ जाए ।" <br></br> ------------------------------------------------------------------------------<br></br> (२). सफ़ेद साँप <br></br> <br></br> "आज तो स्पेशल जश्न होना चाहिए।"<br></br> "तो भेजें किसी को दारू सिक्का लाने ?"<br></br> "दारू सिक्के के साथ साथ मेरे लिए नत्थू की लौंडिया पकड़ कर…</p>
<p>(१). बदरंग संवेदनाएँ<br/> <br/> "घोषणा करवा दो कि कल हम पूरा दिन अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे।" <br/> "क्यों नेता जी ? कल तो कोई व्रत उपवास भी नहीं है।"<br/> "अरे कल अम्बेदकर जयंती है न, पता नहीं किस किस बस्ती में जाना पड़ जाए ।" <br/> ------------------------------------------------------------------------------<br/> (२). सफ़ेद साँप <br/> <br/> "आज तो स्पेशल जश्न होना चाहिए।"<br/> "तो भेजें किसी को दारू सिक्का लाने ?"<br/> "दारू सिक्के के साथ साथ मेरे लिए नत्थू की लौंडिया पकड़ कर लायो।"<br/> "अरे नेता जी, आपको पता है न नत्थू किस जात का है ?" <br/> "अबे चुप !! ऐसा बोलेगा तो बाबा साहेब की आत्मा को कष्ट पहुँचेगा।" <br/> --------------------------------------------------------------------------<br/> <br/> (मौलिक/अप्रकाशित)</p>कामवाली (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2015-02-24:5170231:BlogPost:6218092015-02-24T07:18:20.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>"अरी भागवान, क्यों हमेशा कामवाली के पीछे हाथ धोकर पडी रहती हो ?" <br></br>"आजकल इसका दिमाग बहुत ख़राब हो गया है।" <br></br>"आखिर बात क्या हुई?" <br></br>"एक हो तो बताऊँ। बिना बताये छुट्टी मार जाती है, काम करते हुए मौत पड़ती है इसे, पर एडवांस हर महीने चाहिए मुई को" <br></br>"अरे शान्त रहो, वो सुन रही है।" <br></br>"सुनती है तो सुने, गर्मियों के बाद उठा कर बाहर फ़ेंक दूँगी इसको।" <br></br>"मगर कामवाली के बगैर घर के इतने सारे काम कौन करेगा ?"<br></br>"क्यों ? बेटे की शादी करके नई बहू किस लिए ला रहे हैं…</p>
<p>"अरी भागवान, क्यों हमेशा कामवाली के पीछे हाथ धोकर पडी रहती हो ?" <br/>"आजकल इसका दिमाग बहुत ख़राब हो गया है।" <br/>"आखिर बात क्या हुई?" <br/>"एक हो तो बताऊँ। बिना बताये छुट्टी मार जाती है, काम करते हुए मौत पड़ती है इसे, पर एडवांस हर महीने चाहिए मुई को" <br/>"अरे शान्त रहो, वो सुन रही है।" <br/>"सुनती है तो सुने, गर्मियों के बाद उठा कर बाहर फ़ेंक दूँगी इसको।" <br/>"मगर कामवाली के बगैर घर के इतने सारे काम कौन करेगा ?"<br/>"क्यों ? बेटे की शादी करके नई बहू किस लिए ला रहे हैं ?"<br/><br/>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>बलिदानी - (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2014-08-16:5170231:BlogPost:5674882014-08-16T05:00:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>मँच पर बुला बुला कर उन सभी बुज़ुर्गों को सम्मानित किया जा रहा था जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था. उनमें से किसी ने जेल काटी थी, किसी ने अंग्रेज़ों की लाठियां खाईं थीं, कोई सत्याग्रह में शामिल था तो कोई भारत छोडो आंदोलन में. उन सभी की देशभक्ति के कसीदे मँच पर पढ़े जा रहे थे. हाथ में तिरँगा पकडे एक बूढा यह सब देख देख मुस्कुराये जा रहा था. जब भी किसी को सम्मान देने के लिए बुलाया जाता तो वह झट से दूसरों को बताता कि यह उसके गाँव का है, या उसका दोस्त है या उसका जानकार है. पास ही खड़े एक…</p>
<p>मँच पर बुला बुला कर उन सभी बुज़ुर्गों को सम्मानित किया जा रहा था जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था. उनमें से किसी ने जेल काटी थी, किसी ने अंग्रेज़ों की लाठियां खाईं थीं, कोई सत्याग्रह में शामिल था तो कोई भारत छोडो आंदोलन में. उन सभी की देशभक्ति के कसीदे मँच पर पढ़े जा रहे थे. हाथ में तिरँगा पकडे एक बूढा यह सब देख देख मुस्कुराये जा रहा था. जब भी किसी को सम्मान देने के लिए बुलाया जाता तो वह झट से दूसरों को बताता कि यह उसके गाँव का है, या उसका दोस्त है या उसका जानकार है. पास ही खड़े एक व्यक्ति ने मज़ाक में कहा:<br/> "बाबा तुम्हारे जानने वालों ने देश के लिए इतनी कुर्बानियां दीं, तुम ने भी देश के लिए कुछ किया ?" <br/> "कुछ ख़ास नहीं कर पाया बेटा, बस पैंसठ और इकहत्तर की जंग में दो बेटों को कुर्बान किया है देश के लिए." <br/> .<br/> (मौलिक एवं अप्रकाशित) </p>नियति (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2014-07-03:5170231:BlogPost:5554162014-07-03T09:50:16.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>जब से उस युवा चींटे के पँख निकले थे वह हवा बातें करने लगा था. उसने सभी परिजनों और मित्रजनो पर अपने नए नए निकले पँखों का रुआब डालना शुरू कर दिया था, उसका आत्मविश्वास देखते ही देखते आत्ममुग्धता का रूप धारण कर गया। इस बदले हुए स्वरूप को देख देख उसकी माँ रूह तक काँप जाती. लाख समझाने पर भी बेटा यथार्थ के धरातल पर आने को तैयार न हुआ तो एक दिन बूढ़ी माँ ने अपनी बहू को सफ़ेद जोड़ा देते हुए भरे गले से कहा "इसे अपने पास रख ले बेटी।" </p>
<p></p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p>जब से उस युवा चींटे के पँख निकले थे वह हवा बातें करने लगा था. उसने सभी परिजनों और मित्रजनो पर अपने नए नए निकले पँखों का रुआब डालना शुरू कर दिया था, उसका आत्मविश्वास देखते ही देखते आत्ममुग्धता का रूप धारण कर गया। इस बदले हुए स्वरूप को देख देख उसकी माँ रूह तक काँप जाती. लाख समझाने पर भी बेटा यथार्थ के धरातल पर आने को तैयार न हुआ तो एक दिन बूढ़ी माँ ने अपनी बहू को सफ़ेद जोड़ा देते हुए भरे गले से कहा "इसे अपने पास रख ले बेटी।" </p>
<p></p>
<p>(मौलिक और अप्रकाशित)</p>केक्टस (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2014-02-20:5170231:BlogPost:5140432014-02-20T06:30:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>"भई वाह, तुम्हारे हरे भरे केक्टस देख कर तो मज़ा ही आ गया."<br/> "बहुत बहुत शुक्रिया." <br/> "लेकिन पिछले महीने तक तो ये मुरझाए और बेजान से लग रहे थे"<br/> "बेजान क्या, बस मरने ही वाले थे."<br/> "तो क्या जादू कर दिया इन पर ?"<br/> "घर के पिछवाड़े जो बड़ा सा पेड़ था वो पूरी धूप रोक लेता था, उसे कटवाकर दफा किया, तब कहीं जाकर बेचारे केक्टस हरे हुए."<br/> <br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>
<p>"भई वाह, तुम्हारे हरे भरे केक्टस देख कर तो मज़ा ही आ गया."<br/> "बहुत बहुत शुक्रिया." <br/> "लेकिन पिछले महीने तक तो ये मुरझाए और बेजान से लग रहे थे"<br/> "बेजान क्या, बस मरने ही वाले थे."<br/> "तो क्या जादू कर दिया इन पर ?"<br/> "घर के पिछवाड़े जो बड़ा सा पेड़ था वो पूरी धूप रोक लेता था, उसे कटवाकर दफा किया, तब कहीं जाकर बेचारे केक्टस हरे हुए."<br/> <br/> (मौलिक और अप्रकाशित)</p>मुख्यधारा (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2013-12-18:5170231:BlogPost:4887432013-12-18T09:30:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>एक रात अचानक पुलिस वाले उसे उग्रवादी बता कर घर से उठा कर ले गए. क्या क्या ज़ुल्म नहीं किये गए थे उस पर. वह चीख चीख कर खुद को बेनुगाह बताता रहा लेकिन सब कुछ सुनते हुए भी सरकारी जल्लाद बहरे बने रहे. यातनाएं सहते सहते तक़रीबन छह महीने बीत गए थे. तभी एक दिन सरकार ने अपनी नई नीति के अनुसार उसे रिहा कर दिया ताकि वह भी राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो सके. उसके वापिस लौटने से घर में ख़ुशी का वातावरण था, लेकिन वह जड़वत बैठा न जाने कहाँ खोया रहता. वृद्ध पिता ने एक दिन उसके कंधे पर हाथ रखकर…</p>
<p>एक रात अचानक पुलिस वाले उसे उग्रवादी बता कर घर से उठा कर ले गए. क्या क्या ज़ुल्म नहीं किये गए थे उस पर. वह चीख चीख कर खुद को बेनुगाह बताता रहा लेकिन सब कुछ सुनते हुए भी सरकारी जल्लाद बहरे बने रहे. यातनाएं सहते सहते तक़रीबन छह महीने बीत गए थे. तभी एक दिन सरकार ने अपनी नई नीति के अनुसार उसे रिहा कर दिया ताकि वह भी राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो सके. उसके वापिस लौटने से घर में ख़ुशी का वातावरण था, लेकिन वह जड़वत बैठा न जाने कहाँ खोया रहता. वृद्ध पिता ने एक दिन उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा:</p>
<p>"बहुत दिन हो गए तुम्हें वापिस आए हुए, कुछ काम काज का सोचा?" <br/> "नौकरी तो अब मिलने से रही..... तो ……"<br/> "बेटा, अगर कहो तो लोन लेकर तुम्हें एक टैक्सी दिलवा दें?" <br/> "टैक्सी नहीं, मुझे एक बन्दूक दिलवा दो बापू." <br/> अंदर की आग अब उसकी आँखों में उतर आई थी। <br/> .<br/> (मौलिक व अप्रकाशित)</p>श्रेय (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2013-12-02:5170231:BlogPost:4812922013-12-02T10:30:00.000Zयोगराज प्रभाकरhttp://www.openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>"क्या? आपने धूम्रपान छोड़ दिया? ये तो आपने कमाल ही कर दिया।"<br/> "आखिर इतनी पुरानी आदत को एकदम से छोड़ देना कोई मामूली बात तो नहीं।"<br/> "सही कहा आपने, ये तो कभी सिगरेट बुझने ही नही देते थे।"<br/> "जो भी है, इनकी दृढ इच्छा शक्ति की दाद देनी होगी।"<br/> "इस आदत को छुड़वाने का श्रेय आखिर किस को जाता है?"<br/> "भाभी को?" <br/> "गुरु जी को?"<br/> "नहीं, मेरी रिटायरमेंट को।"उसने ठंडी सांस लेते हुए उत्तर दिया।<br/> .<br/> .<br/> <strong>(मौलिक व अप्रकाशित) </strong></p>
<p>"क्या? आपने धूम्रपान छोड़ दिया? ये तो आपने कमाल ही कर दिया।"<br/> "आखिर इतनी पुरानी आदत को एकदम से छोड़ देना कोई मामूली बात तो नहीं।"<br/> "सही कहा आपने, ये तो कभी सिगरेट बुझने ही नही देते थे।"<br/> "जो भी है, इनकी दृढ इच्छा शक्ति की दाद देनी होगी।"<br/> "इस आदत को छुड़वाने का श्रेय आखिर किस को जाता है?"<br/> "भाभी को?" <br/> "गुरु जी को?"<br/> "नहीं, मेरी रिटायरमेंट को।"उसने ठंडी सांस लेते हुए उत्तर दिया।<br/> .<br/> .<br/> <strong>(मौलिक व अप्रकाशित) </strong></p>