PHOOL SINGH's Posts - Open Books Online2024-03-29T06:13:17ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGHhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991279913?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://www.openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=1ig5v0898kttr&xn_auth=noसम्राट समुद्रगुप्तtag:www.openbooksonline.com,2024-03-01:5170231:BlogPost:11165782024-03-01T11:00:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>उदार शासक एक वीर योद्धा</p>
<p>कला-प्रतिभा का संरक्षक जिसे कहा</p>
<p>गुप्त वंश एक महान योद्धा, <span>जिसे भारत का नेपोलियन सबने कहा।।</span></p>
<p> </p>
<p>चंद्रगुप्त प्रथम का राजदुलारा</p>
<p>कुमारदेवी का पुत्र रहा</p>
<p>विनयशील जो मृदुलवाणी का, <span>प्रखर बुद्धि का स्वामी हुआ।।</span></p>
<p> </p>
<p>उत्तराधिकारी का प्रबल दावेदार</p>
<p>पराजित अग्रज काछा भी उससे हुआ</p>
<p>विजय अभियान की ख़ातिर जाना जाता, <span>अजय-अभय एक योद्धा रहा।।</span></p>
<p> </p>
<p>गृह कलह को शांत है…</p>
<p>उदार शासक एक वीर योद्धा</p>
<p>कला-प्रतिभा का संरक्षक जिसे कहा</p>
<p>गुप्त वंश एक महान योद्धा, <span>जिसे भारत का नेपोलियन सबने कहा।।</span></p>
<p> </p>
<p>चंद्रगुप्त प्रथम का राजदुलारा</p>
<p>कुमारदेवी का पुत्र रहा</p>
<p>विनयशील जो मृदुलवाणी का, <span>प्रखर बुद्धि का स्वामी हुआ।।</span></p>
<p> </p>
<p>उत्तराधिकारी का प्रबल दावेदार</p>
<p>पराजित अग्रज काछा भी उससे हुआ</p>
<p>विजय अभियान की ख़ातिर जाना जाता, <span>अजय-अभय एक योद्धा रहा।।</span></p>
<p> </p>
<p>गृह कलह को शांत है करता</p>
<p>वक्त जिसमें बहुत लगा</p>
<p>शान्ति लाता विश्वास दिलाता, <span>उचित महाराज वह एक बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>पराजय का कभी स्वाद चखा न जिसने</p>
<p>सब विजित राज्य करता गया</p>
<p>समूल उच्छिन्न कर देता उसका, <span>जो चुनौती देने की भूल किया।।</span></p>
<p> </p>
<p>प्रतिरथ न शेष धरा पर</p>
<p>सबको बाहुबल से उसने बांध लिया</p>
<p>पराक्रम, <span>शौर्य-वीरता उसकी अद्भुत गाथा</span>, <span>इतिहास का लेखक लिखता गया।।</span></p>
<p> </p>
<p>नष्ट जनपदों का पुनरुद्धार कराता</p>
<p>अश्वमेध यज्ञ भी उसने किया</p>
<p>वैदिक धर्म का जो अनुयायी, <span>राज्य में उसके काव्य-कवियों के बुद्धिवैभव का विकास हुआ।।</span></p>
<p> </p>
<p>दीन-हीन की रक्षा करता</p>
<p>दान-दक्षिणा, <span>उपकार कार्य करता गया</span></p>
<p>अस्त्र-शस्त्र से कोषागार भरे थे, <span>सर्वोत्तम सखा जिसका स्वभुजबल रहा।।</span></p>
<p> </p>
<p>अधर्म का नाश हमेशा</p>
<p>धर्म-कर्म में जिसका विश्वास बड़ा</p>
<p>कोमल हृदय, <span>विनम्र स्वभाव</span>, <span>जो जनता का चहेता सारी बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>उत्कृष्ट साहित्य का सर्जन करता</p>
<p>जो कविराज की उपाधि भी प्राप्त किया</p>
<p>कई प्रकार के सिक्के चलाया, <span>सत्य अंकित चित्र से पता चला।।</span></p>
<p> </p>
<p>संगीतज्ञ जो कुशल प्रशासक</p>
<p>सिक्कों पर वीणा बजाता वही मिला</p>
<p>हजारों गायों को दान में देता, <span>करुणा से जिसका हृदय भरा।।</span></p>
<p> </p>
<p>मैत्रीपूर्ण संबंध देश-विदेश</p>
<p>जो टकराया हार गया</p>
<p>पारिवारिक रिश्तों को महत्व देता, <span>स्थापित कूटनीतिज्ञ गठबंधन करता गया।।</span></p>
<p> </p>
<p>दिग्विजययात्रा निकल पड़ा तो</p>
<p>कई राजाओं के सम्मुख अकेला खड़ा</p>
<p>आर्यावर्त के मुख्य राजा जो, <span>इतिहास ने राज-अच्युत</span>, <span>नागसेन जिन्हें नाम दिया।।</span></p>
<p> </p>
<p>अधीन कर उनके सभी राज्य</p>
<p>पुष्कर में प्रवेश किया</p>
<p>दक्षिण को विजितकर उसने सारे, <span>राज्य में अपने मिला लिया।।</span></p>
<p> </p>
<p>हर राजा श्रृद्धा में झुकता जाता</p>
<p>वह विजय अभियान पर निकल पड़ा </p>
<p>कर चुकाते सभी पराजित राज्य, <span>एक शानदार कमांडर वो ऐसा रहा।।</span></p>
<p> </p>
<p>जनता की सेवा को जो धर्म समझता</p>
<p>घनघोर विनाशक एक रहा</p>
<p>क्षमा-दया-<span>प्रेम जो खूब लुटाता</span>, <span>जो शरण में उसकी आन गिरा।।</span></p>
<p> </p>
<p>निर्दयी-क्रूर राजाओं को जड़ से मिटाता</p>
<p>जबरदस्ती जो राज किया</p>
<p>बंदी राजाओं को वह छुड़ाकर, <span>मुक्त सभी को करता गया।।</span></p>
<p> </p>
<p>दोहरी नीति का अनुसरण करता</p>
<p>अधीन प्रसरण बोद्वरण से उत्तर किया</p>
<p>दक्षिण नीति के तहत समुद्र ने</p>
<p>बड़ी एवज में कर को लेकर, <span>वापस पराजित राजा को राज्य सौंप दिया।।</span></p>
<p> </p>
<p>प्रचंड-प्रखर रूप जब धारण करता</p>
<p>प्रबल शत्रु भी हार गया</p>
<p>विध्वंश मचाता ऐसा रण में, <span>अरिदल रण छोड़कर भाग गया।।</span></p>
<p> </p>
<p>संधि करता शत्रु से अपने</p>
<p>जो आधिपत्य उसका स्वीकार किया</p>
<p>उच्छिन्न करता जड़ से उसको, <span>जिसका विरोध में उसके शीश उठा।।</span></p>
<p> </p>
<p>ध्यानी-ज्ञानी उदार हृदय का</p>
<p>असहाय की सदा ही मदद किया</p>
<p>प्रपंच, <span>छल-कपट उससे जो भी करता</span>, <span>हक बाहुबल से उसका छीन लिया।।</span></p>
<p> </p>
<p>रौद्र रूप जब धारण करता</p>
<p>वहाँ विनाश-ध्वंश का अंबार लगा</p>
<p>तितर-बितर होती अरिदल की सेना, <span>जब-जब युद्ध में समुद्र उतर गया।।</span></p>
<p> </p>
<p>मित्र बनकर उसका जो भी आया</p>
<p>समुद्र ने उसे स्वीकार किया</p>
<p>विरोधी बन यदि सम्मुख आएं, <span>उसका समूल विनाश था उसने किया।।</span></p>
<p> </p>
<p>उपहार भेजकर संतुष्ट करते</p>
<p>शत्रुओं में उसका रुतबा बढ़ा</p>
<p>विद्रोह करने की जो कोशिश करता, <span>झट से उसका दमन किया।।</span></p>
<p> </p>
<p>अधीनता स्वीकारते जो गणराज्य</p>
<p>दे लेवी से उन्होंने प्रसन्न किया</p>
<p>आधिपत्य स्वीकारते पश्चिम राज्य, <span>प्रमुख सिंहल के राजा उनमें रहा।।</span></p>
<p> </p>
<p>उज्ज्वल चरित्र वो वचन बद्ध</p>
<p>जो निष्ठा अदम्य साहस का मालिक था</p>
<p>मानवीय गरिमा उनमें समाहित, <span>ऐसा समुद्रगुप्त महाराज हुआ।।</span></p>
<p> </p>
<p>घर-घर जिनकी वीरता के किस्से</p>
<p>विचलित शत्रु जिसने किया</p>
<p>युद्ध में जब-जब उतर के आया, <span>बेबस सबको करता चला।।</span></p>
<p> </p>
<p>संगठित होकर शत्रु आते</p>
<p>अगल-बगल वो झाँकता मिला</p>
<p>उसका बाल न बांका कर पाता, <span>वैरी बिलख-बिलख रोता मिला।।</span></p>
<p> </p>
<p>हारे पर कभी वार न करता</p>
<p>खौफ से उनके शत्रु डरा</p>
<p>क्षमा कर उसे आगे बढ़ता, <span>फिर विरोध-विद्रोह न कभी किया ।।</span></p>
<p> </p>
<p>धर्म का रक्षक अधर्म का भक्षक</p>
<p>विनम्रता धारण सदा किया</p>
<p>संधि करता आगे बढ़ता, <span>कभी युद्ध का न जिसका लक्ष्य रहा।।</span></p>
<p> </p>
<p>अतुलनीय शोभा अद्भुत पराक्रम</p>
<p>अविजित कभी जो योद्धा रहा </p>
<p>हरा सका न जिसको कोई, <span>वह ऐसा वीर भारत का एक हुआ।।</span></p>
<p> </p>
<p>अखंड भारत के निर्माण में जिसने </p>
<p>अदम्य-अखंडित साहस किया</p>
<p>कीर्ति फैली चहुँ ओर थी, <span>एक महान योद्धा समुद्रगुप्त रहा।।</span></p>
<p></p>
<p>स्व्रचित व मौलिक रचना </p>महाराणा संग्राम सिंहtag:www.openbooksonline.com,2024-01-23:5170231:BlogPost:11160452024-01-23T09:24:35.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>राजपूत राजाओं को संगठित करता</p>
<p>एक मेवाड़ का अद्भुत शासक था</p>
<p>थर-थर कांपते शत्रु जिससे, <span>वह संग्राम सिंह महाराजा था॥</span></p>
<p> </p>
<p>वीरता-उदारता का समावेश था जिसमें</p>
<p>सिसोदिया वंश का गौरव था</p>
<p>विस्तार किया जो साम्राज्य का, <span>हिंद देश का रक्षक था॥</span></p>
<p> </p>
<p>सौ लड़ाइयाँ लड़ी थी जिसने</p>
<p>खो आँख-हाथ-पैर को बैठा था</p>
<p>एक छत्र के नीचे लाया राजपूतों को, <span>शक्तिशाली ऐसा उत्तर भारत का राजा था॥</span></p>
<p> </p>
<p>सतलुज से लेकर नर्मदा…</p>
<p>राजपूत राजाओं को संगठित करता</p>
<p>एक मेवाड़ का अद्भुत शासक था</p>
<p>थर-थर कांपते शत्रु जिससे, <span>वह संग्राम सिंह महाराजा था॥</span></p>
<p> </p>
<p>वीरता-उदारता का समावेश था जिसमें</p>
<p>सिसोदिया वंश का गौरव था</p>
<p>विस्तार किया जो साम्राज्य का, <span>हिंद देश का रक्षक था॥</span></p>
<p> </p>
<p>सौ लड़ाइयाँ लड़ी थी जिसने</p>
<p>खो आँख-हाथ-पैर को बैठा था</p>
<p>एक छत्र के नीचे लाया राजपूतों को, <span>शक्तिशाली ऐसा उत्तर भारत का राजा था॥</span></p>
<p> </p>
<p>सतलुज से लेकर नर्मदा तक</p>
<p>साम्राज्य जिसका फैला था</p>
<p>ग्वालियर से लेकर भरतपुर तक, <span>परचम उसका लहराया था॥</span></p>
<p> </p>
<p>हिंदुपत की उपाधि पाता</p>
<p>दो बार इब्राहिम लोदी को हराया था</p>
<p>महानायक था भारत का जो, <span>राणा सांगा भी कहलाया था॥</span></p>
<p> </p>
<p>जागीरदार जिसका मेदनीराय भी</p>
<p>महान चंदेरी का राजा था</p>
<p>द्वितीय महमूद खिलजी को क़ैद किया, <span>राणा जज़िया कर भी हटवाया था॥</span></p>
<p> </p>
<p>गुजरात-मालवा क्षेत्र भी जीते</p>
<p>जो लोधी सल्तनत के छक्के छुड़ाया था</p>
<p>जीता बयाना क़िला था मुगलों से, <span>कोहराम खानवा युद्ध में मचाया था॥</span></p>
<p> </p>
<p>कायल था बाबर भी जिनका</p>
<p>पहले पराजय राणा से पाया था</p>
<p>जीत की उम्मीद भी हार बैठा वो, <span>नतीजा एक गोली से समर का बदला था॥</span></p>
<p> </p>
<p>घायल अवस्था में बेहोश हुए राणा जी</p>
<p>उन्हें ओझल युद्ध से कर दिया था</p>
<p>गाज़ी बनकर लौटा बाबर, <span>जो झंडा बुलंद जीत का कर गया था॥</span></p>
<p> </p>
<p>क्रोधित हो गए हार से राणा जी</p>
<p>मना चित्तौड़ लौटने से कर दिया था</p>
<p>शिकार हो गए धोखेबाजों के, <span>जो ज़हर उनको दे दिया था॥</span></p>
<p></p>
<p>स्वरचित व मौलिक रचना</p>
<p>फूल सिंह, दिल्ली </p>चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्यtag:www.openbooksonline.com,2024-01-15:5170231:BlogPost:11149142024-01-15T04:30:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>जिसे कहते भारत का गौरव</p>
<p>आज उस सम्राट की गाथा कहता हूँ</p>
<p>स्वर्णभूमि जो सुख-समृद्धि की, <span>महिमा उस अमरावती की गाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>विश्व का केंद्र जो विश्व की धुरी थी</p>
<p>जिसे उज्जयिनी नगरी कहता हूँ</p>
<p>कीर्ति सौरभ जिसका चहुँ ओर था फैला, <span>उसे महाकाल से रक्षित पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>स्वर्ण-रजत मोती-माणिक की न कमी जहाँ पर</p>
<p>धन-धान्य से राजकोष को भरा मैं पाता हूँ</p>
<p>सच्चे परितोष थे नगर के जो, <span>उन्हें संज्ञा नवरत्न से सुशोभित पाता…</span></p>
<p>जिसे कहते भारत का गौरव</p>
<p>आज उस सम्राट की गाथा कहता हूँ</p>
<p>स्वर्णभूमि जो सुख-समृद्धि की, <span>महिमा उस अमरावती की गाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>विश्व का केंद्र जो विश्व की धुरी थी</p>
<p>जिसे उज्जयिनी नगरी कहता हूँ</p>
<p>कीर्ति सौरभ जिसका चहुँ ओर था फैला, <span>उसे महाकाल से रक्षित पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>स्वर्ण-रजत मोती-माणिक की न कमी जहाँ पर</p>
<p>धन-धान्य से राजकोष को भरा मैं पाता हूँ</p>
<p>सच्चे परितोष थे नगर के जो, <span>उन्हें संज्ञा नवरत्न से सुशोभित पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>पहचान करता सच्चा जौहरी</p>
<p>अतुलनीय-अनमोल सम्राट उन्हें मैं कहता हूँ</p>
<p>हर क्षेत्र में महारत हासिल, <span>जिनकी न तुलना किसी से पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>ज्ञान-ध्यान में महान समय के</p>
<p>जिनके नवरत्नों को अनुपम कहता हूँ</p>
<p>एक से बढ़कर एक थे सारे, <span>जिसका राजा को श्रेय सब देता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>प्रधान चिकित्सक धन्वंतरी जिनके</p>
<p>जिन्हें अद्भुत आयुर्वेद का ज्ञाता कहता हूँ</p>
<p>रोग-बीमारी टिक नहीं सकती, <span>जानकार हर औषधियों का उनको पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>माँ सरस्वती की कृपा जिन पर देखी</p>
<p>लेखनी कालिदास की चमत्कारी कहता हूँ</p>
<p>अंतहीन कीर्ति अद्भुत रचनाएँ, <span>जिनसे अद्भुत काव्य-नाटकों का संग्रह पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>पत्रकौमुदी विद्यासुंदर के लेखक</p>
<p>वररुचि जिन्हें कवि अनोखा कहता हूँ</p>
<p>तान छेड़ते अतुलनीय ऐसी, <span>मंत्रमुग्ध सभी को पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>विख्यात जिनकी ज्योतिष गणना</p>
<p>जिन्हें वराहमिहिर महान खगोलशास्त्री कहता हूँ</p>
<p>शोध निरंतर करते रहते, <span>मज़बूत ग्रह-नक्षत्रों पर पकड़ मैं उनकी पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>किस्से-कहानी से समस्या सुलझाते</p>
<p>कथा वेताल पञ्चविंशतिका की कहता हूँ</p>
<p>भूत-पिशाच व माया के स्वामी, <span>वेताल भट्ट को पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>यमक काव्य के महान पंडित</p>
<p>कवि विलक्षण घटकर्पर को कहता हूँ</p>
<p>सुंदर रचनाएँ उनकी नीतिसार में, <span>आज भी आनंदित पाठक को पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>नीति शास्त्र के महाज्ञानी जो</p>
<p>जिन्हें धर्मशास्त्र का रक्षक कहता हूँ</p>
<p>अनेकार्थध्वनिमंजरी के जो रचियता, <span>उन्हें क्षपणक सिद्ध मुनि दिगंबर कहता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>मंत्रोच्चारण में प्रवीण रही</p>
<p>जिन्हें ज्योतिष साहित्य की ज्ञाता कहता हूँ</p>
<p>बहुमुखी प्रतिभा की धनी कहलाती, <span>स्वामिनी शंकु माता जिन्हें पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>सचिव बन जो संरक्षण पाते</p>
<p>संस्कृत पंडित अमर सिंह को कहता हूँ</p>
<p>विलक्षण कवि जो सम्राट के प्यारे, <span>उनकी अमूल्य नवरत्नों में जगह मैं पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>कला-ज्ञान-विज्ञान के रक्षक</p>
<p>जिनका साहित्य-ज्योतिष उच्च स्तर का कहता हूँ</p>
<p>स्वर्णिम युग था वह भारत का, <span>इसे तब सोने की चिड़िया पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>न्याय किए थे जो देवी-देवता</p>
<p>शिकार उन्हें शनिदेव के प्रकोप का कहता हूँ</p>
<p>धर्म से अपने डिगे कभी न, <span>उन सम्राट को न्याय की मूर्ति पाता हूँ॥</span></p>
<p> </p>
<p>याचक बन आते जग-जहान से</p>
<p>उनकी प्रतिभा की प्रभा कहता हूँ</p>
<p>दिग-दिगांतर प्रकाशित रहेगी, चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य<span> की महिमा गाता हूँ॥</span></p>
<p></p>
<p>स्वरचित व मौलिक रचना </p>तिरंगाtag:www.openbooksonline.com,2023-12-21:5170231:BlogPost:11140182023-12-21T06:21:20.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>हरा-केसरिया, <span>श्वेत रंग का</span>, <span>तिरंगा झड़ा कहलाता है</span></p>
<p>हरियाली-साहस, <span>सत्य दर्शाता</span></p>
<p>प्रतीक-एकता, <span>अखंडता का बन जाता है॥</span></p>
<p> </p>
<p>राम-कृष्ण-बुध जन्मे जहाँ पर, <span>मन उस पवित्र भूमि को शीश नवाता है</span></p>
<p>आन-बान-शान भारत देश की</p>
<p>हर भारतीय की जान कहलाता है॥</p>
<p> </p>
<p>सभी भाषाओं की जन्मधात्री, <span>संस्कृत</span>, <span>जो सबसे पुरानी भाषा है</span></p>
<p>विभिन्न उत्कृष्ट संस्कार-संस्कृति की पवित्र…</p>
<p>हरा-केसरिया, <span>श्वेत रंग का</span>, <span>तिरंगा झड़ा कहलाता है</span></p>
<p>हरियाली-साहस, <span>सत्य दर्शाता</span></p>
<p>प्रतीक-एकता, <span>अखंडता का बन जाता है॥</span></p>
<p> </p>
<p>राम-कृष्ण-बुध जन्मे जहाँ पर, <span>मन उस पवित्र भूमि को शीश नवाता है</span></p>
<p>आन-बान-शान भारत देश की</p>
<p>हर भारतीय की जान कहलाता है॥</p>
<p> </p>
<p>सभी भाषाओं की जन्मधात्री, <span>संस्कृत</span>, <span>जो सबसे पुरानी भाषा है</span></p>
<p>विभिन्न उत्कृष्ट संस्कार-संस्कृति की पवित्र भूमि</p>
<p>जहाँ इंसान, <span>मोक्ष-शांति-ज्ञान का मार्ग अपनाता है॥</span></p>
<p> </p>
<p>अशोक-पृथ्वी जैसे धरती पुत्र, <span>जहाँ</span>, <span>राणा-शिवाजी यौद्धा है</span></p>
<p>मातृभूमि के लिए तैयार हमेशा</p>
<p>उनकी, <span>जो देशभक्ति दिखलाता है॥</span></p>
<p> </p>
<p>लक्ष्मी, <span>दुर्गावती-सी वीरांगना जन्मी</span>, <span>जिनके</span>, <span>धरा का कण-कण बहादुरी के गीत सुनाता है</span></p>
<p>पन्ना-ऊदा के त्याग के किस्से</p>
<p>रोज इतिहास यहाँ दोहराता है॥</p>
<p> </p>
<p>गाँधी-नेहरू की संघर्षशीलता, <span>उनका अहिंसा</span>, <span>सत्य धर्म बतलाता है</span></p>
<p>सुभाष-भगत की देशभक्ति का जज्बा</p>
<p>रगो में लहू बनकर बहता है॥</p>
<p> </p>
<p>चाणक्य-अम्बेड़कर से ज्ञानी जहाँ रहे, <span>ज्ञान को जिनके जग भी शीश झुकाता है</span></p>
<p>पटेल-अब्दुल कलाम का शानी न कोई</p>
<p>जिन्हें हर जन आदर्श अपना कहता है॥</p>
<p> </p>
<p>गंगा-यमुना-सी नदियाँ बहती, <span>जिन्हें जन-जन देवी मानकर धाता है</span></p>
<p>धरती का स्वर्ग कश्मीर कहलाता</p>
<p>रक्षक बन, <span>उत्तर में हिमालय पहरा देता है॥</span></p>
<p> </p>
<p>योग, <span>जीरो का जन्मदाता जो</span>, <span>तिरंगा उस भारत की महिमा गाता है</span></p>
<p>धर्मचक्र के साथ लहराता</p>
<p>भारत की शान बढ़ाता है॥</p>
<p></p>
<p>स्वरचित व मौलिक रचना </p>
<p>फूल सिंह, दिल्ली </p>सम्राट अशोक महानtag:www.openbooksonline.com,2023-03-28:5170231:BlogPost:11015812023-03-28T10:57:57.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>चन्द्रगुप्त का पौत्र, <span>जो बिन्दुसार का पुत्र था</span></p>
<p>बौद्ध धर्म का बना अनुयायी</p>
<p>जो धर्म-सहिष्णु सम्राट हुआ||</p>
<p> </p>
<p>माता जिसकी धर्मा कहलाती, <span>सुशीम नाम का भाई था</span></p>
<p>इष्ट देव शिव-शंकर पहले</p>
<p>ज्ञान-विज्ञान का बड़ा जिज्ञासु हुआ||</p>
<p> </p>
<p>परोपकार की भावना जिसमें, <span>उत्सुक जो अभिलाषी था</span></p>
<p>महेंद्र-संघमित्रा का पिता न्यारा</p>
<p>सदा पुत्र-पुत्री का साथ मिला||</p>
<p> </p>
<p>बेहतरीन अर्थव्यवस्था ग़ज़ब सुशासन, <span>जिसका…</span></p>
<p>चन्द्रगुप्त का पौत्र, <span>जो बिन्दुसार का पुत्र था</span></p>
<p>बौद्ध धर्म का बना अनुयायी</p>
<p>जो धर्म-सहिष्णु सम्राट हुआ||</p>
<p> </p>
<p>माता जिसकी धर्मा कहलाती, <span>सुशीम नाम का भाई था</span></p>
<p>इष्ट देव शिव-शंकर पहले</p>
<p>ज्ञान-विज्ञान का बड़ा जिज्ञासु हुआ||</p>
<p> </p>
<p>परोपकार की भावना जिसमें, <span>उत्सुक जो अभिलाषी था</span></p>
<p>महेंद्र-संघमित्रा का पिता न्यारा</p>
<p>सदा पुत्र-पुत्री का साथ मिला||</p>
<p> </p>
<p>बेहतरीन अर्थव्यवस्था ग़ज़ब सुशासन, <span>जिसका कल्याणकारी द्रष्टिकोण था</span></p>
<p>देवताओं का प्रिय प्रजा का रक्षक</p>
<p>जिसका देवानांप्रिय भी नाम हुआ||</p>
<p> </p>
<p>प्रजावत्सल वह कर्तव्यपरायण, <span>भू-भाग का बड़े सम्राट था</span></p>
<p>धर्मग्रंथो का जिज्ञासु</p>
<p>जिसको ज्ञान की सत्यता का भान हुआ||</p>
<p> </p>
<p>व्यापारियों का संरक्षक, <span>राज में जिसके उन्नत विकसित समाज था</span></p>
<p>उत्तराधिकारी की लड़ाई जो जीता</p>
<p>जो कलिंग विजयी सम्राट हुआ||</p>
<p> </p>
<p>अपार शृद्धा हृदय में रखता, <span>प्रतिरूप जो अहिंसा-दया-धर्म-क्षमा था</span></p>
<p>राष्ट्रीय एकता का पोषक जो</p>
<p>हमेशा शांति-उदारता का स्वरूप हुआ||</p>
<p> </p>
<p>जीव हत्या का बड़ा विरोधी, <span>अद्वितीय कुशल प्रशासक था</span></p>
<p>स्तूप-भवनों का वह निर्माता</p>
<p>जो दयालु-अहिंसावादी सम्राट हुआ||</p>
<p> </p>
<p>लिंग-भेद या ऊँच-नीच का ख़्याल न मन में, <span>ऐसा मानवतावादी वह सम्राट था</span></p>
<p>मिस्र-सीरिया तक सम्बंध जिसके</p>
<p>चालुक्य-चोल-पाण्डेय तक रिश्तेदार हुआ||</p>
<p> </p>
<p>रौद्र रूप जो धारण करता, <span>कलिंग युद्ध में बना महाकाल था</span></p>
<p>युद्ध करने जो भी आया</p>
<p>उसका क्षणभर में विनाश हुआ||</p>
<p> </p>
<p>आकर्षित हुआ बौद्ध धर्म की ओर वो, <span>हुआ पुनर्जन्म का उसे अहसास था</span></p>
<p>सभी धर्मों का समावेश राष्ट्र में</p>
<p>जो रक्षक नैतिकता-सदाचार हुआ||</p>
<p> </p>
<p>पशु हत्या निषेध जहाँ पर, <span>उद्देश्य प्राणी को न हानि पहुँचाना था</span></p>
<p>वृद्धजनों की सेवा-सुश्रुषा</p>
<p>रखता मात-पिता संग गुरुजनों के प्रति आदरभाव था||</p>
<p> </p>
<p>आत्म-निरीक्षण बहुत ज़रूरी, <span>दिया उपदेश यही सम्राट था</span></p>
<p>नियम उचित व्यवहार का लागू करता</p>
<p>चाहे किसी वर्ग का प्राणी हुआ||</p>
<p> </p>
<p>क्रोध-निष्ठुरता-अभिमान-ईर्ष्या, <span>होता काम यह चांडाल का</span></p>
<p>धार्मिक भावना आहात करो न</p>
<p>मूल उद्देश्य ये ज्ञान हुआ||</p>
<p> </p>
<p>धर्म महामात्रों की नियुक्ति करता, <span>कार्य जिनका बौद्ध धर्म प्रचार-प्रसार था</span></p>
<p>लिपिबद्ध करना धार्मिक शिक्षा</p>
<p>मार्ग जो आत्म-साक्षात्कार हुआ||</p>
<p> </p>
<p>भेरी घोष था बंद कराया, <span>चहुँ ओर धर्म-घोष का शोर था</span></p>
<p>धर्म-संदेश को प्रसारित करता</p>
<p>जिसका धर्म-श्रावण नाम हुआ||</p>
<p> </p>
<p>विदेशियों से न हारने वाला, <span>इतिहास का ऐसा सम्राट था</span></p>
<p>जीत लिए जिसने देश-विदेश भी</p>
<p>भारत में महान अशोक सम्राट एक ऐसा हुआ||</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित रचना </p>सब खैरियतtag:www.openbooksonline.com,2023-02-21:5170231:BlogPost:10993172023-02-21T04:08:40.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>कहाँ रहते वो कैसे रहते</p>
<p>उनसे न होती अपनी बात</p>
<p>वैर भाव की बात नही ये, <span>अब उनसे न कोई दुआ-सलाम।।</span></p>
<p> </p>
<p>खैरियत भी वो नहीं पूछते</p>
<p>क्या प्रेमभाव की करूँ मैं बात</p>
<p>अच्छे-खासे रिश्ते उनसे, <span>न जानें क्यूँ वो रहते नाराज।।</span></p>
<p> </p>
<p>हसी-मजाक, <span>टिटौली चलती</span></p>
<p>हमारी कौन सी लगी उन्हें बुरी बात</p>
<p>कल तक थे जो अपनों से बढ़कर, <span>है आज उसने दूरी खास।।</span></p>
<p> </p>
<p>आना-जाना लगा रहता था</p>
<p>मिलजुल कर पहले रहते…</p>
<p>कहाँ रहते वो कैसे रहते</p>
<p>उनसे न होती अपनी बात</p>
<p>वैर भाव की बात नही ये, <span>अब उनसे न कोई दुआ-सलाम।।</span></p>
<p> </p>
<p>खैरियत भी वो नहीं पूछते</p>
<p>क्या प्रेमभाव की करूँ मैं बात</p>
<p>अच्छे-खासे रिश्ते उनसे, <span>न जानें क्यूँ वो रहते नाराज।।</span></p>
<p> </p>
<p>हसी-मजाक, <span>टिटौली चलती</span></p>
<p>हमारी कौन सी लगी उन्हें बुरी बात</p>
<p>कल तक थे जो अपनों से बढ़कर, <span>है आज उसने दूरी खास।।</span></p>
<p> </p>
<p>आना-जाना लगा रहता था</p>
<p>मिलजुल कर पहले रहते साथ</p>
<p>सही सलामत है कि नही वें, <span>अब मिलता नहीं है कोई समाचार।।</span></p>
<p> </p>
<p>जीवन है चलता रहेगा</p>
<p>घबराने की न इसमे बात</p>
<p>सुख-दुख होते वक़्त के पहिये, <span>आज तेरे कल उसके साथ</span>||</p>
<p> </p>
<p>समस्या है तो समाधान भी होगा</p>
<p>बात करने से क्यूँ ऐतराज</p>
<p>कोशिश करेंगे अपनी पूरी, <span>पर देंगे जरूर उन्हे कोई समाधान।।</span></p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित रचना</p>14 फरवरीtag:www.openbooksonline.com,2023-02-14:5170231:BlogPost:10987552023-02-14T04:00:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>प्यार-शहादत का दिन ये <br></br> क्यूं जज़्बात से किसी के खेले<br></br> एक ओर है पुलवामा की घटना<br></br> उधर, ले प्रेमियों के दिल हिचकोले।।</p>
<p></p>
<p>कितनों के सुहाग उजड़ गए<br></br> दुनियाँ, कितनों के लाल थे छोड़े<br></br> भाई बिन कितनी बहनें रोती<br></br> कितने, पिता की याद में रोते।।</p>
<p></p>
<p>कोई खुश है प्रेम को पाकर<br></br> कोई इंतजार में इत-उत डोले<br></br> रात-दिन है कोई जागता<br></br> कुछ प्रेमी की याद में रोते।।</p>
<p></p>
<p>बड़ा है दिन ये दोनों का ही<br></br> क्यूं अहमियत न इसकी समझें<br></br> श्रृद्धा-सुमन तू…</p>
<p>प्यार-शहादत का दिन ये <br/> क्यूं जज़्बात से किसी के खेले<br/> एक ओर है पुलवामा की घटना<br/> उधर, ले प्रेमियों के दिल हिचकोले।।</p>
<p></p>
<p>कितनों के सुहाग उजड़ गए<br/> दुनियाँ, कितनों के लाल थे छोड़े<br/> भाई बिन कितनी बहनें रोती<br/> कितने, पिता की याद में रोते।।</p>
<p></p>
<p>कोई खुश है प्रेम को पाकर<br/> कोई इंतजार में इत-उत डोले<br/> रात-दिन है कोई जागता<br/> कुछ प्रेमी की याद में रोते।।</p>
<p></p>
<p>बड़ा है दिन ये दोनों का ही<br/> क्यूं अहमियत न इसकी समझें<br/> श्रृद्धा-सुमन तू अर्पित करके <br/> शहीदों को नमन तू कर लें।।</p>
<p></p>
<p>बिछडे न कोई दिल का टुकड़ा<br/> दुआ खुदा से कर लें<br/> प्रेम की कर बरसात जहां में<br/> आत्मतृप्ति आगोश में भर लें।।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित रचना</p>शांति दूत श्री कृष्णtag:www.openbooksonline.com,2023-02-12:5170231:BlogPost:10986692023-02-12T02:59:24.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>अज्ञातवास जब समाप्त हुआ <br></br>पांडवों में साहस भरा <br></br>कनक सदृश तप कर आए<br></br>उनमें प्रखर उत्साह का तेज बड़ा।।</p>
<p></p>
<p>कायर दहलता विपत्ति में अक्सर<br></br>शूरमा विचलित न कभी हुआ<br></br>गले लगाकर हर दुःख-विध्न को<br></br>धीरज से उसका तेज हरा।।</p>
<p></p>
<p>कांटो भरी राह पर चलकर<br></br>उफ्फ तक न वो कभी किया<br></br>धूल के गहने पहन चरण में <br></br>साहस के सहारे बढ़ता गया।।</p>
<p></p>
<p>उद्योग निरत नित करता रहता<br></br>उसने सब सुख-सुविधाओ का त्याग किया<br></br>शूलों के सदा समूल विनाश को<br></br>राह स्वयं के विकास की…</p>
<p>अज्ञातवास जब समाप्त हुआ <br/>पांडवों में साहस भरा <br/>कनक सदृश तप कर आए<br/>उनमें प्रखर उत्साह का तेज बड़ा।।</p>
<p></p>
<p>कायर दहलता विपत्ति में अक्सर<br/>शूरमा विचलित न कभी हुआ<br/>गले लगाकर हर दुःख-विध्न को<br/>धीरज से उसका तेज हरा।।</p>
<p></p>
<p>कांटो भरी राह पर चलकर<br/>उफ्फ तक न वो कभी किया<br/>धूल के गहने पहन चरण में <br/>साहस के सहारे बढ़ता गया।।</p>
<p></p>
<p>उद्योग निरत नित करता रहता<br/>उसने सब सुख-सुविधाओ का त्याग किया<br/>शूलों के सदा समूल विनाश को<br/>राह स्वयं के विकास की चलता गया।।</p>
<p></p>
<p>कौन सा विध्न जिसे हर न सके वो<br/>गर्व विपत्ति का चूर किया<br/>पर्वत के पर्वत उखाड़ फेंकता<br/>नर क्रोध में जब-जब भड़क गया।।</p>
<p></p>
<p>गुणों की खान है तन नर का ये <br/>जिससे देवों तक को परास्त किया<br/>है किसकी मजाल जो सामने आएं<br/>सदा आत्मविश्वास का उसके ढंका बजा।।</p>
<p><br/> <br/>मेंहदी के जैसी लाली है इसमें<br/>बस समझने में खुद को देर किया<br/>प्रेम,नफ़रत और सहयोग आदि सब<br/>राह में उसकी बाधा बना।।</p>
<p></p>
<p>जब-जब सोना तपता आग में <br/>सुन्दर आभूषण में ढलता गया<br/>निचोड़ा जाता जो गन्ना अंत तक<br/>मीठा-स्वादिष्ट रस मिला।।</p>
<p></p>
<p>दुल्हन-सी सजी थी हस्तिनापुर सारी<br/>नृप स्वागत करने खड़ा<br/>पुत्रवधु संग महारानी कुंती आई<br/>समाज आभूषण कुरूवंश का जिसे कहा।।</p>
<p></p>
<p>शौभा असीमित छाई राष्ट्र में <br/>पर रक्त सयोधन का खोल रहा<br/>विफल हो गया क्यूं लाक्षाकांड भी <br/>सुदृढ़ भाग्य है उनका बड़ा।।</p>
<p></p>
<p>सारे रास्ते बंद सन्धि के <br/>बन कृष्णा को दूत था आना पड़ा <br/>मैत्री का प्रस्ताव लाकर <br/>टालने समर को फिर प्रयास किया।।</p>
<p></p>
<p>पांडवों के हित की जो बात करें <br/>शूल सा उसका शब्द चुभा <br/>न्याय की गुहार चाहे कृष्णा लगाएं <br/>सयोधन का हृदय क्रोध से जल उठा।।</p>
<p></p>
<p>दो न्याय तो आधा राज्य दे दो<br/>पूरा देने को किसने कहा<br/>आधा नही तो पांच गांव ही दे दो<br/>धर्म, न्याय करना है राजा का।।</p>
<p></p>
<p>शासन करो तुम सारी धरा पर<br/>हक तो सबको देना पड़ा <br/>जो दोगे वो स्वीकार करेंगे<br/>वचन देता ये कृष्णा बड़ा।।</p>
<p></p>
<p>क्रोध में भड़का सयोधन सुनकर<br/>बांधने फिर वो कृष्णा चला<br/>असाध्य को वो साधने चला था <br/>दुर्रबुद्धि देखो वो कितना बड़ा।।</p>
<p></p>
<p>जब नाश-विनाश की छाया घेरती<br/>पहले उसका विवेक मरा <br/>बुद्धि भी छोड़ती उसका साथ है<br/>रावण-कंस का सबने पाठ पढ़ा।।</p>
<p></p>
<p>हरि ने जब हुंकार भरी तो <br/>धरती-अम्बर कांप गया<br/>स्वरूप का अपने विस्तार किया तो <br/>महल विशुद्ध प्रकाश से भर गया।।</p>
<p></p>
<p>डगमग-डगमग दिग्गज डोले <br/>समझ न उनके कुछ भी पड़ा<br/>कहां से इतना प्रकाश है<br/>गहन सोच में हर जन खड़ा।।</p>
<p></p>
<p>रस्सी से बांधने उन्हें चला है <br/>जिनका न कोई आदि-अंत पता<br/>अंतर्यामी वो परमेश्वर है<br/>जिन्हें साधारण मनुज था सोच बैठा।।</p>
<p></p>
<p>आ दुर्योधन, आ बांध मुझे अब<br/>सेना को क्यूं आदेश न देता<br/>धरती-अम्बर तीनों लोक समाहित <br/>तू ब्रह्मांड देख मुझमें बसता।।</p>
<p></p>
<p>सूर्य-चंद्रमा ग्रह-तारे देख ले<br/>चर-अचर सब नर-जीव देख ले <br/>सर-सरित सिंधु-मद्र को देख तू <br/>आदि-सृजन महाकाल देख ले।।</p>
<p></p>
<p>ब्रह्म-विष्णु-महेश मुझमें समाते <br/>कड़ती ज्वाला सघन देख ले <br/>सृष्टि-दृष्टि युद्ध सब भ्रांत देख तू <br/>जग जीवन-मरण सब हाल देख ले।।</p>
<p></p>
<p>बांधने चला मुझ ईश्वर को तू <br/>पहले वीर-महावीर का हर्श देख ले<br/>ये रूप तो मेरा है जरा सा<br/>ढूंढ सके तो इसमें खुद को ढूंढ ले।।</p>
<p></p>
<p>युद्ध नही ये विध्वंश बड़ा है<br/>बढ़े काल को आता देख ले<br/>मैं कृष्ण तुझे यही समझाता<br/>मूर्ख न बन तू फिर से सोच ले।।</p>
<p></p>
<p>हित के वचन क्यूं समझ न पाता<br/>तू विकराल-मरण को क्यूं देख न पाता<br/>धराशायी होंगे जानें कितनें योद्धा<br/>इस रण को तू अभी रोक ले।।</p>
<p></p>
<p>भाई-भाई पर टूट पड़ेगा<br/>धनुष से विष-बाण छूट पड़ेगा <br/>अस्त्र-शस्त्र संग ब्रह्मास्त्र चलेंगे<br/>जानें कितनों का फिर लहू बहेगा।।</p>
<p></p>
<p>वायस-श्रृंगार तब सुख भोगेंगे <br/>काल-पिशाचनी नाच उठेंगे <br/>नरभक्षी सब श्रृंगार करेंगे<br/>जब- जब रक्त-मांस के लौथड़े गिरेंगे।।</p>
<p></p>
<p>मानवता मनुज भूल के सारी <br/>हर वीर युद्ध में कूद पड़ेगा<br/>अपना-पराया कोई दिखाई न देगा<br/>उसे शत्रु समझकर टूट पड़ेगा।।</p>
<p></p>
<p>ओ आतातायी, तू अभी मान जा <br/>युद्ध का कारण तू ही बनेगा <br/>एक जो संग्राम छिड़ा तो <br/>फिर भीषण विध्वंस न कभी ये रुकेगा।।</p>
<p></p>
<p>रक्त की धारा बह चलेगी <br/>ढेर की ढेर वहां लाश बिछेगी <br/>गूंज रूदन ही रूदन चारों ओर उठेगा <br/>हर मृत्यु का दोषी तू ही होगा।।</p>
<p></p>
<p>सोच ले एक बार फिर से कहता<br/>बड़ा-बूढ़ा है सब समझाता<br/>रोक सके तो रोक लो इसको <br/>दिखता हर पल हर क्षण पास में आता।।</p>
<p></p>
<p>मैत्री पथ का मैने प्रयास किया ये<br/>क्यूं तूने ठुकरा दिया ये<br/>अन्तिम निर्णय ये मेरा अटल है <br/>इसके बाद अब समर ही होगा।।</p>
<p></p>
<p>सुन्न सन्नाटा था रंगमंच में फैला<br/>श्री कृष्ण अब चुके थे<br/>होश में आए कौरव जैसे नींद से जागे <br/>वहां हताश-निराश हर जन खड़ा था।।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित रचना</p>भगवान परशुराम और कर्णtag:www.openbooksonline.com,2023-02-11:5170231:BlogPost:10988442023-02-11T01:51:37.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>हवन की अग्नि बुझ चुकी थी</p>
<p>शिक्षा प्राप्ति की आई बात <br></br>गुरू द्रोण ने जब इंकार किया तो <br></br>भगवान परशुराम की आई याद।।</p>
<p></p>
<p>नीड़ो में था कोलाहल जारी <br></br>फूलों से महका उपवन<br></br>ज्ञान की जिज्ञासा थी मन में भड़की<br></br>निकला खोज में जिसकी कर्ण।।</p>
<p></p>
<p>द्वार तृण-कुटी पर परशु भारी<br></br>आभाशाली-भीषण जो भारी भरकम <br></br>धनुष-बाण एक ओर टंगे थे <br></br>पालाश, कमंडलू, अर्ध अंशुमाली एक पड़ा लौह-दंड।।</p>
<p></p>
<p>अचरज की थी बात निराली<br></br>तपोवन में किसनें वीरता पाली<br></br>धनुष-कुठार…</p>
<p>हवन की अग्नि बुझ चुकी थी</p>
<p>शिक्षा प्राप्ति की आई बात <br/>गुरू द्रोण ने जब इंकार किया तो <br/>भगवान परशुराम की आई याद।।</p>
<p></p>
<p>नीड़ो में था कोलाहल जारी <br/>फूलों से महका उपवन<br/>ज्ञान की जिज्ञासा थी मन में भड़की<br/>निकला खोज में जिसकी कर्ण।।</p>
<p></p>
<p>द्वार तृण-कुटी पर परशु भारी<br/>आभाशाली-भीषण जो भारी भरकम <br/>धनुष-बाण एक ओर टंगे थे <br/>पालाश, कमंडलू, अर्ध अंशुमाली एक पड़ा लौह-दंड।।</p>
<p></p>
<p>अचरज की थी बात निराली<br/>तपोवन में किसनें वीरता पाली<br/>धनुष-कुठार संग हवन-कुंड क्यूँ<br/>सन्यास-साधना में किसने तलवार निकाली।।</p>
<p></p>
<p>श्रृंगार वीरों के तप और परशु<br/>तप का अभ्यास जाता न खाली <br/>तलवार का संबंध होता समर से <br/>फिर किसी योगी ने इसे क्यों संभाली।।</p>
<p></p>
<p>अचंभित था कर्ण सोच-सोचकर<br/>श्रृद्धा अजिन दर्भ पर बढ़ती जाती<br/>परशु देख थोड़ा मन घबराता<br/>देख युद्ध-तपोभूमि ने उलझन डाली।।</p>
<p></p>
<p>सोच-विचार थोड़ी बुद्धि लगाई<br/>तपोनिष्ठ संग यज्ञाग्नि जलाई<br/>महासूर्य से तेज था जिसका <br/>जिसकी कुटिल काल-सी क्रोधाग्नि बताई।।</p>
<p></p>
<p>वेद-तरकस संग कुठार विमल <br/>श्राप-शर थे सम्बल भारी<br/>पार न पाया जिस व्रती-वीर-प्रणपाली नर का <br/>परम पुनीत जो भृगु वंशधारी।।</p>
<p></p>
<p>राम सामने पड़े तो परिचय पूछा <br/>कर्ण हूँ मैं, ब्राह्मण जाति <br/>शिक्षा पाने का हूँ अभिलाषी <br/>शिष्य स्वीकार करो मुझे घट-घट वासी||</p>
<p></p>
<p>स्वीकार करूँ तुम्हें मैं शिष्य कैसे <br/>क्या कष्टों में रह पायेगा <br/>कठोर हृदय मेरा शख्त अनुशासन <br/>क्या कोमल हृदय सह पायेगा||</p>
<p></p>
<p>वृद्ध हूँ लेकिन मेरी क्षमता कितनी<br/>क्या कभी तू ये पायेगा<br/>हर पल हर क्षण कष्ट मरण सा <br/>सहते सहते मर जायेगा।।</p>
<p></p>
<p>कितनी कठोरता कितना क्रोध है <br/>भष्म पल में हो जायेगा <br/>तुष्टिकर न अन्न खायेगा <br/>फिर जीवित तू कैसे रह पायेगा।।</p>
<p></p>
<p>लहू जलेगा मन-हृदय जलेगा<br/>सुख-नींद-आराम सब तजना पड़ेगा <br/>धीरज की तेरी परीक्षा होगी<br/>क्या सफल इसमे हो पायेगा||</p>
<p></p>
<p>सुनता गुणता सारी बातें <br/>कर्ण ने मन में ठान लिया था <br/>चाहे कितनी तकलीफें राह में आए <br/>शिक्षा गुरु से पाकर रहूँगा||</p>
<p></p>
<p>स्वीकार करों प्रभु शरण में अपनी<br/>जिज्ञासु कर्ण सब कर्म करेगा <br/>नींद-सुख-चैन क्या प्रभु <br/>एक आदेश पर अपने प्राण भी तजेगा।।</p>
<p></p>
<p>गुरू भक्ति मेरी सच्ची पवित्र है <br/>जिसमें कभी न कोई खोट मिलेगा <br/>अनुशासित मैं वक्त पाबंध<br/>आपकी आज्ञा पर कर्ण मर मिटेगा।।</p>
<p></p>
<p>प्रसन्न हूँ स्वीकार मैं करता<br/>बड़ा शिष्य मेरा तू कहलायेगा<br/>जो भी मेरे पास है कर्ण<br/>अर्पण तेरा गुरू तुझको कर जायेगा।।</p>
<p></p>
<p>वेद-पुराण संग संसार-ज्ञान सब <br/>निपुण अस्त्र-शस्त्र विद्या में हो जायेगा<br/>न तेरे जैसा कोई महावीर भी होगा<br/>तू वीर ऐसा कहलायेगा।।</p>
<p></p>
<p>दिन पर दिन जैसे-जैसे बीत रहे <br/>ज्ञान के पट सब खुलते गए <br/>जितना पाता कम ही लगता<br/>गृहण कर्ण सब कुछ करते गए।।</p>
<p></p>
<p>है अनुशासित जो शिष्य मनोहर<br/>उसके ज्ञान-ध्यान में कोई कमी न लाए <br/>कहने कुछ मौका न देता <br/>खूब गुरू का वो स्नेह पाए।।</p>
<p></p>
<p>कठोर साधना से मिलता सबकुछ<br/>चाहे हड्डी-मांस भी क्षय जो जाए<br/>लौह के जैसे भुज-दंड हो वीर के<br/>वही जय-विजय-अभय का अधिकारी कहलाएं।।</p>
<p></p>
<p>पाहन सी बने मांस-पेशियां <br/>अंतर्मन में उत्सुकता लाए <br/>नस-नस में हो अनल भड़कता<br/>तब जवानी जय पा जाए।।</p>
<p></p>
<p>पूजा-हवन और यज्ञाग्नि जलाते<br/>अस्त्र-शस्त्र सन्धान उससे गुरु कराए <br/>स्नेह की डोर में ऐसे बंधे राम <br/>कर्ण पर खोल पिटारा सारा ज्ञान लुटाए।।</p>
<p></p>
<p>ज्ञान-विज्ञान संग अर्थशास्त्र का<br/>ज्ञान सामाजिक-राजनीति का उसे बताए <br/>कुछ शेष बचा न उनके पास में<br/>गुरु परशु बड़े महान कहलाए।।</p>
<p></p>
<p>मंत्र-मुग्ध हो उसकी भक्ति भाव से <br/>सहलाता कभी हाथ फेरता <br/>कच्ची नींद उनकी टूट न जाए <br/>सजग कर्ण चींटी, पत्तियाँ हटाए।।</p>
<p></p>
<p>विषकीट एक फिर आकर काटा<br/>विकल हुआ पर अचल बैठा<br/>धँसता जा रहा तन में धीरे <br/>टूटेगी नींद इसलिए दर्द है सहता।।</p>
<p></p>
<p>बैठा रहा कर्ण मन को मारे<br/>पीले जितना रक्त पियेगा<br/>नींद न उनकी टूटने दूँगा <br/>न सर पर इस पाप को लूँगा।।</p>
<p></p>
<p>जागे गुरु और विस्मित होते <br/>रक्त की धारा अविचल बहते<br/>सहनशीलता ब्राह्मण धर न सकेगा<br/>यूं बहरूपियां मुझे कोई चलना सकेगा।।</p>
<p></p>
<p>क्षत्रिय की पहचान वेदना<br/>ब्राह्मण वेदना सह न सकेगा<br/>निश्छल कैसे विप्र रहेगा<br/>तू क्रोधाग्नि मेरी आज सहेगा।।</p>
<p></p>
<p>विप्र के भेष में कौन बता तू<br/>नही तो भस्म अभी-आज मिलेगा <br/>थर-थर कांपे इत-उत तांके<br/>निश्चित गुरु से मुझे श्राप मिलेगा।।</p>
<p></p>
<p>सूत-पुत्र मैं शुद्र कर्ण हूँ<br/>सोचा आपसे कुछ ज्ञान मिलेगा<br/>शिक्षा के हकदार ब्राह्मण <br/>इसलिए मैंने ये भेष धरा था।।</p>
<p></p>
<p>विद्या संचय था मुख्य लक्ष्य<br/>आपसे बढ़कर गुरु मुझे कौन मिलेगा<br/>करुणा-दया का अभिलाषी हूँ <br/>आप सर्वज्ञ आपको कौन छलेगा।।</p>
<p></p>
<p>आपका अनुचर अंतेवासी हूँ<br/>जीवन सार यहाँ सूत्र मिलेगा <br/>क्या कर सकता मैं समाज की खातिर <br/>जग में क्या मुझे मान मिलेगा||</p>
<p></p>
<p>शंका-चिंता मुझको प्रभु<br/>शुद्र को कब-कहाँ ज्ञान मिलेगा<br/>भावना-विश्वास न मेरा खोटा <br/>निश्चल-निर्मल मेरा हृदय मिलेगा।।</p>
<p></p>
<p>शूद्र की उन्नति कैसे मार्ग खुलेगा <br/>शिक्षा का क्या-कभी अधिकार मिलेगा<br/>छद्म भेष में मुझे आना पड़ा यहाँ<br/>क्या उनके लिए कभी-कोई लड़ेगा||</p>
<p></p>
<p>मदांध अर्जुन को झुका न पाऊं<br/>संसार मुझको छली कहेगा<br/>भस्म कर दो मुझे आज-अभी आप <br/>नही तो जग मेरा क्या-कभी कोई सम्मान करेगा।</p>
<p></p>
<p>तृष्णा विजय की जीने देती<br/>अतृप्त वासना मैं हर न सकूंगा<br/>हार मित्र की कैसे सहूं मैं<br/>देख अभय-अजय अर्जुन को रोज मरूंगा।।</p>
<p></p>
<p>प्रतिभट जाना अर्जुन का तब<br/>कणिकाएं अश्रु की बहने लगी थी<br/>विश्व-विजय का कामी, तू कर्ण<br/>कभी न सोचा क्यूं, तू इतना श्रम करेगा।।</p>
<p></p>
<p>अनगिनत शिष्य आए अब तक <br/>तुझ जैसा न कभी-कोई शिष्य मिलेगा <br/>द्रोण-भीष्म को सिखाया मैंने कितना <br/>पर जिज्ञासु न कभी तेरे जैसा मिलेगा।।</p>
<p></p>
<p>पवित्रता से अपनी मुझको जीता <br/>सोचा न तू भी छल करेगा<br/>स्नेह तुमसे मेरा अनोखा<br/>आज श्राप का तू मेरे भागी बनेगा।।</p>
<p></p>
<p>क्रोध को अपने कहाँ उतारूं<br/>छल का तो तुम्हें फल मिलेगा<br/>भूल जायेगा जो सीखा एक दिन <br/>जीवन-निर्णायक युद्ध को जब तू लड़ेगा।।</p>
<p></p>
<p>चले जाओ अब यहाँ से कर्ण तुम <br/>मन मेरा नही बदल जायेगा <br/>गुण-शील तेरे मन में उगते<br/>जा एकांत में छोड़ मुझे अभी चला जा, जा एकांत में छोड़ मुझे अभी चला जा।</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित रचना</p>अंगराज कर्णtag:www.openbooksonline.com,2023-02-10:5170231:BlogPost:10987352023-02-10T05:30:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>सूर्य कहलाएं पिता थे जिसके</p>
<p>माता सती कुमारी</p>
<p>जननी का क्षीर चखा न जिसने</p>
<p>वो वीर अद्भुत धनुर्धारी।।</p>
<p> </p>
<p>निज समाधि में निरत रहा जो</p>
<p>स्वयं विकास किया था भारी</p>
<p>पालना बनी थी आब की धारा</p>
<p>बिछौना बनी पिटारी।।</p>
<p> </p>
<p>ज्ञानी-ध्यानी, प्रतापी-तपस्वी</p>
<p>जिसका पौरुष था अभिमानी</p>
<p>कोलाहल से दूर नगर के</p>
<p>जो सम्यक अभ्यास का था पुजारी।।</p>
<p> </p>
<p>नतमस्त्क करता प्रतिबल को</p>
<p>लगाता घात विजय की खूब दिखा</p>
<p>प्रचंडतम धूमकेतु-सा…</p>
<p>सूर्य कहलाएं पिता थे जिसके</p>
<p>माता सती कुमारी</p>
<p>जननी का क्षीर चखा न जिसने</p>
<p>वो वीर अद्भुत धनुर्धारी।।</p>
<p> </p>
<p>निज समाधि में निरत रहा जो</p>
<p>स्वयं विकास किया था भारी</p>
<p>पालना बनी थी आब की धारा</p>
<p>बिछौना बनी पिटारी।।</p>
<p> </p>
<p>ज्ञानी-ध्यानी, प्रतापी-तपस्वी</p>
<p>जिसका पौरुष था अभिमानी</p>
<p>कोलाहल से दूर नगर के</p>
<p>जो सम्यक अभ्यास का था पुजारी।।</p>
<p> </p>
<p>नतमस्त्क करता प्रतिबल को</p>
<p>लगाता घात विजय की खूब दिखा</p>
<p>प्रचंडतम धूमकेतु-सा आता</p>
<p>चाहे कुंज्ज-कानन में कहीं दूर पला।।</p>
<p> </p>
<p>वन्यकुसुम सा खिला कर्ण</p>
<p>छटा सूर्य के तेज की सुनहरी</p>
<p>अस्त्र-शस्त्र विद्या में जो परांगत</p>
<p>उसका सच जानने को; व्याकुल के थे नर-नारी।।</p>
<p> </p>
<p>सर्वश्रेष्ठ योद्धा अर्जुन जग का</p>
<p>बात ये मन में विघ्न-खलल थी डाली</p>
<p>कूद गया वो भरी सभा में</p>
<p>अपनी सिद्ध करने दावेदारी।।</p>
<p> </p>
<p>अवेहलना कर भरे समाज की</p>
<p>देने धनंजय को चुनौती ठानी</p>
<p>एक शूरमा चुप क्यूँ रहता </p>
<p>जब गुरु द्रोण ने सीमा लांघी।।</p>
<p> </p>
<p>स्तब्ध खड़े सब देखते उसको</p>
<p>आई विपदा कहाँ से भारी</p>
<p>जाति-गोत्र थे जिसकी पूछते</p>
<p>चुनौती अर्जुन ने स्वीकारी।।</p>
<p> </p>
<p>अर्जुन को मैं प्रतिद्विंदी मानता</p>
<p>राधेय पहचान हमारी</p>
<p>निर्णय किया क्यूं बिना परीक्षा</p>
<p>ये गुरु की बात निराली।।</p>
<p> </p>
<p>केवल राज-बगीचे में नहीं है खिलते</p>
<p>अद्भुत वीर, ब्रह्मचारी</p>
<p>चुन-चुनकर रखती वीर अनोखे</p>
<p>ये पृकृति की बात निराली।।</p>
<p> </p>
<p>राजवंश उसका कुल पुछते</p>
<p>क्रूर नियति ने दृष्टि डाली</p>
<p>रंगत चहेरे की सबकी उड़ गई</p>
<p>तब भीष्म ने परिस्थिति संभाली।।</p>
<p> </p>
<p>बचपन से जिसे छलती आई</p>
<p>न साथ यहाँ भी छोड़ी</p>
<p>भाग्यहीनता ने फिर वार किया था </p>
<p>पर न समाज ने आंखे खोली||</p>
<p> </p>
<p>सुन विदर्ण हो गया उसका हृदय</p>
<p>छलनी अंतस तक कर डाली</p>
<p>गुण-ज्ञान का क्या-कोई मोल न जग में</p>
<p>इससे त्रस्त क्यूं दुनियाँ सारी।।</p>
<p> </p>
<p>क्षोभ में भर कर राधेय बोला</p>
<p>वीरों को तो भुजदंड-बाहुबल से दुनियाँ जानी</p>
<p>जाति-गोत्र हो क्यूं पूछते</p>
<p>उससे समाजहित की होती हानि।।</p>
<p> </p>
<p>शक्ति हो तो सामना करो अर्जुन</p>
<p>रणक्षेत्र में जाति-पाति की बात क्यूं लानी</p>
<p>क्षेत्रियों उसका धर्म श्रेष्ठ है</p>
<p>जिसने ललकार सभी स्वीकारी।।</p>
<p> </p>
<p>गुरु कृपाचार्य फिर आगे आए</p>
<p>माया तुम पर क्रोध ने डाली</p>
<p>राजपुत्र से राजपुत्र या राजा द्वंद है करते</p>
<p>क्यूँ समझ न आती ये छोटी-सी बात तुम्हारी।।</p>
<p> </p>
<p>द्वंद जो चाहते अर्जुन से तो</p>
<p>बताओं सत्ता कहाँ तुम्हारी</p>
<p>किसी राजवंश के वशंज</p>
<p>हो किसी उच्च जाति के अधिकारी||</p>
<p> </p>
<p>तेजवान वो देदीप्यवान</p>
<p>उसका जनसभा मुखमंडल तेज निहारी</p>
<p>अजय-निडर वो निर्भक यौद्धा</p>
<p>कह सुतपुत्र चुनौती उसकी टाली||</p>
<p> </p>
<p>सयोधन आता शाबाशी देता</p>
<p>निडरता से जिसकी यारी</p>
<p>अधर्म से जिसका नाता हमेशा</p>
<p>शुद्ध-बुद्धि बात कर डाली||</p>
<p> </p>
<p>वीरों का न कोई जाति-गोत्र हो</p>
<p>प्रतियोगिता में ऐसी शर्त कहाँ से आनी</p>
<p>युवराज के हक मैं राजा बनाता</p>
<p>सुन जनता को बड़ी हैरानी।।</p>
<p> </p>
<p>भावुक, दानी, समरशूर वो</p>
<p>शील-पौरुष से भरपूर</p>
<p>मन मोहक सौंदर्य जो ऊंच कदकाठी</p>
<p>प्रतिभट अर्जुन का वीर।।</p>
<p> </p>
<p>अभिलाषा द्रोण की मरती दिखती</p>
<p>चमत्कृत जिसका गरूर</p>
<p>हरण तेज का कैसे करूंगा</p>
<p>गहन चिंतन में पड़े गुरू द्रोण।।</p>
<p> </p>
<p>शिष्य न बनाऊं तो राह मिले कुछ</p>
<p>परेशान हताहत द्रोण</p>
<p>सर्वश्रेष्ठ अर्जुन कैसे रहेगा</p>
<p>जिसके कर्ण के हाथ में प्राण।।</p>
<p> </p>
<p>युक्ति लगाते, चिंतन करते</p>
<p>जिससे स्वसुत से ज्यादा प्रेम</p>
<p>एकलव्य नही जो दक्षिणा मांग लूं</p>
<p>कर्ण ज्ञानी-ध्यानी-विद्वान।।</p>
<p> </p>
<p>मुकुट उतारकर अपने सर से</p>
<p>ऐसे गहन दोस्ती की नींव थी डाली</p>
<p>अपमानित हो रहा एक वीर अनोखा</p>
<p>थी उसकी लाज बचानी।।</p>
<p> </p>
<p>मुझ अभागी पर सयोधान की</p>
<p>हुई क्यूं कृपा भारी</p>
<p>इस भरी सभा में क्या-कोई हो भी सकता</p>
<p>ऐसा भी परोपकारी।।</p>
<p> </p>
<p>बैचेन-चकित हो रहा देखता</p>
<p>गले लगा सयोधन बना हितकारी</p>
<p>हैरान-परेशान क्यूं हो मेरे बंधु</p>
<p>क्षुद्रोपहार कुछ ऐसा नहीं है जो समझो मुझे कल्याणकारी।।</p>
<p> </p>
<p>बस एक महावीर का प्रशस्तिकरण ये</p>
<p>जिसके तुम अधिकारी</p>
<p>कौन सा बड़ा मैने त्याग किया है</p>
<p>क्यूं अंतस अचरज में डाली।।</p>
<p> </p>
<p>स्वीकार करों जो मित्र मुझे तुम</p>
<p>एक प्राण दो देह हमारी</p>
<p>परवाह नहीं मुझे लोग क्या कहेंगे</p>
<p>कर्ण, तेरी मित्रता सबसे प्यारी।।</p>
<p> </p>
<p>झर-झर आँसू बहते नयन से</p>
<p>आई उत्थान की मेरे बारी</p>
<p>उऋण कैसे हो पाऊंगा</p>
<p>तुम पर न्यौछावर; आज से जिंदगी सारी।।</p>
<p> </p>
<p>घेर खड़े सब अंग के वासी</p>
<p>लोग हो शूरता पूजन के अभिलाषी</p>
<p>पुष्प, कलम, कुंकुम लाए चुनकर</p>
<p>मधु,दूध-नीर से स्नान कराते बारी-बारी।।</p>
<p> </p>
<p>हवनकुंड यज्ञ सजने लगे</p>
<p>उमंग-तरंग, हर्ष-उल्लास भी दिखता भारी</p>
<p>पहचान ही लेते अपना आराध्य</p>
<p>सच इस बात को दुनियाँ मानी।।</p>
<p> </p>
<p>जय महाराज, जय-जय अंगेश</p>
<p>जनता विकल पुकार उठी थी सारी</p>
<p>द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या, अभिमान कहो पर</p>
<p>होती हमेशा जनता, उज्ज्वल चरित्र की पुजारी।।</p>
<p></p>
<p>मौलिक आ अप्रकाशित रचना </p>महाराणा प्रतापtag:www.openbooksonline.com,2023-01-30:5170231:BlogPost:10980052023-01-30T06:00:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>महाराणा प्रताप</p>
<p> </p>
<p>चितौड़ भूमि के हर कण में बसता </p>
<p>जन जन की जो वाणी थी</p>
<p>वीर अनोखा महाराणा था</p>
<p>शूरवीरता जिसकी निशानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p></p>
<p>स्वाभिमान खोए सब राणा जी</p>
<p>किरण चिंता की माथे पर दिखाई दी</p>
<p>महाराणा का जन्म हुआ तो</p>
<p>महल में खुशियाँ छाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p></p>
<p>बप्पा रावल का शोनित रग-रग में बहता</p>
<p>न सोच सुख-दुःख, <span>क्लेश…</span></p>
<p>महाराणा प्रताप</p>
<p> </p>
<p>चितौड़ भूमि के हर कण में बसता </p>
<p>जन जन की जो वाणी थी</p>
<p>वीर अनोखा महाराणा था</p>
<p>शूरवीरता जिसकी निशानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p></p>
<p>स्वाभिमान खोए सब राणा जी</p>
<p>किरण चिंता की माथे पर दिखाई दी</p>
<p>महाराणा का जन्म हुआ तो</p>
<p>महल में खुशियाँ छाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p></p>
<p>बप्पा रावल का शोनित रग-रग में बहता</p>
<p>न सोच सुख-दुःख, <span>क्लेश की आने दी</span></p>
<p>सर्वोच्च रहा स्वाभिमान सदा ही</p>
<p>न शर्त झुकने की स्वीकारी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>राणा सांगा का वंशज</p>
<p>जिसे राजवंश की लाज बचानी थी</p>
<p>सभी राजाओं को जीतता जाता</p>
<p>उस अकबर को धूल चटानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>समझौता हुआ न स्वाभिमान से</p>
<p> चाहे सुख-सुविधाओं से मुक्ति पानी थी </p>
<p>वीरता के किस्से सुन राणा के</p>
<p>बुद्धि सबकी चकराई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>तेजस्वी वो देदीप्यमान यौद्धा</p>
<p>निडर-निर्भीक जिसकी जवानी थी</p>
<p>जनहितेषी दानी, <span>ज्ञानी-ध्यानी</span></p>
<p>न दान-दक्षिणा में कमी कभी आने दी </p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>साढ़े साथ फुट लंबा एक वीर योद्धा</p>
<p>जिसकी लंबाई ये बतलाई थी</p>
<p>अस्सी किलो का जो भाला रखता</p>
<p>जिसकी दस किलो की तलवारे थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>सत्तर किलो का कवच था जिसका</p>
<p>एक सौ दस किलो वजनी कदकाठी थी </p>
<p>भीमकाय-सा व्यक्तित्व तन का</p>
<p>देख शत्रु सेना घबराई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>धारण करते तलवार खंडा नाम की </p>
<p>प्राचीन बहुत पुरानी थी</p>
<p>सीधे-नुकीले ब्लेड थे जिसके </p>
<p>हवा में नागिन-सी लहराई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>धर्मनिष्ठ वो कर्तव्यनिष्ठ</p>
<p>प्रखर-त्यागी एकलिंग में जिसकी भक्ति थी</p>
<p>मार्तंड सम तेज था जिसका</p>
<p>आत्मा निर्मल-निश्चल, <span>स्वाभिमानी थी</span></p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>निहत्थे शत्रु पर वार न करना</p>
<p>ये माँ से शिक्षा पाई थी</p>
<p>एक म्यान में दो तलवार सदा ही</p>
<p>बात प्रताप की बड़ी निराली थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>यौद्धाओं का घर जंगल होता</p>
<p>पहचान बनी ये वीरों की</p>
<p>महल-आराम सुख-वैभव त्यागे</p>
<p>जिसे प्रजा की सेवा करनी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>कला-प्रतिभाओं का मान हमेशा</p>
<p>नींव सहिष्णुता की जिसने डाली थी</p>
<p>अच्छी नीतियों के पोषक राणा जी</p>
<p>जिन्हें हिंदू राजाओं की साख बचानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>हिन्दू-मुस्लिम में भी देखी एकता</p>
<p>ऐसी टुकड़ी वीर जवानों की</p>
<p>धर्म-जाति का भेदभाव न मन में</p>
<p>नीतियाँ सुंदर बड़ी प्यारी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>न डरना न डराना किसी को</p>
<p>कूटनीति की राह अपनानी थी</p>
<p>धौंस दिखाता अकबर रह गया</p>
<p>केवल बात थी शीश झुकाने की</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>झुका नही वो रुका नही</p>
<p>जिसने गति अकबर के तूफान की थामी थी</p>
<p>मृगों के झुंड वो व्याघ्र-सा</p>
<p>जिसकी दहाड़ सिंह-सी लगानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>विजय-विनय का मंत्र पढ़ा जो</p>
<p>उसमें क्रोध की ज्वाला भड़की थी</p>
<p>अब दर्प-अभिमान मुगलों का नही रहेगा</p>
<p>बात राणा मन में ठानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p></p>
<p>धूल चटा दी शत्रुओं को जिसने</p>
<p>शक्ति अनकही अंजानी थी</p>
<p>अचंभित था अकबर भी उसके किस्से सुनकर</p>
<p>जिसकी जग जीतने की तैयारी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>तैयार अकबर आधा हिंदुस्तान देने को</p>
<p>थी शर्त प्रताप का शीश झुकाने की</p>
<p>सेनापति न कोई भी ऐसा</p>
<p>जिसमे हिम्मत हो सम्मुख आने की</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>बड़ी सेना एक युद्ध में उतारा </p>
<p>छोटी सेना थी राणा की </p>
<p>ऐसे युक्ति संहार की उसने बनाई</p>
<p>जो पूरी कभी न होनी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>मानसिंह आया सामना करने</p>
<p>सुन नस-नस राणा की खोली थी</p>
<p>अब सम्मान का विषय बना चितौड़ जीतना</p>
<p>जिसकी प्रतिकृति दिल में समाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>सामना होता जब भी राणा से</p>
<p>लज्जा से नजरें झुकाई थी </p>
<p>अपनी पगड़ी का जो सौदा करता</p>
<p>कसम जी-हजूरी की उसने खाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>हल्दी घाटी के इस भयंकर युद्ध में</p>
<p>मेवाड़ की आन बचानी थी</p>
<p>अपनी जान की फिक्र न जिनको</p>
<p>उस वीर की यही कहानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>बाहुबल दिखाते हय-गजदल चलते</p>
<p>पदाति की बात निराली थी</p>
<p>आग उगलती तोपों ने</p>
<p>बेचैनी अरिदल में खूब मचाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>खून खोलता हर सैनिक का</p>
<p>उनकी जब रणभेरी की गूंज सुनाई दी</p>
<p>वायस-श्रृंगाल नोंच-नोंच के खाते</p>
<p>जहां लाश बिछी थी वीरों की</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>अल्लाहो-अकबर के नारों में</p>
<p>गूंज हर-हर महादेव की गूंजी थी</p>
<p>बहती जहां पर लहू की धारा</p>
<p>वीरों को नरभक्षियों की भूख मिटानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>वीर-साहसी बन बल जांचते अपना</p>
<p>जब सैनिक दल ने हुंकार भरी</p>
<p>शमशीर से शमशीर टकराती</p>
<p>नोक वपु चीरती भालों की</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>महाप्रलय की बिजली चमकी</p>
<p>रणचंडी भी नाच उठी थी</p>
<p>चील-कौंवे, <span>गिद्ध शोर मचाते</span></p>
<p>तलवार म्यान से निकल चुकी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>छुरी-बरछी, <span>चाकू चलते</span></p>
<p>धनुष-बाण ने भी भृकुटि तानी थी</p>
<p>चमचमाते-लपलपाते</p>
<p>रण महाप्रलय में लाश बिछानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>बन रणचंडी का रूप भयंकर</p>
<p>कलकल करती रणगंगा में नहायी थी</p>
<p>कोहराम युद्ध में ऐसा मचाया</p>
<p>सेना वैरी दल की थर्रायी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>चमचमाती तलवार की धार भी</p>
<p>हर ओर धड़-मुंड गिराती निकलती थी</p>
<p>हाथ-पैर सर-धड़ कटकर गिरते</p>
<p>उनकी गिनती किसने जानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>तनती थी लहू चाट-चाटकर</p>
<p>जिसे रणचंडी की प्यास बुझानी थी</p>
<p>कथकली करती रणभेरियाँ</p>
<p>जब भाला-तलवार चलती राणा की</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>रक्त पिशाचनी झूम के नाचे</p>
<p>जिन्हे पी रक्त से प्यास बुझानी थी</p>
<p>मृत्युदूत बन राणा लड़ते</p>
<p>जिन्हें दुश्मन को धूल चटानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>नतमस्तक उसका कौशल देखकर</p>
<p>परछाई खौफ की छाई थी</p>
<p>किसकी हिम्मत जो सामना करे</p>
<p>गले मृत्यु किसको लगानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>अरावली के कानन गवाही है देते</p>
<p>पूछो मिट्टी हल्दीघाटी की</p>
<p>क्षत-विक्षत हुए जानें कितने</p>
<p>बनी कितनों की मृत्यु साक्षी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>सैनिक कांपे नायक कांपे</p>
<p>विनाश की थाह न जानी थी</p>
<p>हतप्रभ रह गए देखने वाले</p>
<p>रची कवियों ने विभिन्न कहानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>बीच से काटा बहलोल खान को</p>
<p>डोर मुगलों की जिसने थामी थी</p>
<p>कभी सामने न आया अकबर राणा के</p>
<p>संग्राम में जिसने हार न अभी तक मानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>भीषण हुआ रक्तपात समर का</p>
<p>विग्रह का शंखनाद करती सेना थी</p>
<p>कैसे खड़े हो उसके विरोध में</p>
<p>जिसकी वीरता न माँगती पानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>कंपित रिपु का आत्मबल</p>
<p>रक्त से नोंक निज भालें की नहाई थी</p>
<p>आसमान छू रही मुगलों की शक्ति</p>
<p>उस पर रोक लगानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>जुगत में रहता नीति बनाता</p>
<p>जिसने विजय न राणा पर पाई थी </p>
<p>बड़ी मुश्किल से बचा मानसिंह </p>
<p>पर अपनी शाख गंवाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>जिसने अरण्य-वन में वक्त गुजारा</p>
<p>पर कभी हार नही स्वीकारी थी</p>
<p>भूखे-प्यासे भटके वनों में</p>
<p>घास-फूस की रोटी भी खाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>संतान को खोते दुःख भी सहते</p>
<p>लेकिन आंच न चितौड़ पर आने दी</p>
<p>अटल-प्रतिज्ञा ऐसी जिसकी </p>
<p>गूँज मुगल दरबार तक सुनाई दी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>आँसू बहाये अकबर ने भी</p>
<p>जब सूचना वीरगति की जानी थी</p>
<p>तेरे जैसा न वीर जहां में</p>
<p>महिमा प्रताप की उसने गायी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>अधूरी रह गई ख़्वाहिश उसकी</p>
<p>उदासी मान में छाई थे</p>
<p>मर कर भी राणा अमर हो गया</p>
<p>वीरगति रण में पाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>लौह पुरुष वो मातृभक्त</p>
<p>जिसने गुलामी अकबर की सदा ठुकराई थी </p>
<p>अखंड भारत को तवज्जो देता</p>
<p>जिसकी पहचान थी हिन्दुस्तानी की</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>मेवाड़ का सूरज, <span>मातृभूमि का रक्षक</span></p>
<p>तुलना करूँ क्या राणा की</p>
<p>कभी झुका न पाया अकबर जिसकों</p>
<p>रची वीरता की ऐसी कहानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>चेतक की हम बात करे क्या</p>
<p>निष्कलंक जिसकी कहानी थी</p>
<p>प्राण न्यौछावर कर दिये अपने</p>
<p>लेकिन आँच न प्रताप पर आने दी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>मोहताज नहीं किसी परिचय का</p>
<p>अपनी जिसकी कहानी थी</p>
<p>बिन पंखों के उड़ान जो भरता</p>
<p>बातें हवा से करना निशानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>नीले रंग के चेतक से</p>
<p>गज शत्रु की शामत आई थी</p>
<p>उनके मस्तक पर चढ़कर वार था करता</p>
<p>जिसे सूंड नकली पहनाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>रणभूमि में चौकड़ी भरता</p>
<p>जवानी में जिसकी रवानी थी</p>
<p>हय टापों से वार जो करता</p>
<p>देख अरिदल में हुई हैरानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>अरि मस्तक पर दौड़ लगाता</p>
<p>ऐसी चढ़ी जवानी थी</p>
<p>फुर्ती की क्या बात करें हम</p>
<p>उससे तेज फिरती न पुतली राणा की</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>कोड़ा गिरा न कभी राणा का</p>
<p>न कभी नौबत ही ऐसी आने दी</p>
<p>पल में ओझल पल में प्रत्यक्ष</p>
<p>वायु भी जिससे हारी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>विकराल-वृजमय बादल-सा जो</p>
<p>गढ़ी शत्रुओं ने जिसकी कहानी थी</p>
<p>दंग रह जाते उसके करतब देखकर</p>
<p>जिसकी गति-बुद्धि न किसी ने जानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>सरपट दौड़ता राणा को लेकर</p>
<p>जिसकी चाल बड़ी तूफानी थी</p>
<p>खड्ग-तीर तलवार-भालों से रक्षा करता</p>
<p>कभी खरोच न राणा पर आने दी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>प्रहार करता शत्रु पर ऐसे</p>
<p>देरी सोच राणा के मन में आने की</p>
<p>निडर-निर्भीक हो किले भेदता</p>
<p>जिसे वीरगति भी युद्ध में पानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>भागते हुए के पैर न दिखते</p>
<p>रफ्तार ऐसी चेतक की </p>
<p>वार करता, <span>चकमा देता</span></p>
<p>जिसने तुलना राणा से पाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>जानता था शत्रु समर्थ नहीं है</p>
<p>हिम्मत न कोई जोखिम बड़ा उठाने की </p>
<p>चौड़ा-गहरा नाला बड़ा था</p>
<p>पार करने में शत्रु की सेना सहमी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>पार किया तो जान बचेगी</p>
<p>बात मन में चेतक ने ठानी थी</p>
<p>मुगलियां सेना से राणा बचाता</p>
<p>उसने तीन पैर पर दौड़ लगाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>कई फुट का नाला कूदकर</p>
<p>उसने राणा की जान बचाई थी</p>
<p>ऊंची छलांग वो ऐसी लगाता</p>
<p>जंगल में जान सुरक्षित रही थी राणा की</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>गज शीश पर पाँव थे जिसके</p>
<p>जिसकी शक्ति गज़ब निराली थी</p>
<p>रणभूमि में नाला लांगा</p>
<p>भरी छलांग थी कुर्बानी की</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>घायल था पर जिम्मेदारी जिसकी</p>
<p>राणा की जान बचानी थी</p>
<p>भरी चौकड़ी पूरी शक्ति से</p>
<p>जो अंतिम राणा को उसकी सलामी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>क्रन्दन करते जन-पशु-पक्षी सब</p>
<p>अंतिम चेतक ने ये लड़ाई लड़ी थी</p>
<p>मुख छिपाता सूरज रह गया</p>
<p>जब तम गहन अंधकार ने ली अंगड़ाई थी </p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>राम प्रसाद एक गज राणा का</p>
<p>जिसके रणकौशल की बात निराली थी</p>
<p>जाने कितने गजों को मारा</p>
<p>सेना वैरी दल की देख-देख चकराई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>घेराबंदी कर उसे फ़साते</p>
<p>महावत से गुहार लगाई थी</p>
<p>खाना-पीना छोड़ा राणा की याद में</p>
<p>जिसने पिंजरे में जान गंवाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>देख अचंभित अकबर होता</p>
<p>त्याग की उसके दुहाई दी</p>
<p>राणा से पशु भी करते कितना प्रेम है</p>
<p>ये बात बड़ी हैरानी की</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>रामप्रसाद से नाम वीर कराया</p>
<p>जिसने नई त्याग-बलिदान की रची कहानी थी</p>
<p>चेतक-वीर के किस्से सुनाता</p>
<p>अंतरात्मा उन्हे अकबर की शीश नवाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>शीश झुकाया न जिसके गज ने</p>
<p>मृत्यु ही अपनाई थी</p>
<p>कैसे झुकाऊँ उसके मालिक को</p>
<p>अकबर ने गुहार मंत्रियों से रोज लगाई थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>प्राण न्यौछावर किए दोनों ने</p>
<p>तन परवर्ती न बीच में आने दी</p>
<p>राष्ट्र रक्षा ही सर्वोपरि होती </p>
<p>अमर देशभक्ति की रची कहानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>वीर-चेतक सी अजब कहानी</p>
<p>न पहले ऐसे सुनाई दी</p>
<p>इतिहास भी जिनको खूब सरहाता</p>
<p>पशुओं में कभी न देशभक्ति ऐसी दिखाई दी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p> </p>
<p>क्या वर्णन करूं मैं उसके यश का</p>
<p>अद्भुत जिसकी जवानी थी</p>
<p>कम पड़ जाते शब्द भी सारे</p>
<p>गढ़ा वीरता की ऐसी निशानी थी</p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p></p>
<p>चित्तौड़ भूमि के हर कण में बसता, जन-जन की जो वाणी थी।।</p>
<p>वीर अनोखा महाराणा था, शौर्य-वीरता जिसकी निशानी थी||</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित रचना </p>शिवाजी महाराजtag:www.openbooksonline.com,2023-01-27:5170231:BlogPost:10971432023-01-27T09:00:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p> डर से जिनके थर्र-थर्र कांपे</p>
<p>जो मुगलों की नींव हिला बैठे</p>
<p>हमला करेंगे कब-कहाँ शिवाजी, <span>नींद</span>, उनकी उड़ा बैठे|</p>
<p> </p>
<p>जीजा-शाहजी के पुत्र प्यारे</p>
<p>माँ शिवाई के उपासक थे</p>
<p>माता के नाम से शमशीर पास में, <span>नाम</span> उन्हीं से पाये थे|</p>
<p> </p>
<p>हृदय सम्राट कहते थे उनको</p>
<p>काम जनता भलाई के करते थे</p>
<p>अष्ट प्रधान दरबार विराजे, <span>जो</span> मंत्रीपरिषद के सदस्य थे|</p>
<p> </p>
<p>नारी का सम्मान हमेशा</p>
<p>नारी हिंसा-उत्पीड़न के…</p>
<p> डर से जिनके थर्र-थर्र कांपे</p>
<p>जो मुगलों की नींव हिला बैठे</p>
<p>हमला करेंगे कब-कहाँ शिवाजी, <span>नींद</span>, उनकी उड़ा बैठे|</p>
<p> </p>
<p>जीजा-शाहजी के पुत्र प्यारे</p>
<p>माँ शिवाई के उपासक थे</p>
<p>माता के नाम से शमशीर पास में, <span>नाम</span> उन्हीं से पाये थे|</p>
<p> </p>
<p>हृदय सम्राट कहते थे उनको</p>
<p>काम जनता भलाई के करते थे</p>
<p>अष्ट प्रधान दरबार विराजे, <span>जो</span> मंत्रीपरिषद के सदस्य थे|</p>
<p> </p>
<p>नारी का सम्मान हमेशा</p>
<p>नारी हिंसा-उत्पीड़न के विरोधक थे</p>
<p>जात-पात का भेद न मन में, <span>सबसे</span> उचित व्यवहार ही करते थे|</p>
<p> </p>
<p>प्रशानिक शिक्षा कोंडदेव से पाई</p>
<p>रामदास आध्यात्मिक गुरु कहलाते थे</p>
<p>सिंहासन पर रख गुरु चरण पादुका, <span>फिर</span> चरणों में शीश झुकाते थे|</p>
<p> </p>
<p>गुरु नाम के सिक्के चलाये</p>
<p>नौ सेना के जनक कहलाते थे</p>
<p>युद्ध कलाओं में महारत हासिल, <span>पेशेवर</span> सेना रखते थे|</p>
<p> </p>
<p>गुरिल्ला युद्ध के जन्मदाता</p>
<p>सत्ता, रायगढ़ पर रखते थे</p>
<p>निंबालकर के पति-परमेशर, <span>संभाजी</span> महाराज के पिताश्री थे ।</p>
<p> </p>
<p>पुना दुर्ग पर कब्जा जमाया</p>
<p>मराठा साम्राज्य की नींव रखे थे</p>
<p>अफजल को भी मार गिराया, <span>रामनगर</span> तक राज्य बढ़ाये थे|</p>
<p> </p>
<p>सिद्धी जौहर ने कैदी बनाए</p>
<p>दुर्ग पन्हाला में रखे थे</p>
<p>छल गए उनको नहावी बैठाकर, <span>जो</span> उन्हे जीतने का सपना रखते थे|</p>
<p> </p>
<p>औरंगजेब से लोहा लिये</p>
<p>नाक में दम कर रखे थे</p>
<p>कल्याणी प्रदेशों को जीता उन्होने, <span>अदम्य</span> साहस जो रखते थे|</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित रचना </p>सिखों के महान गुरुओं की संक्षिप्त गाथाtag:www.openbooksonline.com,2023-01-27:5170231:BlogPost:10972242023-01-27T06:30:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>गुरु प्रथा को आज यहाँ</p>
<p>मैं काव्य रूप में कहता हूँ</p>
<p>क्षमा माँगता कर जोड़कर</p>
<p>जो कुछ गलत कह जाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>शीश झुकाऊँ गुरु चरण में</p>
<p>आज यहाँ गुरु की महिमा कहता हूँ </p>
<p>अंतरात्मा पवित्र है मेरी</p>
<p>जिसे गंगा सी पवित्र बतलाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>हिंदू-इस्लाम से अलग धर्म एक</p>
<p>जिसे सिख धर्म बतलाता हूँ</p>
<p>पहले गुरु थे नानकदेव जी</p>
<p>धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ शाहिब’ मैं कहता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>तलवंडी में जन्म जो पाये</p>
<p>आज ननकाना उसे कहता…</p>
<p>गुरु प्रथा को आज यहाँ</p>
<p>मैं काव्य रूप में कहता हूँ</p>
<p>क्षमा माँगता कर जोड़कर</p>
<p>जो कुछ गलत कह जाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>शीश झुकाऊँ गुरु चरण में</p>
<p>आज यहाँ गुरु की महिमा कहता हूँ </p>
<p>अंतरात्मा पवित्र है मेरी</p>
<p>जिसे गंगा सी पवित्र बतलाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>हिंदू-इस्लाम से अलग धर्म एक</p>
<p>जिसे सिख धर्म बतलाता हूँ</p>
<p>पहले गुरु थे नानकदेव जी</p>
<p>धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ शाहिब’ मैं कहता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>तलवंडी में जन्म जो पाये</p>
<p>आज ननकाना उसे कहता हूँ</p>
<p>करतारपुर एक शहर पाक का</p>
<p>जहाँ उनका समाधि स्थल पाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>प्रखर बुद्धि के धनी गुरु जी</p>
<p>जिन्हे मन-विषयों से उदासीन पाता हूँ</p>
<p>आध्यात्मिक चिन्तन में वक़्त गुजारते</p>
<p>समर्पित जीवन मानव सेवा में कहता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>दूसरे गुरु थे अंगददेव जी</p>
<p>जन्मदाता गुरुमुखी-लंगर की प्रथा पाता हूँ</p>
<p>उत्तराधिकारी गुरु नानकदेव के</p>
<p>जिनका लहिणा नाम भी कहता हूँ|| </p>
<p> </p>
<p>शुरू करते मल्ल-अखाड़ा प्रथा</p>
<p>जीवन कठिनाई भरा मै पाता हूँ </p>
<p>साहित्य केन्द्रों की स्थापना करते</p>
<p>प्राप्त जिससे सिख धर्म को शक्ति कहता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>तीसरे गुरु बने अमरदास जी</p>
<p>मिला अंर्तजातीय-पुनर्विवाह को बढ़ावा पाता हूँ</p>
<p>जाति-सतीप्रथा पर घात किए जो</p>
<p>गुरुगद्दी का सच्चा उत्तराधिकारी उन्हे मैं कहता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>सेवा-समर्पण दिल में जागा</p>
<p>शब्द गुरु नानकदेव की महिमा गाता हूँ</p>
<p>बुराइयों के खिलाफ आंदोलन चलाये</p>
<p>जिसे स्वस्थ विकास में अवरोध बड़ा मैं कहता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>बहुत गरीब परिवार के बेटे</p>
<p>जिन्हें दामाद गुरु अमरदास का कहता हूँ </p>
<p>प्रसिद्ध हो गये भक्ति-सेवा से</p>
<p>गुरु रामदास जी को चौथा गुरु मैं पाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>जमीनें खरीदी जमींदारों से</p>
<p>वहाँ नियुक्त बूढाजी को मैं पाता हूँ</p>
<p>अमृत सरोवर एक नगर बसाया</p>
<p>आज जिसका नाम अमृतसर कहता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>पांचवे गुरु थे अर्जुन देव जी</p>
<p>निर्माणकर्ता हरमंदिर साहब (स्वर्ण मंदिर) का कहता हूँ </p>
<p>अत्यंत यातनाएं जहाँगीर से पाते</p>
<p>उनका बलिदान बड़ा मैं पाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>संकलित करते गुरुओं की वाणी</p>
<p>महत्तव सुखमनी साहिब का कहता हूँ </p>
<p>शांति का संदेश सुनाती</p>
<p>नाम जिसका सुखों की मणि मैं पाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>अर्जुनदेव के पुत्र गुरु हरगोविंद जी</p>
<p>महारत हासिल अस्त्र-शस्त्रों में जिनकी कहता हूँ</p>
<p>हत्या करा दी जहाँगीर ने उनकी</p>
<p>क्रांतिकारी जिन्हे एक महान यौद्धा पाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>अकाल तख्त का निर्माण कराते</p>
<p>हमेशा जिन्हे शान्त-अभय-अडोल मैं कहता हूँ</p>
<p>पराजित करते मुगल सेना को</p>
<p>संस्थापक नानकराज बतलाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>बाबा गुरदिता के छोटे बेटे</p>
<p>मददगार जिन्हें दारा शिकोह का पाता हूँ</p>
<p>गुरु हरराय जी वो कहलाए</p>
<p>सिखों के सातवें गुरु उन्हें कहता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>आध्यात्मिक एक राष्ट्रवादी</p>
<p>सिख योद्धाओं में नवीन प्राण संचालक कहता हूँ </p>
<p>स्थापना करते अस्पताल व अनसुधान केन्द्र की</p>
<p>जिनसे सिख योद्धाओं को पुरुस्कृत पाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>आठवे गुरू हरकिशन कहलाए</p>
<p>जिनका शासन तीन वर्ष ही कहता हूँ</p>
<p>भगवद्गीता के महाज्ञानी</p>
<p>करते अहं ब्राह्मणों का चूर मैं पाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>जनों की सेवा का अभियान चलाते</p>
<p>न भेद वर्ण-उंच-नीच का कहता हूँ </p>
<p>उत्तराधिकारी बाबा बकाला बनाए</p>
<p>जब उन्हें प्राण त्यागते पाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>सत्य-ज्ञान के प्रचार-प्रसार का</p>
<p>जिम्मा गुरु तेग बहादुर के शीश पर पाता हूँ </p>
<p>उद्धार किया भाई मलूकदास का</p>
<p>जिन्हे नौवाँ गुरु मैं कहता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>कबूल किया न इस्लाम धर्म को</p>
<p>विरोध किया जो औरंगजेब का पाता हूँ </p>
<p>शीश कटा दिया धर्म रक्षा में</p>
<p>जिन्हे हिन्द की चादर कहता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>अंतिम गुरु थे गुरु गोविंद जी</p>
<p>सुत गुरु तेग बहादुर के प्यारे कहता हूँ </p>
<p>तलवार उठाए जो पिता की खातिर</p>
<p>उन्हे अंतिम गुरु मैं पाता हूँ|| </p>
<p> </p>
<p>खात्मा करते जो पाप-अन्याय-अत्याचार का</p>
<p>जिन्हे अतुलीय यौद्धा कहता हूँ </p>
<p>खालसा पंथ के बने संरक्षक</p>
<p>जिन्हे पाँच ककारों (केश, कंघा,कड़ा,किरपान, कच्चेरा) का उपदेशक पाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>धोखा पठान का समझ सके न</p>
<p>उन्हे अहिंसा का पुजारी कहता हूँ</p>
<p>नैतिकता-निडरता-आध्यात्मिक जागृति के प्रकाशक</p>
<p>उन्हे दिव्य ज्योति में लीन मैं पाता हूँ||</p>
<p> </p>
<p>गुरु प्रथा को आज यहाँ</p>
<p>मैं काव्य रूप में कहता हूँ</p>
<p>क्षमा माँगता कर जोड़कर</p>
<p>जो कुछ गलत कह जाता हूँ||</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित रचना </p>जिम्मेदार इंसान-एक सम्पूर्ण परिवारtag:www.openbooksonline.com,2022-08-23:5170231:BlogPost:10879402022-08-23T05:30:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>अंधा, बहरा कभी गूंगा बनता</p>
<p>रिश्तों की जिसको परवाह हो</p>
<p>मान-अपमान का भोग भी करता</p>
<p>चिंतित रहता, परिवार पर उसके कलंक न हो।।</p>
<p> </p>
<p>सोच-समझकर सही फैसले लेता</p>
<p>ताकि घर में कलह न हो</p>
<p>उत्तरदायित्व भी लेता हरदम</p>
<p>फैसलों में उसके कभी दो राय न हो।।</p>
<p> </p>
<p>शान-शौकत सब भूलता अपनी</p>
<p>पद-प्रतिष्ठा का भी अभिमान न हो</p>
<p>सबकी खुशी में उसकी खुशी है</p>
<p>चाहे किए त्याग का नाम न हो।।</p>
<p> </p>
<p>होती जिम्मेदारियां बड़ी है उसकी</p>
<p>जग में चाहे…</p>
<p>अंधा, बहरा कभी गूंगा बनता</p>
<p>रिश्तों की जिसको परवाह हो</p>
<p>मान-अपमान का भोग भी करता</p>
<p>चिंतित रहता, परिवार पर उसके कलंक न हो।।</p>
<p> </p>
<p>सोच-समझकर सही फैसले लेता</p>
<p>ताकि घर में कलह न हो</p>
<p>उत्तरदायित्व भी लेता हरदम</p>
<p>फैसलों में उसके कभी दो राय न हो।।</p>
<p> </p>
<p>शान-शौकत सब भूलता अपनी</p>
<p>पद-प्रतिष्ठा का भी अभिमान न हो</p>
<p>सबकी खुशी में उसकी खुशी है</p>
<p>चाहे किए त्याग का नाम न हो।।</p>
<p> </p>
<p>होती जिम्मेदारियां बड़ी है उसकी</p>
<p>जग में चाहे पहचान न हो</p>
<p>काम तो उसको करना पड़ता</p>
<p>चाहे शरीर में जान न हो।।</p>
<p> </p>
<p>थकान, पीड़ा क्या रोकेगी उसको</p>
<p>जब, कमानेवाला कोई और न हो</p>
<p>परिवार की खुशियां प्रथम लक्ष्य</p>
<p>चाहे मंजिल का उसे कोई ज्ञान न हो।।</p>
<p> </p>
<p>कभी गिरता कभी संभलता</p>
<p>उसमें, अदम्य साहस की कमी न हो</p>
<p>काटों भरा है उसका जीवन</p>
<p>पर, अनुभव की उसमें कमी न हो।।</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>स्वरचित व मौलिक</p>
<p>फूल सिंह, दिल्ली</p>कैसी विपदा कैसा डरtag:www.openbooksonline.com,2021-04-18:5170231:BlogPost:10586442021-04-18T04:30:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>सुनसान सड़क, सुनसान रात है, सुनसान सबके अन्तर्मन</p>
<p>कैसे विपदा आन पड़ी ये, दुख, तड़प और है उलझन ||</p>
<p> </p>
<p>चिराग भुझ रहे हर पल, हर क्षण, लगा दो चाहे तन, मन, धन</p>
<p>कड़ा समाधान न मिला अभी तक, जकड़ रहा है गहरा तम ||</p>
<p> </p>
<p>भूख, प्यास और खाली है घर, रोजी रोटी भी हो गई बंद</p>
<p>वायु में जैसे विष घुला है, कैसा संकट ये कैसा कष्ट ||</p>
<p> </p>
<p>हर पीड़ित अब यही पूछता, भूख लगने पर हो बंधन</p>
<p>पापी-खाली पेट तो मान रहा न, कैसे इच्छापूर्ति करेगा रंक ||</p>
<p> </p>
<p>हाथ…</p>
<p>सुनसान सड़क, सुनसान रात है, सुनसान सबके अन्तर्मन</p>
<p>कैसे विपदा आन पड़ी ये, दुख, तड़प और है उलझन ||</p>
<p> </p>
<p>चिराग भुझ रहे हर पल, हर क्षण, लगा दो चाहे तन, मन, धन</p>
<p>कड़ा समाधान न मिला अभी तक, जकड़ रहा है गहरा तम ||</p>
<p> </p>
<p>भूख, प्यास और खाली है घर, रोजी रोटी भी हो गई बंद</p>
<p>वायु में जैसे विष घुला है, कैसा संकट ये कैसा कष्ट ||</p>
<p> </p>
<p>हर पीड़ित अब यही पूछता, भूख लगने पर हो बंधन</p>
<p>पापी-खाली पेट तो मान रहा न, कैसे इच्छापूर्ति करेगा रंक ||</p>
<p> </p>
<p>हाथ पसारे मांग न सकते, खोने आत्म-सम्मान होता डर </p>
<p>मदद करे भी तो कैसे करें, विचलित है आज हर एक मन ||</p>
<p> </p>
<p>दया, करुणा छिप कर बैठी, जैसे मानवता गई निकल</p>
<p>मदद करे या खुद को बचाए, करे, दूसरों की चिंता कैसे फिक्र ||</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>शिकायत-एक अद्रश्य अपराधtag:www.openbooksonline.com,2021-01-27:5170231:BlogPost:10434162021-01-27T13:00:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>शिकायत कभी भी खत्म ना होती</p>
<p>कोई जीवन चाहे कुर्बान करें </p>
<p>खाली दिमाग का सब फितूर है</p>
<p>ये सोच के अपना काम करें ||</p>
<p> </p>
<p>हर तरह के लोग जहां में</p>
<p>बस मेहनती लोगो की बात करें</p>
<p>कष्ट सहकर भी हार ना माने</p>
<p>जज्बे को उनके सलाम करें ||</p>
<p> </p>
<p>पद मिले तो अभिमान में भरते</p>
<p>ना बड़े-छोटे का सम्मान करें</p>
<p>संस्कारों की बात कहीं ना</p>
<p>बस अपने कर्मो का गुणगान करें ||</p>
<p> </p>
<p>कुछ लोगो की आदत बुरी है</p>
<p>उनकी कभी ना बात करें </p>
<p>हर…</p>
<p>शिकायत कभी भी खत्म ना होती</p>
<p>कोई जीवन चाहे कुर्बान करें </p>
<p>खाली दिमाग का सब फितूर है</p>
<p>ये सोच के अपना काम करें ||</p>
<p> </p>
<p>हर तरह के लोग जहां में</p>
<p>बस मेहनती लोगो की बात करें</p>
<p>कष्ट सहकर भी हार ना माने</p>
<p>जज्बे को उनके सलाम करें ||</p>
<p> </p>
<p>पद मिले तो अभिमान में भरते</p>
<p>ना बड़े-छोटे का सम्मान करें</p>
<p>संस्कारों की बात कहीं ना</p>
<p>बस अपने कर्मो का गुणगान करें ||</p>
<p> </p>
<p>कुछ लोगो की आदत बुरी है</p>
<p>उनकी कभी ना बात करें </p>
<p>हर शख्स में नुक्स निकालते</p>
<p>ना खुद बड़ा कोई काम करें ||</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>सच-एक मौनtag:www.openbooksonline.com,2021-01-20:5170231:BlogPost:10428112021-01-20T16:29:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>मौन रहता सच सदा ही, <span>आवाज झूठ ही करता है</span></p>
<p>कर्म दिखाता सच का चेहरा, <span>झूठ भ्रम को पैदा करता है</span> ||</p>
<p> </p>
<p>प्रमाण देता झूठ सदा ही, <span>खूब खोखले दावे करता है</span></p>
<p>परवाह ना सच को किसी बात की, <span>वो तो हौंसले की उड़ान को भरता है</span> ||</p>
<p> </p>
<p>तकलीफ होती झूठ को हरदम, <span>ना खुशी बर्दास्त ही करता है</span></p>
<p>आग लगाता कहीं ना कहीं, <span>जब भी शोर वो करता है</span> ||</p>
<p> </p>
<p>सच सागर सी शक्ति का मालिक, <span>सदा मर्यादा…</span></p>
<p>मौन रहता सच सदा ही, <span>आवाज झूठ ही करता है</span></p>
<p>कर्म दिखाता सच का चेहरा, <span>झूठ भ्रम को पैदा करता है</span> ||</p>
<p> </p>
<p>प्रमाण देता झूठ सदा ही, <span>खूब खोखले दावे करता है</span></p>
<p>परवाह ना सच को किसी बात की, <span>वो तो हौंसले की उड़ान को भरता है</span> ||</p>
<p> </p>
<p>तकलीफ होती झूठ को हरदम, <span>ना खुशी बर्दास्त ही करता है</span></p>
<p>आग लगाता कहीं ना कहीं, <span>जब भी शोर वो करता है</span> ||</p>
<p> </p>
<p>सच सागर सी शक्ति का मालिक, <span>सदा मर्यादा धारण करता है</span></p>
<p>गमगीन रहता तह हृदय से, <span>नए मुकाम वो हासिल करता है</span> ||</p>
<p> </p>
<p>झूठ तो जलता अपनी आग में, <span>सच शांति की आंहे भरता है</span></p>
<p>विनर्मता रहती वाणी में सच की, <span>हृदय में सीधा उतरता है</span> ||</p>
<p> </p>
<p>कुछ अर्थ होता उसकी बात में, <span>ना शोर-शराबा करता है</span></p>
<p>झूठ कहता अभिमान से, <span>सच कभी ना डरता है</span> ||</p>
<p> </p>
<p>झुकना पड़ता झूठ को सदा ही जब सच सामना करता है</p>
<p>तर्क-वितर्क में सम्मान को खोता, <span>आंखे भी नीची करता है</span> ||</p>
<p> </p>
<p>सच का दामन कभी ना छोड़ो, <span>पैदा मकसद जीने का करता है</span></p>
<p>गले लगाता उसी को लेकिन, <span>जो सरल मार्ग पर चलता है</span> ||</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>पैसा- दूसरा ईश्वरtag:www.openbooksonline.com,2020-12-19:5170231:BlogPost:10387702020-12-19T08:14:24.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>धन, <span>दौलत तो उपयोग की वस्तु</span>, <span>जाती कभी भी साथ नहीं</span></p>
<p>कद्र ना होती उस शख्स की, <span>पैसा जिसके पास नहीं</span> ||</p>
<p> </p>
<p>आज बचा लो कल मिलेगा, <span>इसे बचाना दोष नहीं</span></p>
<p>दर-दर की वो ठोकर खाता, <span>गरीब की कोई औकात नहीं</span> ||</p>
<p> </p>
<p>सुख-वैभव उसके दर विराजे, <span>पैसो की ना जिसके पास कमी</span></p>
<p>अनकहे रिश्ते खुद बन जाते, <span>आदर्श बनती हर बात कही</span> ||</p>
<p> </p>
<p>कुछ दोष तो यूं छिप जाते, <span>उम्मीद जिसकी होती…</span></p>
<p>धन, <span>दौलत तो उपयोग की वस्तु</span>, <span>जाती कभी भी साथ नहीं</span></p>
<p>कद्र ना होती उस शख्स की, <span>पैसा जिसके पास नहीं</span> ||</p>
<p> </p>
<p>आज बचा लो कल मिलेगा, <span>इसे बचाना दोष नहीं</span></p>
<p>दर-दर की वो ठोकर खाता, <span>गरीब की कोई औकात नहीं</span> ||</p>
<p> </p>
<p>सुख-वैभव उसके दर विराजे, <span>पैसो की ना जिसके पास कमी</span></p>
<p>अनकहे रिश्ते खुद बन जाते, <span>आदर्श बनती हर बात कही</span> ||</p>
<p> </p>
<p>कुछ दोष तो यूं छिप जाते, <span>उम्मीद जिसकी होती नहीं</span></p>
<p>गरीब के आँसू झूठे लगते, <span>अमीर के ना होते दोष कभी</span> ||</p>
<p> </p>
<p>साथ भले ही पैसा ना जाता, <span>पर पैसे वाले बर्बाद नहीं</span></p>
<p>इस जहां में राज करेगा, <span>चाहे धर्म-कर्म में विश्वास नहीं</span> ||</p>
<p> </p>
<p>नियत तेरी साफ रही तो, <span>ईश्वर ना छोड़े साथ कभी</span></p>
<p>तरक्की की सीढ़ी रोज चढ़ेगा, <span>खिलाफ चाहे हो लोग सभी</span> ||</p>
<p> </p>
<p>पैसे के बिना ना दुनियाँ चलती, <span>ना बातों का भी मोल कहीं</span></p>
<p>अपने भी तेरे भूल जाएंगे, <span>जो धन दौलत तेरे पास नहीं</span> ||</p>
<p></p>
<p>अमौलिक व अप्रकाशित </p>भाई-एक विश्वासtag:www.openbooksonline.com,2020-12-15:5170231:BlogPost:10386792020-12-15T13:28:10.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>एक भ्रात है भरत के जैसा,</p>
<p>जिसमें कुछ पाने का भाव नहीं</p>
<p>समर्पित करता भ्रात चरण में,</p>
<p>राज्य संग सुख, <span>चैन सभी</span> ||</p>
<p> </p>
<p>तिलभर भी छल ना मन में,</p>
<p>जग भी उसके साथ नहीं</p>
<p>कठोरता/ताने सहता सारे जन की,</p>
<p>मातृ की करनी उसकी सभी ||</p>
<p> </p>
<p>विभीषण भी एक भ्रात उधर है</p>
<p>सिंहासन पर जिसकी आँख लगी</p>
<p>कठिन समय में भ्रात छोड़ता,</p>
<p>शत्रुओं को बताता भेद सभी ||</p>
<p> </p>
<p>ना अंतक्रिया भी भ्रात की करता</p>
<p>सुख-भोग से भी इंकार…</p>
<p>एक भ्रात है भरत के जैसा,</p>
<p>जिसमें कुछ पाने का भाव नहीं</p>
<p>समर्पित करता भ्रात चरण में,</p>
<p>राज्य संग सुख, <span>चैन सभी</span> ||</p>
<p> </p>
<p>तिलभर भी छल ना मन में,</p>
<p>जग भी उसके साथ नहीं</p>
<p>कठोरता/ताने सहता सारे जन की,</p>
<p>मातृ की करनी उसकी सभी ||</p>
<p> </p>
<p>विभीषण भी एक भ्रात उधर है</p>
<p>सिंहासन पर जिसकी आँख लगी</p>
<p>कठिन समय में भ्रात छोड़ता,</p>
<p>शत्रुओं को बताता भेद सभी ||</p>
<p> </p>
<p>ना अंतक्रिया भी भ्रात की करता</p>
<p>सुख-भोग से भी इंकार नहीं</p>
<p>मौका मिले तो विवाह भी करले</p>
<p>माँ समान अपनी भाभी अभी ||</p>
<p> </p>
<p>गूढ ज्ञान है दोनों भ्रात में</p>
<p>ये देव-दानव की बात नहीं</p>
<p>एक बना सदा शक्ति भ्रात की</p>
<p>दूजे को चाहिए सुख सभी || <strong> </strong></p>
<p><strong> </strong></p>
<p>दोनों भ्रात में अंतर कितना</p>
<p>केवल, <span>ये राम राज्य की बात नहीं</span></p>
<p>हर चरित्र को धारण करते</p>
<p>समाज में है ऐसा लोग अभी ||</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>धूप-छांवtag:www.openbooksonline.com,2020-12-03:5170231:BlogPost:10378682020-12-03T09:00:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>कब रुका जो आज रुकेगा, वक़्त है ये तो चलता रहेगा</p>
<p>वक्त पर हकूमत कर सके ऐसा, नहीं जन्मा जो अब जन्मेगा ||</p>
<p> </p>
<p>संग में इसके हँसना-रोना, सबको संग में इसके चलना पड़ेगा</p>
<p>अटल होकर चल रहा जो, उसे, वक़्त के आगे झुकना पड़ेगा ||</p>
<p> </p>
<p>बेदर्दी ये वक़्त बड़ा है, घाव-क्लेश तो देता रहेगा</p>
<p>खुशियों के पल छोटे करके, दशा पर तेरी हँसता रहेगा ||</p>
<p> </p>
<p>आस बांधता, विश्वास दिलाता, विश्वासघात भी करता रहेगा</p>
<p>गिरगिट जैसा रूप बदल कर, अनुभव खट्टे-मीठे देता रहेगा…</p>
<p>कब रुका जो आज रुकेगा, वक़्त है ये तो चलता रहेगा</p>
<p>वक्त पर हकूमत कर सके ऐसा, नहीं जन्मा जो अब जन्मेगा ||</p>
<p> </p>
<p>संग में इसके हँसना-रोना, सबको संग में इसके चलना पड़ेगा</p>
<p>अटल होकर चल रहा जो, उसे, वक़्त के आगे झुकना पड़ेगा ||</p>
<p> </p>
<p>बेदर्दी ये वक़्त बड़ा है, घाव-क्लेश तो देता रहेगा</p>
<p>खुशियों के पल छोटे करके, दशा पर तेरी हँसता रहेगा ||</p>
<p> </p>
<p>आस बांधता, विश्वास दिलाता, विश्वासघात भी करता रहेगा</p>
<p>गिरगिट जैसा रूप बदल कर, अनुभव खट्टे-मीठे देता रहेगा ||</p>
<p> </p>
<p>धरी रह जायेगी तेरी कमाई भी, सब रह जाएंगे रोते-बिलखते</p>
<p>कोई, कुछ भी नहीं कर पायेगा, जब वक़्त तुझे ले जायेगा ||</p>
<p> </p>
<p>सच भी यही है, वक्त के आगे चलती कहाँ है</p>
<p>चलना ही तो इसकी गति है, बिन अवरोध ये बढ़ता रहेगा ||</p>
<p> </p>
<p>वक़्त का चक्र तो चलता रहेगा, धूप-छांव भी करता रहेगा</p>
<p>आज तेरा तो कल मेरा है, वक़्त भी एक सा नहीं रहेगा||</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>वृक्ष की पुकारtag:www.openbooksonline.com,2020-11-30:5170231:BlogPost:10377512020-11-30T17:36:18.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>नहीं माँगता जीवन अपना, <span>पर बेवजह मुझको काटो ना</span></p>
<p>जो ना आये जहां में अब तक, <span>उनके लिए भी वृक्ष छोड़ो ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>नहीं रहेगा जहर हवा में, <span>पेड़ पौधो को लगा दो ना</span></p>
<p>वायु प्रदूषण नाम ना होगा, <span>बारे आक्सीजन के भी सोचो ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>पृकृति का संतुलन बना रहे यूं, <span>करना खिलवाड़ उससे छोड़ो ना</span></p>
<p>मन, <span>स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा</span>, <span>जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ो ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>वायु प्रदूषण एक…</p>
<p>नहीं माँगता जीवन अपना, <span>पर बेवजह मुझको काटो ना</span></p>
<p>जो ना आये जहां में अब तक, <span>उनके लिए भी वृक्ष छोड़ो ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>नहीं रहेगा जहर हवा में, <span>पेड़ पौधो को लगा दो ना</span></p>
<p>वायु प्रदूषण नाम ना होगा, <span>बारे आक्सीजन के भी सोचो ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>पृकृति का संतुलन बना रहे यूं, <span>करना खिलवाड़ उससे छोड़ो ना</span></p>
<p>मन, <span>स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा</span>, <span>जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ो ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>वायु प्रदूषण एक विकट समस्या, <span>इसका समाधान कुछ खोजो ना</span></p>
<p>आक्सीजन की किल्लत भारी, <span>फिर से वन उपवन लगा दो ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>अपना जीवन तो कट जाएगा, <span>स्वार्थ को अपने छोड़ो ना</span></p>
<p>नयें वृक्षों की पौध लगा कर, <span>अभियान वृक्षारोपण का छेड़ों ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>नई पीढ़ी हमे गाली ना दे, <span>एक स्वच्छ वातावरण तो छोड़ो ना</span></p>
<p>स्वस्थ, <span>सफल जीवन हो नई पीढ़ी का</span>, <span>उसे</span>, <span>ये मनभावन सौगात दे दो ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>रंग बिरंगे फूल लगाकर, <span>भू-धरा को फिर से सजा दो ना</span></p>
<p>वृक्ष लगे एक भव्य मुकुट सा, <span>ओढ़नी हरियाली की ऊढ़ा दो ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>महक उठे जग ये सारा, <span>लहर पेड़-पौधो की चला दो ना</span></p>
<p>स्वागत करने नई पीढ़ी का, <span>भीनी-भीनी खुशबू फैला दो ना</span> ||</p>
<p> </p>
<p>याद करेगी तेरे कर्म को, <span>कोई अमूल्य उपहार तो छोड़ो ना</span></p>
<p>एक वृक्ष की पुकार को सुनकर यारों, <span>मूहीम वृक्षारोपण की चला दो ना</span> ||</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>
<p> </p>एक प्रश्न ?tag:www.openbooksonline.com,2020-11-29:5170231:BlogPost:10376982020-11-29T13:36:42.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p><strong>एक प्रश्न</strong></p>
<p> </p>
<p>अन्नदाता क्यूँ रोड़ पड़ा</p>
<p>निजीकरण का दौर बढ़ा</p>
<p>कोरोना की स्थिति विकट है</p>
<p>हर नागरिक क्यूँ मजबूर बड़ा||</p>
<p> </p>
<p>नयें नियमों की अदला-बदली</p>
<p>भारत परिवर्तन की ओर बढ़ा</p>
<p>भविष्य का तो पता नहीं</p>
<p>पर आज बेरोजगारी का मुद्दा बड़ा ||</p>
<p> </p>
<p>छोटे से लेकर बड़े व्यापारी तक</p>
<p>हर जन में क्यों आक्रोश बढ़ा</p>
<p>युवा रोजगार को तरस रहे</p>
<p>आज, <span>आंदोलनों का क्यूँ शोर बड़ा</span> ||</p>
<p> </p>
<p>चकनाचूर है आर्थिक…</p>
<p><strong>एक प्रश्न</strong></p>
<p> </p>
<p>अन्नदाता क्यूँ रोड़ पड़ा</p>
<p>निजीकरण का दौर बढ़ा</p>
<p>कोरोना की स्थिति विकट है</p>
<p>हर नागरिक क्यूँ मजबूर बड़ा||</p>
<p> </p>
<p>नयें नियमों की अदला-बदली</p>
<p>भारत परिवर्तन की ओर बढ़ा</p>
<p>भविष्य का तो पता नहीं</p>
<p>पर आज बेरोजगारी का मुद्दा बड़ा ||</p>
<p> </p>
<p>छोटे से लेकर बड़े व्यापारी तक</p>
<p>हर जन में क्यों आक्रोश बढ़ा</p>
<p>युवा रोजगार को तरस रहे</p>
<p>आज, <span>आंदोलनों का क्यूँ शोर बड़ा</span> ||</p>
<p> </p>
<p>चकनाचूर है आर्थिक व्यवस्था</p>
<p>द्वेष भाव भी खूब बढ़ा</p>
<p>सौहार्द, <span>सहभागिता की बात ना पूछो</span></p>
<p>आज हर वर्ग में क्यूँ भेद बड़ा ||</p>
<p> </p>
<p>कहाँ कमी कुछ समझ ना आता</p>
<p>बैठकों में क्यूँ विचार-विमर्श का दौर बढ़ा</p>
<p>धार्मिक, <span>राजनैतिक या सामाजिक कारण</span></p>
<p>आज प्रश्न ये सबसे बड़ा || <span><br/> <br/></span></p>
<p></p>
<p> मौलिक व अप्रकाशित </p>अहिल्याबाई होलकरtag:www.openbooksonline.com,2020-10-31:5170231:BlogPost:10364282020-10-31T05:55:44.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>भारतीय इतिहास में रानी अहिल्याबाई का अपना ही इतिहास है जो दया, <span>परोपकार</span>, <span>प्रेम और सेवा भाव की भावना से ओतप्रोत थी</span>| <span>रानी अहिल्याबाई एक ऐसी ही रानी थी जिसने रानी होते हुए भी खुद को कभी रानी नहीं माना बल्कि ईश्वर का एक प्रतिनिधि समझ कर ही अपने राज्य पर राज किया</span>| <span>जीवन रहते उन्हें इतनी परेशानियों का सामना करना पड़ा लेकिन वह परिस्थितियों से घबराए बिना अपने कर्म पथ पर आगे बढ़ती रही</span>| <span>वह युद्ध में विश्वास नहीं कर करती ना ही उन्हें खून-खराबा पसंद…</span></p>
<p>भारतीय इतिहास में रानी अहिल्याबाई का अपना ही इतिहास है जो दया, <span>परोपकार</span>, <span>प्रेम और सेवा भाव की भावना से ओतप्रोत थी</span>| <span>रानी अहिल्याबाई एक ऐसी ही रानी थी जिसने रानी होते हुए भी खुद को कभी रानी नहीं माना बल्कि ईश्वर का एक प्रतिनिधि समझ कर ही अपने राज्य पर राज किया</span>| <span>जीवन रहते उन्हें इतनी परेशानियों का सामना करना पड़ा लेकिन वह परिस्थितियों से घबराए बिना अपने कर्म पथ पर आगे बढ़ती रही</span>| <span>वह युद्ध में विश्वास नहीं कर करती ना ही उन्हें खून-खराबा पसंद था लेकिन कभी कभी राज्य की भलाई के लिए उन्हें युद्ध करना पड़ा</span>| <span>जब उन्हें रानी का पद प्राप्त हुआ था</span>| <span>तब राज्य में लूट खसोट का शासन था</span>| <span>परंतु रानी ने उसका दमन अपनी कूटनीतिज्ञता से कर अपनी कुशल बुद्धि का परिचय दिया</span>| <span>रानी अहिल्याबाई जब अपने राज्य पर राज कर रही थी तो आस-पास के राज्यों में उनका आदर-सम्मान ही इतना था कि लोग आसानी से उनसे युद्ध करने की सोचते ही नहीं थे</span>| <span>इसी कारण उन्हें अपने जीवन में ज्यादा युद्धों का सामना नहीं करना पड़ा</span>|</p>
<p> </p>
<p> महारानी अहिल्याबाई होलकर का जन्म 31 <span>मई</span> 1725 <span>को महाराष्ट्र के अहमदनगर के छौंड़ी ग्राम में हुआ</span>| <span>उनके पिता पाटिल मंकोजी राव शिंदे एवं माँ सुशीला बाई अपनी प्रतिभाशाली पुत्री को पाकर खुद को बहुत भाग्यशाली मानते थे</span>| <span>गाँव में पालन-पोषण होने के कारण उनके व्यवहार में सादगी और सरलता थी</span>| <span>वह बहुत सुंदर ना होकर भी आकर्षक लगती थी</span>| <span>अहिल्याबाई बचपन से ही बहुत ही धार्मिक व निष्कपट चरित्र की थी</span>| <span>इसलिए अक्सर शांत</span>, <span>अल्पभाषी और शिव भक्ति में खोई रहती थी</span>| <span>अहिल्याबाई के पिता मंकोजी राव शिंदे अपने गाँव के पाटिल थे</span>, <span>वह महिला शिक्षा के बहुत पक्षधर थे</span>| <span>वर्तमान समय में समाज का परिवेश ऐसा था कि नारियों को अधिकतर लोग पढ़ाना-लिखाना ही नहीं चाहते थे</span>, <span>ना ही इसे सही ही मानते थे</span>| <span>महिलाओं को आसानी से स्कूल जाने की भी अनुमति प्रदान नहीं की जाती थी</span>| <span>अहिल्याबाई को उनके पिता ने समाज की सोच के विपरीत अपनी पुत्री को शिक्षा ग्रहण करवाई उन्हें लिखने-पढ़ने के लायक बनाया</span>| <span>यह बात अलग थी कि अहिल्याबाई ने ज्यादातर शिक्षा अपने पिता से ही ग्रहण की। वह बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा की धनी थी तथा किसी भी विषय को बहुत जल्दी से याद कर समझ जाती थी</span>| <span>भविष्य में उन्होंने अपनी बुद्धि एवं विलक्षण प्रतिभा से सबको हैरान कर दिया था।</span></p>
<p> </p>
<p> एक बार गाँव में जब अहिल्याबाई भूखों और गरीबों को खाना खिला रही थीं, <span>तभी पुणे जा रहे मालवा राज्य के शासक मल्हारराव होलकर आराम के लिए छौंडी गांव में ठहरे</span>| <span>तब महाराज होलकर की नजर दया</span>, <span>उदारता से भरी अहिल्याबाई पर पड़ी। अहिल्याबाई की दया</span>, <span>करुणा व कर्तव्यनिष्ठा को देखकर महाराज मल्हार राव होलकर उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अहिल्याबाई के पिता मानकोजी शिंदे से अपने बेटे खांडेराव होलकरके साथ विवाह करने का प्रस्ताव रख दिया। खांडेराव सुंदर</span>, <span>वीर व एक अच्छे सिपाही थे</span>, <span>उन्होंने अपने पिता से सैन्य कौशल की शिक्षा ली थी</span>| <span>पिता मानकोज़ी शिंदे उनके प्रस्ताव को अस्वीकार नहीं कर पाये और बालविवाह प्रथा के प्रचलन के कारण बहुत छोटी उम्र में ही उनका विवाह खांडेराव होलकर के साथ करवा दिया गया। इस तरह महारानी अहिल्याबाई खेलने-खाने की छोटी सी उम्र में ही मराठा राजघराने की बहु बन गईं। विवाह के कुछ वर्ष बाद अहिल्याबाई और खांडेराव होलकर को</span> 1745 <span>में एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई</span>, <span>जिसका नाम मालेराव रखा गया</span>| <span>इसके तीन साल के बाद</span> 1748 <span>में उन्हें एक सुंदर पुत्री प्राप्त हुई जिसका नाम उन्होंने मुक्ताबाई रखा। परिवार में अपने पौत्र व पौत्री को देखकर राजा मल्हार राव बहुत खुश रहा करते थे</span>|</p>
<p> </p>
<p> समय-समय पर महाराज मल्हारराव अपनी पुत्रवधु अहिल्याबाई को भी राजकाज के सैन्य एवं प्रशासनिक मामलों की शिक्षा देने लगे| <span>अहिल्याबाई की अद्भुत प्रतिभा को देखकर वे बेहद खुश होते थे। अहिल्याबाई अपने पति की राजकाज में मद्द करती थी साथ ही साथ उनके युद्ध एवं सैन्य कौशल को निखारने के लिए भी प्रोत्साहित भी किया करती था। महाराज अपने पुत्र से बहुत प्यार करते थे और उनकी पत्नी गौतमीबाई अहिल्याबाई की सेवा समर्पण से बहुत ही प्रसन्न रहा करती थी</span>| <span>अहिल्याबाई की जिंदगी सुख और शांति से कट रही थी</span>, <span>तभी उनके जीवन में दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। कुंभेरी के इस युद्ध में एक तरफ सूबेदार मल्हार राव होलकर अपने पुत्र खण्डेराव के साथ खड़े थे तो दूसरी ओर सूरजमल जाट थे। मराठा एक करोड़ रुपए की चौथ वसूली पर अड़े हुए थे तो सूरजमल जाट चालीस लाख रुपए देना चाहते थे। इस युद्ध के परिणाम स्वरूप 1754 में खण्डेराव वीरगति को प्राप्त हो गए</span>| <span>अहिल्याबाई अपने पति से अत्याधिक प्रेम करती थी</span>, <span>इसलिए उन्होंने पति की मौत के बाद सती होने का फैसला लिया</span>| <span>पिता समान उनके श्वसुर मल्हारराव होलकर के बहुत समझाने और आग्रह करने पर उन्होंने अपना निर्णय बदल दिया</span>| <span>देखा जाये तो यह सही भी हुआ क्योंकि वृद्ध होने के कारण वह अपने पुत्र का निधन सहन नहीं कर पाये और गंभीर रूप से बीमार होने के कारण कुछ समय बाद उनके श्वसुर मल्हारराव होलकर भी 1765 में दुनियाँ छोड़कर चले गए</span>| <span>इससे अहिल्याबाई काफी आहत हुईं</span>, <span>लेकिन फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।</span></p>
<p> </p>
<p> इसके बाद मालवा प्रांत की बागडोर अहिल्याबाई के कुशल नेतृत्व में उनके पुत्र मालेराव होलकर ने संभाली। प्राचीन लेखकों के अनुसार वह बहुत ही चरित्रहीन, <span>भोग विलास का आदि व दुष्ट प्रकृति का प्राणी था</span>| <span>जब उसकी माता निर्धन लोगों को वस्त्र आदि देती थी तो वह उनमे सर्प-बिच्छू व विषैले जानवर रख देता था</span>| <span>जब वह किसी को काटता था तो वह बहुत खुश होता था</span>| <span>रानी अहिल्याबाई उसकी इस हरकत को देख-देख कर बहुत दुखी होती थी</span>| <span>परंतु इकलौता पुत्र होने के कारण ममतावश कुछ कर नहीं पाती थी</span>| <span>शासन संभालने के नौ महीने बाद ही दैवीय प्रकोप के कारण वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया</span>| <span>वर्तमान के बड़े-बड़े वैध</span>, <span>नीम-हकीम से इलाज कराने के बाद भी राजकुमार नहीं बच पायेँ</span>| <span>एक दिन लाख कोशिश करने के बात भी अहिल्याबाई के पुत्र राजा मालेराव होलकर की भी मृत्यु हो गई। पति</span>, <span>जवान पुत्र और पिता समान ससुर को खोने के बाद अहिल्याबाई बुरी से तरह से टूट गई</span>| <span>सभी कठिनाईयों को झेलने के बाद भी वह अपने मार्ग से विचलित नहीं हुई और आगे बढ़ती गई</span>| <span>इसका प्रभाव उन्होंने अपनी प्रजा पर नहीं पड़ने दिया</span>| <span>ताश के पत्तों की तरह बिखरते अपने मालवा प्रांत को देखकर उन्होंने स्वयं वहां की रानी बनने का फैसला किया</span>| <span>इसके बाद</span> 11 <span>दिसंबर वर्ष</span> 1767 <span>में वे मालवा प्रांत की शासिका बनीं</span>| <span>उस समय गंगाधर यशवंत इंदौर का नेतृत्व कर रहा था</span>| <span>वह अव्वल दर्जे का छली व विश्वासघाती था</span>| <span>अहिल्याबाई का स्त्री होने के नाते राज्य के कई लोगों के साथ मिलकर उसने रानी का विरोध भी किया</span>|</p>
<p> </p>
<p> यशवंत अहिल्याबाई को गद्दी से उतार कर खुद शासक बनने के सपने संजोय बैठा था| <span>रानी अहिल्याबाई उसकी इस तरकीब को जल्द ही समझ गई</span>| <span>यशवंत ने पेशवा के चाचा रघुनाथ राव को पूना से इंदौर पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया</span>| <span>इस कार्य में यशवंत ने उसे अपनी तरफ से पूरी सहायता देने का वचन दिया</span>| <span>रानी अहिल्याबाई को गुप्तचरों से इस आक्रमण की सूचना मिल गई</span>| <span>इसलिए रानी ने गायकवाड़</span>, <span>भोंसले और मराठा नरपतियों से अपने राज्य को बचाने के लिए सहायता मांगी</span>| <span>रानी की विषम परिस्थितियों को देखते हुए सभी ने उसकी मदद करने के लिए अपनी सेना की टुकड़ियाँ भेज दी</span>| <span>महारानी अहिल्याबाई ने मालवा प्रांत की शासिका बनने के बाद मल्हार राव के दत्तक पुत्र एवं सबसे भरोसेमंद सेनानी सूबेदार तुकोजीराव होलकर को अपना सैन्य कमांडर नियुक्त किया। अपने शासन के दौरान महारानी अहिल्याबाई ने कई बार युद्ध में अपनी प्रभावशाली रणनीति से सेना का कुशलतापूर्वक नेतृत्व किया। उसके प्रभाव में अपने शासन के दौरान महारानी अहिल्याबाई ने कई बार युद्ध में अपनी प्रभावशाली रणनीति से सेना का कुशलतापूर्वक नेतृत्व किया। इस तरह रानी अहिल्याबाई रघुनाथ के आक्रमण का सामना करने के लिए पूरी तरह से तैयारी हो गई</span>| <span>अहिल्याबाई ने अवसर का लाभ लेते हुए पेशवा माधवराव व उनकी धर्म पत्नी रमाबाई को भी अपनी स्थिति से अवगत कराते हुए एक भावपूर्ण पत्र लिखा था</span>| <span>जिससे उसे माधवराव का भी सहयोग प्राप्त हो गया</span>| <span>पुना के पेशवा रघुनाथ को पता चल गया की माधवराव के सहयोग और अन्य नरपतियों के सहयोग से अब इंदौर की शक्ति बहुत बढ़ गई</span>| <span>अब किसी भी सूरत में उनको हराना उसके लिए मुश्किल है</span>| <span>इसलिए वह पालकी में बैठकर तकोजीराव के साथ मिलकर अहिल्याबाई से भेंट करने महल पहुँच गया</span>| <span>रानी से भेंट करने के बाद युद्ध पर विराम लग गया</span>| <span>कुछ समय इंदौर में बिताने के बाद वह पुना वापस लौट गया</span>| <span>इस तरह महारानी अहिल्याबाई की अद्भुत शक्ति और पराक्रम को देखकर उनके राज्य की प्रजा उन पर भरोसा करने लगी।</span></p>
<p> </p>
<p> जब महारानी अहिल्याबाई होलकर ने मालवा प्रांत की बाग़डोर संभाली थी| <span>उस दौरान मालवा प्रांत में अशांति फैली हुई थी</span>| <span>राज्य में चोरी</span>, <span>लूट-पाट</span>, <span>हत्या व अपहरण आदि की घटनायें लगातार बढ़ रहीं थी</span>| <span>एक दिन इस स्थिति पर लगाम लगाने के लिए रानी ने सभा में एक ऐसे वीर का आह्वान किया जो इन सब पर विराम लगा सके</span>| <span>रानी अहिल्याबाई के आह्वान को सुनकर यशवंत राव ने अपनी स्वीकृति दी</span>| <span>रानी अहिल्याबाई के आदेशानुसार वह सेना की एक टुकड़ी ले इस अभियान पर निकल पड़ा</span>| <span>यशवंत राव ने कठोर दंड नीति का प्रावधान अपनाकर राज्य में हो रही सभी तरह चोरी-चकारी</span>, <span>लूटपाट</span>, <span>हत्या व अपहरण की घटनाओं पर विराम लगा दिया</span>| <span>रानी अहिल्याबाई ने उसकी इस सफलता से खुश होकर अपनी लाड़ली पुत्री मुक्ताबाई का विवाह उसके साथ कर दिया</span>| <span>इस तरह से महारानी राज्य में शांति एवं सुरक्षा की स्थापना करने में सफल हुई। जिसके बाद उनके राज में कला</span>, <span>व्यवसाय</span>, <span>शिक्षा आदि के क्षेत्र में काफी विकास भी हुआ। धीरे-धीरे महारानी अहिल्याबाई की उदारता</span>, <span>धैर्यता</span>, <span>वीरता और साहस के चर्चे पूरी दुनियाभर में होने लगे। कालांतर में मुक्ती बाई के गर्भ से एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ जिसका नाम नत्थोबा रखा गया इस नाती ने अहिल्याबाई के सभी पुराने घावों को भर दिया जिससे उन्हें जीवन में कुछ शांति प्राप्त हुई</span> |</p>
<p> </p>
<p> रानी अहिल्याबाई अपने पास बहुत ही कम सेना रखती थी| <span>इसका एक कारण यह भी है कि आस-पड़ोस के राज्यों में उसके नाम का प्रभाव ही ऐसा था कोई उनसे युद्ध के बारे सोचता ही नहीं था</span>| <span>रानी अहिल्याबाई अपनी प्रजा की रक्षा के लिए हमेंशा युद्ध के लिए तैयार रहती थी</span>| <span>युद्ध के दौरान रानी अहिल्याबाई हाथी पर सवार होकर दुश्मनों पर एक वीर शासिका की तरह तीरंदाजी करती थी। रानी अहिल्याबाई दूरदर्शी सोच रखने वाली शासिका थी</span>| <span>वह अपनी तेज बुद्धि के कारण देखते ही देखते अपने दुश्मनों के इरादों को भांप लेती थी। एक बार जब मराठा-पेशवा को अंग्रेजों के नापाक मंसूबों का पता नहीं चला</span>| <span>तब रानी अहिल्याबाई ने ही पेशवा को आगाह किया था कि अभी भी वक़्त है</span>, <span>संभल जायें। रानी अहिल्याबाई ने अपने राज्य के विस्तार व अपने राज्य के विकास को ध्यान में रखते हुए राज्य को व्यवस्थित कर उसे अलग-अलग तहसीलों और जिलों में बांट दिया</span>| <span>इसके साथ ही पंचायतों का काम व्यवस्थित कर</span>, <span>न्यायालयों की स्थापना की। इस तरह उनकी गणना एक आदर्श शासिका के रुप में होने लगी थी। एक बार उदयपुर के शासक चंद्रावत ने 1800 ई. में एक बड़ी सेना लेकर तकोज़ी पर आक्रमण कर दिया</span>| <span>सेनापति तकोजी ने वीरता का परिचय देते हुए शत्रु सेना को परास्त कर दिया</span>| <span>इस युद्ध का लाभ उठाने के लिए पुना के पेशवा रघुनाथ ने स्त्री का भेष बना</span>, <span>अपने पाँच सैनिकों के साथ युद्ध में कूद पड़ा</span>| <span>जब रानी को रघुनाथ की इस घिनौनी हरकत का पता चला तो रानी भी अपनी सैन्य शक्ति के साथ युद्ध में कूद पड़ी</span>| <span>रानी ने रघुनाथ राव को ऐसी हार दी कि वह बुरी तरह से लज्जित होकर पूना लौट गया</span>| <span>पहली बार युद्ध में उसका किसी स्त्री से सामना हुआ</span>, <span>जिसे वह आज तक अबला ही समझता आया था</span>| <span>इसलिए उसे कभी भी नारी शक्ति का अहसास ही नहीं हुआ था</span>| <span>आज उसी अबला समझे जाने वाली नारी के हाथों से ही उसे इतनी बड़ी और बुरी हार का सामना करना पड़ा था</span>| <span>इस युद्ध के बाद आस पड़ोस में रानी अहिल्याबाई के साथ सेनापति तकोज़ी की भी धाक जम गई</span>|</p>
<p> </p>
<p> महारानी अहिल्याबाई होलकर भगवान शिव की परम भक्त थीं, <span>उनकी भगवान शंकर में गहरी आस्था थी। अहिल्याबाई का मानना था कि धन</span>, <span>प्रजा ईश्वर की दी हुई वह धरोहर स्वरूप निधि है</span>| <span>जिसकी मैं मालिक नहीं बल्कि प्रजाहित में काम करने वाली एक जिम्मेदार संरक्षिका हूँ। राज्य उत्तराधिकारी ना होने की स्थिति में अहिल्याबाई को प्रजा ने दत्तक लेने का व स्वाभिमान पूर्वक जीने का अधिकार दिया। प्रजा के सुख-दुख की जानकारी वह स्वयं प्रत्यक्ष रूप से प्रजा से मिलकर लेती तथा न्यायपूर्वक निर्णय देती थी। अहिल्याबाई के राज्य में जाति भेद को कोई मान्यता नहीं थी व सारी प्रजा समान रूप से आदर की हकदार थी।</span> <span>इसका असर यह था कि अनेक बार लोग निजामशाही व पेशवाशाही शासन छोड़कर इनके राज्य में आकर बसने की इच्छा स्वयं इनसे व्यक्त किया करते थे। अहिल्याबाई के राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी व संतुष्ट थी क्योंकि उनके विचार में प्रजा का संतोष ही राज्य का मुख्य कार्य होता है। महारानी अहिल्याबाई का मानना था कि प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म है। राजा को कभी भी प्रजा की धन का उपयोग अपने भोग विलास पर नहीं बल्कि प्रजा की भलाई के कार्यों में खर्च करना चाहिए</span>| <span>अपने राजकाल में अहिल्याबाई ने ऐसा ही किया</span>| <span>अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं</span>, <span>बल्कि एक छोटे भू-भाग पर उनका राज्य कायम था</span>| <span>अहिल्याबाई का कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था</span>| <span>इसके बावजूद जनकल्याण के लिए उन्होंने जो कुछ किया</span>, <span>वह आश्चर्यचकित करने वाला है</span>, <span>वह चिरस्मरणीय है।</span></p>
<p> </p>
<p>अहिल्याबाई ने नारियों की एक सेना तैयार की| <span>परंतु वह यह बात अच्छी तरह से जानती थीं कि पेशवा के आगे उनकी सेना कमजोर थी। रानी के गुप्तचरों से रानी को ज्ञात हो चुका था कि पेशवा भी उनके राज्य पर आंखे गड़ाए बैठा है</span>| <span>इसलिए उन्होंने कूटनीति का सहारा लेते हुए पेशवा को यह समाचार भेजा कि यदि वह स्त्री सेना से जीत हासिल भी कर लेंगे</span>, <span>तो उनकी कीर्ति और यश में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होगी</span>| <span>दुनियाँ यही कहेगी कि एक नारी की सेना से ही तो जीता हैं</span>| <span>अगर</span>, <span>आप नारियों की सेना से हार गये तो कितनी जग हंसाई होगी</span>, <span>आप इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। रानी अहिल्या बाई की यह बुद्धिमानी काम कर गई</span>| <span>पेशवा ने उनके राज्य पर आक्रमण करने का विचार बदल दिया। इसके बाद महारानी पर दत्तक पुत्र लेने का भी दबाव बढ़ने लगा</span>| <span>परंतु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे प्रजा को ही अपना सब कुछ मानती थीं। इस फैसले के बाद राजपूतों ने उनके खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया</span>| <span>रानी ने कुशलतापूर्वक उस विद्रोह का ही दमन कर दिया। अपनी कुशाग्र बुद्धि का प्रयोग करते हुए रानी अहिल्याबाई होलकरने मालवा के खजाने को फिर से भर दिया था। रानी अहिल्याबाई के जीवनकाल में ही इन्हें जनता देवी का अवतार समझने और कहने लगी थी। सच बात तो यह कि इससे पहले नारी का इतना बड़ा व्यक्तित्व जनता ने अपनी आँखों देखा ही कहाँ था। जब चारों ओर गड़बड़ मची हुई थी</span>, <span>शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार हो रहे थे</span>, <span>प्रजाजन-साधारण गृहस्थ</span>, <span>किसान मजदूर-अत्यंत हीन अवस्था में सिसक रहे थे। ऐसी परिस्थिति में उनका एकमात्र सहारा</span>, <span>धर्म-अंधविश्वासों रह गया था</span>| <span>इस कारण राज्य भय</span>, <span>त्रासों और रूढि़यों की जकड़ में कसा जा रहा था</span>| <span>उस समय राज्य में ना न्याय व्यवस्था में शक्ति थी</span>, <span>ना ही विश्वास। ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों में रानी अहिल्याबाई ने जो कुछ किया वह प्रजा के लिए काफी था।</span></p>
<p> </p>
<p> राज्य की सत्ता पर बैठने के पूर्व ही उन्होंने अपने पति–<span>पुत्र सहित अपने सभी परिजनों को खो दिया था</span>| <span>इसके बाद भी प्रजा हितार्थ किये गए उनके जनकल्याण के कार्य प्रशंसनीय हैं। अहिल्याबाई ने विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया। शिव की भक्त अहिल्याबाई का सारा जीवन वैराग्य</span>, <span>कर्त्तव्य-पालन और परमार्थ ही उसकी साधना बन गया। रानी अहिल्याबाई धर्मांध नहीं थी</span>| <span>इसलिए मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा तोड़ कर बनाई मस्जिदों को बिना तोड़े ही उनके पास ही मंदिरों का निर्माण कराया</span>| <span>सोमनाथ व काशी के विश्वनाथ मंदिर उन्हीं के द्वारा बनवाएँ गए जो शिवभक्तों के द्वारा आज भी पूजा जाता है। शिवपूजन के बिना वह मुँह में पानी की एक बूंद नहीं जाने देती थी। सारा राज्य उन्होंने शंकर को अर्पित कर रखा था और आप उनकी सेविका बनकर शासन चलाती थी। ऐसा कहा जाता है कि रानी अहिल्याबाई के सपने में एक बार भगवान शिव आए थे</span>| <span>महारानी अहिल्याबाई की शिव भक्ति के बारे में यहां तक कहा जाता है कि</span>, <span>अहिल्याबाई राजाज्ञाओं पर दस्तखत करते समय अपना नाम कभी</span> <span>नहीं लिखती थी। अहिल्याबाई अपने नाम की बजाय श्री शंकर लिख देती थी। तब से लेकर स्वराज्य की प्राप्ति तक इंदौर में जितने भी राजाओं ने वहां की बागडोर संभाली सभी राजाज्ञाएं श्री शंकर के नाम पर जारी होती रहीं। अहिल्याबाई के समय में प्रचलित रुपयों पर शिवलिंग और बिल्व पत्र का चित्र तथा पैसों पर नंदी का चित्र अंकित होता था</span>| <span>कहा जाता है कि तब से लेकर भारतीय स्वराज्य की प्राप्ति तक उनके बाद में जितने नरेश इंदौर के सिंहासन पर आये सबकी राजाज्ञाऐं जब तक श्रीशंकर के नाम से जारी नहीं होती</span>, <span>तब तक उसे राजाज्ञा नहीं मानी जाती थी</span>, <span>ना ही उस पर अमल होता था। मराठा प्रांत की रानी अहिल्याबाई महिला सशक्तिकरण की पक्षधर थीं</span>| <span>उन्होंने महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए बहुत काम किए। महिला अहिल्याबाई होलकर ने विधवा महिलाओं को उनका हक दिलवाने के लिए कानून में बदलाव कर</span>, <span>विधवा महिलाओं को उनके पति की संपत्ति को हासिल करने का अधिकार दिलावाया</span>| <span>विधवा महिला को बेटे को गोद लेने का हकदार बनाया</span>| <span>एक विधवा होने के कारण वह विधवाओं के दुख को अच्छी तरह से जानती थी। रानी अहिल्याबाई के अंदर दया</span>, <span>परोपकार</span>, <span>निष्ठा की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी</span>| <span>इसलिए उन्हें दया की देवी एवं एक बेहतरीन समाज सेविका के तौर पर भी जाना जाता था।</span></p>
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<p> नत्थोबा अहिल्याबाई होलकर का नाती, <span>उस समय बहुत ही होनहार</span>, <span>सुशील</span>, <span>व वीर बालक था जो पूरे परिवार की खुशियों का सबसे बड़ा कारण भी था</span>| <span>वह बीस वर्ष की आयु में शीत ज्वर से बीमार हो गया और इसी बीमारी के तहत उसका निधन हो गया</span>| <span>पुत्र नत्थोबा की अचानक मृत्यु के कारण उसके पिता यशवंतराव इस गम को सहन नहीं कर पाये इसलिए कुछ दिनों बाद सन 1769 को वह भी मृत्यु की गोद में सो गए</span>| <span>पुत्री मुक्ताबाई अपना पुत्र व पति वियोग नहीं सहन कर पाई इसलिए अहिल्याबाई के लाख समझाने के बाद वह भी सती हो गई</span>| <span>इस तरह रानी अहिल्याबाई के जिंदा रहते-रहते उसका पूरा वंश ही खत्म हो गया</span>| <span>वह लगातार पूजा-पाठ करती रही</span>| <span>वह लगातार समाज की भलाई व निर्धनों की सेवा करते हुए अपने मन को शांति देने की कोशिश करती रही</span>| <span>परंतु जीवन में मिली विषम परिस्थितियों से वह अन्तर्मन में इतना टूट चुकी थी कि जीवन के अंतिम पड़ाव पर खुद को संभाल नहीं पाई</span>| <span>एक दिन हृदय के इस अकेलेपन ने साठ वर्ष की आयु में</span> 13 <span>अगस्त सन्</span> 1795 <span>ई. में मृत्यु ने उन्हें अपने आघोष में ले लिया</span>| <span>अंत समय में वह भगवान शिव का ध्यान करते हुए स्वर्गलोक जा बसी। अहिल्याबाई की महानता और सम्मान में भारत सरकार ने</span> 25 <span>अगस्त</span> 1996 <span>में एक डाक टिकट जारी किया। इंदौर के नागरिकों ने</span> 1996 <span>में उनके नाम से एक पुरस्कार स्थापित किया। असाधारण कर्तव्य के लिए यह पुरस्कार दिया जाता है। भारत के इतिहास में अहिल्याबाई का नाम बहुत आदरणीय है</span>| <span>आज भी लोग उन्हें एक देवी की तरह पूजते है और उन्हें बहुत मानते है</span>|</p>
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<p>इस तरह की 55 महान नारियों की कहानी को पढ़ने के लिए amezon पर आज ही खरीद कर मेरा उत्साह बढ़ाए ताकि मैं और ऐसी गुमनाम महिलाओं को समाज के प्रकाश में ला सकूँ और हमारे आनी वाली नई पीढ़ी उनसे कुछ शिक्षा प्राप्त कर अपना मार्ग प्रशस्त कर सके|</p>
<p><img src="https://images-na.ssl-images-amazon.com/images/I/41FMZX6iqeL._SX327_BO1,204,203,200_.jpg" width="142" height="215"/></p>
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<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>रानी ताराबाईtag:www.openbooksonline.com,2020-08-13:5170231:BlogPost:10147852020-08-13T14:00:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>भारत वर्ष के इतिहास में नारियों की उपलब्धियों की जितनी बातें की जाये उतनी ही कम है| <span>भारत के एक वीर नारी के बारे में पढ़ो तो दूसरी के बारे में अपने आप ही उत्सुकता जाग जाती है</span>| <span>उन महान योद्धाओं के व्यक्तित्व</span>, <span>साम्राज्य</span>, <span>युद्ध रणनीति और उनके कौशल को अधिक से अधिक जानने का मन करता है</span>| <span>वर्तमान में औरंगज़ेब लगभग समूचे उत्तर भारत को जीतने के पश्चात दक्षिण में अपने पैर जमा चुका था</span>| <span>अब उसकी इच्छा थी कि वह पश्चिमी भारत को भी जीतकर…</span></p>
<p>भारत वर्ष के इतिहास में नारियों की उपलब्धियों की जितनी बातें की जाये उतनी ही कम है| <span>भारत के एक वीर नारी के बारे में पढ़ो तो दूसरी के बारे में अपने आप ही उत्सुकता जाग जाती है</span>| <span>उन महान योद्धाओं के व्यक्तित्व</span>, <span>साम्राज्य</span>, <span>युद्ध रणनीति और उनके कौशल को अधिक से अधिक जानने का मन करता है</span>| <span>वर्तमान में औरंगज़ेब लगभग समूचे उत्तर भारत को जीतने के पश्चात दक्षिण में अपने पैर जमा चुका था</span>| <span>अब उसकी इच्छा थी कि वह पश्चिमी भारत को भी जीतकर पूरे भारत पर मुग़ल साम्राज्य की विजय पताका फहरा दे</span>| <span>औरंगज़ेब ने अब तक लगभग संम्पूर्ण उत्तर-दक्षिण भारत पर अपना आधिपत्य कर दिया था</span>| <span>जब</span> 1680 <span>में छत्रपति शिवाजी ने मराठा साम्राज्य का साथ छोड़ स्वर्ग को प्रस्थान कर चले गए थे</span>| <span>इस खबर को सुनकर मुग़ल साम्राज्य का सम्राट औरंगज़ेब अत्यधिक</span> <span>प्रसन्न हुआ। शिवाजी की मृत्यु के बाद मुग़ल सम्राट ने सोचा की अब ये सबसे अच्छा मौका है दक्षिण पर अपना अधिकार ज़माने का और अब ये उनके लिए आसान भी हो गया है। यही सोचकर अब वह सम्पूर्ण भारत में विजय पताका फहराने के लिए पश्चिम भारत की ओर बढ़ रहा था</span>| <span>तभी एक वीरांगना उसकी सेना पर एक भूखी शेरनी की तरह टूट पड़ी</span>| <span>इससे पहले उस वीरांगना की वीरता व साहस के आगे औरंगज़ेब कुछ कर पाता उसने सब कुछ तहस-नहस कर दिया था</span>| <span>इस तरह औरंगजेब व उसके सैनिको को मैदान छोड़ कर भागने पर विवश होना पड़ा। मुगल सम्राट ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके सम्पूर्ण भारत को जीतने के सपने को तोड़ने वाला योद्धा कोई और नहीं</span>, <span>बल्कि एक स्त्री होगी</span>| <span>इस महान कार्य को अंजाम देने वाली महान वीरांगना का नाम था महारानी ताराबाई। महारानी ताराबाई कोई साधारण वंश की रानी नहीं थीं बल्कि मराठा साम्राज्य के महान राजा छत्रपति शिवाजी महाराज की पुत्रवधु थीं। ताराबाई के बारे में इतिहास की पुस्तकों में अधिक उल्लेख मिलता</span>, <span>परंतु वह एक अदम्य साहस की परिचारिका थी जिसका कोई मुक़ाबला नहीं था</span>| <span>हाँ</span>, <span>यह जरूर कहा जा सकता है कि अगर महारानी ताराबाई नहीं होतीं तो मराठा साम्राज्य का इतिहास कुछ और ही होता</span>|</p>
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<p> महारानी ताराबाई का जन्म 14 <span>अप्रैल</span>, 1675 <span>को छत्रपति शिवाजी महाराज के सरसेनापति हंबीरराव मोहिते के घर हुआ था। बचपन में ही उसके वीरता के गुणों को देखकर महाराज शिवाजी ने उसे अपनी पुत्र वधू स्वीकार कर लिया था</span>| <span>इस तरह से</span> 8 <span>वर्ष की अल्पायु में ही ताराबाई का विवाह छत्रपति शिवाजी के बेटे छत्रपति राजाराम महाराज के साथ हो गया था। यह कठोर सच है कि शिवाजी की मृत्यु के उपरांत मराठा शक्ति का पतन होना शुरू हो गया था। जीवन रहते शिवाजी महाराज ने मुगल साम्राज्य और औरंगज़ेब को बहुत नुकसान पहुँचाया था</span>| <span>इसलिए औरंगज़ेब चिढ़कर उन्हें पहाड़ी चूहा कहकर बुलाता था</span>| <span>एक बार जब उन्हे बंदी बना लेता है तो शिवाजी महाराज बड़ी चतुराई से आगरा के किले से फलों की टोकरी में बैठकर भाग निकले जिसे औरंगज़ेब अपनी भीषण पराजय मानता था</span>| <span>वह शिवाजी महाराज द्वारा इस अपमान को कभी भूल नहीं पाया</span>| <span>इसलिए शिवाजी की मौत के पश्चात उसने सोचा कि अब यह सही मौका है जब दक्षिण में अपना आधार बनाकर समूचे पश्चिम भारत पर साम्राज्य स्थापित कर लिया जाए</span>| <span>शिवाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र संभाजी राजा बने और उन्होंने भी अपने पिता की तरह ही बीजापुर सहित मुगलों के अन्य ठिकानों पर हमले जारी रखे</span>| <span>सन</span> 1682 <span>में औरंगजेब ने दक्षिण में अपना ठिकाना बनाया</span>, <span>ताकि वहीं रहकर वह फ़ौज पर नियंत्रण रख सके</span>| <span>वहाँ से वह अपने सम्पूर्ण भारत पर साम्राज्य स्थापित करने के सपने को पूर्ण कर सकेगा</span>| <span>भविष्य के गर्त में क्या छिपा हुआ है उसे क्या पता था</span>| <span>कहा जाता है भी कि दक्षिण के फोड़े ने ही उसे मिट्टी में मिला दिया था</span>| <span>इस तरह पच्चीस वर्षो तक वह वहीं युद्धो में उलझा रहा और फिर कभी दिल्ली वापस नहीं लौट सका</span>| <span>सम्पूर्ण भारत पर फतह करने का उसका सपना उसकी मृत्यु के साथ वहीं दफ़न हो गया</span>| <span>दक्षिण भारत में औरंगजेब की शुरुआत तो अच्छी हुई थी और उसने</span> 1686 <span>और</span> 1687 <span>में बीजापुर तथा गोलकुण्डा पर अपना कब्ज़ा कर लिया था</span>|</p>
<p> </p>
<p> इसके बाद उसने अपनी सारी शक्ति मराठाओं के खिलाफ झोंक दी, <span>जो उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बने हुए थे</span>| <span>मुगलों की भारी भरकम सेना की पूरी शक्ति के आगे धीरे-धीरे मराठों के हाथों से एक-एक करके किले निकलने लगे</span>| <span>मराठों ने ऊँचे किलों और घने जंगलों को अपना ठिकाना बनाना शुरू कर दिया था</span>| <span>औरंगजेब ने विपक्षी सेना में रिश्वत बाँटने का खेल शुरू कर दिया</span>| <span>रिश्वत के लालची</span>, <span>देशद्रोहियों व गद्दारों की वजह से वह संभाजी महाराज को संगमेश्वर के जंगलों के</span> 1689 <span>में पकड़ने में कामयाब हो गया</span>| <span>औरंगजेब ने संभाजी महाराज से जब इस्लाम कबूल करने को कहा तब संभाजी ने औरंगजेब से कहा कि यदि वह अपनी बेटी की शादी उनसे करवा दे तो वह इस्लाम कबूल कर लेंगे</span>| <span>यह सुनकर औरंगजेब आगबबूला हो उठा</span>, <span>उसने संभाजी की जीभ काट दी और आँखें फोड़ दीं</span>| <span>कैद के समय में संभाजी महाराज को अत्यधिक यातनाएँ दी गईं</span>, <span>लेकिन उन्होंने अंत तक इस्लाम कबूल नहीं किया</span>| <span>उनकी दृढ़ता व साहस के आगे झुककर एक दिन क्रोध में औरंगजेब ने संभाजी की हत्या कर दी</span>| <span>संभाजी महाराज की राज्य नीतिनुसार संभाजी के बाद उनका दुधमुंहा बच्चा शिवाजी द्वितीय अब आधिकारिक रूप से मराठा राज्य का उत्तराधिकारी था</span>| <span>औरंगजेब ने इस बच्चे का अपहरण करके उसे अपने हरम में रखने का फैसला किया ताकि भविष्य में सौदेबाजी की जा सके</span>| <span>औरंगजेब शिवाजी नाम से ही चिढता था</span>, <span>इसलिए उसने इस बच्चे का नाम बदलकर शाहू रख दिया</span>| <span>उसने शाहु को अपनी पुत्री जीनतुन्निसा को सौंपते हुआ कहा कि वह उसका अच्छे पालन-पोषण करे</span>| <span>औरंगजेब यह सोचकर बेहद खुश था कि उसने लगभग मराठा साम्राज्य और उसके सबै उत्तराधिकारियों को खत्म कर दिया है</span>| <span>अब इसके बाद दक्षिण में उसकी विजय निश्चित ही है और जल्द ही उसका सपना भी पूरा हो जाएगा</span>, <span>लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया</span>|</p>
<p> </p>
<p> महाराज संभाजी की मृत्यु और उनके पुत्र के अपहरण के बाद संभाजी का छोटा भाई राजाराम अर्थात ताराबाई के पति को मराठा साम्राज्य का शासक बना दिया गया| <span>महाराज राजाराम ने महसूस किया अभी उनके पास सैन्य शक्ति भी नहीं है</span>| <span>इसलिए सबसे पहले यह जरूरी है कि अपनी शक्ति को संघटित किया जाये</span>| <span>इस क्षेत्र में रहकर मुगलों की इतनी बड़ी सेना से लगातार युद्ध करना संभव भी नहीं है</span>| <span>महाराज राजाराम ने अपने पितामह शिवाजी महाराज से प्रेरणा लेकर अपने विश्वस्त साथियों के साथ लिंगायत धार्मिक समूह का भेष बदला और गाते-बजाते आराम से सुदूर दक्षिण से निकलने में सफल हुए</span>| <span>लिंगायत धार्मिक समूह के लोग होने के कारण मुगल सेना ने उन्हें रोका भी नहीं</span>| <span>इसके बाद में जिंजी के किले में अपना डेरा डाल दिया</span>| <span>किले में रह कर महाराज राजा राम ने अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत किया</span>| <span>मौके का लाभ लेते हुए महाराज राजाराम ने जिंजी के किले से ही मुगलों के खिलाफ जमकर गुरिल्ला युद्ध की शुरुआत कर दी</span>| <span>इससे मुगल सेना की रीढ़ टूट गई वह भोखला गई</span>| <span>धीरे-धीरे मुगल सेना में मराठों के गोरिल्ला युद्ध का भय बन गया</span>| <span>इस तरह से यह युद्ध पद्धति उनके लिए बहुत ही कारगार सिद्ध हुई</span>| <span>महाराज राजा राम ने अपने सबसे योग्य</span>, <span>वीर और धैर्यवान रामचंद्र नीलकंठ को अपनी सेना के सेनापति की कमान संभालने के लिए दी</span>| <span>राजाराम की सेना ने छिपकर वार करते हुए एक वर्ष के अंदर मुगलों की सेना के दस हजार सैनिक मार गिराए और उनका लाखों रूपए खर्च करा दिया</span>| <span>औरंगज़ेब बुरी उनकी गोरिल्ला पद्धति की वजह से बुरी तरह परेशान हो गया उसके समझ में नहीं आ रहा था कि मराठों के इस तरह एक युद्धो को कैसे रोका जाये</span>| <span>बदलते वक़्त के अनुसार दक्षिण से मिलने वाले उसे राजस्व में कमी आने लगी थी</span>| <span>एक समय तो ऐसा आया कि दक्षिण भारत की रियासतों से औरंगज़ेब को मिलने वाली राजस्व की रकम सिर्फ दस प्रतिशत ही रह गई थी</span>| <span>इस सबसे बड़ा कारण महाराज राजाराम की सफलता को देखते हुए दक्षिण की बहुत सी रियासतों ने उस गुरिल्ला युद्ध में राजाराम का साथ देने का फैसला कर लिया था</span>| <span>तंग व परेशान होकर एक दिन औरंगज़ेब के जनरल जुल्फिकार अली खान ने जिंजी के इस किले को चारों तरफ से घेर लिया था</span>| <span>किले के चारों ओर से घिरे होने के बावजूद भी पता नहीं कैसे और किस तरह के गुप्त मार्गों से महाराज राजाराम अपना गुरिल्ला युद्ध लगातार जारी रखे हुए थे</span>| <span>यह सिलसिला लगातार चलता रहा और चलते चलते लगभग आठ वर्ष बीत गए</span>| <span>आखिर में औरंगज़ेब का धैर्य जवाब दे गया और उसने जुल्फिकार को आदेश देते हुए कह दिया कि यदि उसने शीघ्र ही जिंजी के किले पर विजय हासिल नहीं की तो उसे इसके लिए गंभीर परिणाम भुगतने होंगे</span>| <span>अब जुल्फिकार के पास कोई चारा नहीं रह गया क्योंकि सम्राट की मात्र एक धमकी नहीं थी बल्कि उनका वचन था जो कभी भी उस पर कहर बन कर टूट सकता था</span>| <span>जुल्फिकर ने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए अब नई योजना बनाकर किले तक पहुँचने वाले अन्न और पानी को रोक दिया</span>| <span>जब अपने सैनिकों व प्रजा की बुरी दशा नहीं नहीं देख पाये तब महाराज राजाराम ने जुल्फिकार से एक समझौता किया कि यदि वह उन्हें और उनके परिजनों को सुरक्षित जाने दे तो वे जिंजी का किला समर्पण कर देंगे</span>| <span>जुल्फिकर जानते थी महाराज राजाराम वचन के पक्के है इसलिए उनके अनुरोध के अनुसार जुल्फिकर ने ऐसा ही किया</span>| <span>महाराज राजाराम</span> 1697 <span>में अपने समस्त कुनबे और विश्वस्तों के साथ जिंजी किले को छोड़कर महाराष्ट्र चले गए और वहाँ उन्होंने सातारा को अपनी राजधानी बनाया</span>| <span>बीतते वक़्त के साथ मुगल सम्राट भी पता नहीं कब</span> 82 <span>वर्ष की आयु पार गया युद्धों में उलझे रहने के कारण उसे इसका पता ही नहीं चला</span>| <span>एक दिन अचानक की सन</span> 1700 <span>में उसे यह खबर मिली कि एक भयंकर बीमारी के कारण महाराज राजाराम की मृत्यु हो गई है</span>| <span>अब मराठाओं के पास राज्याभिषेक के नाम पर सिर्फ विधवाएँ और दो छोटे-छोटे बच्चे ही बचे थे</span>| <span>औरंगजेब प्रसन्न हो उठा कि चलो मराठा साम्राज्य समाप्त होने को है</span>|</p>
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<p> मुगल बादशाह औरंगजेब यह जानकार खुश था कि मराठा साम्राज्य में उसका मुक़ाबला करने के लिए कोई शक्तिशाली पुरुष नहीं है| <span>इसलिए उसने अपना दक्षिण विजय का अभियान और तेज कर दिया</span>| <span>औरंगजेब की सोच के अनुसार उसके हाथ में दक्षिण को विजय करने का स्वर्ण अवसर था</span>| <span>जिसका लाभ लेकर वह वह शीघ्र से शीघ्र इसे निगल जाना चाहता था। जिससे उसका सम्पूर्ण भारत विजय में आने वाले इस मुख्य रोड़े से मुक्ति मिल सके</span>| <span>ऐसे में साम्राज्य के संरक्षण के लिए और हिंदवी स्वराज्य की उन्नति और विस्तार के लिए किसी ओजस्वी</span>, <span>वीर</span>, <span>और चतुर राजा-रानी की आवश्यकता थी।</span> <span>मराठों साम्राज्य की सभी परिस्थितियों का आंकलन कर व शत्रु की दूषित मंशा को जान गई</span>| <span>इसलिए महारानी ताराबाई ने अपने</span> 4 <span>वर्ष के पुत्र शिवाजी तृतीय का शीघ्रता में राज्याभिषेक कराया और स्वयं मराठा साम्राज्य की संरिक्षका बन राज करने लगी। जब ताराबाई ने मराठा साम्राज्य की कमान ली उस समय मराठा साम्राज्य को एक अच्छे नेतृत्व की आवश्यकता थी</span>| <span>सबसे पहले उन्होंने विरोधी सरदारों को अपने साथ में लिया और तितर-बितर हो चुकी अपनी सेना को संगठित किया</span>| <span>महारानी ताराबाई की नीतियों की वजह से मराठा शक्ति में विकास हुआ</span>| <span>जब महारानी ताराबाई को लगा कि अब उसकी सेना इतनी शक्तिशाली हो गई है कि मुगल शासक का सामना कर सकती</span>| <span>तब महारानी ने मुगल सेना के खिलाफ जंग छेड़ दी</span>| <span>औरंगजेब भी उसकी उसकी कौशल क्षमता को देखर दंग रह गया था कि अचानक ही कमजोर हो चुकी मराठा सैन्य शक्ति में इतना जोश व शक्ति का संचार कैसे हो गया</span>| <span>इस तरह जब मराठा साम्राज्य पश्चिमी भारत में लगातार कमज़ोर होता जा रहा था तथा औरंगजेब मराठाओं के किले-दर-किले पर अपना कब्ज़ा करता जा रहा था</span>| <span>उस समय ताराबाई मराठा साम्राज्य की डोर अपने हाथों में लेते हुए ना सिर्फ मराठा साम्राज्य को खण्ड-खण्ड होने से बचाया</span>, <span>बल्कि औरंगज़ेब को बड़ी शिकस्त देते हुए उसे हार मानने पर मजबूर कर दिया था</span>|</p>
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<p> महारानी ताराबाई ने सन 1700 <span>से</span> 1707 <span>तक ताराबाई ने तत्कालीन सबसे शक्तिशाली बादशाह अर्थात औरंगजेब के खिलाफ अपना युद्ध जारी रखा</span>| <span>वह लगातार आक्रमण करतीं</span>, <span>अपनी सेना को उत्साहित करतीं और किले बदलती रहतीं</span>| <span>महारानी ताराबाई ने भी औरंगजेब की रिश्वत तकनीक अपना ली और विरोधी सेनाओं के कई गुप्त राज़ मालूम कर लिए</span>| <span>धीरे-धीरे महारानी ताराबाई ने अपनी सेना और जनता का विश्वास अर्जित कर लिया</span>| <span>मराठा साम्राज्य की संरक्षिका के रूप में उन्होंने मुग़लों को कई बार युद्ध में परास्त किया। औरंगज़ेब ने पन्हाला</span>, <span>विशालगढ़ और सिंहगढ़ पर आक्रमण कर उन पर अपना कब्ज़ा कर लिया था। मराठा साम्राज्य कमज़ोर पड़ने लगा था</span>, <span>परंतु वीरांगना ताराबाई इन विषम परिस्थितियों में भी विचलित नहीं हुईं और मराठा सेना में जोश का भरती रहीं। ताराबाई के नेतृत्व में मराठा सैनिकों ने मुग़ल साम्राज्य के अधीन कई क्षेत्रों पर आक्रमण किया।</span> 1703 <span>में बरार</span>, 1704 <span>में सतारा और</span> 1706 <span>में गुजरात पर किए गए आक्रमणों में उन्हें अभूतपूर्व सफलता</span>, <span>धन तथा सम्मान प्राप्त हुए। इसके अतिरिक्त मराठा सैनिकों ने मुग़ल साम्राज्य वाले बुरहानपुर</span>, <span>सूरत और भरूच नगरों को भी लूटा। इस तरह एक बार फिर मराठे अपने सम्पूर्ण क्षेत्र को विजित करने में सफल रहे। ताराबाई ने दक्षिणी कर्नाटक में अपना राज्य स्थापित किया। महारानी के शासन में मराठों की शक्ति दोबारा से बढ़ने लगी थी</span>| <span>ताराबाई ने औरंगजेब को जिस रणनीति से सबसे अधिक चौंकाया और तकलीफ दी</span>, <span>वह थी गैर-मराठा क्षेत्रों में घुसपैठ</span>| <span>इसकी शिक्षा भी उसने औरंगजेब से ही ली थी</span>| <span>अब तक औरंगजेब अपनी इसी नीति के तहत मराठों शक्ति को क्षीण करता आ रहा था</span>| <span>मुगल सम्राट का इस समय सारा ध्यान दक्षिण और पश्चिमी घाटों पर लगा था</span>| <span>इसलिए मालवा और गुजरात में उसकी सेनाएँ कमज़ोर हो गई थीं</span>| <span>महारानी ताराबाई ने उसकी इस कमजोरी को भांप लिया था</span>, <span>इसलिए महारानी ताराबाई ने सूरत की तरफ से मुगलों के क्षेत्रों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया</span>| <span>इस तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए उन्होंने कई स्थानों पर अपनी वसूली चौकियां स्थापित कर लीं</span>| <span>महारानी ताराबाई ने इन सभी क्षेत्रों में अपने कमाण्डर स्थापित कर दिए और उन्हें सुभेदार</span>, <span>कमाविजदार</span>, <span>राहदार</span>, <span>चिटणीस जैसे विभिन्न पदानुक्रम में व्यवस्थित भी किया</span>| <span>मराठाओं को खत्म नहीं कर पाने की कसक लिए हुए सन</span> 1707 <span>में</span> 89 <span>की आयु में औरंगजेब की मृत्यु हुई</span>| <span>वह बुरी तरह टूट और थक चुका था</span>, <span>अंतिम समय पर उसने औरंगाबाद में अपना ठिकाना बनाने का फैसला किया</span>, <span>जहाँ उसकी मौत भी हुई और आखिर अंत तक वह दिल्ली नहीं लौट सका</span>|</p>
<p> </p>
<p> औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगलों ने उसके द्वारा अपहृत किये हुए पुत्र शाहू को मुक्त कर दिया, <span>ताकि सत्ता संघर्ष के बहाने मराठों में फूट डाली जा सके</span>| <span>इस तरह सन</span> 1707 <span>में शाहू अपने कुछ साथियों के साथ वापस महाराष्ट्र आ गया। यहाँ पर परसोजी भोंसले</span>, <span>भावी पेशवा बालाजी विश्वनाथ और नैमाजी सिंधिया ने उसका साथ दिया। महाराज शाहू ने महाराष्ट्र आकर अपनी पैतृक सम्पत्ति का अधिकार मांगा। उसको शीघ्र पेशवा बालाजी विश्वनाथ के नेतृत्व में बहुत से समर्थक भी मिल गए। जब महारानी तारा बाई ने राज सिंहासन छोड़ना स्वीकार नहीं किया तब शाहू ने सतारा पर घेरा डाल कर वहाँ की तत्कालीन शासिका राजाराम की विधवा ताराबाई के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। जब मुगलों की इस योजना का व शाहू के युद्ध की चेतावनी का पता लगा तो महारानी ताराबाई ने शाहू को गद्दार घोषित करने की कोशिश करनी शुरू कर दी</span>| <span>ताराबाई ने विभिन्न स्थानों पर दरबार लगाकर जनता को संबोधित करते हुए कहा कि शाहू इतने वर्ष तक औरंगजेब की कैद में रहने और उसकी पुत्री द्वारा पाले जाने के कारण पूरी तरह मुस्लिम बन चुका है</span>| <span>मुगलों ने उसे मराठा साम्राज्य में फूट डालने के लिए भेजा है इसलिए वह किसी भी सूरत में मराठों का राजा बनने लायक नहीं है</span>| <span>रानी ताराबाई के इस दावे की पुष्टि करने के लिए जनता को बताया कि जब औरंगजेब की मृत्यु हुई तो शाहू उसे श्रद्धांजलि अर्पित करने नंगे पैरों उसकी कब्र पर गया था</span>| <span>परंतु महारानी ताराबाई के लाख प्रयास करने के बावजूद भी मराठों ने शाहू को अपना राजा स्वीकार कर लिया</span>| <span>वह अपनी योजनाओं में सफल होता गया</span>| <span>शाहू के सभी कार्यों में उन्हें मुग़ल सेनाओं का समर्थन भी मिलता रहा</span>| <span>इसी तरह अपनी जीत के अभियानो में विजय प्राप्त करते हुए उन्होने सन</span> 1708 <span>में उसने सातारा पर भी कब्ज़ा कर लिया</span>| <span>आखिरकार शाहू की शक्ति को बढ़ता देख महारानी ताराबाई को उन्हे राजा स्वीकार करना पड़ा</span>| <span>अब शाहू को हराना महारानी ताराबाई के मराठा सैनिकों के बस की बात नहीं रह गई थी</span>| <span>ताराबाई ने धनाजी जादव के नेतृत्व में एक सेना को शाहू का मुक़ाबला करने के लिए भेजा। अक्टूबर</span> 1707 <span>में महारानी व शाहू की सेना का आमना सामना हुआ जो भविष्य में खेडा युद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुआ</span>| <span>एक कूटनीति का सहारा लेकर महाराज शाहू ने धनाजी जादव को अपनी तरफ मिला लिया। इसके बाद महारानी ताराबाई ने अपने सभी महत्त्वपूर्ण अधिकारियों के साथ पन्हाला में शरण ली। इस समय महारानी ताराबाई बड़ी विकट स्थिति में पड़ गईं। ताराबाई का पक्ष कमज़ोर पड़ गया</span>| <span>इस दौरान अच्छी बात यह रही कि वह अपने पुत्र शिवाजी तृतीय को सतारा में राज पद पर बनाये रखने में सफल रहीं।</span> 1689 <span>से</span> 1707 <span>ई. तक मराठों का यह स्वतंत्रता संग्राम चलता रहा। बाद में ताराबाई के पुत्र शिवाजी तृतीय को राजा शाहू ने गोद लेकर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।</span></p>
<p> </p>
<p> इतनी आसानी से महारानी ताराबाई हार मानने वालों में से नहीं थीं, <span>उन्होंने अगले कुछ वर्ष के लिए अपने मराठा राज्य की नई राजधानी पन्हाला में स्थानांतरित कर दी</span>| <span>अगले पाँच-छह वर्ष शाहू और ताराबाई के बीच लगातार युद्ध चलते रहे</span>| <span>इन दोनों ने ही दक्षिण में मुगलों के किलों और उनके राजस्व वसूली को निशाना बनाया और चौथ वसूली की</span>| <span>आखिरकार महाराज शाहू भी महारानी ताराबाई से लड़ते-लड़ते थक गया</span>| <span>थक-हारकर उसने एक अत्यंत वीर योद्धा बालाजी विश्वनाथ को अपना पेशवा अर्थात प्रधानमंत्री नियुक्त किया</span>| <span>बाजीराव पेशवा के नाम से मशहूर यह योद्धा युद्ध तकनीक और रणनीतियों का जबरदस्त ज्ञाता था</span>| <span>बाजीराव पेशवा ने कान्होजी आंग्रे के साथ मिलकर सन</span> 1714 <span>में ताराबाई को पराजित कर दिया</span>| <span>महारानी ताराबाई को कैद कर उसे उसके पुत्र सहित पन्हाला किले में ही नजरबन्द कर दिया</span>, <span>जहाँ ताराबाई और अगले</span> 16 <span>वर्ष कैद रही</span>| <span>सन</span> 1730 <span>तक ताराबाई पन्हाला में कैद रही</span>, <span>लेकिन इतने वर्षों के पश्चात शाहू जो कि अब छत्रपति शाहूजी महाराज कहलाते थे उन्होंने विवादों को खत्म करते हुए सभी को क्षमादान करने का निर्णय लिया ताकि परिवार को एकत्रित रखा जा सके</span>| <span>इसलिए महाराज संभाजी द्वितीय को कोल्हापुर में छोटी सी रियासत देकर उन्हें वहाँ शान्ति से रहने के लिए भेज दिया</span>| <span>महारानी तारा बाई ने भी इसे स्वीकार कर लिया</span>| <span>बालाजी विश्वनाथ उर्फ बाजीराव पेशवा प्रथम और द्वितीय की मदद से शाहूजी महाराज ने मराठा साम्राज्य को समूचे उत्तर भारत तक फैलाया</span>| <span>सन</span> 1748 <span>में शाहूजी अत्यधिक बीमार पड़ गए उनकी बचने की उम्मीद भी दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही थी</span>| <span>इस समय तक महारानी भी ताराबाई</span> 73 <span>वर्ष की वृद्ध हो चुकी थीं</span>| <span>अब भी उन्हें अपने राष्ट्र के प्रति देशभक्ति होने के कारण उनके दिमाग में मराठा साम्राज्य की रक्षा के विचार घूम रहे थे</span>| <span>अगर दुर्भाग्य से शाहूजी महाराज को कुछ हो गया तो उसके बात क्या होगा</span>? <span>मराठा साम्राज्य का क्या होगा</span>? <span>क्या अब मराठा साम्राज्य का अंत नजदीक है</span>? <span>पता नहीं कैसे कैसे विचार मन में आ रहे थे</span>| <span>शाहू महाराज के बाद कौन</span>? <span>यह सवाल महारानी के ताराबाई के दिमाग में रह-रह घूम रहा था</span>| <span>वह पेशवाओं को अपना साम्राज्य इतनी आसानी से देना नहीं चाहती थीं</span>|</p>
<p> </p>
<p> तब ताराबाई ने एक फर्जी कहानी गढी और लोगों से बताया कि उसका एक पोता भी है| <span>जिसे शाहूजी महाराज के डर से उसके बेटे ने एक गरीब ब्राह्मण परिवार में गोद दे दिया था</span>, <span>उसका नाम रामराजा है</span>| <span>वह</span> 22 <span>साल का हो चुका है</span>, <span>उसका राज्याभिषेक होना चाहिए</span>| <span>महारानी ताराबाई मजबूती से अपनी यह बात शाहूजी को मनवाने में सफल हो गईं</span>| <span>इस तरह</span> 1750 <span>में उस नकली राजकुमार रामराजा के बहाने ताराबाई दोबारा से मराठा साम्राज्य की सत्ता पर काबिज हो गई</span>| <span>कहा जाता है कि महारानी तारा बाई ने रामराजा को कभी भी स्वतन्त्र रूप से काम नहीं करने दिया</span>| <span>वह सदैव परदे के पीछे से सत्ता के कार्यभार को अपने हाथों में थामे हुए थी</span>| <span>महारानी तारा बाई की अच्छी नीतियों व शक्तिशाली निर्णयों की वजह से मराठों का राज्य पंजाब की सीमा तक पहुँच चुका था</span>| <span>इतना बड़ा साम्राज्य संभालना महारानी ताराबाई और राजा रामराजा के बस की बात नहीं थी</span>| <span>महारानी तारा बाई व राजा रामराजा के सैनिक दल में गायकवाड़</span>, <span>भोसले</span>, <span>शिंदे</span>, <span>होलकर जैसे कई सेनापति थे</span>, <span>परन्तु इन सभी की वफादारी पेशवाओं के प्रति अधिक थी</span>| <span>इस कारण महारानी ताराबाई को राजा रामराजा के साथ मिलकर पेशवाओं से समझौता करना पड़ा</span>| <span>मराठा सेनापति</span>, <span>सूबेदार</span>, <span>और सैनिक सभी पेशवाओं के प्रति समर्पित थे इस कारण महारानी ताराबाई को सातारा को लेकर ही संतुष्ट होना पड़ा</span>| <span>इस तरह से मराठाओं की वास्तविक शक्ति पूना में पेशवाओं के पास केंद्रित हो गई</span>| <span>कहा जाता है कि महारानी ताराबाई सन</span> 1761 <span>तक जीवित रही</span>| <span>एक दिन जब उन्होंने सुना कि अब्दाली के हाथों पानीपत के युद्ध में लगभग दो लाख मराठे मारे गए</span>| <span>तब वह उस धक्के को वह बर्दाश्त नहीं कर पाई और बीमार हो गई</span>| <span>इससे पता चलता है कि वह मराठा साम्राज्य के प्रति कितनी समर्पित थी</span>| 14 <span>जनवरी</span> 1761 <span>में पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की हार होने के बाद जून 1961 में ही महाराज की मृत्यु हो गई</span>| <span>इस तरह से महारानी ताराबाई पर दो तरफा पर वक़्त की मार पड़ी और दिसंबर</span> 1761 <span>में उनका भी निधन हो गया। वर्तमान समय में महारानी ताराबाई मराठा साम्राज्य की सबसे ताक़तवर महिला शासक-योद्धा सिद्ध हुईं। जिस तरह से उन्होंने लगातार बिना रुके कई वर्षो तक औरंगजेब जैसे वीर योद्धा से लड़ाई लड़ी वह उनके विशाल व्यक्तित्व को दर्शाता है। ख़फ़ी ख़ाँ जैसे कटु आलोचक ने उनके विषय में लिखा है</span> “<em><span>वह चतुर तथा बुद्धिमती स्त्री थी तथा दीवानी एवं फ़ौजी मामलों की अपनी जानकारी के लिए अपने पति के जीवनकाल में ही ख्याति प्राप्त कर चुकी थी”</span>|</em>’ 1700 <span>से</span> 1707 <span>ई. तक के संकटकाल में ताराबाई ने मराठा राज्य की एकसूत्रता और अखण्डता बनाये रख कर उसकी अमूल्य सेवा की। इस तरह से महारानी तारा बाई ने अपने पूरे जीवनकाल में मराठा साम्राज्य का शिवाजी के राज्याभिषेक से लेकर सन</span> 1700 <span>में औरंगजेब के हाथों कमज़ोर किए जाने तथा उसके बाद पुनः जोरदार वापसी करते हुए सन</span> 1760 <span>में लगभग पूरे भारत पर मराठा साम्राज्य की पताका फहराते देखा</span>| <span>महारानी ताराबाई ने अपनी योग्यता</span>, <span>अदम्य उत्साह</span>, <span>नेतृत्व क्षमता एवं पराक्रम के कारण ही ताराबाई ने मराठा इतिहास के पन्नों पर अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। भविष्य में महारानी ताराबाई के अदम्य साहस और निडर स्वभाव की वजह ही पुर्तगालियों ने उन्हें मराठाओं की रानी कहा है</span>| <span>धन्य है भारतवर्ष जहाँ इतनी महान रानियों ने जन्म लिया है</span>|</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>हौंसला बुलंद करtag:www.openbooksonline.com,2020-08-01:5170231:BlogPost:10140982020-08-01T08:00:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>मुँह लटकाए बैठा है क्यूँ</p>
<p>हौंसला अपना बुलंद कर</p>
<p>गोर्वित वंश का वंशज है तू</p>
<p>निडर होकर आगे बढ़ ||</p>
<p> </p>
<p>कदम चूमेगी मंजिल एक दिन</p>
<p>अनिश्चितता ना हृदय धर</p>
<p>कट जायेगी दुख की घड़ियाँ</p>
<p>इसकी ना तू चिंता कर ||</p>
<p> </p>
<p>हर पल हर क्षण वक़्त बदलता</p>
<p>इसके संग तू खुद को बदल</p>
<p> कर्तव्य धर्म की पुजा कर</p>
<p>कर्मठता संग तू आगे बढ़ ||</p>
<p> </p>
<p>स्वर्ण इतिहास है तेरे वंश का</p>
<p>उसकों तू ना कलंकित कर</p>
<p>समस्याओ से यदि टूट जाएगा…</p>
<p>मुँह लटकाए बैठा है क्यूँ</p>
<p>हौंसला अपना बुलंद कर</p>
<p>गोर्वित वंश का वंशज है तू</p>
<p>निडर होकर आगे बढ़ ||</p>
<p> </p>
<p>कदम चूमेगी मंजिल एक दिन</p>
<p>अनिश्चितता ना हृदय धर</p>
<p>कट जायेगी दुख की घड़ियाँ</p>
<p>इसकी ना तू चिंता कर ||</p>
<p> </p>
<p>हर पल हर क्षण वक़्त बदलता</p>
<p>इसके संग तू खुद को बदल</p>
<p> कर्तव्य धर्म की पुजा कर</p>
<p>कर्मठता संग तू आगे बढ़ ||</p>
<p> </p>
<p>स्वर्ण इतिहास है तेरे वंश का</p>
<p>उसकों तू ना कलंकित कर</p>
<p>समस्याओ से यदि टूट जाएगा तो</p>
<p>लक्ष्य प्राप्ति भूल के चल ||</p>
<p> </p>
<p>उत्साहवर्धन करती उनकी गाथा</p>
<p>त्याग बलिदान को याद तो कर</p>
<p>आशीष चाहिए उनका यदि तो </p>
<p>शीश चुका, नमन तो कर ||</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>अज़ीज़न बाईtag:www.openbooksonline.com,2020-07-22:5170231:BlogPost:10127062020-07-22T11:30:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>भारतवर्ष क्रांतिकारी महापुरुषों और वीरांगनाओं से भरा पड़ा है जिनके बारे में जितना पढ़ा जाये कम ही नजर आता है| <span>कभी-कभी तो ऐसा लगता है पता नहीं किस मिट्टी के बने होते होंगे वे लोग जो देश के लिए अपना सब कुछ बलिदान करने ले लिए हर वक़्त तैयार रहते थे</span>| <span>इस संघर्ष में उच्च</span>, <span>पिछड़े समाज और दलित समुदायों से आने वाली औरतों के साथ-साथ बहुत सी भटियारिनें या सराय वालियां</span>, <span>तवायफे भी थीं</span>| <span>जिनके सरायों में विद्रोही योजनाएं बनाते थे जाने कितनी तो कलावंत और…</span></p>
<p>भारतवर्ष क्रांतिकारी महापुरुषों और वीरांगनाओं से भरा पड़ा है जिनके बारे में जितना पढ़ा जाये कम ही नजर आता है| <span>कभी-कभी तो ऐसा लगता है पता नहीं किस मिट्टी के बने होते होंगे वे लोग जो देश के लिए अपना सब कुछ बलिदान करने ले लिए हर वक़्त तैयार रहते थे</span>| <span>इस संघर्ष में उच्च</span>, <span>पिछड़े समाज और दलित समुदायों से आने वाली औरतों के साथ-साथ बहुत सी भटियारिनें या सराय वालियां</span>, <span>तवायफे भी थीं</span>| <span>जिनके सरायों में विद्रोही योजनाएं बनाते थे जाने कितनी तो कलावंत और तवायफ़ें भी जो इस आजादी के संग्राम में मददगार थीं</span>| <span>उन्होनें भी अपना सब कुछ त्याग कर बस आजादी को ही अपने जीवन का देय बना लिया था</span>| <span>जिस किसी व्यक्ति या महिला में देशप्रेम एवं देश के लिए मर मिटने की तमन्ना होती है</span>, <span>वह वरण्य होता है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है</span>, <span>वह अपने सद्कार्य से इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान बना सकता है। ऐसा कहा जाता है कि संकट के समय दिव्य आत्माओं का जन्म होता है</span>, <span>जो जन साधारण को सत्कार्यों की प्रेरणा देती रही है और आगे भी देती रेहेंगी। झाँसी की रानी की लोकप्रियता की वजह यह भी मानी जा सकती है कि वे मौखिक परंपरा और लोकगीतों में जीवित रहीं दूसरा वह एक भ्रांत समाज से संबंध भी रखती थी</span>| <span>झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को लेकर दर्जनों लोकगीत रचे गए</span>, <span>जो आज भी गाए जाते हैं</span>| <span>यहाँ पर प्रश्न उठता है कि उन महिलाओं का क्या जो अपना सब कुछ लूटा देने के बाद भी हमारे पुरुष प्रधान समाज के द्वारा भुला दी गई जिनके त्याग और बलिदान के बारे कोई बात करने को तैयार नहीं</span>, <span>क्यों</span>? <span>वे सब एक ऐसे समाज से आई थी जिनका समाज हमारे सभ्य समाज के अनुरूप नहीं था या फिर उनके बारे में इतिहास में ज्यादा कुछ लिखा ही नहीं गया</span>| <span>कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे सभ्य समाज में उनके बारे में लिखना ही जरूरी नहीं समझा जो भी हो आज हम ऐसी वीर नारियों के लिए जानकारी जुटाने में असमर्थ हो जाते है जिन्होनें इन स्वाधीनता के युद्धों में अपना कोई निजी हित ना होते हुए भी क्रांतिकारियों की सहायता करने में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था फिर भी उन्होंने कभी किसी से भी किसी भी तरह की कोई शिकायत नहीं की</span>| <span>अंग्रेजी सरकार ने जिनके कोठो सहित उनके सभी आसियानों पर निर्दयता से अपनी पूरी ताकत से प्रहार किया जहां ये तवायफे हिंदुस्तान की पुरानी तहजीब</span>, <span>सभी ललित कलाओं में प्रवीण और उनकी संरक्षक मानी जाती रही थी</span>| <span>अब अंग्रेजों ने उनकी हैसियत केवल एक साधारण सी वैश्या बना कर रख छोड़ा था</span>| <span>ऐसे ही समाज से आई वीरांगनाओं की श्रेणी में एक नाम अजीजन बाई का भी आता है</span>| <span>अजीजन बाई का वास्तविक नाम तो अंजुला था लेकिन इतिहास ने अजीजन बाई के नाम से ही उन्हें संबोधित किया है</span>|</p>
<p> </p>
<p> इतिहासकारों के अनुसार अजीजन बाई का जन्म 22 <span>जनवरी</span> 1824 <span>को मध्यप्रदेश में मालवा क्षेत्र के राजगढ़ में एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ था</span>| <span>उसके पिता का नाम शमशेर सिंह था और वे एक बड़े जमींदार थे</span>| <span>अजीजन बाई बचपन से रानी लक्ष्मीबाई की तरह पुरुषों के लिबास पहना करती थीं व उनसे बहुत ही प्रभावित थी</span>| <span>वे अक्सर एक जोड़ी बंदूक रखती और सैनिकों के साथ घोड़े की सवारी करती थीं</span>| <span>अजीजन बाई एक प्रसिद्ध नर्तकी थी उनके सुरीले संगीत एवं नृत्य से हज़ारों युवक आकर्षित होते थे। उस समय उनका नाम देश की बहुत ही प्रतिभा सम्पन्न नर्तकियों में आता था धन संपत्ति की उनके पास कोई कमी नहीं थी</span>| <span>अजीजन बाई केवल एक साधारण नर्तकी ही बन कर रहना नहीं चाहती थी वह अपने देश के लिए कुछ करना भी चाहती थी</span>| <span>अब उनके हृदय में देशभक्ति की भावनाएँ भी हिलोरें भर रही थीं। प्रथम स्वाधीनता संग्राम की क्रांति की चिंगारी बढ़ते-बढ़ते कानपुर तक भी दस्तक दे चुकी थी। अजीजन बाई जानती थी कि शक्तिशाली अंग्रेज़ सैनिकों को पराजित करना कोई आसान काम नहीं है फिर भी उन्होंने देश की आज़ादी के लिए क्रांतिकारियों की अपनी ओर से पूरी सहायता करने का निश्चय किया। अजीजन बाई ने भी सोचा कि मुल्क खतरे में है</span>, <span>इसके लिए उन्हें भी कुछ करना चाहिए</span>| <span>तभी उन्होंने भी अपने गहने</span>, <span>धन-दौलत आदि क्रांति में पड़ने वाली सभी जरूरत की चीजें क्रांतिकारियों को प्रदान कर मातृभूमि में अपना योगदान करने की पूरी कोशिश की। अजीजन बाई ने आसपास के चकलो की लगभग सभी तवायफों को एकजुट किया जिसमें उनकी अपनी नारी सैनिको की भी टोली थी जिसका नाम मस्तानी टोली रखा</span>| <span>उस टोली में सम्मिलित स्त्रियाँ पुरूष वेश में तलवार लिए घोड़ों पर चढ़कर नवयुवकों को क्रांति में भाग लेने की प्रेरणा देती व निडरतापूर्व सशस्त्र जवानों का हौसला आफ़जाई करती था</span>| <span>उनके जख़्मों पर मरहम पट्टी करने के साथ-साथ उन्हें हथियार और गोला-बारूद मुहैया कराता था</span>| <span>अजीजन बाई कानपुर में तैनात दूसरी घुड़सवार सेना की बहुत चहेती थीं</span>| <span>दुश्मन पर बंदूक चलाने के लिए विशेष तौर पर बनाई गई जगह जिसे व एक गन बैटरी का नाम दिया गया था को हथियार और गोला-बारूद का मुख्यालय बना दिया</span>| <span>कानपुर की घेराबंदी के पूरे दौर में वे सैनिकों के साथ थीं</span>, <span>जिन्हें वे अपना दोस्त मानती थीं और ख़ुद भी हमेंशा पिस्तौल लिए रहती थीं</span>| <span>इस देश भक्ति के कारण वह नाना साहब की शुरुआती जीत पर कानुपर में झंडा फहराने वाले जुलूस में भी शामिल थीं</span>| <span>वीर विनायक दामोदर सावरकर ने अजीजन के सम्बन्ध में लिखा है कि <em>अजीजन एक नर्तकी थी</em></span><em>, <span>परन्तु सिपाहियों को उससे बेहद स्नेह था। अजीजन का प्यार साधारण बाजार में धन कमाने के लिए नहीं बिकता था</span>, <span>उनका प्यार पुरस्कार स्वरूप उस व्यक्ति को दिया जाता था</span>, <span>जो देश से प्रेम करता था</span>| <span>अजीजन बाई के सुन्दर मुख की मुस्कराहट में एक अजीब सा जादू था जो हारे हुए सिपाहियों के हृदय में साहस और युद्ध में जीतने की प्रेरणा भर देती थी। उनके मुख पर आई हुई भृकुटी का तनाव युद्ध से भागकर आए हुए कायर सिपाहियों को भी पुनः रणक्षेत्र की ओर भेज देता था</span></em><span>।</span></p>
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<p> एक बार अंजुला अपनी सहेली हरी देवी के साथ मेले से आ रही है तभी कुछ अंग्रेज सैनिकों ने अंजुला को उसकी सहेली के साथ ही अपहरण कर लिया| <span>अंजुला के पिता शमशेर सिंह को जब इसका पता चला तो उन्होंने दोनों लड़कियों को छुड़ाने का बहुत प्रयास किया</span>| <span>वह अंग्रेज उच्चाधिकारियों से फ़रियाद करते रहे कि लड़कियों को छोड़ दे लेकिन अंग्रेज़ अधिकारियों ने लड़कियों को छोड़ने के बजाए सैनिकों की शिकायत करने के अपराध में शमशेर सिंह की जमीदारी ही छीन ली</span>| <span>अपनी पुत्री और जमीदारी चली जाने के गम में शमशेर सिंह का प्राणांत हो गया</span>| <span>इस तरह उसे और उसके पिता को कहीं से भी मदद ना मिलने के कारण अजीजन बाई हताश हो गई फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी</span>| <span>एक दिन मौक़ा मिलते ही किसी तरह अंजुला और उसकी एक सहेली हरी देवी अंग्रेजों की कैद से निकलने में कामयाब हो गई</span>| <span>इस तरह अंग्रेजों से बचने का कोई उपाय ना दिखने पर उन्होंने अपनी जान बचाने के लिए यमुना नदी में छलांग लगा दी</span>| <span>यमुना में छलांग लगाने में हरी देवी की मृत्यु हो गई लेकिन अंजुला को एक मुस्लमान पहलवान ने बचा लिया</span>| <span>वह मुस्लमान अय्यास और विलासी</span> प्रकृति <span>का था</span>, <span>उसने अंजुला को कानपुर ले जाकर अम्मीजान के कोठे पर बेच दिया जो उस समय की मशहूर तवायफ मानी जाती थी</span>| <span>अम्मीजान ने अंजुला का धर्म परिवर्तन करा कर मुस्लमान बना दिया</span>| <span>इस प्रकार उन्हें अंजुला से अजीजन बाई बन कर उसे मजबूरी में एक तवायफ बनाना पड़ा</span>| <span>वह दिल की बेहद उदार और अपने वतन से बेपनाह मोहब्बत करने वाली स्त्री थी</span>, <span>ईश्वर ने उन्हें नृत्य और कला का अद्भुत मिश्रण दिया था। तवायफ की सभी कलाओं को सीखकर व अपनी खूबसूरती के कारण जल्द ही पूरे अवध की मशहूर तवायफ बन गई</span>| <span>जिसे सम्मान जनक पेशा नहीं माना जाता है कालांतर में उमराव जान ने भी उन्हीं से नृत्य सीखा था</span>| <span>इसके बाद अंजुला समाज में अजीजन बाई के नाम मशहूर हो गई</span>|</p>
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<p> प्रथम स्वाधीनता के वक्त क्रांति की लहर पूरे देश में धधक रही थी, <span>देश का हर वीर सैनिक और क्रांतिकारी अपनी मातृभूमि पर सब कुछ त्याग कर रहा था</span>| <span>अब मस्तानी टोली की सभी तवायफें अंग्रेजों की छावनी में भी नृत्य प्रदर्शन के लिए जाकर</span>, <span>वहां से जानकारी हासिलकर क्रांतिकारियों को पहुंचाने का काम करने लगी</span>| <span>शक के दायरे में आने पर अंग्रेजों ने बिठुर में बहुत सारी औरतों और बच्चों को मार दिया</span>| <span>उनकी हत्या का बदला लेने के लिए क्रान्तिकारियो के साथ मिलकर अजीजन बाई और नारी सैनिक की मस्तानी टोली ने बीबी घर में सुरक्षित बहुत सारी अंग्रेज औरतों व बच्चों को मार कर कुएं में फेंक दिया</span>| <span>इसकी भनक जब अंग्रेजों को मिली तो उन्होंने सभी तवायफों के मोहल्ले को सैनिक टुकड़ी से घेर लिया और बहुत सारी तवायफो को मार दिया और कुछ को गिरफ्तार कर लिया लेकिन अजीजन बाई किसी तरह वहां से निकल भागने में सफल हो गई</span>| <span>अजीजन बाई वहां से बच निकलने के बाद नाना साहब पेशवा के वकील अजीमुल्ला खाँ के पास पहुंची</span>, <span>तब उन्होंने ही उसे पहली बार नाना साहब और तात्या टोपे से मिलवाया</span>|</p>
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<p> अजीजन बाई के जीवन की दास्ताँ सुनने के बाद नाना साहब को लगा कि अजीजन बाई एक कुलीन परिवार से है, <span>उन्हें ये सब बहुत ही मजबूरी में करना पड़ा तो उन्होंने उसे अपनी बहन मान लिया</span>| <span>अजीजन बाई को एक तलवार भेंट करतें हुए उन्होंने उससे राखी बंधवा ली</span>| <span>इसके बाद अजीजन फिर से अजीजन बाई से अंजुला बन गई</span>, <span>उसकी सैनिक टुकडी मस्तानी टोली में पच्चीस सदस्य थी जो सभी पुरानी तवायफें थी</span>| <span>अजीजन बाई ने उन सभी को अस्त्र-शस्त्र</span>, <span>घुड़सवारी व बन्दुक चलाने का प्रशिक्षण देकर अपनी सैनिक टुकड़ी मस्तानी टोली में शामिल कर लिया</span>| <span>अब अंजुला की मस्तानी टोली क्रांतिकारियों के साथ कंधे से कंधा मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला करने लगी</span>| <span>कानपुर में नाना साहब</span>, <span>राव साहब तथा तात्या टोपे क्रांति के नेतृत्व में</span> 1 <span>जून</span>, 1857 <span>ई. को क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक आयोजित की गई जिसमें शमसुद्दीन खाँ</span>, <span>सूबेदार टीका सिंह</span>, <span>अजीमुल्ला खाँ के अतिरिक्त अजीजन बेग़म ने भी भाग लिया था। इस बैठक ने सभी ने क़सम खाई कि हम जब तक जिंदा है अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ लड़ते रहेंगे और अब भारत से अंग्रेज़ सत्ता को समाप्त करके ही दम लेंगे। इसके बाद शमसुद्दीन खाँ ने</span> 2 <span>जून 1857 को अजीजन के घर जाकर उनसे भेंट की और बताया कि जल्द ही भारत से कंपनी का शासन शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा। यह सुनकर वीरांगना अजीजन का हृदय कमल की भाँति खिल उठा इससे पता चलता है कि उसमें देश भक्ति की कितनी आग थी। वह तात्या टोपे से बहुत प्रभावित थी और उनके किस्से सुनकर उन्हीं का अनुसरण करने लगी</span>| <span>महाराजपुर की लड़ाई में अंजुला ने ही तात्या टोपे की जान बचाई और वहां से निकलने में उनकी मदद की थी</span>|</p>
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<p> प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बिठुर के लंबे संघर्ष के समय अधिकतर क्रांतिकारी भूमिगत हो गए तो अंजुला भी पुरुष वेश में जंगल में छुप गई| <span>जब वह एक कुएं से पानी पी रही थी तभी वहां कुछ अंग्रेज सैनिक आ गए</span>| <span>अंग्रेजों सैनिकों ने उसके खुले बाल देख कर उसको पहचान लिया कि यह सैनिक के भेष में अजीजन बाई है</span>| <span>इस खूनी संघर्ष में अजीजन बाई ने उन सभी को मार गिराया तभी हयूरोज की बंदूक से निकली एक गोली उसके कंधे में लग गई</span>| <span>ह्यूरोज के बचे अंग्रेज सनिकों द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जब वह अंग्रेज अधिकारियों के सामने लाई गईं तो उनकी खूबसूरती और कला की इज्जत रखते हुए उन्हें मशवरा दिया गया कि वह सिर्फ यहीं बता देंगी कि उन्होंने किसे मदद पहुंचाई है तो उनके सभी गुनाह माफ करके अपमानित शहर में रहने दिया जाएगा। यह सुनकर अजीजन बाई मुस्कराईं और बोलीं भले ही तुम मेरी जुबान खींच लो</span>, <span>मगर खूबसूरत गजलें गाने वाली यह जुबान उफ़्फ़ भी नहीं करेगी। मेरी खाल खींच लो</span>, <span>यह खूबसूरत खाल जिस पर जमाना आहें भरता है</span>, <span>उसे इसकी जरा भी फिक्र नहीं होगी। भले तुम मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दो</span>, <span>हर टुकड़ा जो कुदरत के दिए नायाब हुनर की गवाही है</span>, <span>वह शिकवा भी नहीं करेगा। इतना ही नहीं उस शेरनी ने हुंकार भर कर कहा कि माफी तो अंग्रेजों को मांगनी चाहिए जिन्होंने भारतवासियों पर इतने जुल्म किए हैं। अंग्रेजों के इस अमानवीय कृत्य के लिए वह जीते जी उन्हें कभी माफ नहीं करेगी। एक नर्तकी से ऐसा जवाब सुनकर अंग्रेज अफसर तिलमिला गए और उसे मौत के घाट उतारने का आदेश दे दिया गया। देखते ही देखते अंग्रेज सैनिकों ने उसके शरीर को गोलियों से छलनी कर दिया। अजीजन बाई के द्वारा किए इस बलिदान को सदा इतिहास में याद किया जाएगा</span>| <span>यह बड़े दुख की बात है आज भी ऐसे वीर लोगों के बलिदान को उनके व्यवस्यों के रूप में तोल कर देखा जाता है जबकि उनकी देश भक्ति अच्छे अच्छे देश भक्तों को भी लज्जित कर देती है</span>| <span>हमारा समाज आज भी उन्हें और उनके त्याग को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है फिर भी नारी समाज में उनका अपना खुद का एक आदरणीय स्थान है</span>| <span>जब-तब वीर-वीरांगनाओं की बात चलेगी तो अजीजन बाई को भी याद किया जाएगा</span> |</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ऊदा देवीtag:www.openbooksonline.com,2020-07-18:5170231:BlogPost:10125172020-07-18T22:00:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अनेक वीर नारियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था| इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम में देश के सभी वर्गों ने अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार उसमे योगदान देने में अपना पूरा सहयोग दिया| इस संग्राम में भाग लेने वाली नारियों ने अपने धर्म जाति की परवाह किए बिना अपने त्याग और बलिदान की एक अनोखी मिशाल पेश की और आने वाली पीढ़ियो के लिए मार्गदर्शक बनी| प्रथम भारतीय विद्रोह की सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है कि इसमें केवल शाही राजघरानो या कुलीन पृष्ठभूमि वाली नारियों ने ही भाग नहीं लिया था…</p>
<p>प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अनेक वीर नारियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था| इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम में देश के सभी वर्गों ने अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार उसमे योगदान देने में अपना पूरा सहयोग दिया| इस संग्राम में भाग लेने वाली नारियों ने अपने धर्म जाति की परवाह किए बिना अपने त्याग और बलिदान की एक अनोखी मिशाल पेश की और आने वाली पीढ़ियो के लिए मार्गदर्शक बनी| प्रथम भारतीय विद्रोह की सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है कि इसमें केवल शाही राजघरानो या कुलीन पृष्ठभूमि वाली नारियों ने ही भाग नहीं लिया था बल्कि इसमें हर धर्म-समुदायों की नारियों ने बराबर का सहयोग देकर अपने भागीदारी को बखूबी निभाते हुए अपने प्राणों को स्वतंत्रता की खातिर न्यौछावर कर दिया| इन वीर नारियों ने जग को यह संदेश दिया कि यदि नारी को मौका दिया जाए तो वह किसी भी स्थिति में पुरुष से पीछे नहीं है| ऐसी ही नारियों में एक ऊदादेवी का नाम भी बड़ी ही शृद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है| जिन्होने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी जाति और धर्म से उठकर अपने कर्तव्य को निभाया और स्वतंत्रता प्राप्ति में अपना योगदान देते हुए वीरगति को प्राप्त हो गई| भारत में यूरोपियों का आगमन व्यापारियों के रूप में हुआ किंतु दो शताब्दियों के भीतर यूरोपियों में से अंग्रेज सशक्त होकर उभरे| विभिन्न रूढ़ियों में बंधा तथा वर्ण व्यवस्था में बिखरा होने के कारण भारतीय समाज अंग्रेजों का सामना नहीं कर पाया और हिंदुस्तान में पूर्व समय से चली आ रही दासता फिर से एक नए रूप में प्रारम्भ हो गई| अगर देखा जाये तो अंग्रेजों के शासन को स्थापित करने में भारत के इतिहास में सन् 1764 सबसे अधिक निर्णायक वर्ष रहा जिसमें अंग्रेजों ने बंगाल में नवाब मीर कासिम, अवध में नवाब शुजाउद्दौला और मुगल बादशाह शाह आलम की संयुक्त सेना को परास्त कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी थी| इस युद्द के बाद अधिकतर रियासतें अंग्रेजों की परोक्ष सत्ता के अधीन आनी शुरू हो गई और अंग्रेजों ने देश को निचोड़ना शुरू कर दिया |</p>
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<p> यह हमारी विडम्बना ही है कि ऊदा देवी के जन्म के बार में इतिहास के पन्नों पर हमें अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती लेकिन कहा जाता है कि उनका जन्म लखनऊ के एक ग्राम में पासी जाति में हुआ था| ऊदादेवी बचपन से ही निर्भीक स्वभाव इन्हें की थीं| वह बिना किसी झिझक के घने जंगलों में अपनी टोली के साथ खेलने चली जाती थीं| बचपन से ही उसे बहादुरी और चुनौती से भरे खेल खेलना बहुत पसंद था जैसे पेड़ पर चढ़ना, छुपना और घर लौटते समय जंगल से फल और लकड़ियां एकत्रित करके लाना| जैसे-जैसे ऊदा देवी बड़ी होती गई, वैसे-वैसे उनके हम उम्रों का नेतृत्व करने के गुणों में बढ़ोत्तरी होती गई| सही-गलत का सोच-विचार करके ही वह किसी निर्णय पर पहुँचती थी और सही बात कहने में पलभर की भी देर नहीं करती थी फिर चाहे उसके सामने कोई भी क्यों ना हों| अपनी टोली की रक्षा के लिए तो वह खुद की भी परवाह नहीं करती थी, उसके लिए वह बड़े से बड़े परिणाम से भी नहीं डरती थी| वीरता भरे इसी तरह के खेल-खेल में ही उसनें तीर चलाना, बिजली की तेजी से भागना अब ऊदा देवी के लिए सामान्य सी बात हो गई थी, उनकी निडरता और निर्भीकता अतुलनीय थी| किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते ऊदादेवी में गहरी गम्भीरता का समावेश होने लगा अब अपने सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों को समझनें की कोशिश करने लगी थी| ऊदादेवी के हृदय में देश भक्ति का अंकुर फूट चुका था, उस समय के सामाजिक व राजनैतिक परिवेश की वजह से उनका पढ़ना-लिखना कठिन नहीं बल्कि बहुत असामान्य बात थी| उस समय समाज में उपस्थित विपरीत परिस्थितियों के कारण ऊदा देवी को भी शिक्षा से दूर रहना पड़ा| जीवन में कठिनाइयों से जूझनेवाली ऊदा देवी ने वक़्त पर सही व शीघ्र निर्णय लेने वाली, साहसी, दृढ़ निश्चयी और कठोर हृदय वाला बना दिया था| आगे चलकर यही गुण ऊदाको इतिहास में उच्च स्थान दिलाने वाला था| अवध की सेना में एक टुकड़ी पासी सैनिकों की भी थी| इस पासी टुकड़ी में बहादुर युवक मक्का पासी भी था उसी से ऊदादेवी का विवाह हुआ था| शादी के बाद ससुराल में ऊदा का नाम जगरानी रख दिया गया और इसी नाम से उनको जाना भी गया| ऊदादेवी के पति मक्का पासी व्यावहारिक रूप से बहुत ही साहसी व पराक्रमी थे। </p>
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<p>सन् 1857 में भारतीयों ने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया | इस समय अवध की राजधानी लखनऊ थी और वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल और उनके अल्पवयस्क पुत्र बिरजिस कदर ने अवध के नवाब बनें| नवाब बनते ही वाजिद अली शाह ने बड़ी मात्रा में अपनी सेना में सैनिकों की भर्ती की प्रक्रिया चलाई जिसमें हर समुदायों के लोगों से बेगम हजरत महल ने उनका पूरा-पूरा सहयोग मांगा | देश की आजादी की लड़ाई के लिए चलाई गई इस भर्ती प्रक्रिया में सभी धर्मो के लोगों को नौकरी पाने का मौका मिला जिसमें लखनऊ के निम्न वर्गों के लोगों ने हाथो-हाथ लिया और लोग बढ़-चढ़कर सेना भर्ती में शामिल होने लगे। मक्का पासी ने भी इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और अवसर का लाभ उठाते हुए वे भी इनकी सेना में भर्ती हो गए भारत की स्वतन्त्रता क्रांति के दौरान उन्होंने बेगम हज़रत महल की मदद की और अपनी साथ की सभी महिला लड़ाकों का एक अलग सेना संगठन बनाया। हजरत महल की इस सेना दल में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के दुर्गा दल की तरह से ही ज्यादातर महिलायें थीं जो अपनी बहादुरी के लिए जानी जाती थी। इन सभी को वीरांगनाओं की मुक्ति सेना के रूप में जाना जाता है। मक्का पासी को देश की आजादी के लिए नवाब के दस्ते में शामिल होते देखकर ही ऊदा देवी को भी सेना में भर्ती होने की प्रेरणा मिली| ऊदादेवी की जिद्द और उत्साह देखकर मक्का पासी ने ऊदादेवी को भी सेना में शामिल होने की इजाजत दे दी| वह वाजिद अली शाह के महिला दस्ते में भर्ती हो गईं और अपनी लग्न और बहादुरी के बल पर उसने अपनी महिला दस्ते में अच्छी पहचान बना ली| शीघ्र ही ऊदादेवी ने अपनी टुकड़ी में नेतृत्वकर्ता के रुप में उभरने लगी और उन्हें मुक्ति सेना की टुकड़ी का सेनापति बना दिया गया| धीरे धीरे अपनी वीरता और बहादुरी के बल पर वह बेगम हज़रत महल की अच्छी मित्र बन गई अब बेगम की हर सैनिक कार्यवाहियों में उसका जिक्र होता था |</p>
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<p>10 मई 1857 मेरठ के सिपाहियों द्वारा छेड़ा गया संघर्ष शीघ्र ही उत्तर भारत में फैलने लगा एक महीने के भीतर ही लखनऊ ने भी अंग्रजों को चुनौती दे दी| मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कानुपर आदि क्षेत्रों में अंग्रेजों के पैर उखड़ने लगे बेगम हजरत महल के नेतृत्व में अवध की सेना भी अंग्रेजों पर भारी पड़ी किंतु एकता के अभाव व संसाधनों की कमी के कारण लम्बे समय तक अंग्रेजों का मुकाबला करना मुमकिन नहीं हुआ| इस कारण धीरे-धीरे अंग्रेजों ने लखनऊ पर नियंत्रण पाने के प्रयास शुरू कर दिए| 10 जून 1857 ई. को हेनरी लॉरेंस ने लखनऊ पर पुनः कब्जा करने का प्रयास किया| चिनहट के युद्ध में अँग्रेजी सेना से युद्ध करते हुए मक्का पासी को वीरगति की प्राप्ति हुई| यह ऊदादेवी पर वज्रपात था किंतु ऊदादेवी ने धैर्य नहीं खोया और अपनी दृढ़ता और वीरता का परिचय देते हुए वह अपनी टुकड़ी के साथ संघर्ष करने के लिए आगे बढ़ती रही| नवंबर तक आते-आते यह तय हो गया था कि अंग्रेजी सेना अब लखनऊ पर कब्जा कर ही लेंगे क्योंकि क्रांतिकारियों की सेना में लगातार कमी आती जा रही थी| वही अंग्रेज़ अधिकारियों ने लखनऊ के विद्रोह को दबाने के लिए और सेना भेज दी गई, नई सैनिक टुकड़ी मिलने से अंग्रेज़ सैनिक बहुत बहादुरी से लड़ने लगे| अब विद्रोहियों के लिए यह युद्ध केवल अपना मान- सम्मान और अपनी जान बचाने तक ही सीमित रह गया था इसलिए भारतीय सैनिक अपनी सुरक्षा के लिए लखनऊ के सिकंदराबाग में छुप गए|</p>
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<p>16 नवम्बर 1857 को सार्जेंट काल्विन कैम्बेल की अगुवाई में अंग्रेज़सेना ने लखनऊ के सिकंदर बाग में ठहरे हुए भारतीय सैनिकों पर हमला बोल दिया परंतु ऊदादेवी बिना लड़े हार मानने को तैयार नहीं हुई और साहस व वीरता का परिचय देते हुए आगे बढ़ती रही | ऊदादेवी ने पुरुषों की वेश-भूषा धारण कर अपनी सेना दल के साथ अंग्रेजी सेना को सिकन्दरबाग के द्वार पर ही रोक दिया। अँग्रेजी सैनिकों की आँखों में धूल झोंकते हुए वह लड़ाई के दौरान अपने साथ एक बंदूक और कुछ गोला-बारूद लेकर एक पीपल के पेड़ पर चढ़ गयी| पेड़ पर से लगातार हमला कर उसने अंग्रेज़ सैनिकों को सिकंदर बाग़ में तब तक प्रवेश नहीं करने दिया, जब तक कि उनका गोला बारूद समाप्त नहीं हो गया। उन्होंने दो दर्जन से भी अधिक अंग्रेज़ सैनिकों को मार गिराया। इसे देख अंग्रेजी अधिकारी क्रोध से भर गये उन्हें समझ नहीं आया कि उनके सैनिकों को कौन मार रहा था। तभी एक अंग्रेज सैनिक की निगाह पीपल के पेड़ पर गई उन्होनें देखा पीपल के पेड़ के पत्तों के झुरमुट में छिपा एक बाग़ी ताबड़तोड़ गोली बरसा रहा था। अंत में कैम्पबेल ने उस पेड़ बैठे काले वस्त्र में एक मानव आकृति पर निशाना साधने का आदेश अपने सैनिकों को दिया उसका आदेश मिलते ही अंग्रेज़ सैनिकों ने पेड़ पर बैठे बागी पर गोली बरसानी शुरू कर दी और जब तक गोलियां चलाते रहे जब तक कि हमलावर पेड़ से नीचे नहीं गिर गया। जब तक ऊदादेवी के पास गोला बारूद था तब उसने भी अंग्रेज़ सैनिकों को गोला बारूद से अच्छा जवाब दिया तभी एक गोली ऊदा देवी को लगी और वह गोली लगते ही पेड़ से नीचे गिर पड़ीं। उसके बाद जब अँग्रेज़ो अधिकारियों ने सिकंदर बाग़ में प्रवेश किया तो उन्हें पता चला कि पुरुष की वेश-भूषा में वह भारतीय बागी सैनिक कोई और नहीं बल्कि एक महिला थी। जिसकी पहचान बाद में ऊदा देवी के तौर पर की गयी | ऊदा देवी की वीरता से अभिभूत हो गया उसकी आंखे नम हो गई, तब काल्विन कैम्बेल ने हैट उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि यदि मुझे पता होता कि यह महिला है तो मैं कभी गोली नहीं चलाता। अंग्रेजी विवरणों में ऊदादेवी को ब्लैक टाइग्रैस कहा गया| यह कितने दुःख व क्षोभ की बात है कि भारतीय इतिहास लेखन में ऊदादेवी के बलिदान को वो महत्व नहीं दिया गया जिसकी वो अधिकारिणी है| ऊदा देवी उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिसे समाज में अब तक अबला कहा जाता रहा है| शायद, आज भी हमारा समाज एक अबला नारी के सफल योगदान को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सबल उपस्थिति को स्वीकार करने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रहा है| इतिहास इस मान्यता से ही परिचालित होता रहा कि अंग्रेजों के विरुद्ध केवल उच्च वर्ग ने ही तीव्र प्रतिक्रिया की| वह तबका जो तत्कालीन समाज में निम्न जाति कहलाता था, चेतना के अभाव में शोषण को ही अपनी नियति मान बैठा था| अगर, वर्ण व्यवस्था के सामाजिक पहलुओं से उठकर देखा जाये तो संघर्ष की भावना निम्न वर्ग में भी रची बसी थी व जरूरत पड़ने पर उन्होंने अपने इस संघर्ष को उच्च वर्गों से अधिक तीव्र रूप से पूर्ण किया था| यही नहीं संघर्ष को पुरुषों की ही बपौति माना गया जिसमें अभी तक पुरुषों के वर्चस्व को महत्त्व दिया गया, नारी को नहीं| समाज भी नारी को अबला, लाचार और असहाय के रूप में स्वीकार करता है ना की एक वीरांगना के रूप में किन्तु यह सच नहीं है| इतिहास की पड़ताल करने पर कुछ और ही हकीकत प्रस्तुत होती| देश की महिलाओं ने तमाम बाधाओं और उपेक्षाओं के बावजूद यह सिद्ध किया कि नारी पुरुषों से भी अधिक क्षमतावान होती हैं| इसी क्रम में वीरांगना ऊदादेवी ने अप्रतिम वीरता का परिचय देते हुए ऐसे प्रतिमान स्थापित किए, जो इतिहास में विरले ही दिखाई पड़ते हैं|</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>बेगम हज़रत महलtag:www.openbooksonline.com,2020-07-14:5170231:BlogPost:10123002020-07-14T10:32:03.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>बेगम हज़रत महल भारतवर्ष की आज़ादी में कई सारे क्रांतिकारी वीर-वीरांगनाओं ने अपना पूरा योगदान दिया | यहाँ तक कि भारत माँ के सम्मान, स्वाभिमान और इसकी आजादी को बचाने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया| बेगम हज़रत महल का व्यक्तित्व उस समय भारतीय समाज की सामंत मान्यताओ में बंधी नारी शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है | ऐसे में रानी लक्ष्मीबाई का चरित्र हमारे समाज की सशक्त महिला व देवी तुल्य भाव को प्रदर्शित करता है| सोचने की बात यह है कि अलग-अलग परिस्थितियों से आई दोनों नारियाँ कैसे समाज में एक आदरणीय…</p>
<p>बेगम हज़रत महल भारतवर्ष की आज़ादी में कई सारे क्रांतिकारी वीर-वीरांगनाओं ने अपना पूरा योगदान दिया | यहाँ तक कि भारत माँ के सम्मान, स्वाभिमान और इसकी आजादी को बचाने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया| बेगम हज़रत महल का व्यक्तित्व उस समय भारतीय समाज की सामंत मान्यताओ में बंधी नारी शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है | ऐसे में रानी लक्ष्मीबाई का चरित्र हमारे समाज की सशक्त महिला व देवी तुल्य भाव को प्रदर्शित करता है| सोचने की बात यह है कि अलग-अलग परिस्थितियों से आई दोनों नारियाँ कैसे समाज में एक आदरणीय नारी बन जाती है| यहाँ मैं दोनों ही रानियों की तुलना नहीं कर रहा, ना उनकी तुलना की जा सकती लेकिन यहाँ उनकी परिस्थितियों के बार में हम जरूर बात कर सकते है| जहां झाँसी की रानी सीता कुल की मानी जाती है, जिसकी शुद्धता और कुसाग्र बुद्धि को देखकर स्वयं पेशवा ने उसे अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्रदान करायी| उस समय पिता बहुत ऊंचे पद पर नहीं थे बल्कि एक साधारण से ही इंसान थे फिर भी वह रानी की पद तक पहुँच गई| विवाह उपरांत उनके पति गंगाधर राव ने उन्हें कड़े सामाजिक बंधनो में बांधने की कोशिश की लेकिन उन्होंने उनकी हर बात को मानने में अपनी सहमति प्रदान नहीं की, वह पूरी तरह से उनके द्वारा लगाए गए अनुशासन में दब कर नहीं रही बल्कि विरोध करने वाली बातों का विरोध भी करती रही| जैसे कि अंग्रेजों के सामने राजा का शीश झुका कर सलाम करना उन्हें बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था जब राजा ने उनसे भी ऐसा करने के लिए कहा तो उन्होंने ऐसा करने से साफ मना कर दिया| एक रानी होने के बावजूद भी उन्हें पुरुष समाज की पर्दा प्रथा, सती प्रथा व अन्य सभी मान्यताओं के सामने झुकने पर मजबूर किया| समाज में प्रचलित सती प्रथा होने के बावजूद भी उन्होनें अपने लिए वैधव्य चुना| हर बुराई से लड़ते हुए रानी ने कठिन परिश्रम और अनुशासन से समाज में अपनी एक अलग ही पहचान बनाई व जीवन में मिली पूर्ण स्वतन्त्रता को उन्होनें देश सेवा को समर्पित कर दिया| बेगम हजरत महल को बचपन से ही ऐसे समाज का सामना करना पड़ा जहां नारी पुरुषों के लिए उनका दिल बहलाने व कामवासना की पूर्ति करने वाली भोग की वस्तु बनने के लिए तैयार हो जाती है| उनका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं होता ना ही समान मान-सम्मान रखने वाला कोई अस्तित्व| बचपन में उन्हें उस समय की मशहूर कटनियों, अम्मन अमामन के द्वारा वाजिद शाह के शाही हरम के लिए बेच दिया गया| इससे ज्यादा उनके बचपन की जानकारी प्राप्त नहीं होती| जब उन्हें वाजिद शाह ने अपनी बेगम बनाया तो उस समय वाजिद अली को पहले से तीन सौ से ज्यादा बेगमों से पति की नजर में अपना स्थान बनाने के लिए प्रतियोगिता का सामना करना पड़ा| जिसकी वजह से कभी-कभी बहुत ही मानसिक तनाव का सामना भी करना पड़ा था| बेगम हज़रत महल को तो जीवन के शुरू में ही उसे नाच-गाने की शिक्षा मिली और पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करने की कलाओ में दीक्षित किया गया फिर भी समाज में उसने अपनी एक अलग ही पहचान बनाई जो खुद में ही बहुत उल्लेखनीय है| हज़रत महल के बचपन की तो ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं होती लेकिन कहा जाता है कि वह फ़ैज़ाबाद के किसी निर्धन परिवार की कन्या थी| बचपन से ही बहुत सुंदर व उनके परिवार की बहुत ही माली हालत होने के कारण उनके माता-पिता ने उसे बादशाह के शाही हरम में गरीबी के चलते बेच दिया था| चाहे जैसी भी स्थिति थी लेकिन ये बात तो सच ही है कि उस स्वाभिमानी लड़की को अनिच्छापूर्ण होने पर भी गलत मार्ग पर आगे बढ़ा दिया गया था| हजरत महल की सुंदरता और तेज को देख वाजिद शाह ने उन्हें अपने शाही हरम से निकाल कर एक शक्तिशाली महिला बनने तक पहुंचा दिया| दोनों रानियों को पढ़ने के बाद यह बात समझ में आती है कि महलो में रहने और विपरीत परिस्थिति होने के बाद भी इन दोनों रानियों ने कभी अपने स्वाभिमान और मानसिक योग्यता को मरने नहीं दिया और किसी पुरुष का साथ ना होते हुए भी उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लेना मुनासिब समझा उनसे डर कर उनके आधीन रहना नहीं| इस तरह से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ तो जैसे पुरूषों के साथ-साथ महिला क्रांतिकारियों ने भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बढ़चढ़ कर भाग लिया| अंग्रेजी हुकूमत में भी इन दोनों का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है| इतिहासकारों ने भी दोनों के चरित्र में बहुत कशीदे पढ़े जो हैरान करने वाली बात होने के साथ-साथ हम भारतीयों का सिर गर्व से ऊंचा भी करती है| इतिहासकार रसाल ने हजरत के बारे में लिखा है कि वह अपने पति से अच्छी मर्द और शासक थी | भारत की उन सभी वीर नारियों में बेगम हजरत महल का नाम भी बहुत आदर के साथ लिया जाता है| जिन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अपना सब कुछ लुटाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ीं अपनी वीरता और कुशल नेतृत्व से अंग्रेजों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया| चार्ल्स वाल ने लिखा है कि विद्रोही क्रांतिकारियों ने जब क़ैसरबाग के महलों में कैद अंग्रेज़ स्त्रियों की हत्या करने के लिए उन्हे माँगा तो स्त्रीत्व की मान की रक्षा की हेतु उनकी माँग बेगम द्वारा आज्ञार्थक रूप से जहां तक स्त्रियों का संबंध था अस्वीकार कर दी गई और उन्हें (जो स्त्रियों अंग्रेजों की कैद में थी) तुरंत अपनी निगरानी में हरम में बुला लिया| इस तरह विषम परिस्थिति होने के बाद भी अपने साथ-साथ नारी शक्ति के सम्मान को बचाने ले किए भी सदैव तैयार रही| हज़रत महल का जन्म 1820 में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में एक गरीब परिवार में हुआ था| बचपन में उनके माता-पिता प्यार से उन्हें मुहम्मदी ख़ानुम कहते थे| उनके पिता जमींदार के यहां गुलाम थे उनकी घर की माली हालत होने के कारण उनके माता-पिता ने उन्हें बेच दिया| इसके बाद खानुम को लखनऊ के शाही हरम में खावासिन के तौर पर शामिल किया गया| बचपन से ही वह बहुत ही सुन्दर और हुनरमंद थी इसलिए उन्होंने जल्द ही शाही हरम में अपनी एक खास पहचान बना ली| एक दिन नवाब वाजिद अली शाह की नज़र उन पर पड़ी तो उन्होनें उसे अपने शाही हरम के परी समूह में शामिल कर दिया, इस समूह में कुछ चुनिन्दा महिलाओं को ही रखा जाता था जिसे नवाब ने परी समूह का नाम दिया था, नवाब ने खानुम को महक परी नाम दिया| महक परी के हुस्न ने नवाब वाजिद अली शाह पर ऐसा जादू किया कि वो इनके दीवाने हो गए बाद में उन्होनें महक परी से निकाह कर लिया| महक परी के प्रेम में पड़े वाजिद अली शाह ने प्रेम के बहुत से कसीदे भी लिख डाले| कुछ समय पश्चात बेगम हज़रत महल से अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने उनसे निकाह कर लिया। हज़रत महल की दो बेगमों को ही यह खिताब मिला था एक बेगम हज़रत महल दूसरी परी पैकर हज़रत महल इस खिताब को पनि वाली महिला थी| निकाह के उपरांत उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिससे पूरे राज महल में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी| पिता बनने की खबर जैसे ही नवाब वाजिद अली शाह को पता चली, तो इसी खुशी में बादशाह ने उन्हें बेगम हज़रत महल नाम दिया, आगे चलकर वह इसी नाम से मशहूर हुईं| बादशाह ने अपनी इस चौथी संतान का नाम बिरजिस कदर रखा| भारत में अब अंग्रेजी शासन शुरू हो चुका था और अधिकतर रियासतें उनकी आधीन हो रही थी| वाजिद अली एक उदार और भोले व्यक्ति थे| यह भी सच है कि वह और उनका बड़ा भाई मुस्तफा अली अंग्रेजों से नफरत करते थे उनकी नीतियां उन दोनों भाइयों को ही पसंद नहीं थी| मुस्तफा अली का मुँहफट और क्रोधी स्वभाव होने के कारण अंग्रेज़ उसे गद्दी का अधिकारी नहीं समझते थे| अंग्रेजों ने उन्हें असंतुलित मस्तिष्क का स्वामी समझ राज गद्दी के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जबकि वाजिद अली गंभीर और शांत थे इसलिए उनको नवाब बनाने की अपनी सहमति प्रदान कर दी| वाजिद अली साहित्यक और कलात्मक अभिरुचि के साथ-साथ नाट्य करने का शौक रखने वाले एक रसमग्न व्यक्ति थे| वाजिद अली शाह संरक्षण के अन्तर्गत बहुत सी ललित कलाएं विकसित हुई थीं इसके लिए वाजिद अली शाह ने केसरबाग बारादरी महल परिसर का निर्माण भी करवाया जिसमें नृत्य-नाटक, रास, जोगियाजश्न और कथक नृत्य की सजीवता झलक होने के कारण लखनऊ को एक आकर्षक सांस्कृतिक केंद्र बना दिया था। नवाब वाजिद अली शाह कला के प्रति अपने जुनून को लेकर काफी महत्वाकांक्षी थे और शिया कानून का लाभ उठाकर 359 बार विवाह किया। वाजिद अली शाह का मन छल कपट से दूर था वो लड़ाई-झगड़े में विश्वास नहीं करते थे उन्हें किसी तरह का खून-खराबा पसंद नहीं था| नवाब वाजिद अली शाह को एक दयालु, उदार, करुणामय और एक अच्छे शासक के रूप में जाना जाता है, जो राज्य के कार्यों में ज्यादा रुचि रखते थे। अवध उनके शासन के अन्तर्गत एक समृद्ध और धनी राज्य था। इसलिए उन्होनें अवध का नवाब बनने के बाद अंग्रेजों से सीधे उलझने की बजाए अपने राज्य और घर को व्यवस्थित करना ही ज्यादा उचित समझा| अगर अंग्रेजों ने उनके राज्य में हस्तक्षेप नहीं किया होता तो शायद वो एक अच्छे और योग्य शासक होते | डलहौजी नवाब के विलासिता पूर्ण जीवन और शांतचित्त व्यक्तित्व से अच्छे से परिचित था इसलिए उसनें तुरंत अवध की रियासत को हड़पने की योजना बनाई। 1857 में डलहौजी भारत का वायसराय था उसनें नवाब वाजिद अली शाह पर विलासी होने के आरोप लगाकर उन्हें पद से हटाने की योजना बना ली। एक दिन एक पत्र लेकर कंपनी का दूत नवाब के पास पहुँचा और उसने वाजिद अली शाह को उस पर हस्ताक्षर करने के लिये कहा। पत्र में एक शर्त लिखी हुई जिसके अनुसार नवाब के हस्ताक्षर करते ही अवध पर कंपनी का पूरा अधिकार स्थापित हो जाना था। नवाब वाजिद अली ने समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किया, फ़लस्वरूप अंग्रेजों ने अवध को अपने अधिकार में लेने के लिए अवध पर आक्रमण कर दिया | कहा जाता है कि 1857 में अंग्रेज अवध को अपने अधिकार में लेने के लिए हमला किया तो सभी क्रांतिकारी सहित सारी प्रजा अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रही थी लेकिन वाजिद अली शाह अपने महल में आराम से बैठे हुए थे, अब अंग्रेजों ने उनसे इसका कारण पूछा कि सब लोग भाग रहे थे तो आप क्यों नहीं भागे| इसके उत्तर में नवाब ने कहा कि वह इसलिए नहीं भाग पाए क्योंकि तब महल में ऐसा कोई सेवादार मौजूद नहीं था जो नवाब के पावों में जूतियां पहना सके| इसके बाद नवाब अंग्रेज सैनिकों ने खुद जूती पहनाई और उन्हें उन्हें नजरबंद करके कलकत्ता भेज दिया गया| कलकत्ता जाने के बाद, नवाब वाजिद अली शाह ने अपनी जन्म भूमि लखनऊ की भव्यता को देखने की अभिलाषा कर रहे थे। हुगली नदी के तट पर स्थित मटियाबुर्ज से निर्वासित किए गए वाजिद अली शाह ने एक बार फिर अपनी संपत्ति का इस्तेमाल अपनी पहली आकर्षक जीवन शैली को पुनः प्राप्त करने के लिए किया था। अब नवाब के वारिस की बात चलने लगी उस समय नवाब की किसी भी पूर्व रानी ने अपने पुत्र को उनका वारिस बनाने की बात नहीं की साथ ही साथ बिरजिस कदर का नाम भी किसी कीं ज़बान पर नहीं आया था| उसे नवाब का उत्तराधिकारी बनाने की वजह से भी हज़रत महल का महतत्व बढ़ जाता है | एक बार की बात है एक दिन नवाब वाजिद अली को राजमाता की एक परिचारिका पसंद आ गई जब राजमाता को यह बात पता चली तो उन्होंने उस परिचारिका को उसके पास भेजने से ही मना कर दिया| वाजिद शाह ने राजमाता से पूछा तो उन्होनें बोला कि उस परिचारिका के शरीर पर एक सांप का निशान है| वह जिस भी मर्द से मिलेगी अपनी बद किस्मती का साया डालेगी जो उस मर्द के लिए ठीक नहीं होगा| वाजिद शाह डर गए वैसे भी उस समय वह हृदय की परेशानी से कष्ट में थे| उसी समय उन्होनें सभी परिचारिकाओं के साथ-साथ अपनी अन्य बेगमों के शरीर पर भी कोई निशानी होने का पता लगाने के लिए आदेश पारित कर दिया कि कहीं किसी परिचारिका कि वजह से तो ही उनको हृदय की समस्या तो नहीं हुई है| वाजिद अली शाह की आठ बेगम थी उनमें हज़रत भी एक थी हज़रत को इस बात का बहुत बड़ा धक्का लगा फिर वाजिद अली शाह को उनके मंत्रियो ने समझाया कि हिन्दू पंडितो के पास हर जादू टोने का तोड़ होता है| आप उनसे एक बार झांड-फूँक कराये हिन्दू पंडितो के पास हर दोष का निवारण करने के लिए भेज दिया गया| कुछ हिन्दू पंडितों द्वारा महल की सभी बेगमों को दोष से मुक्त कराये जाने के बाद उन्हें राज दरबार में वापस बुलाया गया| उनमें से छ: बेगमों ने महल में वापस आने के लिए मना कर दिया, वें फिर वह कभी महल में वापस नहीं आई| नवाब ने उनका बसेरा महल के बाहर ही करा दिया| वापस आयी बेगमों में एक हज़रत महल भी एक थी, इस घटना से बहुत चोट पहुंची लेकिन वो कुछ भी नहीं कर सकती | उन्हें इस बात की ख़ुशी थी कि बिरजिस कदर के नवाब बनते ही वह राजमाता बन जाएगी| देश में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का बीज बोया जा चुका था, लोग सरकार को उखाड़ फ़ेंकने की योजनाएं बना रहे थे। अंग्रेजों के द्वारा उनके पति पर किए गए अत्याचारों को भी वह भूल नहीं पायी थी| कलकत्ते में उनके पति निर्वासित होने के बाद अभी तक बेगम हज़रत महल ही अवध रियासत के राजकीय मामलों को संभाल रही थी। हज़रत महल ने अपने बेटे बिरजिस क़द्र के साथ लखनऊ में ही रहते हुए उसे लखनऊ का नवाब बनाने का निर्णय किया। उस समय बिरजिस कदर केवल चौदह वर्ष के रहे होंगे इसका मतलब जब उनका जन्म हुआ होगा तो बेगम हज़रत महल की उम्र पंद्रह सोलह वर्ष की ही रही होगी| अंग्रेज़ों के क़ब्ज़े से अपनी रियासत बचाने के लिए उन्होंने चाँदी वाली वरदारी में नवाबज़ादे बिरजिस कदर की ताजपोशी की हुई और जनरल वरकड़ अहमद ने बिरजिस कदर को मुकुट पहनाया| अफसरों ने तलवारों की नजर दिखाई और 21 तोपों की सलामी दी गई| शहर में उत्सव का माहौल था नवाबजादे बिरजिस कदर को अवध के वली शासक नियुक्त किया गया| इसी बीच सैनिक पंचायत और बिरजिस कदर की सरकार के एक समझौता हुआ जिसकी पहली शर्त रखी गई कि वो अवध के स्वतंत्र नवाब नहीं बन सकते यह बात दिल्ली के बादशाह पर निर्भर करती है कि वह स्वतंत्र नवाब बन सकते है कि नहीं| दूसरी शर्त यह रखी गई कि सैनिकों का वेतन दुगना कर दिया जाये और जो रकम अँग्रेजी सरकार में डूब गई वह भी बिरजिस कदर ही भरे| तीसरी शर्त यह रखी गई कि विरगिस नई भर्ती शुरू करें और उन भर्तियों में सैनिक पंचायत की सहमति ले| चौथी शर्त रखी गई कि सैनिक पार्लियामेंट की राज दरबार में सलाह बराबर ली जाये और नवाबो की भर्ती भी उनके अनुसार हो| इस तरह बिरजिस कदर की संरक्षिका बन हज़रत महल शासन करने लगी| बेगम हज़रत महल एक ओजस्वी और तेज से भरपूर महिला थी उसने अपने बेटे के नाम पर लोगों से सहायता मांगी | उसने घूम-घूमकर जगह-जगह जाकर लोगों को संगठित करना शुरू कर दिया, बेगम हज़रत महल के ओजस्वी भाषण से प्रभावित होकर बहुत से राजा-महाराजा उसके साथ मिलकर अँग्रेजी सरकार के साथ बगावत करने के लिए खड़े हो गए | वह हिन्दू-मुस्लिम सभी धर्मो के लोगों का आधार करती थी इसलिए लोगों में भी उसके प्रति आधार का प्रेमभाव था, लोग उसकी बात को महत्व देते थे | सर विलयम के अनुसार बेगम ने अपने बेटे के हितों की रक्षा के लिए उसने अवध के सभी लोगों को उत्तेजित कर दिया था और सभी बाहुबली लोग उसके लिए सदा वफादार बनें रहने की कसमें खा चुके थे | बेगम हज़रत महल अँग्रेज़ो की नीतियों से बहुत शिकायतें थी जिनमें कुछ प्रमुख शिकायतों में से एक यह थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सड़कें बनाने के लिए मंदिरों और मस्जिदों को आकस्मिक रूप से ध्वस्त किया था। विद्रोह के अंतिम दिनों में जारी की गई एक घोषणा में कहा गया था कि अंग्रेज़ सरकार ने धार्मिक आज़ादी की अनुमति देने के दावे का मज़ाक उड़ाया है जैसे सूअरों को खाने और शराब पीने, सूअरों की चर्बी से बनें सुगंधित कारतूस काटने और मिठाई के साथ, सड़कों को बनाने के बहाने मंदिरों और मस्जिदों को ध्वंसित करना, चर्च बनाने के लिए, ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए सड़कों में पादरी भेजने के लिए, अंग्रेज़ी संस्थान स्थापित करने के लिए हिंदू और मुस्लमान को नष्ट करने के लिए, और अंग्रेज़ी विज्ञान सीखने के लिए लोगों को मासिक अनुदान का भुगतान करने के काम | मगर सैनिक पंचायत और उनके शासन में मतभेद होने के कारण जल्द ही उसकी यह कोशिश असफल हो गई | लगातार जागरूक करने के बाद भी लोगों में किसी प्रकार की चेतना नहीं आई इस तरह कई महीने बीत गए पर सेना में किसी प्रकार कोई सक्रियता उत्पन्न नही हुई | उस समय सारे भारत में प्रथम स्वत्रंता संग्राम की आग धधक चुकी थी, सभी छोटे-बडे नगरों और गांवों में हजरत महल की मुक्ति आंदोलन के सैनिक मौजूद थे और अंग्रेजों को हानि पहुचाने में संलग्न थे। उस समय लखनऊ ही एकमात्र ऐसी जगह थी जहां अंग्रेज़ों ने निवास भवन को नहीं छोड़ा | वहां वे अब तक अपनी खोई हुई सत्ता को वापस हासिल नहीं कर पाए थे। लखनऊ के चारों ओर तथा उसके बाहर भी स्वतंत्रता सेनानी फैले हुए थे सबनें मिलकर बेगम हजरत महल को अपने नेता के पद पर प्रतिष्ठित किया। हजरत महल ने मुक्ति संग्राम के सेनानियों के लिए अपना खजाना खोल दिया। उन्होनें जन-धन से क्रांतिकारियों की बहुत सहायता करने लगी साथ ही स्वयं भी रण के मैंदान में क्रांतिकारियों के बीच उपस्थित रही और सबनें एक साथ मिलकर अंग्रेजों से युद्ध किया। लखनऊ में क्रांति का नेतृत्व बेगम हज़रत महल कर रही थी, वह एक रानी थीं और ऐशो आराम की जिन्दगी की अभ्यस्त थीं, लेकिन अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए स्वयं युद्ध के मैंदान में उतरीं। 7 जुलाई 1857 तक अवध का शासन हजरत महल अपने हाथ में लिया| बहादुर शाह और ज़ीनत महल ने उनका साथ दिया और आजादी की घोषणा की। अंग्रेज सैनिक लगातार रेजीडेंसी से अपने साथियों को मुक्त कराने के लिए प्रयासरत रहे, लेकिन भारी विरोध के कारण अंग्रेजों को लखनऊ में सेना भेजना कठिन हो गया था| इधर रेजीडेंसी पर विद्रोहियों द्वारा बराबर हमले किये जा रहे थे लेकिन अंग्रेजों के लिए ये अच्छी बात हुई कि दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार स्थापित हो चुका था| जिससे अँग्रेजी सेनाओ का हौंसला बढ़ा उसके बात तो वें ज़ोर-शोर के साथ विद्रोहियों से निपटने लगे| उधर मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र के बंदी होते ही क्रांतिकारी विद्रोहियों के हौसले कमजोर पड़ने लगे| लखनऊ भी धीरे– धीरे अंग्रेजों के नियंत्रण में आने लगा था| हैवलाक और आउट्रूम की सेनाएं भी लखनऊ पहुँच गयी| बेगम हजरत महल ने कैसरबाग के दरवाजे पर ताले लटकवा दिए| अंग्रेजी सेनाओं ने बेलीग्राद पर अधिकार कर लिया| अपनी सेना का मनोबल कम होते देखकर बेगम ने अपने सिपाहियों में जोश भरते हुए कहा कि अब सब कुछ बलिदान करने का समय आ गया है| अंग्रेजों की सेना का अफसर हैवलाक आलमबाग तक पहुँच चुका है उधर कैम्पवेल भी कुछ और सेनाओ के साथ उससे जा मिलेगा| जिससे हमारे शत्रु की सेना का बल बढ़ेगा लेकिन निडर होकर हमें शत्रुओं का सामना करना है| आलमबाग में बहुत भीड़ इकट्ठी थी वहां जनता के साथ महल के सैनिक, नगर की सुरक्षा के लिए उमड़ पड़े थे| घनघोर बारिश हो रही थी दोनों ओर से तोपों की भीषण मार चल रही थी| बेगम हजरत महल को चैन नहीं था लेकिन वे चारो ओर घूम–घूम कर सरदारों में जोश भर रही थी| उनकी प्रेरणा ने क्रांतिकारी विद्रोहियों में अद्भुत उत्साह का संचार कर दिया था जिससे वे भूख, प्यास सबकुछ भूलकर अपनी एक-एक इंच भूमि के लिए मर– मिटने को तैयार थे| सन 1857-58 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, राजा जयलाल सिंह के नेतृत्व में बेगम हज़रात महल के समर्थकों ने अंग्रेजों की सेना के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और लेकिन अंग्रेजों के पास बड़ी सेना होने के कारण उन्हें पराजय मिली। लखनऊ के एक जमींदार मर्दन सिंह ने हज़रत महल को यह कह कर शरण नहीं दी कि इस तरह अब तुम मेड़क की तरह इधर-उधर उछलती फिरोगी | ऐसी बातें सुनने के लिए हज़रत महल को कितनें साहस की आवश्यकता होगी ये हम सोच ही सकते है| लखनऊ में पराजय के बाद वह अवध के देहातों में चली गईं और वहां भी क्रांति की चिंगारी सुलगाई। हज़रत महल नाना साहेब के साथ मिलकर क्रांति कर रहीं थीं | बाद में शाहजहांपुर पर हमले के बाद वह फ़ैज़ाबाद के मौलवी से भी मिली। मौलवी अहमदशाह ने बड़ी अनन्यता के साथ बेगम का साथ दिया। अहमदशाह एक मौलवी थे जो पहले फैजाबाद में रहते थे। बाद में लखनऊ आकर रहने लगे थे वे बडे ही शूरवीर और अनुभवी थे। 1857 के युद्ध में उन्होंनेजो शौर्य दिखाया था वह उन्हीं के योग्य था। मौलवी अहमदशाह और हजरत महल ने अंग्रेजों का लखनऊ में रहना मुश्किल कर दिया। बेगम हजरत महल ने कई स्थानों पर मौलवी अहमदशाह की बड़ी मदद की उन्होंनेनाना साहब के साथ सम्पर्क कायम रखा। लखनऊ के पतन के बाद भी बेगम के पास कुछ वफ़ादार सैनिक और उनके पुत्र बिरजिस कदर थे, नाना साहब कानपुर में अंग्रेजों का काल बनें हुए थे। हजरत महल के क्रांतिकारी संगठन में अभूतपूर्व क्षमता थी और इसी कारण अवध के ज़मींदार, किसान और सैनिक उनके नेतृत्व में आगे बढ़ते रहे। आलमबाग़ की लड़ाई के दौरान अपने जांबाज़ सिपाहियों की उन्होंने भरपूर हौसला आफ़ज़ाई की और हाथी पर सवार होकर अपने सैनिकों के साथ दिन-रात युद्ध करती रहीं। क्रांतिकारियों के भय के कारण कानपुर और लखनऊ दोनों जगह से अंग्रेज अपनी जान बचाकर भागने लगे थे। यदि समय पर उन्हें नई सहायता न मिलती तो इसमें कोई संदेह नही है कि कानपुर और अवध से अंग्रेजों का सफाया हो जाता और फिर पूरे भारत में अंग्रेजों का सफाया होने में भी देर न लगती। बेगम हज़रत महल के सैनिक दल में तमाम महिलायें शामिल थीं। लखनऊ में बेगम हज़रत महल की महिला सैनिक दल का नेतृत्व रहीमी के हाथों में था, जिसनें फ़ौजी भेष अपनाकर तमाम महिलाओं को तोप और बन्दूक चलाना सिखाया। रहीमी की अगुवाई में इन महिलाओं ने अंग्रेज़ों से जमकर लोहा लिया। लखनऊ की तवायफ़ हैदरीबाई के यहाँ तमाम अंग्रेज़ अफ़सर आते थे और कई बार क्रांतिकारियों के ख़िलाफ़ योजनाओं पर बात किया करते थे। हैदरीबाई ने पेशे से परे अपनी देशभक्ति का परिचय देते हुये इन महत्त्वपूर्ण सूचनाओं को क्रांतिकारियों तक पहुँचाया और बाद में वह भी रहीमी के सैनिक दल में शामिल हो गयी। उनकी सेना में स्त्रियाँ भी मर्दाना भेष में बिल्ली की फुर्ती से लड़ रही थी और उनके बारे में जब तक पता नहीं चलता जब तक वह मर या पकड़ी नहीं जाती थी कि वह मर्दाना भेष में स्त्रियाँ थी| कहते है लखनऊ में एक बुढ़िया एक पुल पर चीथड़े उठाने आई लेकिन बाद में पता चला कि बम का पलीता हाथ में ही रह जाने व बम हाथ में ही फूटने के कारण वो खुद मौत के मुंह में जा पहुंची जो उस पुल को उड़ाने आई थी इस तरह इस युद्ध में बेगम के साथ बहुत सी औरतों ने उसका साथ दिया था | ऊदा देवी की वीरता से अभिभूत होकर काल्विन कैम्बेल ने हैट उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी थी और कहा कि उस महिला का साहस देख कैप्टन वेल्स की आंखें नम हो गईं, तब उसने कहा कि यदि मुझे पता होता कि यह महिला है तो मैं कभी गोली नहीं चलाता। बेगम हजरत महल ने हिन्दू, मुस्लमान सभी को समान भाव से देखा। अपने सिपाहियों का हौसला बढ़ाने के लिये युद्ध के मैंदान में भी चली जाती थी। बेगम ने एक युद्ध में दुश्मन का सामना किया लेकिन उनका दल कमज़ोर पड़ गया। बेगम द्वारा किए गए प्रतिरोध के बावजूद अँग्रेज़ सेनाध्यक्ष अपनी घिरी हुई सेना को निवास भवन से निकाल कर आलम बाग़ तक उसका मार्गरक्षण करने में सफल रहे, जिसके दौरान कुछ अँग्रेज़ अधिकारी मारे गए और कुछ घायल हो गए | हजरत महल ने क्रांतिकारी सेना की एक सभा बुलाई उन्होंनेउस सभा में भाषण देते हुए कहा कि साफ-साफ जवाब दो। तुम लोग अंग्रेजों से लड़ना चाहते हो या नही यदि तुम लोग न लड़ोगे तो मैं लडूंगी। मैं गोली और गोलो पर सो जाऊंगी पर लखनऊ अंग्रेजों को नही दूंगी। बेगम हजरत महल के ओजस्वी भाषण का क्रांतिकारियों पर बहुत प्रभाव पडा। उन्होंने अंग्रेजों से युद्ध करने के संकल्प को फिर दोहराया, बेगम ने फिर से सेना को संगठित किया | बेगम हज़रत महल ने सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रायः बैठकें बुलायीं सभी सैनिकों को बहादुर बनने और आंदोलन के लिए लड़ने के लिए कहा। बेगम ने आंदोलन के लिए पत्र और उसमे कुछ निर्देश लिखे | वह एक हाथी पर सवार होकर युद्ध के मैंदान में पहुँच गईं उनका प्रभाव ऐसा था कि सेनाए भूखे-प्यासे अपनी एक दूसरे की सभी शिकायते भूल कर युद्ध में लड़ती रही और लगातार हर परिस्थिति में संग्राम में डटी रही | आलम बाग़ पर कभी-कभी मौलवी अहमदुल्लाह शाह के नेतृत्व वाली सेना और अन्य समय पर बेगम द्वारा हमला किया गया | मेरठ और दिल्ली में भी अंग्रेज सेना ने क्रांतिकारियों को कुचल दिया था। अंग्रेजों ने मुगल बादशाह बहादुरशाह को गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया था। कही अंग्रेज हजरत महल को बंदी न बना ले इसलिए सभी ने बेगम हजरत महल और उसके नवाब बिरजिस ने लखनऊ छोड़ दिया। कर्नल रामसे के एक पत्र के अनुसार, ऐसे पाँच मार्ग थे जिनके द्वारा विद्रोही पहाड़ियों की सीमा को पार सकते थे। बेगम के पलायन के बाद 1 नवंबर 1858 को महारानी विक्टोरिया ने अपनी घोषणा द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन भारत में समाप्त कर उसे अपने हाथ में ले लिया। घोषणा में कहा गया की रानी सब को उचित सम्मान देगी। परन्तु बेगम ने विक्टोरिया रानी की घोषणा का विरोध किया व उन्होंने जनता को उसकी खामियों से परिचित करवाते हुए कहा गया कि विद्रोहियों और उनके नेताओं को सरकार के विरुद्ध साजिश करने के लिए खुद को सरकार के सामने पेश करे। यह भी कहा गया कि जिन विद्रोहियों ने अंग्रेज़ अधिकारियों की हत्या नहीं की, उनके जीवन को बख्शा जाएगा। यह घोषणा बेगम से लेकर सबसे नीचे पद पर कार्य करने वाले लोगों के लिए लागू थी। बेगम इसके लिए सहमत नहीं हुई और आत्मसमर्पण करने के बजाय उन्होंने सशस्त्र प्रतिशोध के उद्देश्य से नेपाली अधिकारियों से सशस्त्र सहायता की माँग की। अंग्रेज़ अधिकारियों द्वारा पेश की गई इन शर्तों के बावजूद भी बेगम हज़रत महल के प्रति वे सभी लिहाज़ अपनाएं जायेंगेजो उनके एक महिला और एक राज-परिवार की सदस्या होने के रूप में अनुकूल हैं लेकिन बेगम हजरत महल ने उनके सामने आत्म समर्पण नहीं किया| विद्रोह का दमन करने के बाद, इंग्लैंड की रानी ने अंग्रेज़भारत के लोगों को शांत करने के लिए एक उद्धघोषणा जारी की इस पर प्रतिक्रिया के रूप में बेगम हज़रत महल ने एक जवाबी घोषणा जारी की और लोगों को इन वादों पर विश्वास न करने की चेतावनी दी, क्योंकि अंग्रेज़ों की अपरिवर्ती रीति है कि भूल छोटी हो या बड़ी उसे कभी माफ़ नहीं किया जाना चाहिए। लखनऊ से निकल कर हज़रत महल पहले तो रैकवारो के भिटोली गढ़ में रही फिर रैकवारो के मुखिया हरिदत्त सिंह बाढि के गढ़ में क्रांति का केंद्र स्थापित कर वही से 1958 तक सारे सूत्रों का संचालन करती रही| यहीं से राजमाता ने राजेश्वरी विक्टोरिया की सभी घोषणाओ का जवाब दिया| इसके बाद हजरत महल दो तीन दिन तुलसीपुर के अचवागढ़ी में रही, वहां से सोनार पर्वत होते हुए नए कोर्ट चली गई नए कोर्ट में आसुफद्धौला की वरदारी में ठिकी| इसके बाद उन्होंने जब भारत छोड़ नेपाल जाने का फैसला किया तो वह रोने लगी और अपने अंग रक्षकों को वापस भेजते हुए कहा कि अब तो हमारा भी कोई ठिकाना नहीं रहा आप लोग वापस लौट जाओ| ऐसे कहते हुए उन्होंने नेपाल जाने का प्रयत्न किया और नेपाल के राणा को शरण देने के लिए पत्र भेजा। पहले तो नेपाल के राणा जंगबहादुर ने हजरत महल को नेपाल में प्रवेश की अनुमति नही दी और यह कहते हुए मना कर दिया कि आप हमसे किसी प्रकार की मदद कि कोई उम्मीद ना रखे आप अंग्रेजों से मेल कर ले| इस पर मम्मु खाँ ने लिखा की ना हमें आपकी मदद चाहिए और ना ही हम अँग्रेज़ो से मेल ही करेंगे| हज़रत महल ने समझदारी से काम लेते हुए अपने बहुमूल्य रत्न नेपाल के राजा को भेंट स्वरूप भेजे और कहा कि उनका और उनके बेटे का अंग्रेजों से कोई बैर नहीं है| इस पर नेपाल के जनरल बुदरी ने कड़े शब्दों में पत्र लिखा कि यदि आप मेरे क्षेत्र और सीमा के भीतर शरण चाहते हैं तो दोनों उच्च राज्यों के बीच अनुबंधगत संधि के अनुसरण में, गोरखा सैनिक निश्चित रूप से आप पर आक्रमण और युद्ध करेंगे लेकिन बाद में स्थितियों को समझते हुए नेपाली अधिकारियों ने अपना निर्णय बदल दिया और उन्हें कुछ शर्तों और पाँच हज़ार की पेंशन देते हुए नेपाल में शरण दे दी गई और कहा गया कि वह विद्रोही नेताओं के साथ या भारत के लोगों के साथ कोई संपर्क नहीं रखेंगी। इसके बाद उन्होंने नेपाल के काठमांडू में एक छोटा सा घर लेकर साधारण सा जीवन जीने लगी कहा जाता है कि उन्हें नेपाल में बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा एक बार उनका बेटा बीमार पड़ गया लेकिन नेपाल में उनके प्रभारी लेफ्टिनेंट को महसूस हुआ की बेगम की नेपाल से भी पलायन की योजना थी। 1861 में बिरजिस कदर की दिल्ली के क्रांति दलीय के शहजादे मिर्जा दाऊद बेग की लड़की से कर दी जो खुद भी एक शरणार्थी के तौर पर नेपाल में अपना जीवनयापन कर रहे थे| हज़रत महल ने अपनी बहू का ससुराल का नाम महताब आरा बेगम रखा | कहा जाता है कि बेगम ने भारत आने की बहुत कोशिश की लेकिन आदेश जारी किए गए, जिसके अंतर्गत अंग्रेज़ भारत में प्रवेश करने के लिए बिरजिस क़द्र या उनकी माँ द्वारा किए गए किसी भी अनुरोध पर विचार नहीं किया जाएगा। भारत सरकार ने एक शर्त रखी कि यदि वे अंग्रेज़ सरकार के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो उन्हें सरकार की ओर से कोई सहायता या भत्ता नहीं मिलेगा और वे जिस भी जिले में रहेंगे उन्हें वहां के मजिस्ट्रेट की निगरानी में रहना होगा। इस वजह से बेगम हज़रत महल भारत नहीं आ सकीं और उन्हें स्थायी रूप से नेपाल में रहना पड़ा। वे काठमांडू में कितनें दिन रही कुछ कहा नही जा सकता। पर यह सच है कि उन्होंने काठमांडू में ही अपने जीवन की अंतिम सांस ली और वहीं उनका निधन हो गया। 1879 में उनकी मृत्यु के बाद उन्हें काठमांडू के जामा मस्जिद के मैं दानों में एक अज्ञात क़ब्र में दफ़नाया गया। उनकी मृत्यु के बाद 1893 में नेपाल में गरीबी में गुजर बसर करने के बाद बिरजिस कदर ने मक्का जाने का विचार किया और जिसके लिए उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से स्वीकृति मांगी | रानी विक्टोरिया 1887 की जयंती के अवसर पर अंग्रेज़ सरकार ने बिरजिस क़द्र को माफ़ कर दिया और उन्हें भारत लौटने की इजाज़त दे दी और वे अपने तीन बच्चों के साथ भारत वापस लौटे | इसके बात कुछ समय बाद ही बिरजिस कदर के परिवार वालों ने ही उनके बेगम सहित दो बच्चों को जहर देकर मार डाला | इस बच्ची इस वजह से बच गई कि उसे खाने का स्वाद अच्छा नहीं लगा तो वह बीच में खाना छोड़ कर चली गई थी| आरंभ में देव विधान के अनुसार उन्हें जीवनभर कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और पूरी जिन्दगी संघर्ष करते-करते ही इस जीवन से विदा लेकर चली गई | इतिहास कारों के अनुसार उसके अंतिम युद्ध में देवबख्श, तुलसीपुर की रानी, नाना साहब का दल, राणा जी और हुसैन निज़ाम जैसे देव पुरुष साथ थे जिनके प्रति हमारे मन में खुद–ब-खुद ही आभार व्यक्त करने के भाव आ जाते है फिर भी अपनी हार को जीत में नहीं बदल सकी| कितनी महान हस्तियों ने इस भारत भूमि पर जन्म लिया और हज़ार कठिनाइयो और परिस्थितियों का सामना करते हुए वे कितनें बड़े-बड़े कामो को अंजाम दे गए |</p>
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<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>रानी अच्छन कुमारीtag:www.openbooksonline.com,2020-07-13:5170231:BlogPost:10122392020-07-13T06:39:42.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p> <span>भारतवर्ष के इतिहास में पृथ्वीराज चौहान को अपने समय का सबसे बड़ा योद्धा माना जाता है</span>| <span>जिसकी वीरता के किस्से उस समय पूरे भारत में गूंज रहे थे</span>| <span>पृथ्वीराज चौहान अजमेर राज्य का स्वामी बना तो उसके चाचा पृथ्वीराज को चौहान राज्य का वास्तविक अधिकारी नहीं मानते थे। इसी कारण पृथ्वीराज के चाचा अपरगांग्य ने पृथ्वीराज के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तो पृथ्वीराज ने अपने चाचा को परास्त कर उसकी हत्या कर दी। इस पर पृथ्वीराज के दूसरे चाचा व अपरगांग्य के छोटे भाई नागार्जुन ने…</span></p>
<p> <span>भारतवर्ष के इतिहास में पृथ्वीराज चौहान को अपने समय का सबसे बड़ा योद्धा माना जाता है</span>| <span>जिसकी वीरता के किस्से उस समय पूरे भारत में गूंज रहे थे</span>| <span>पृथ्वीराज चौहान अजमेर राज्य का स्वामी बना तो उसके चाचा पृथ्वीराज को चौहान राज्य का वास्तविक अधिकारी नहीं मानते थे। इसी कारण पृथ्वीराज के चाचा अपरगांग्य ने पृथ्वीराज के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तो पृथ्वीराज ने अपने चाचा को परास्त कर उसकी हत्या कर दी। इस पर पृथ्वीराज के दूसरे चाचा व अपरगांग्य के छोटे भाई नागार्जुन ने पृथ्वीराज के विरुद्ध विद्रोह करके गुड़गाँव पर कब्जा कर लिया।</span> 1178 <span>ई. में हुए गुड़गाँव के युद्ध में पृथ्वीराज ने अपने मंत्री कैमास की सहायता से इस विद्रोह का सफलतापूर्वक दमन कर दिया। पृथ्वीराज ने</span> 1182 <span>ई. में भण्डानकों के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करके उनका दमन कर दिया। इन विजयों के बाद पृथ्वीराज तृतीय ने दिक्विजय की नीति अपनाते हुए पड़ोसी राज्यों के ऊपर आक्रमण करने लगा और उनको जीतकर अपने राज्य में मिलाने लगा। चंदेलों का दमन महोबा विजय (</span>1182 <span>ई.) एक बार पृथ्वीराज के सैनिक दिल्ली से युद्ध करके लौट रहे थे</span>, <span>रास्ते में महोबा राज्य में उसके कुछ जख्मी सिपाहियों को चंदेल राजा ने मरवा दिया। उस समय महोबा राज्य का शासक परमदी देव चंदेल था। अपने सैनिकों की हत्या का बदला लेने के लिए पृथ्वीराज एक विशाल सेना लेकर महोबा विजय के लिए निकल पड़ा।</span> 1182 <span>ई. में पृथ्वीराज की सेनाओं ने नरायन के स्थान पर अपना डेरा डाला। यह देखकर परमदी देव घबरा गया और उसने शीघ्र ही अपने पुराने सेनानायक आल्हा और उदल को राज्य की रक्षा के लिए वापस बुलाया। जब दोनों आए तो दोनों दलों के मध्य तुमुल का युद्ध हुआ। इस युद्ध में उदल वीरगति को प्राप्त हो गए उसके बदले में जब आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को मारने ही वाला था तो किसी सन्यासी ने उसे ऐसा करने के लिए रोक दिया</span>| <span>किवदंतियों के अनुसार आल्हा आज भी जिंदा है और वह मध्य प्रदेश के वनो में स्थिति किसी शिव लिंग की पुजा करने आज भी आता है</span>| <span>इस तरह इस युद्ध में पृथ्वीराज तृतीय की जीत हुई। तराइन के प्रथम युद्ध के बाद तो उसके सामने टिकने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी</span>| <span>यही कारण रहा होगा कि धीरे-धीरे उसके व्यक्तित्व में दोष आ गया और वह वीरता व जीत के नशे में झूम रहा था जब उसका सबसे प्रबल शत्रु हार कर सही से वापस लौटा भी नहीं था</span>| <span>कुछ उसी के सेना के विश्वासघातियों के द्वारा व मोहम्मद गोरी की कूटनीतिज्ञ चालों की वजह से तराइन के दूसरे युद्ध में हार का सामना करना पड़ा</span>| <span>भारत में तराइन के दूसरे युद्ध के साथ ही गुलामी की शुरुआत हो गई</span>| <span>अपने शत्रु को बार-बार पराजित करने के बाद भी उसे हर बार छोड़ देना उसके जीवन की सबसे भूल साबित हुई</span>| <span>पृथ्वी राज चौहान की इसी वीरता के किस्से सुनकर जाने कितनी राजकुमारियों के दिल धड़कते होंगे</span>| <span>इसी कारण पृथ्वीराज चौहान की बहुत सी रानियाँ का जिक्र सुना जाता है</span>| <span>तराइन के युद्ध में जब वह शत्रु सेना द्वारा पराजित हुआ और उसके शत्रु द्वारा कैद किए जाने का समाचार उसकी रानियों को पता लगा तो युद्ध में बची हुई सेना के साथ राजा पृथ्वीराज चौहान को बचाने को प्रयास करने वाली एक ही रानी थी अच्छन कुमारी</span>| <span>कहा जाता है एक बार तो विजय प्राप्त करने की कगार पर पहुँच ही गई थे शत्रु सैनिकों ने उस पर धोखे से वार किया और वह अपनी जीती बाजी हार गई</span>| <span> </span></p>
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<p> अच्छन कुमारी चंद्रावती के राजा जयतसी परमार की पुत्री थी। <span>कहा जाता है</span> ऐसा कोई गुण नहीं था, जो अच्छन में <span>नहीं था</span>। वह बडी सुंदर, चतुर, धर्मात्मा और सुशील स्त्री थी। अभी जब वह छोटी ही थी, एक दिन <span>हँसी-हँसी</span> में उनके पिता ने पूछा बेटी तू किससे अपना विवाह करना चाहती है?। अच्छन ने कहा– <span>मैं</span> तो अजमेर के राजकुमार पृथ्वीराज से विवाह करूंगी। पृथ्वीराज चौहान अजमेर के राजा सोमेश्वर सिहं चौहान का पुत्र था। वह अपनी वीरता के लिए विख्यात था। जयतसी ने मुस्करा कर कहा अच्छा परंतु यदि उसने अस्वीकार कर दिया तो क्या होगा। अच्छन कुमारी बोली क्या कोई राजकुमार भी किसी राजपुत्री की बात टाल देगा। यदि विवाह <span>नहीं</span> हुआ तो <span>मैं</span> जीवनभर कुवांरी <span>ही</span> रहूंगी। जयतसी ने तुरंत ही एक भाट के हाथ पृथ्वीराज के पास एक नारियल भेजा। उस समय छोटी अवस्था में होने के कारण विवाह नहीं हुआ।</p>
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<p> उस समय गुजरात <span>में</span> राजा भोला भीमदेव जो अपनी वीरता, शूरता और धन के लिए जगत विख्यात था, का शासन था। जब उसने सुना कि अच्छन कुमारी बडी सुंदर है तो उसने अपने दूत को उनका हाल जानने के लिए भेजा। थोडे दिनों बाद लौटकर आए दूत से भोला भीमदेव ने पूछा– कहो क्या देखा? दूत ने कहा महाराज, बस कुछ पूछिए नहीं। जिसे देखने के लिए आपने हमें भेजा था, वह तो ऐसी सुंदर है कि उसके सामने चंद्रमा भी लज्जाता है। उसकी आंखों को देखकर कमल अपनी पंखुड़ियां समेट लेता है। ऐसी सुंदर कन्या संसार में उनके अतिरिक्त दूसरी कोई न होगी। वह तो इस योग्य है कि आपकी पटरानी बने। यह सुनकर भीमदेव <span>बड़ा</span> प्रसन्न हुआ और अपने मंत्री अमरसिंह को जयतसी के पास विवाह का संदेश लेकर भेजा। जयतसी ने बडे आदरपूर्वक उसका अतिथि सत्कार किया और कुशलक्षेम पूछने के पश्चात असल बात आरंभ हुई। अमरसिंह ने कहा महाराज, गुजरात नरेश चाहते है कि आपकी कन्या अच्छन कुमारी <span>उनकी</span> पटरानी <span>बने</span>। अच्छन कुमारी <span>के पिता ने कहा कि</span> भीमदेव से संबंध करने में मेरे कुल का मान होता, परंतु अब <span>मैं</span> क्या कर सकता हूँ <span>मेरी पुत्री ने पहले ही पृथ्वी राज को अपना वर चुन लिया है</span>| अब तो जो कुछ होना था, हो गया, अमरसिंह ने कहा <span>इसे</span> मना करने का परिणाम यह होगा कि सहस्रों प्राणियों का वध हो, रूधिर की नदियां बहे, आपकी चंद्रावती भी नष्ट की जाए और व्यर्थ की <span>लड़ाई</span> हो। राजा बोला <span>मैं</span> तुम्हें इसका उत्तर क्या दू? तुम भीमदेव से कह दो कि जब कन्या की मंगनी हो चुकी <span>है</span> तो फिर दूसरी जगह मंगनी कैसे हो सकती है। <span>अब</span> बात तो बदली नही जा सकती। यदि ना समझी के कारण कोई वैर भाव करे तो फिर <span>मैं</span> भी तो राजपूत <span>हूँ</span> और तलवार चलाना <span>तो मैं भी</span> जानता हूँ। <span>मैं</span> अपनी रक्षा कर लूंगा, परंतु मैं यह कभी भी नहीं चाहूंगा कि किसी <span>के साथ भी किसी भी</span> प्रकार का अन्याय हो, चाहे कुछ भी क्यों न हो। भीमदेव के संदेश का उत्तर यह है कि परमार की कन्या की मंगनी एक जगह हो चुकी है, <span>अ</span>ब हम किसी भांति <span>इस</span> बात <span>को</span> नहीं टाल सकते।</p>
<p><br/> अमरसिंह, <span>राजा जयतसी की बात सुनकर वापस</span> अपनी राजधानी को लौट आया। जब भीमदेव ने सुना कि उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई, तो उसने उसी समय से युद्ध की सामग्री इकट्ठी करनी आरंभ कर दी| चंद्रावती <span>उस समय की</span> छोटी सी रियासत थी। जयतसी के पास इतनी सेना कहा जो भीमदेव से युद्ध करे उसने सोमेश्वर सिंह को सहायता के लिए बुला भेजा। जिस समय भीमदेव ने चंद्रावती पर आक्रमण किया, उसी समय सोमेश्वर को खबर मिली कि बादशाह शहाबुद्दीन एक बडी सेना लेकर भारत पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है <span>व</span> खैबर के दर्रे से आगे बढ़ आया है। अब एक ओर तो भारतवर्ष की रक्षा का, दूसरी ओर पुत्रवधू के मान की रक्षा का विचार था। इन दोनों विचारों ने सोमेश्वर को बडे संशय <span>में</span> डाल दिया। अंत में बहुत विचार करने के पश्चात उन्होंने यह निश्चय किया कि कुल का मान रखना अत्यावश्यक है, परंतु शहाबुद्दीन के आक्रमण की ओर से भी वह बेसुध नहीं था। वे स्वयं तो सेना लेकर जयतसी की सहायता को गए और अजमेर <span>में</span> हर प्रकार की युद्ध सामग्री इकट्ठी करने की आज्ञा दे दी। पृथ्वीराज उस समय दिल्ली का मुख्य अधिकारी था उसे चंद्रावती में <span>अपने</span> पिता के जाने की खबर मिली। वह बैठा हुआ अपने मित्रों के साथ विचार कर रहा था कि क्या करना चाहिए कि इतने में एक मारवाड़ी ब्राह्मण आया उसने राजकुमार <span>को एक</span> पत्र दिया। पृथ्वीराज ने पत्र पढ़कर सबसे कहा महाराज सोमेश्वर जयतसी परमार की सहायता के लिए चंद्रावती गए है। इधर शहाबुद्दीन गौरी भी आक्रमण की नीयत से आ रहा है। पिताजी की आज्ञा है कि <span>मैं</span> अजमेर की रक्षा करूं, परंतु इधर दूसरी ओर परमार राजकुमारी मुझे अपनी अपनी रक्षा के लिए बुलाती है। वह मेरी स्त्री है और इस सब <span>लड़ाई</span> का कारण भी वहीं है। पत्र को सुनकर सब चित्र की तरह बिल्कुल सुन्न हो गए। पृथ्वीराज ने कहा वीरों अब सोच विचार का समय नहीं है, स्त्री की सहायता को न जाना अति कायरता का काम होगा। <span>मैं</span> चंद्र और रामराव को लेकर अचलगढ़ जाता हूँ, तुम जाकर अजमेर की रक्षा करो। हमारे पास सेना बहुत है, म्लेच्छों से भली प्रकार युद्ध कर सकेंगे। बाकी कुछ सेना दिल्ली में ही रहने दो, ताकि वह पांचाल की हद पर मुकाबला कर सके। जब तक तुम अजमेर पहुंचोगे, यदि ईश्वर ने चाहा तो <span>मैं</span> भी अच्छन को लेकर आ जाऊंगा।</p>
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<p>सांयकाल का समय था। सूर्यदेव अपनी पीली लाल किरणों से तमाम आकाश को सुशोभित कर रहे थे। पक्षी गण झुंड ईश्वर की प्रार्थना के गीत गाते हुए बसेरा करने वापस जा रहे थे। बस यह एक ऐसा समय था, जिसमें उदास से उदास प्राणी को भी एक बार तो अवश्य चेतना आ जाए। ऐसे ही समय राजकुमारी का मन बडी देर तक इधर उधर इन रमणीय स्थानों में भ्रमण करता रहा, कि इतने में सूर्यदेव ने अपना मुख ओट <span>में</span> कर लिया और चंद्रदेव ने आकर उस स्थल को और भी रमणीय कर दिया। <span>मैं </span> दान, पहाड, झरने आदि सब साफ साफ बडे सुदर लगते थे कि इतने में आबू के अग्निकुंड की ओर से तीन सवार किले की ओर आते दिखाई दिए। वे सिधे किले के फाटक पर पहुंचे। उन्हें देखकर सब अति प्रसन्न हुए, क्योंकि ये वही लोग थे, जिन्हें बुलाने के लिए आदमी भेजा गया था। सवार घोडों से उतरे और दास दासियों ने चारों ओर से आकर उन्हें घेर लिया। अच्छन कुमारी का यह पहला ही अवसर था कि उन्होंने अपने प्राणाधार पति के दर्शन किए। पृथ्वीराज ने पूछा तुम्हारी बाई कहा है? दासियों ने कहा वे ऊपर बैठी है, आप चले जाइए। जब राजकुमारी ने देखा कि राजकुमार ऊपर ही आ रहे है तो वह स्वयं नीचे उतरी और दासियों को आज्ञा दी कि राजकुमार के स्नान के लिए जल लाएं। तुरंत ही जल आदि आ गया। राजकुमार और दोनों मित्रों ने स्नान करके भोजन किया। अब दासियां पृथ्वीराज को अच्छन के पास ले आई। वह लाज के मारे चुप होकर बैठ गई और सहेलियों के कहने पर भी वैसे ही बैठी रही। अंत <span>में</span> सहेलियों ने कहा महाराज, हम जाती है, आप बाईजी से बातचीत करें। उनके चले जाने पर पृथ्वीराज ने कहा जिस समय आपका पत्र पहुंचा, उसी समय <span>मैं वहाँ</span> से चल दिया। अब तो अच्छन कुमारी को उत्तर देना आवश्यक हो गया। उन्होंने मुस्कराकर कहा आपने बडी दया की, आपको राह में <span>बड़ा</span> कष्ट हुआ होगा। इसका कारण आपकी यह दासी है। राजकुमार बोला तुम्हें देखकर मेरी सब थकावट जाती रही। इसके बाद और बहुत सी बाते होती रही। जिस समय पृथ्वीराज अचलगढ़ में था, उसी समय चंद्रावती पर आक्रमण किया। <span>भीम देव बहुत ही शक्तिशाली व ताकतवर राजा था</span>, <span>उसने कुछ ही समय में चंद्रावती की सेना को छिन्न भिन्न कर दिया</span>| <span>पृथ्वीराज चौहान और उनके पिता की वीरता के सामने वह जीत नहीं सका और उसे खाली हाथ लौटना पड़ा</span>| <span>इस युद्ध में</span> सोमेश्वर सिंह चौहान चंद्रावती में भीमदेव के हाथों मारा गया था। सवेरा होते ही अच्छन कुमारी अपनी दो सखियों सहित घोडों पर सवार हुई। तीनों क्षत्रिय भी अपने <span>घोड़ो</span> पर <span>चढ़े</span> और फिर ये सब के सब अजमेर की ओर चल दिए और <span>वहाँ</span> पहुंचकर अच्छन को सहेलियों सहित महल <span>में</span> भेज दिया गया। अब पृथ्वीराज ने अपनी सेना को ठीक करना आरंभ किया और फिर शहाबुद्दीन से <span>लड़ाई</span> का डंका बजा। तारावडी के <span>मैं</span>दान में खूब लोहा बजा, जिस<span>में</span> पृथ्वीराज की विजय हुई और शहाबुद्दीन को पराजित होना पडा। <span>इस युद्ध के उपरांत</span> पृथ्वीराज चौहान ने <span>अपने जीवन की सबसे बड़ी</span> भूल की कि ऐसे बलवान शत्रु पर अधिकार पाकर उसे जिंदा छोड दिया। <span>पिता की मृत्यु के उपरांत</span> पृथ्वीराज का राजतिलक कर दिया गया और राजपुरोहित ने उसके साथ अच्छन का विवाह भी करा दिया। अच्छन कुमारी राजकाज को भली भांति समझती थी। पृथ्वीराज सदा उनकी सम्मति लेकर काम करता था। अच्छन कुमारी <span>में</span> एक यह <span>बड़ा</span> अच्छा गुण था कि राजा की <span>ऊँच-</span>नीच से परिचित रहती थी। भला कोई ऐसा काम हो तो जाए, जिसकी उसे खबर न मिले।</p>
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<p>कुछ दिनों बाद <span>राजा</span> पृथ्वीराज ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। उस समय <span>पूरे</span> भारतखंड <span>में राजा पृथ्वीराज</span> से ज्यादा वीर राजा कोई नहीं था। शहाबुद्दीन हिंदुस्तान को जीतना चाहता था, परंतु अवसर न पाता था। वह कई बार पराजित हुआ, परंतु धैर्य के साथ अवसर का इंतजार करता रहा। पृथ्वीराज <span>भी</span> अपने बल के मद में चूर था, उधर कन्नौज नरेश जयचंद संयोगिता के स्वयंवर में पराजित होने के उनका शत्रु बन गया। स्वंयवर की <span>लड़ाई</span> में चुनिंदा सरदार मारे गए, केवल दो चार शेष रहे थे। सन् 1191 में शहाबुद्दीन फिर चढ़ आया, इस <span>लड़ाई</span> में उसे फिर पराजित होना पड़ा| राजपूतों ने समझा कि अब वह मुकाबले को <span>ना</span> आएगा, उनकी कुछ सेना तो दिल्ली चली आई और कुछ वीर जय मनाते रहे। एक सरदार विजयसिंह का शहाबुद्दीन से मेल था जब सब लोग खुशी मना रहे थे, वह अपने राजपूतों को लेकर यवनों से जा मिला। <span>विजय सिंह</span> तथा जयचंद ने <span>अपनी सेना देते हुए</span> शहाबुद्दीन को फिर मुकाबले के लिए तैयार किया। <span>गौरी इस बार दुगने उत्साह से पृथ्वीराज पर</span> आक्रमण किया| <span>युद्ध में वीरता से पृथ्वीराज ने शत्रु की हालत खराब कर दी थी लेकिन</span> विजयसिंह की मक्कारी से पृथ्वीराज जख्मी होकर गिर <span>कर</span> बेहोश <span>हो गया और गौरी की सेना द्वारा पकड़ लिया गया</span>| </p>
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<p>पृथ्वीराज <span>जब</span> रण<span>क्षेत्र को जीतने के लिए गए तो उन</span>की पुत्री ऊषावती का स्वास्थ्य बिगडा <span>रानी पूरी रात</span> उसकी <span>पलंग से लग कर</span> बैठी रही। <span>महल के बा</span>हर बड़ा कोलाहल सुना तो बडी चकित हुई। इतने <span>में</span> दो क्षत्रिय हांफते हुए आएं और कहने लगे भागों-भागों अपना धर्म बचा<span>ओं</span>, यवनों की जय हुई, वे राजभवन को लूटने आ रहे है। रानी बोली महाराज कहाँ है? <span>सैनिकों ने कहा कि महाराज को</span> रणभूमि में <span>हमने बेहोश पड़े</span> देखा था। यह खबर सुनकर ऊषावती घबरा गई और पूछने लगी समर कल्याणादि कहाँ है? सिपाहियों ने कहा वे सब मारे गए। यह सुनना था कि वह चिल्ला उठी नाथ आप अग्नि <span>में</span> आहूति हो गए। यह कहकर वह बेसुध हो गई और फिर न ऊठी। सिपाही कहने लगे रानी जी, जल्दी नगर को चलिए, शत्रु लोग चले आ रहे है। कहीं ऐसा न हो, वे हमारा धर्म भी नष्ट कर दे। यह सुनकर रानी को होश आया। उन्होंने सुंदर वस्त्र भूषण उतार दिए, सर की जटाएँ खोल ली, और जैसे कोई बावली बातें करती है| <span>वह अपना होश खो बैठी</span>, <span>कहने लगी कि</span> मुझे अब क्या चिंता है, किसका डर है, जिसका था वो तो गया। सब धन लक्ष्मी लुट गई। अब <span>मैं</span> भागकर अपने को क्यों बचाऊं, चलो| जल्दी चिता <span>बनाओं</span>। यवन, म्लेच्छा मेरा क्या करेंगे। जिसे अपनी जान अपनी जान प्यारी हो, वह भाग जाए, <span>मैं</span> तो <span>नहीं भागूंगी</span>, दिल्लीपति मर गया। चांडाल शहाबुद्दीन ने मार डाला, महाराज ने उसे छोड दिया था। <span>उस</span> दुष्ट को तनिक भी दया <span>ना</span> आई, <span>अब</span> चलो जल्दी करो। राजा का शरीर अभी ठंडा नहीं हुआ होगा। चिता बनाओ, <span>मैं भी</span> राजा के साथ स्वर्ग जाऊंगी। ये बातें सुनकर लोगों ने चिता बना दी और ऊषावती का मृतक शरीर उस पर रख दिया।</p>
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<p>रानी भी चंदन लगा, गले <span>में</span> श्वेत पुष्पों का हार डाल, चिता की परिक्रमा कर बिल्कुल तैयार हो रही थी कि एक व्यक्ति <span>घोड़ा</span> दौड़ाता हुआ उधर आया। यह पृथ्वीराज का सेनापति था। वह तुरंत ही रानी के पांव से लिपट गया। अच्छन बोली बलदेव क्या कहते हो? <span>सैनिक बोला हाँ महारानी मैं महाराज का ही संदेशा लाया हूँ</span>, <span>रानी हैरान होते हुए बोली हमने तो सुना था कि महाराज रणभूमि में मारे गए</span>, <span>आखिर तुम किन महाराज का संदेशा लाये हो</span>| <span>सैनिक ने नहीं महारानी महाराज अभी तक जीवित है लेकिन वे मोहम्मद गोरी की कैद में है</span>| <span>हमारे ही एक विश्वासघाती की वजह से वें आज कैद में है</span> | <span>रणभूमि में युद्ध करते विजय सिंह से महाराज के साथ छल किया जिसकी वजह से महाराज मूर्छित होकर रणभूमि में गिर पड़े अधिकतर सैनिकों ने महाराज को गिरते हुए यही सोचा कि महाराज वीर गति को प्राप्त हो लेकिन यह पूरा सच नहीं है</span>| <span>बेहोशी की हालत में ही शत्रु सैनिकों ने महाराज को कैद कर लिया है</span>| <span>महारानी ने रोष में आते हुए कहा कि तुम</span> यह संदेश सुनाने आए हो <span>शर्म नहीं आती तुम्हें ऐसे</span> सच्चे क्षत्रिय हो <span>तुम</span>, तुम्हारी माता धन्य है कि राजा कैद में है और तुम <span>उनके कैद होने का</span> संदेश सुनाने आए हो और वो भी मुझे? <span>महारानी ने अपनी सभी</span> दासियों <span>को संबोधित करते हुए कहा</span> देखो, यह <span>एक</span> क्षत्रिय का पुत्र है, <span>जिसे महाराज</span> का दाहिना हाथ <span>कहा जाता है</span> जो राजा का <span>को शत्रु दल में छोड़ कर</span> अपने <span>क्षत्रिय</span> धर्म से मुंह मोडकर मुझे संदेश सुनाने आया है। <span>कहाँ गई इसकी</span> राजभक्ति, देशभक्ति, धर्मभक्ति <span>या</span> क्षत्रिय धर्म <span>से</span> नष्ट <span>होते ही वह सब भी नष्ट हो गई</span>। अब <span>यह</span> तो <span>केवल एक</span> संदेश सुनाने वाले <span>बन</span> रह गए है, धन्य है <span>ये और धन्य है इस</span> वीर क्षत्रिय तेरी जुबान। <span>धन्य है</span> तेरा <span>घोड़ा</span> और धन्य है तेरी तलवार। <span>आपने क्या सोचा यह सुनकर मैं और तेरी स्त्रियाँ</span> प्रसन्न होगी? <span>क्या यह सुनकर तेरी वीर माता के हृदय को आघात नहीं होगा</span>, <span>लज्जा नहीं आई महाराज को रणक्षेत्र में असहाय छोड़ते हुए उनका संदेश सुनाने के लिए आने के लिए तुम्हें</span>| <span>जाओं दूर हट जाओं</span>, <span>दूर हो जाओं मेरे</span> सामने से, मुझे <span>अपना</span> मुंह मत दिखा<span>ओं</span>। <span>मैं महाराज</span> दिल्लीपति की सच्ची प्रजा हूँ, <span>मैं आज</span> राजपरायण होना चाहती हूँ। तुम सिंह से श्रृंगाल बन गए <span>व</span> रणभूमि से भाग आए और राजा की सती स्त्री को संदेश सुना<span>ने आ गए</span>| <span>क्या तुमने</span> किसी क्षत्राणी का दूध नहीं पिया <span>जो तुम्हें</span> अपने देश की स्वतंत्रता प्यारी <span>ना रही</span>। <span>आज तुम्हीं</span> जैसे लोग तो कुल, देश राज के कलंक होते है <span>जा चला जा</span> मेरे सामने से। <span>मैं</span> अब भी <span>एक</span> क्षत्रिय की पुत्री हूँ, चाहे सूर्य जरा सी देर में छिन्न-भिन्न होकर भूमि पर गिर पडे, परंतु <span>मैं</span> अपने धर्म से न<span>हीं</span> गिरूँगी।</p>
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<p>मैं राज राजेश्वरी हूँ, जा भाग जा <span>यहाँ से</span> फिर <span>रोष में आते हुए महारानी ने</span> लोगों से कहा <span>छीन लो इसकी</span> तलवार। तलवार <span>हाथ में आते ही वह एक</span> छलांग मार<span>कर</span> बलदेव के <span>घोड़े पर जा बैठी</span>, उस समय <span>क्रोध में धड़कती अग्नि सी प्रतीत हो रही थी जिसका वर्णन करना भी मुश्किल है उसकी</span> शोभा देखने योग्य थी। हाथ में नंगी तलवार, केश खुले हुए, माथे पर चंदन लगा हुआ और निडर <span>होकर घोड़े</span> पर बैठी <span>हुई</span>। <span>महारानी ने युद्ध की हुंकार भरते हुए अपने सैनिकों सहित</span> सेवकों से कहा प्रजा का धर्म है, राजा की रक्षा करें। <span>आज मैं</span> अकेली <span>ही</span> शत्रुओं से <span>लड़</span>कर <span>महाराज को छुड़ा कर</span> लाऊंगी। <span>मेरा</span> शरीर राजा का है और राजा के काम <span>मैं</span> ही कटकर गिरेगा। <span>महारानी की उत्साह और जोश को देखकर बचे हुए</span> राजपूत <span>सैनिकों में जोश आ गया सभी महारानी के सुर में सुर मिलाते हुए बोले कि</span> माता जब तक जान <span>में</span> जान है <span>हम</span> तब तक लडेंगे, मरेगें, कटेंगे और काटेंगे। <span>महारानी युद्ध की हुंकार भरते हुए</span> शत्रु <span>सेना पर</span> टूट <span>पड़ी वीर राजपूत सैनिकों की सेना के एक टुकड़ी अभी भी महारानी के थी</span>| <span>मोहम्मद गोरी के सैनिक कुतुबूद्दीन ऐबक के नेतृत्व में</span> राजभवन लूटने <span>के लिए आ रहे थे</span>। <span>महारानी पर ने युद्ध में जाते ही</span> प्रलय मचा दी <span>उसने शत्रु सेना के सैनिकों को</span> गाजर-मूली की तरह काट<span>ने शुरू कर दिये</span>। शहाबुद्दीन <span>मोहम्मद गोरी</span> की <span>सेना की टुकड़ी रानी के इस रूप को देख डर कर भागने लगी किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि युद्ध में अचानक एक नारी रणचंडी का रूप बनाकर कहाँ से आ गई</span>| <span>महारानी इतने भयानक तरीके से काट रही थी कि शत्रु सेना थर्रा उठी</span>। शहाबुद्दीन <span>मोहम्मद गोरी</span> की सेना ने <span>रानी को चारों ओर से</span> घेर लिया और उन पर <span>बाणों की वर्षा कर दी महारानी बहुत देर कर बाणों को काटते हुए बचती रही तभी एक बाण उनकी गर्दन में लगा</span>, <span>घायल होने पर भी रानी लड़ती रही लगातार हो रही बाणों की वर्षा से रानी का शरीर छलनी हो गया और मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गई</span>| शहाबुद्दीन <span>मोहम्मद गोरी</span> ने बहुत <span>कोशिश</span> कि <span>इस बहादुर</span> रानी का मृत शरीर <span>उसके सैनिकों को प्राप्त हो जाये</span> परंतु <span>रानी के</span> वीर <span>सैनिकों ने उनका शरीर पहले से ही सती के लिए सजी</span> चिता पर पहुंचा<span>कर उसमे अग्नि प्रज्वलित कर दी</span>| <span>बचे सैनिकों ने भी वीरता से लड़ते-लड़ते हुए अपनी मातृभूमि की रक्षा में अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया</span>। <span>वीर सैनिकों के स्त्रियाँ भी रानी अच्छन कुमारी की</span> चिता <span>की परिक्रमा करके अपने अपने पतियों की</span> चिता <span>में</span> बैठ गई और सती हो गई। शहाबुद्दीन <span>मोहम्मद गोरी ने</span> राजा <span>पृथ्वीराज चौहान</span> को कैद कर <span>लिया</span>| <span>इसके बाद तो भारत माता के पैरों में एक लंबे समय के लिए गुलामी की बेड़ियाँ बंध गई</span>| <span>अगर देखा जाये तो कहीं ना कहीं इसका दोष राजा पृथ्वी राज चौहान को ही जाता है क्योंकि अगर वह मोहम्मद गोरी को सत्रह बार जिंदा नहीं छोड़ता तो शायद</span> भारत <span>माता कभी गुलाम नहीं होती लेकिन पृथ्वीराज चौहान के शक्ति के गुरूर ने गुलामी के शत्रु द्वारा किए गए प्रयास को साकार रूप दे दिया</span>| <span>को छिन्न-भिन्न कर दिया गया</span>। <span>कुछ दिनों बाद मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को मार दिया और पूरे भारत पर अपनी जीत का परचम फहरा दिया</span>| <span>राजा पृथ्वीराज चौहान की इस रानी ने अपने पति को बचाने की रक्षा की कोशिश में वीरगति को पाते ही भारत के इतिहास में वीर महिलाओं की श्रेणी में अपना नाम दर्ज करा दिया</span>| <span>आज भी लोग उनके सम्मान गीत गाते और उनकी वीरता का गुणगान करते है</span>|</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>वीरांगना झलकारी देवीtag:www.openbooksonline.com,2020-06-25:5170231:BlogPost:10106832020-06-25T11:00:00.000ZPHOOL SINGHhttp://www.openbooksonline.com/profile/PHOOLSINGH
<p>प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मी बाई की के साथ झलकारी बाई का नाम भी बड़ी सम्मान के लिए जाता है | एक वही थी जिन्होने रानी का हर कदम पर साथ दिया और उनकी कदकाठी कुछ मेल खाती थी |इनके बलबूते ही रानी लक्ष्मी बाई संग्राम में अंग्रेज़ो की आखों में धूल झोंकने में सफल रही | लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे की सक्षम होने के बावजूद भी इतिहासकारों ने उसे वो सम्मान नहीं दिया जिसकी वह हकदार थी | जाति व्यवस्था में दबे होने के कारण हमारे देश के बहुत से वीर-वीरांगनाए इसी सोच में दबकर गुमनाम हो गए जीने…</p>
<p>प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मी बाई की के साथ झलकारी बाई का नाम भी बड़ी सम्मान के लिए जाता है | एक वही थी जिन्होने रानी का हर कदम पर साथ दिया और उनकी कदकाठी कुछ मेल खाती थी |इनके बलबूते ही रानी लक्ष्मी बाई संग्राम में अंग्रेज़ो की आखों में धूल झोंकने में सफल रही | लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे की सक्षम होने के बावजूद भी इतिहासकारों ने उसे वो सम्मान नहीं दिया जिसकी वह हकदार थी | जाति व्यवस्था में दबे होने के कारण हमारे देश के बहुत से वीर-वीरांगनाए इसी सोच में दबकर गुमनाम हो गए जीने त्याग बलिदान को जानने के लिए इतिहास के पन्नो को पलटते रह जाओगे लेकिन उचित जानकारी प्राप्त होने में बहुत समय लग जाएगा | काश सभी वीर-वीरांगनाओ को इतिहासकारों ने सभी आई सरकारों ने उचित सम्मान दिया होता तो आज स्थिति कुछ और होती और हमारे गुमनाम वीरों को वो सम्मान प्राप्त होता जिसके सही में हकदार थे ऐसी एक वीर महिला थी झलकारी देवी |</p>
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<p> झलकारी देवी का जन्म 22 नवंबर, 1830 ई. को झाँसी के समीप भोजला नामक गाँव में हुआ था। झलकारी झाँसी राज्य के एक बहादुर कृषक सदोवा सिंह की पुत्री थी। उसकी माता का नाम जमुना देवी था। झलकारी देवी चमार जाति की उपजाति कोरी से सम्बन्ध रखती थी जिससे चवण वंश की ही एक शाखा कहा जाता है इतिहास कारो के अनुसार जिन्हे हम आज चामर कहते वह कभी चवर वंश के वीर क्षत्रिय हुआ करते थे लेकिन सिकंदर लोदी ने उन्हें झुकाने के लिए पहली बार चमार शव्द का उपयोग किया था तब से इस चँवर वंश को चमार जाति से पुकारा जाने लगा| जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी थी | झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी उसके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। झलकारी देवी का अधिकांश समय प्रायः जंगल में ही काम करने में व्यतीत होता था। झलकारी के पिता ने अधिकतर जंगलों में रहने के कारण व डाकुओं के आतंक और उत्पात होते रहने कारण उन्हें घुड़सवारी और अस्त्र-शस्त्र संचालन की शिक्षा में प्रशिक्षित किया गया था| विपरीत परिस्थिति के कारण ही उन्हे शस्त्रं संचालन की शिक्षा दी थी, ताकि वह स्वयं अपनी सुरक्षा का प्रबंध कर सके। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों एवं दूरस्थ गाँव में रहने के कारण कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था।</p>
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<p> एक दिन झलकारी अपने पशुओं को लेकर जंगल में गई हुई थी। अचानक एक झाड़ी में छिपे एक भयानक चीते ने उस पर आक्रमण कर दिया। उस समय झलकारी के पास केवल पशुओं को हाँकने वाली एक लाठी ही थी। बस आनन-फानन में उन्होंने सँभल कर लाठी का भरपूर वार चीते के मुँह पर किया। उनकी लाठी चीते की नाक पर लगी, जिसके कारण चीता अचेत होकर ज़मीन पर गिर पड़ा। इस स्थिति का लाभ उठाकर झलकारी चीते पर इस समय तक प्रहार करती रही, जब तक कि उसकी जान नहीं निकल गई। इस घटना ने झलकारी को बहुत लोकप्रिय बना दिया। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। </p>
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<p> कालांतर में उनकी शादी महारानी लक्ष्मीबाई के तोपची पूरन सिंह के साथ हो गई। पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। पूरन सिंह के कारण ही झलकारी महारानी लक्ष्मीबाई के संपर्क में आई। एक बार गौरी पुजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गयी क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं वही रूप वही कठ-काठी हु-ब-हु रानी लक्ष्मीबाई उन दोनो के रूप में इतनी समानता थी कि कोई भी धोखा खा जाये । जब अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। महारानी लक्ष्मीबाई ने उनकी योग्यता, साहस एवं बुद्धिमत्ता परख उस महिला फ़ौज में भरती करवा दिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने महिलाओं की दुर्गा दल नामक एक अलग टुकड़ी बनाई थी। झलकारी ने थोड़े ही समय में फ़ौज के सभी कार्यों कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त कर ली उनकी इसी परांगता और बुद्धि कौशलता के कारण उन्हे महिला टुकड़ी का सेनापति बना दिया गया । इस दुर्गा दल की पूरी जिम्मेदारी कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में थी। धीरे धीरे व्यक्तिगत तौर पर भी वह रानी लक्ष्मीबाई की अच्छी सलाहकार बन गई थी | झलकारीबाई ने कसम खाई थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करूंगी और न ही सिन्दूर लगाऊंगी। </p>
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<p> राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि, ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेनानायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया। ब्रिटिश सेना ने झाँसी पर हमला कर दिया और उनकी सेना ने झाँसी के क़िले को चारों ओर से घेर लिया। अब दोनों सेना आमने-सामने हो गई और एक भयंकर युद्ध छिड़ गया। महारानी लक्ष्मीबाई के आदेश से झाँसी के तोपची फ़िरंगी सेना पर निरंतर अग्निवर्षा कर रही थी। सैनिक भी शत्रुओं को अपनी बंदूक का निशाना बना रहे थे। यद्यपि अँग्रेज़ी सेना क़िले के नीचे थी, तथापि संख्या भी अधिक थी और उनके पास युद्ध सामग्री का विपुल भंडार था। अँग्रेज़ी सेना के तोपची क़िले की दीवारों को तोड़ने के लिए उन्हें अपनी तोपों का निशाना बना रहा थे। अँग्रेज़ी सेना की बंदूकें भी क़िले के रक्षकों पर भयंकर गोलीवर्षा कर रही थी। क़िले के रक्षकों की संख्या निरंतर कम होती जा रही थी। लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से, अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। ऐसे समय में लक्ष्मीबाई ने युद्ध परिषद् की एक आपातकालीन बैठक बुलवाई। इसमें आगामी युद्ध के विषय में चर्चा की जा रही थी। इसी समय एक प्रहरी ने महारानी लक्ष्मीबाई को बताया कि महिला फ़ौज की एक सैनिक झलकारी उनसे मिलना चाहती है।</p>
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<p> झलकारी ने सैनिक ढंग से अभिवादन करने के बाद महारानी से निवेदन किया बाईसाहब एक विनम्र निवेदन करना चाहती हूँ अगर आज्ञा हो महारानी लक्ष्मीबाई ने कहो झलकारी ने निवेदन करते हुए कहा कि बात यह है, बाईसाहब, हमारे सैनिकों की संख्या में निरन्तर कमी होती जा रही है। निरन्तर घिरे रहने और युद्ध चलते रहने के कारण खाद्य सामग्री भी तो समिति ही रह गई है। मेरे पति जो एक तोपची है ने मुझे यह भी बताया कि हमारे तोपचियों मे कुछ के गद्दार होने की आंशका भी है। वे लोग ब्रिटिश सैनिको को निशाना न बनाकर खाली स्थानों पर लोगों का संज्ञान करते हैं। स्थिति का लाभ उठाकर और किसी स्थान पर किले की दीवार तोड़कर यदि शत्रु सेना अन्दर आ गई तो हमें किले के अन्दर ही आमने-सामने युद्ध करना पड़ेगा। हम नहीं चाहते कि उस स्थिति में आप किसी संकट मे पड़े। झलकारी की बात सुनने के बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने उनसे पूछा कि इस संकट से निपटने के लिए तुम्हारे पास क्या योजना है? झलकारी ने इसका उत्तर देते हुए कहा बाईसाहब अब आपको इस किले से किसी भी प्रकार बाहर हो जाना चाहिए क्योंकि ऐसे वक़्त में हमारे सेनानायक एक दूल्हेराव ने हमे दे धोखा दिया है और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया अत: जल्द ही किले का पतन होना निश्चित है इसलिए एक योजनाबद्ध तरीके से झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी और कहा कि दुश्मन को धोखे में डालने के लिए यह उचित होगा कि आपका वेश धारण करके पहले मैं छोटी-सी टुकड़ी लेकर किसी मोरचे से भागने का प्रयत्न करूँ। मुझकों रानी समझकर दुश्मन अपनी पूरी शक्ति से मुझे पकड़ने या मारने का प्रयत्न करेगा। इसी बीच दूसरी तरफ से आप किले से बाहर हो जाइए। शत्रु भ्रम में पड़ जाएगा कि असली महारानी कौन है! स्थिति का लाभ उठाकर आप सुरक्षित स्थान पर पहुँच सकती हैं और फिर सैन्य संघठन करके अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर सकती हैं। रानी लक्ष्मी बाई को झलकारी की योजना पसन्द आ गई। वह स्वयं भी किले से बाहर निकलने की योजना बना रही थी। </p>
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<p> योजनानुसार महारानी लक्ष्मीबाई एवं झलकारी दोनों पृथक-पृथक द्वार से किले बाहर निकलीं। झलकारी ने तामझाम अधिक पहन रखा था। शत्रु ने उन्हें ही रानी समझा और उन्हें ही घेरने का प्रयत्न किया। शत्रु सेना से घिरी झलकारी भयंकर युद्ध करने लगी। मौके का लाभ उठाते हुए रानी योजनबद्ध तरीके से अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं। ब्रिटिश सैनिको ने उसे चारों ओर से घेर लिया अब रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है। जनरल ह्यूग रोज़ जो उसे रानी ही समझ रहा था खुश होने लगे कि उन्होने रानी को पकड़ लिया लेकिन रानी के एक भेदिए ने पहचान लिया और उसने जनरल ह्यूग रोज़ को भेद खोलते हुए बताया कि यह रानी नहीं है बल्कि उनकी रूप में समानता रखने वाली झलकारी बाई है| यह भी बताने का प्रयत्न किया कि कुछ देर पूर्व ही झलकारी ने उसे कैसे अपनी गोली का निशाना बनाया लेकिन दुर्भाग्य से वह गोली एक ब्रिटिश सैनिक को लगी और वह गिरकर मर गया। वह भेदिया बच गया। ब्रिटिश सेनापति रोज ने झलकारी को डपटते हुए कहा कि आपने रानी बनकर हमको धोखा दिया है और महारानी लक्ष्मीबाई को यहाँ से निकालने में मदद की है। आपने हमारे एक सैनिक की भी जान ली है। मैं भी आपके प्राण लूँगा। झलकारी ने गर्व से उत्तर देते हुए कहा- मार दे गोली, मैं प्रस्तुत हूँ। जनरल ह्यूग रोज़ झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ | एक अन्य ब्रिटिश अफसर ने कहा -मुझे तो यह स्त्री पगली मालूम पड़ती है। जनरल रोज ने इसका तत्काल उत्तर देते हुए कहा- यदि भारत की एक प्रतिशत नारियाँ इसी प्रकार पागल हो जाएँ तो हम अंग्रेजों को सब कुछ छोड़कर यहाँ से चले जाना होगा। जनरल रोज ने झलकारी को एक तम्बु में कैद कर लिया और उनके बाहर से पहरा बिठा दिया। अवसर पाकर झलकारी रात में चुपके से भाग निकली। जनरल रोज ने प्रातः होते ही किले पर भयंकर आक्रमण कर दिया। उसने देखा कि झलकारी एक तोपची के पास खड़ी होकर अपनी बन्दूक से गोलियों कि वर्षा कर रही है।</p>
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<p> अंग्रेजी तोपची का गोला झलकारी के पास वाले तोपती को लगा। वह तोपची झलकारी का पति पूरन सिंह था अपने पति की मौत शौक मनाने की झलकारी बाई ने तुरन्त तोप संचालन का मोर्चा सम्भाल लिया और वह शत्रु सेना को विचलित करने लगी। शत्रु सेना ने भी अपनी सारी शक्ति उनके ऊपर लगा दी। इस समय एक गोला झलकारी को भी लगा और "जय भवानी" कहती हुई वह भूमि पर अपने पति के शव के समीप ही गिर पड़ी। वह अपना काम कर चुकी थी। इसी तरह मोतीबाई जो एक वैश्या की बेटी थी और लक्ष्मीबाई के वफादार और कुशल तोपची खुदाबख्स की प्रेमिका थी | वह झांसी नरेश की नृत्यशाला में नृत्य किया करती थी तथा एक अदाकारा भी थी | अनुशासन पसंद नरेश ने मोतीबाई और खुदाबख्स को अपनी सेवा से निकाल दिया राजा दामोदर की मृत्यू के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने सत्ता संभाली दोनों को सेवा में वापस नियुक्त कर लिया| मोतीबाई की कर्तव्यनिष्ठा से प्रभावित होकर उन्हें जासूसी का काम दिया गया और अंग्रेजों की राज्यों को हड़पने की योजनाओं का पता लगाने के काम में लगाया गया| मोतीबाई काफी खूबसूरत थी तथा अदाकारी भी थीं इसलिए उसे लिए यह काम काफी आसान था| दुर्गा दल की महिला सैनिको में भी एक बहुत अच्छी सैनिक और युद्ध कलाओ में निपुण थी जब युद्ध में किले की बाहरी दीवार के बाद उसने स्थिति को समझते हुए तलवार ली, और सीधे युद्ध करने का निर्णय लिया | वह देवी भवानी की तरह लड़ रही थी, और दक्ष योद्धा की तरह साहस का परिचय दे रही थी कि तभी खुदाबख्स को गोली लगी, और देखते ही देखते सभी तोपची मारे गए लेकिन यह वक़्त आंशू बहाने का नहीं था इसलिए उन्होंने तोपची की जगह ली और गोले बरसाने लगीं. अंग्रेजी सेना हक्का-बक्का रह गई | एक समय पर लगा कि अंग्रेजी सेना वापस लौट जाएगी तभी एक गोली मोतीबाई को जा लगी और वह शेरनी तरह गिर गई | इसी तरह से रानी लक्ष्मीबाई की सेना में मालती बाई लोधी की अंगरक्षिका थी जिन्होने संकट की घड़ी में रानी का साथ निभाया वह रानी की बड़ी स्नेहमयी और विश्वासपात्र थी जब रानी युद्ध में आहात हुई और उनका घोडा समरागण से विमुख हो गया तब अंगरक्षिका होने के नाते मालती बाई लोधी ने उनका रक्षा की इसी समय वालार की एक गोली उनकी पीठ पर लगी और वह वीरांगना आजादी की चढ़ने से पहले अपनी स्वामिनी की रक्षा करते हुए शहीद हो गई | महारानी लक्ष्मीबाई की महिला सेना की कमांडर जूही अंत तक महारानी के साथ रही थी। जूही ने अंतिम समय तक अदम्य साहस और शौर्य का प्रदर्शन किया था। वह झाँसी के क़िले से रानी के साथ ही निकल आई थी। कालपी तथा ग्वालियर में अँग्रेज़ों के साथ युद्ध में जूही ने अँग्रेज़ी सेना पर क़हर बरसा दिया। अंतिम दिन के युद्ध में जूही ने तोपख़ाने को सँभालते हुए अँग्रेज़ों के छक्के छुड़ा दिए तब घबराकर ह्यूरोज ने अपने सैनिकों ने उसे घेर लेने का आदेश दिया। चारों ओर से घिर जाने के बाद भी जूही ने दुश्मनों के परखच्चे उड़ाते हुए उनकी कई तोपों को बेकार कर दिया। अंतिमसमय तक जूझते हुए यह वीरांगना स्वतंत्रता की बलिवेदी पर शहीद हो गई| ऐसे ही मुन्दर, महारानी लक्ष्मी बाई की प्रिय सहेली तथा प्रमुख सलाहकारों में एक थी। यह महारानी की स्त्री सेना की कमांडर तथा रानी के रक्षा दल की नायिका थी। मुन्दर ने ब्रितानियों से हुए सभी युद्धों में रानी के साथ छाया की तरह रह कर भीषण युद्ध किया था। ग्वालियर के अंतिम दिन के युद्ध में मुन्दर ने रानी के साथ दोनों हाथों से तलवार चलाने का जौहर दिखाया। महारानी के कुछ पहले ही मुन्दर ने भी वीर गति प्राप्त की। मुन्दर का अंतिम संस्कार महारानी के साथ ही बाबा गंगा दास की कुटिया पर हुआ था। इसी तरह रानी की जनाना फौजी इंचार्ज मोतीबाई, काशीबाई और दुर्गाबाई भी दुर्गा दल की ही अन्य वीर सैनिक जिन्होने अपने प्राणो की चिंता किए बैगर अपनी मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया उनका बलिदान इतिहास में सदैव अमर रहेगा।</p>
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<p>अप्रकाशित व मौलिक </p>