राज़ नवादवी's Posts - Open Books Online2024-03-28T23:36:08Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwihttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2966942988?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://www.openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=0h7ie85exio8j&xn_auth=noराज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ९४tag:www.openbooksonline.com,2019-04-30:5170231:BlogPost:9832292019-04-30T18:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>जनाब अहमद फराज़ साहब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल</span> <br></br> <br></br> <span>221 1221 1221 122</span><br></br> <br></br><span>बुझते हुए दीये को जलाने के लिए आ</span><br></br> <span>आ फिर से मेरी नींद चुराने के लिए आ //१</span> <br></br> <br></br> <span>दो पल तुझे देखे बिना है ज़िंदगी मुश्किल</span><br></br> <span>मैं ग़ैर हूँ इतना ही बताने के लिए आ //२</span> <br></br> <br></br> <span>तेरे बिना मैं दौलते दिल का करूँ भी क्या</span> <br></br> <span>हाथों से इसे अपने लुटाने के लिए आ //३</span> <br></br> <br></br> <span>तेरा ये करम है जो तू आता…</span></p>
<p><span>जनाब अहमद फराज़ साहब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल</span> <br/> <br/> <span>221 1221 1221 122</span><br/> <br/><span>बुझते हुए दीये को जलाने के लिए आ</span><br/> <span>आ फिर से मेरी नींद चुराने के लिए आ //१</span> <br/> <br/> <span>दो पल तुझे देखे बिना है ज़िंदगी मुश्किल</span><br/> <span>मैं ग़ैर हूँ इतना ही बताने के लिए आ //२</span> <br/> <br/> <span>तेरे बिना मैं दौलते दिल का करूँ भी क्या</span> <br/> <span>हाथों से इसे अपने लुटाने के लिए आ //३</span> <br/> <br/> <span>तेरा ये करम है जो तू आता है मेरे पास</span> <br/> <span>मुझपे यही एहसान जताने के लिए आ //४</span> <br/> <br/> <span>मुमकिन जो नहीं ज़िंदगी में तू कभी आए</span> <br/> <span>तो आ, मेरी मय्यत ही उठाने के लिए आ //५</span> <br/> <br/> <span>तू हो चुकी है ग़ैर की कह भी नहीं सकता</span><br/> <span>सब छोड़ मुझे अपना बनाने के लिए आ //६</span> <br/> <br/> <span>मैं हो चुका हूँ ख़ाके वफ़ा बस ये करम कर</span> <br/> <span>गंगा में मेरी मिट्टी बहाने के लिए आ //७</span> <br/> <br/> <span>आदत पड़ी है 'राज़' को गिर्या ए सितम की</span> <br/> <span>कुछ भी नहीं तो दिल ही दुखाने के लिए आ //८</span> <br/> <br/> <span>~ राज़ नवादवी</span> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित</span></p>प्याज भी बोलते हैं (लघुकथा) राज़ नवादवीtag:www.openbooksonline.com,2019-04-27:5170231:BlogPost:9825582019-04-27T07:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>प्याज भी बोलते हैं- एक लघुकथा</span><br></br> <span>-------------------------------------</span><br></br> <span>हर कोई सब्ज़ी वाले से बड़ा प्याज माँगता है। कल मैं भी ठेलेवाले भाई से प्याज ख़रीदते समय बड़े प्याज माँग बैठा। तभी, बड़े प्याजों के बीच बैठे एक छोटे प्याज ने मुझसे कहा,</span><br></br><span>"भाई साहब, हर कोई बड़ा प्याज माँगता है, तो हमारा क्या होगा? हम भी तो प्याज हैं!"</span> <br></br><span>मैं सकपका गया, ये कौन बोल रहा है? प्याज? क्या प्याज भी बोलते हैं? तभी मैंने देखा वहीं पड़े कुछ बड़े प्याज आंनद…</span></p>
<p><span>प्याज भी बोलते हैं- एक लघुकथा</span><br/> <span>-------------------------------------</span><br/> <span>हर कोई सब्ज़ी वाले से बड़ा प्याज माँगता है। कल मैं भी ठेलेवाले भाई से प्याज ख़रीदते समय बड़े प्याज माँग बैठा। तभी, बड़े प्याजों के बीच बैठे एक छोटे प्याज ने मुझसे कहा,</span><br/><span>"भाई साहब, हर कोई बड़ा प्याज माँगता है, तो हमारा क्या होगा? हम भी तो प्याज हैं!"</span> <br/><span>मैं सकपका गया, ये कौन बोल रहा है? प्याज? क्या प्याज भी बोलते हैं? तभी मैंने देखा वहीं पड़े कुछ बड़े प्याज आंनद से मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। उफ़्फ़, ये प्याज मुस्कुराते भी हैं? ख़ैर, सच यही था कि प्याज बोल रहे थे और पूछ भी रहे थे। छोटे प्याज ने मुझसे आगे कहा,</span> <br/><span>"साहब, किसका क़सूर है कि हम छोटे हैं? हमारा, किसान का, बीज का, धरती का, हवा का, पानी का, खाद का, या किस्मत का? आप ही बताइए, किसका क़सूर है? हमें देखकर किसान भी ख़ुश नहीं होते, हमें व्यापारी भी कम क़ीमत पर ख़रीदता है, और यहाँ ठेलों पे भी हमारी कुछ ख़ास माँग नहीं है। अव्वल तो हम बिकते ही हैं बड़ी मुश्किल से, और वो भी कम क़ीमत पे। ज़्यादातर होटल वाले हमें बहुत गिरी क़ीमत पे थोक भाव से ख़रीद ले जाते हैं। अच्छे घरों की रसोई में, और सुंदर गृहिणियों तक पहुँचने का तो हमें सौभाग्य ही कहाँ मिलता है?"</span><br/><span>मैं बड़ा विस्मित था। एक प्याज और इतना समझदार? बहरहाल, वो छोटा प्याज रुका नहीं। वो आगे भी बोलता गया,</span> <br/><span>"साहब, जब प्याज की किल्लत हो जाती है, तब कोई बड़े या छोटे प्याज में फ़र्क़ नहीं करता, हर कोई तब बस प्याज ख़रीदना चाहता है, जैसे भी हो, थोड़ा प्याज घर के लिए मिल जाए। तब हम ही लोगों के सबसे ज़्यादा काम आते हैं, बोलिए, है कि नहीं?"</span><br/><span>मैं सकते में था, मगर ये सोचकर ख़ुश भी कि प्याज भी बोलते हैं। मैंने सब्ज़ी वाले से कहा, भाई मुझे माफ़ करना, मुझे बड़े नहीं, छोटे प्याज ही दे दो। और वो भी पूरी क़ीमत पर। आख़िर ये भी तो प्याज ही हैं।</span> <br/><span>वो छोटा प्याज बहुत ख़ुश हुआ। साथ के सारे छोटे प्याज भी बहुत ख़ुश हुए। मैं भी ख़ुशी ख़ुशी छोटे प्याजों को अपने थैले में लिए घर लौट आया।</span> <br/> <br/> <span>~राज़ नवादवी</span><br/><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ९३tag:www.openbooksonline.com,2019-02-04:5170231:BlogPost:9729092019-02-04T04:43:01.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२२१ २१२१ १२२१ २१२</span> <br></br><br></br><span>अपनी गरज़ से आप भी मिलते रहे मुझे</span> <br></br><span>ग़म है कि फिर भी आशना कहते रहे मुझे //१ </span><br></br><br></br><span>दिल की किताब आपने सच में पढ़ी कहाँ</span> <br></br><span>पन्नों की तर्ह सिर्फ़ पलटते रहे मुझे //२ </span><br></br><br></br><span>मिस्ले ग़ुबारे दूदे तमन्ना मैं मिट गया</span> <br></br><span>बुझती हुई शमा' सा वो तकते रहे मुझे //३ </span><br></br><br></br><span>सौते ग़ज़ल से मेरी निकलती थी यूँ फ़ुगाँ</span> <br></br><span>महफ़िल में सब ख़मोशी से सुनते रहे मुझे…</span></p>
<p><span>२२१ २१२१ १२२१ २१२</span> <br/><br/><span>अपनी गरज़ से आप भी मिलते रहे मुझे</span> <br/><span>ग़म है कि फिर भी आशना कहते रहे मुझे //१ </span><br/><br/><span>दिल की किताब आपने सच में पढ़ी कहाँ</span> <br/><span>पन्नों की तर्ह सिर्फ़ पलटते रहे मुझे //२ </span><br/><br/><span>मिस्ले ग़ुबारे दूदे तमन्ना मैं मिट गया</span> <br/><span>बुझती हुई शमा' सा वो तकते रहे मुझे //३ </span><br/><br/><span>सौते ग़ज़ल से मेरी निकलती थी यूँ फ़ुगाँ</span> <br/><span>महफ़िल में सब ख़मोशी से सुनते रहे मुझे //४ </span><br/><br/><span>बस थीं हया की चादरें आँखों पे दरमियाँ</span> <br/><span>कपड़ों के कब सुराख़ ये ढंकते रहे मुझे //५ </span><br/><br/><span>नीयत पे मेरे कॉलों के उठते हैं अब सवाल</span> <br/><span>ताउम्र जबकि लोग समझते रहे मुझे //६ </span><br/><br/><span>दस्ते बुताँ न कोई मेरा हो सका कभी</span> <br/><span>पत्तों की मिस्ल सब ही बदलते रहे मुझे //७ </span><br/><br/><span>झाँका तो अपने क़ल्ब में उसके सिवा ऐ राज़</span> <br/><span>उसकी ज़फ़ा के दाग़ भी दिखते रहे मुझे //८ </span><br/><br/><span>~राज़ नवादवी</span> <br/><br/><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span><br/><br/><span>मिस्ले ग़ुबारे दूदे तमन्ना- इच्छा रुपी धुंए के ग़ुबार की तरह; सौते ग़ज़ल- ग़ज़ल की आवाज़; फ़ुगाँ- आर्तनाद; कौल- वचन, शब्द; दस्ते बुताँ- सुन्दर स्त्रियों के हाथ; मिस्ल- तरह</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ९२tag:www.openbooksonline.com,2019-02-03:5170231:BlogPost:9727372019-02-03T06:39:24.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२२१ २१२१ १२२१ २१२</span> <br></br><br></br><span>मिलना नहीं जवाब तो करना सवाल क्यों</span> <br></br><span>मेरी ख़मोशियों पे है इतना मलाल क्यों //१</span></p>
<p></p>
<p><span>दामाने इंतज़ार में कटनी है ज़िंदगी</span> <br></br><span>मरने तलक है हिज्र तो होगा विसाल क्यों //२ </span></p>
<p></p>
<p><span>यारों को कब पता नहीं कैसे हैं दिन मेरे</span><br></br><span>है जो नहीं वो ग़ैर तो पूछेगा हाल क्यों //३ </span><br></br><br></br><span>जब है ज़रीआ कस्ब का कोई नहीं मेरा</span> <br></br><span>आसाईशों की चाह की फिर हो मज़ाल…</span></p>
<p><span>२२१ २१२१ १२२१ २१२</span> <br/><br/><span>मिलना नहीं जवाब तो करना सवाल क्यों</span> <br/><span>मेरी ख़मोशियों पे है इतना मलाल क्यों //१</span></p>
<p></p>
<p><span>दामाने इंतज़ार में कटनी है ज़िंदगी</span> <br/><span>मरने तलक है हिज्र तो होगा विसाल क्यों //२ </span></p>
<p></p>
<p><span>यारों को कब पता नहीं कैसे हैं दिन मेरे</span><br/><span>है जो नहीं वो ग़ैर तो पूछेगा हाल क्यों //३ </span><br/><br/><span>जब है ज़रीआ कस्ब का कोई नहीं मेरा</span> <br/><span>आसाईशों की चाह की फिर हो मज़ाल क्यों //४ </span><br/><br/><span>मैंने क़सीदा जब कोई लिक्खा न उसके नाम</span> <br/><span>देगा उधारी में मुझे साहू भी माल क्यों //५ </span><br/><br/>करती नहीं है अब मुझे सोज़ाँ तेरी नज़र <br/><span>आएगा ठंढे ख़ून में मेरे उबाल क्यों//६ </span><br/><br/><span>परहेज मेरे क़ुर्ब से इतना है जब तुझे</span> <br/><span>आता है मेरे फ़िक़्र में तेरा ख़याल क्यों //७ </span><br/><br/><span>ग़र जो नहीं हो राज़ के लिक्खे के तुम मुरीद</span><br/><span>देते हो उसके शेर की सबको मिसाल क्यों //८</span><br/><br/><span>~राज़ नवादवी</span><br/><br/><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span><br/><br/><span>मलाल- वैमनस्य, पश्चाताप; मज़ाल- हिम्मत, शक्ति, सामर्थ्य; कस्ब- कमाई; आसाईश- सुख, समृद्धि; क़ुर्ब- सामीप्य; विसाल- मिलन;</span> <br/><br/><br/></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ९१tag:www.openbooksonline.com,2019-01-09:5170231:BlogPost:9691312019-01-09T19:34:49.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२२१ २१२१ १२२१ २१२</span> <br></br><br></br><span>आके तेरी निगाह की हद में मिला सुकूँ</span> <br></br><span>हल्क़े को वस्ते बूद की ज़द में मिला सुकूँ //१</span><br></br><br></br><span>थी रायगाँ किसी भी मुदावे की जुस्तजू</span> <br></br><span>दिल के मरज़ को दर्दे अशद में मिला सुकूँ //२</span><br></br><br></br><span>आशिक़ को अपनी जान गवाँ कर भी चैन था</span> <br></br><span>जलकर अदू को पर न हसद में मिला सुकूँ //३</span><br></br><br></br><span>दामे सुख़न की अपनी हिरासत को तोड़कर</span> <br></br><span>लफ़्ज़ों को ख़ामुशी की सनद में मिला सुकूँ…</span></p>
<p><span>२२१ २१२१ १२२१ २१२</span> <br/><br/><span>आके तेरी निगाह की हद में मिला सुकूँ</span> <br/><span>हल्क़े को वस्ते बूद की ज़द में मिला सुकूँ //१</span><br/><br/><span>थी रायगाँ किसी भी मुदावे की जुस्तजू</span> <br/><span>दिल के मरज़ को दर्दे अशद में मिला सुकूँ //२</span><br/><br/><span>आशिक़ को अपनी जान गवाँ कर भी चैन था</span> <br/><span>जलकर अदू को पर न हसद में मिला सुकूँ //३</span><br/><br/><span>दामे सुख़न की अपनी हिरासत को तोड़कर</span> <br/><span>लफ़्ज़ों को ख़ामुशी की सनद में मिला सुकूँ //४</span><br/><br/><span>बाग़े जहाँ में जीके भी ख़ुशियाँ न थीं नसीब</span> <br/><span>इंसान को न मरके लहद में मिला सुकूँ //५</span><br/><br/><span>हस्ती ये जानती है बख़ूबी तहे शऊर</span><br/><span>दिल को न आ के दामे ख़िरद में मिला सुकूँ //६</span><br/><br/><span>सीने को भी पता है कि औक़ाते मर्ग पे</span> <br/><span>अन्फ़ास को बक़ा-ए-अबद में मिला सुकूँ //७</span><br/><br/><span>नैरंगी ए नज़र में भटकता था उम्र भर</span> <br/><span>ज़ाहिद हुआ तो अपनी ही हद में मिला सुकूँ //८</span><br/><br/><span>ऐसा नहीं कि हुस्ने सितमगर ही ख़ुश हुआ</span> <br/><span>मुझको भी उसकी आदते बद में मिला सुकूँ //९</span><br/><br/><span>ख़ुश हूँ मैं 'राज़' होके फ़ना उसके प्यार में</span> <br/><span>जीकर जो मिल सका न, लहद में मिला सुकूँ //१०</span> <br/><br/><span>~राज़ नवादवी</span><br/><br/><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span><br/><br/><span>हल्क़ा- परिधि, घेरा, मंडल; वस्ते बूद- अस्तित्व का मध्य; ज़द- निशाना, गोद; रायगाँ- व्यर्थ; दर्दे अशद- तीव्र पीड़ा; अदू- दुश्मन, प्रतिद्वंदी; हसद- ईर्ष्या, डाह, जलन; दामे सुख़न- शब्दों/ ध्वनि का बंधन; लहद- कब्र; तहे शऊर- चेतना की तह/ तल में; दामे खिरद- बुद्धि का पाश/ फंदा; औक़ाते मर्ग- मृत्यु के क्षण/ समय; अन्फ़ास- साँसें; बक़ा-ए-अबद- सतत मुक्ति की अवस्था; नैरंगी ए नज़र- दृष्टि में जनित माया; ज़ाहिद- संयमी, विरक्त; लहद- कब्र</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ९०tag:www.openbooksonline.com,2019-01-06:5170231:BlogPost:9683812019-01-06T07:48:43.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२१२२ ११२२ ११२२ ११२/२२</span> <br></br><br></br><span>अस्ल के बाद तो जीना है निशानी के लिए</span><br></br><span>ज़िंदगी लंबी है दो रोज़ा जवानी के लिए //१</span><br></br><br></br><span>यूँ ज़बां ख़ूब है ये तुर्रा बयानी के लिए</span><br></br><span>उर्दू मशहूर हुई शीरीं ज़बानी के लिए //२</span> <br></br><br></br><span>लोग क्यों दीनी तशद्दुद के लिए मरते हैं</span> <br></br><span>जबकि जीना था उन्हें जज़्बे रुहानी के लिए //३</span> <br></br><br></br><span>नफ़्स के झगड़े हैं ने'मत से भरी दुन्या में</span> <br></br><span>चंद रोटी के लिए तो, कभी पानी…</span></p>
<p><span>२१२२ ११२२ ११२२ ११२/२२</span> <br/><br/><span>अस्ल के बाद तो जीना है निशानी के लिए</span><br/><span>ज़िंदगी लंबी है दो रोज़ा जवानी के लिए //१</span><br/><br/><span>यूँ ज़बां ख़ूब है ये तुर्रा बयानी के लिए</span><br/><span>उर्दू मशहूर हुई शीरीं ज़बानी के लिए //२</span> <br/><br/><span>लोग क्यों दीनी तशद्दुद के लिए मरते हैं</span> <br/><span>जबकि जीना था उन्हें जज़्बे रुहानी के लिए //३</span> <br/><br/><span>नफ़्स के झगड़े हैं ने'मत से भरी दुन्या में</span> <br/><span>चंद रोटी के लिए तो, कभी पानी के लिए //४</span> <br/><br/><span>क्यों रक़ीबों से मुरव्वत की तवक्को रखना</span> <br/><span>कुफ़्र लाज़िम हैं जिन्हें रेशा दवानी के लिए //५</span> <br/><br/><span>इश्क़ आसाँ नहीं था हुस्ने गराँ से करना</span> <br/><span>जीते जी मरना पड़ा शौक़े निहानी के लिए //६</span> <br/><br/><span>दिल तो यूँ है कि जैसे प्यास का मारा पंछी</span><br/><span>छत से उड़ जाए किसी झील के पानी के लिए //७</span> <br/><br/><span>हमने इक तीर से माशूक़ को बिस्मिल है किया</span><br/><span>और इक तीर बचा रक्खा है सानी के लिए //८</span> <br/><br/><span>बाद इस ज़िंदगी के हो न मलालत हमको</span><br/><span>रूह की जाए' अबस आलमे फ़ानी के लिए //९</span> <br/><br/><span>लोग क्या ‘राज़’ की समझेंगे शहादत यारो</span><br/><span>उसने किरदार को मारा है कहानी के लिए //१० </span><br/><br/><span>~राज़ नवादवी</span> <br/><br/><span>“मौलिक एवं अप्रकाशित”</span><br/><br/><span>अबस- व्यर्थ; रेशा दवानी- षड्यंत्र</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८९tag:www.openbooksonline.com,2019-01-01:5170231:BlogPost:9681832019-01-01T07:00:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२२१२ १२१२ २२१२ १२</span> <br></br> <br></br> <span>नाकामे इश्क़ होके अपने दर पहुँच गया</span> <br></br> <span>सहरा पहुँच के यूँ लगा मैं घर पहुँच गया //१</span><br></br> <br></br> <span>दिल टूटने की शह्र को ऐसी हुई ख़बर</span> <br></br> <span>दरवाज़े पे हमारे शीशागर पहुँच गया //२</span> <br></br> <br></br> <span>उसको भी मेरे होंठ की आदत थी यूँ लगी</span> <br></br> <span>साक़ी के हाथ मुझ तलक साग़र पहुँच गया //३</span> <br></br> <br></br> <span>जब भी हुई जिगर को तुझे देखने की चाह</span> <br></br> <span>ख़ुद चल के आँख तक तेरा मंज़र पहुँच गया…</span></p>
<p><span>२२१२ १२१२ २२१२ १२</span> <br/> <br/> <span>नाकामे इश्क़ होके अपने दर पहुँच गया</span> <br/> <span>सहरा पहुँच के यूँ लगा मैं घर पहुँच गया //१</span><br/> <br/> <span>दिल टूटने की शह्र को ऐसी हुई ख़बर</span> <br/> <span>दरवाज़े पे हमारे शीशागर पहुँच गया //२</span> <br/> <br/> <span>उसको भी मेरे होंठ की आदत थी यूँ लगी</span> <br/> <span>साक़ी के हाथ मुझ तलक साग़र पहुँच गया //३</span> <br/> <br/> <span>जब भी हुई जिगर को तुझे देखने की चाह</span> <br/> <span>ख़ुद चल के आँख तक तेरा मंज़र पहुँच गया //४</span> <br/> <br/> <span>आओ कि खेलें इश्क़ की बाज़ी ब ख़ूने दिल</span> <br/> <span>गर्दन पे तेरे हुस्न का ख़ंजर पहुँच गया //५</span> <br/> <br/> <span>हैरत से साक़ी देखता था मैक़दे में मैं</span> <br/> <span>पीने को फिर से करके दामन तर पहुँच गया //६</span> <br/> <br/> <span>वो यूँ कि कशिशे राह में डूबे ही हम रहे</span> <br/> <span>मंज़िल पे गरचे मील का पत्थर पहुँच गया //७</span><br/> <br/> <span>मरने की चाह जब भी तेरे इश्क़ में हुई</span> <br/> <span>कब जह्र मेरे हाथ चुटकी भर पहुँच गया //८</span><br/> <br/> <span>महफूज़ रख सका न मैं अपने मकाँ की नींव</span> <br/><span>ख़ित्ते पे मेरे कोई क़द्दावर पहुँच गया //९</span> <br/> <br/><span>ज़ेरे जुनूने आशिक़ी हैरत नहीं कि क्यों</span> <br/> <span>कोहे अमा में कोई दीदावर पहुँच गया //१०</span><br/> <br/> <span>टूटे हैं कब अमीर के घर बारिशों में राज़</span> <br/> <span>बामे ग़रीब तक तो अब्ला ख़र पहुँच गया //११</span><br/> <br/> <span>~राज़ नवादवी</span> <br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/> <br/> <span>ख़िते- ज़मीन का टुकड़ा जिसपे घर बने या बनाया जा सके; कोहे अमा- अन्धकार की वादी; अब्ला ख़र- बारिश</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८८tag:www.openbooksonline.com,2018-12-26:5170231:BlogPost:9670332018-12-26T10:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>2212 1212 2212 12</span> <br></br> <br></br> <span>रुक्का किसी का जेब में मेरी जो पा लिया</span> <br></br><span>उसने तो सर पे अपने सारा घर उठा लिया //१</span><br></br> <br></br> <span>लगने लगा है आजकल वीराँ ये शह्र-ए-दिल</span> <br></br> <span>नज्ज़ारा मेरी आँख से किसने चुरा लिया //२</span> <br></br> <br></br> <span>ममनून हूँ ऐ मयकशी, अय्यामे सोग में</span> <br></br> <span>दिल को शिकस्ता होने से तूने बचा लिया //३</span> <br></br> <br></br> <span>सरमा ए तल्खे हिज्र में सहने के वास्ते</span> <br></br> <span>दिल में बहुत थी माइयत, रोकर…</span></p>
<p><span>2212 1212 2212 12</span> <br/> <br/> <span>रुक्का किसी का जेब में मेरी जो पा लिया</span> <br/><span>उसने तो सर पे अपने सारा घर उठा लिया //१</span><br/> <br/> <span>लगने लगा है आजकल वीराँ ये शह्र-ए-दिल</span> <br/> <span>नज्ज़ारा मेरी आँख से किसने चुरा लिया //२</span> <br/> <br/> <span>ममनून हूँ ऐ मयकशी, अय्यामे सोग में</span> <br/> <span>दिल को शिकस्ता होने से तूने बचा लिया //३</span> <br/> <br/> <span>सरमा ए तल्खे हिज्र में सहने के वास्ते</span> <br/> <span>दिल में बहुत थी माइयत, रोकर सुखा लिया //४</span> <br/> <br/> <span>खाता था मुझसे प्यार की क़समें वो रात दिन</span> <br/> <span>मैंने भी उसकी बात रक्खी, आज़मा लिया //५</span> <br/> <br/> <span>गिरकर ज़मीने ख़ुल्द से पैदा हुआ जो मैं</span> <br/> <span>अपनी अना में ख़ुद को ही मैंने गिरा लिया //६</span> <br/> <br/> <span>बेचैन था वो गुलबदन बाजू में लेटकर</span> <br/> <span>बांहों में उसको हौले से मैंने सुला लिया //७</span> <br/> <br/> <span>मुतलाशी कब था हुस्न के अफ़्सूँ का 'राज़' मैं</span> <br/> <span>बुलबुल मिली जो बाग़ में तो दिल लगा लिया //८</span> <br/> <br/> <span>~राज़ नवादवी</span> <br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span><br/> <br/> <span>रुक्का- ख़त, चिट्ठी, पुर्जा; ममनून- आभारी; अय्यामे सोग- शोक भरे दिन; सरमा ए तल्खे हिज्र - वियोग की कड़कती ठण्ड की रुत; माइयत- नमी; ज़मीने ख़ुल्द- स्वर्ग की ज़मीन; मुतलाशी- तलाश करने वाला</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८७tag:www.openbooksonline.com,2018-12-25:5170231:BlogPost:9667272018-12-25T06:47:07.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>2212 1212 2212 12</span> <br></br><br></br><span>आती नहीं है नींद क्यों आँखों को रात भर</span><br></br><span>हमने तो उनसे की थी बस दो टूक बात भर //१</span><br></br><br></br><span>दिल में न और ज़िंदगी की ख्व़ाहिशात भर</span> <br></br><span>हस्ती है सबकी नफ़सियाती पुलसिरात भर //२</span> <br></br><br></br><span>पढ़ ले तू मेरी आँख में जो है लिखा हुआ</span> <br></br><span>गरचे किताबे दिल नहीं है काग़ज़ात भर //३</span> <br></br><br></br><span>हर आदमी में मौत की ज़िंदा है एक लौ</span><br></br><span>तारीकियों की बज़्म ये रौशन है रात भर //४…</span></p>
<p><span>2212 1212 2212 12</span> <br/><br/><span>आती नहीं है नींद क्यों आँखों को रात भर</span><br/><span>हमने तो उनसे की थी बस दो टूक बात भर //१</span><br/><br/><span>दिल में न और ज़िंदगी की ख्व़ाहिशात भर</span> <br/><span>हस्ती है सबकी नफ़सियाती पुलसिरात भर //२</span> <br/><br/><span>पढ़ ले तू मेरी आँख में जो है लिखा हुआ</span> <br/><span>गरचे किताबे दिल नहीं है काग़ज़ात भर //३</span> <br/><br/><span>हर आदमी में मौत की ज़िंदा है एक लौ</span><br/><span>तारीकियों की बज़्म ये रौशन है रात भर //४</span> <br/><br/><span>दुनिया के एहतिशाम का नश्शा उतर गया</span><br/><span>कासा-ए-दिल में ज़िंदगी आबे हयात भर //५</span> <br/><br/><span>ग़ालिब की तर्ज़ पर तुझे लिखनी है ग़र ग़ज़ल</span> <br/><span>ख़ूने जिगर से राज़ तू अपनी दवात भर //६</span> <br/><br/><span>~ राज़ नवादवी</span> <br/><br/><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/><br/><span>नफ़सियाती- मनोविज्ञान से संबंधित; पुलसिरात- नरक का पुल जिसे पार कर स्वर्ग मिलता है; एहतिशाम- वैभव, शानो-शौक़त; क़ासा ए दिल- ह्रदय का भिक्षा पात्र; आबे हयात - अमृत;</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८६tag:www.openbooksonline.com,2018-12-21:5170231:BlogPost:9661172018-12-21T06:00:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p>मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल </p>
<p><span> </span></p>
<p><span>१२२२ १२२२ १२२२ १२२२</span> <br></br> <br></br> <span>न हो जब दिल में कोई ग़म तो फिर लब पे फुगाँ क्यों हो</span> <br></br> <span>जो चलता बिन कहे ही काम तो मुँह में ज़बाँ क्यों हो //१</span><br></br> <br></br><span>जहाँ से लाख तू रह ले निगाहे नाज़ परदे में <br></br>तसव्वुर में तुझे देखूँ तो चिलमन दरमियाँ क्यों हो //२</span> <br></br> <br></br> <span>यही इक बात पूछेंगे तुझे सब मेरे मरने पे</span> <br></br> <span>कि तेरे देख भर लेने से कोई कुश्तगाँ क्यों हो…</span></p>
<p>मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल </p>
<p><span> </span></p>
<p><span>१२२२ १२२२ १२२२ १२२२</span> <br/> <br/> <span>न हो जब दिल में कोई ग़म तो फिर लब पे फुगाँ क्यों हो</span> <br/> <span>जो चलता बिन कहे ही काम तो मुँह में ज़बाँ क्यों हो //१</span><br/> <br/><span>जहाँ से लाख तू रह ले निगाहे नाज़ परदे में <br/>तसव्वुर में तुझे देखूँ तो चिलमन दरमियाँ क्यों हो //२</span> <br/> <br/> <span>यही इक बात पूछेंगे तुझे सब मेरे मरने पे</span> <br/> <span>कि तेरे देख भर लेने से कोई कुश्तगाँ क्यों हो //३</span><br/> <br/> <span>बसर जब है बियाबाँ में, बुरी फिर क्या ख़बर होगी</span> <br/><span>जिसे लूटा करे रहज़न वो मेरा कारवाँ क्यों हो //४</span><br/> <br/> <span>वो शाहिद है मेरे हाथों शिकस्ता जामो पैमां का</span> <br/> <span>कि मेरे मैक़दा आने से ख़ुश पीरे मुगाँ क्यों हो //५</span> <br/> <br/> <span>तुम्हीं तरगीब देते हो, तुम्हीं करते शिकायत भी</span> <br/> <span>रगों में गर न दौड़े खूँ तो आँखें खूँ फ़िशाँ क्यों हो //६</span> <br/> <br/> <span>समा ख़ाना बदोशों पर गिराये क्यों नहीं बिजली</span> <br/> <span>ज़मीं जब है नहीं उनकी तो फिर ये आस्माँ क्यों हो //७</span> <br/> <br/> <span>किया अग़राज़ ने महदूद तुमको तो गिला कैसा</span> <br/> <span>करे साहिल की जो सुहबत वो दरिया बेकराँ क्यों हो //८</span> <br/> <br/> <span>करो उम्मीद क्यों मुझसे सफ़र का हाल मैं पूछूँ</span> <br/> <span>हो जिसकी और ही मंज़िल वो मेरा हमरहाँ क्यों हो //९</span></p>
<p></p>
<p><span>कोई शिकवा नहीं मुझको तुम्हारी बदख़िसाली का</span> <br/><span>न हो जब परवरिश ऊँची तो लहज़ा शाएगाँ क्यों हो //१० </span><br/><br/><span>तू पानी दे रहा है क्यों दिले अफ़्गार को अपने</span> <br/><span>जिसे नज़रों से तू मारे वो आशिक़ नीम जाँ क्यों हो //११ </span><br/> <br/><span>बना हुलिया फ़क़ीरों का सफ़र तय कर रहे हैं 'राज़'</span><br/> <span>ख़ुदा की हो जिसे रग़बत वो मुश्ताक़े जहाँ क्यों हो //१२ </span> <br/> <br/> <span>~ राज़ नवादवी</span> <br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/> <br/> <span>फुगाँ- आर्तनाद, पुकार, दुहाई: उज़्व- अंग; नक़ूशे संदली बाज़ू- संदली बाहों के चित्र; कुश्तगाँ- मृत, मार दिया गया; शाहिद- गवाह; पीरे मुगाँ- मदिरालय का प्रबंधक; तरगीब- लालच, उत्तेजना, प्रेरणा; खूँ फ़िशाँ- न खून बरसाने वाला; समा- आकाश; अग़राज़- ग़रज़ का बहुवचन; महदूद- सीमित; बेकराँ- असीम; हमरहाँ- हम सफ़र; बदख़िसाली- बुरी प्रकृति/ बुरा स्वभाव; शाएगाँ- उत्तम, बढ़िया; नीम जान- अधमरा; रग़बत- इच्छा, अभिलाषा, रूचि, चाह; मुश्ताक़े जहाँ- दुनिया की चाह रखने वाला;</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८५tag:www.openbooksonline.com,2018-12-17:5170231:BlogPost:9655662018-12-17T14:11:06.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२२१२ १२१२ २२१२ १२</span> <br></br><br></br><span>हस्ती का मरहला सभी इक इक गुज़र गया</span> <br></br><span>मैं भी तमाशा बीन था, अपने ही घर गया //१</span><br></br><br></br><span>इश्वागरी के खेल से मैं यूँ अफ़र गया</span> <br></br><span>सारा जुनूने आशिक़ी सर से उतर गया //२</span><br></br><br></br><span>खोया न मैं हवास को आई जो नफ़्से मौत</span> <br></br><span>ज़िंदा हुआ मशामे जाँ, मैं जबकि मर गया //३</span> <br></br><br></br><span>हैराँ हूँ अपने शौक़ की तब्दीलियों पे मैं</span> <br></br><span>नश्शा था तेरे हुस्न का, कैसे उतर गया //४…</span></p>
<p><span>२२१२ १२१२ २२१२ १२</span> <br/><br/><span>हस्ती का मरहला सभी इक इक गुज़र गया</span> <br/><span>मैं भी तमाशा बीन था, अपने ही घर गया //१</span><br/><br/><span>इश्वागरी के खेल से मैं यूँ अफ़र गया</span> <br/><span>सारा जुनूने आशिक़ी सर से उतर गया //२</span><br/><br/><span>खोया न मैं हवास को आई जो नफ़्से मौत</span> <br/><span>ज़िंदा हुआ मशामे जाँ, मैं जबकि मर गया //३</span> <br/><br/><span>हैराँ हूँ अपने शौक़ की तब्दीलियों पे मैं</span> <br/><span>नश्शा था तेरे हुस्न का, कैसे उतर गया //४</span> <br/><br/><span>सस्ते में दामे बूद से मुझको मिली नज़ात</span><br/><span>छूटा गिरफ़्ते ख़ुद से मैं तो अल हज़र गया //५</span> <br/><br/><span>ख़िल्वत में मुझसे यूँ हुआ मुतलक़ वो हमगुजीं</span><br/><span>आया था वक़्त शब लिए, पर बे सहर गया //६</span> <br/><br/><span>रहता है जामे सुब्ह का ज्यों देर तक ख़ुमार</span><br/><span>मुद्दत में पहले प्यार का दिल से असर गया //७</span> <br/><br/><span>जो भी ज़रब मिली मुझे अपनों से ही मिली</span> <br/><span>ग़ैरों से मिलने बेवजह सीना सिपर गया //८</span> <br/><br/><span>अफ़साना अपने प्यार का बादल सा था ख़फ़ीफ़</span><br/><span>बारिश की ठंढी बूँद में गिरकर बिखर गया //९</span> <br/><br/><span>मेरी ख़ुदी के हिफ्ज़ का जिम्मा था दिल के सर</span> <br/><span>सय्याद बनके मेरे ही डैने क़तर गया //१०</span> <br/><br/><span>ज़ाहिद हुआ यूँ 'राज़' मैं करके किसी से इश्क़</span> <br/><span>लेके ख़ुदा के घर भी मैं जाज़िब नज़र गया //११</span> <br/><br/><span>~राज़ नवादवी</span> <br/><br/><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span><br/><br/><span>इश्वागरी - हाव-भाव दिखाने की मुद्रा; नफ़्से मौत- मृत्यु का क्षण; मशामे जाँ- आत्मा; दामे बूद- अस्तित्व की क़ैद; नज़ात- छुटकारा; अल हज़र- ख़ुदा की पनाह; ख़िल्वत- एकांत; मुतलक़- नितांत, बिलकुल; ज़रब- चोट, ज़ख्म; सीना सिपर- छाती का सुरक्षा कवच; ख़फ़ीफ़- हल्का; हिफ्ज़- सुरक्षा; जाहिद- ऋषि, ब्रह्मचारी; जाज़िब नज़र- आकर्षक दृष्टि;</span> <br/><br/><br/></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८४tag:www.openbooksonline.com,2018-12-13:5170231:BlogPost:9651822018-12-13T22:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>2212 1212 2212 12</span> <br></br> <br></br> <span>अच्छे बुरे का बार है सबके ज़मीर पे</span> <br></br> <span>ख़ुद को जवाब देना है नफ़्से अख़ीर पे //१</span> <br></br> <br></br> <span>रख ले मुझे तू चाहे जितना नोके तीर पे</span> <br></br> <span>मरने का ख़ौफ़ हो भी क्या दिल के असीर पे //२</span> <br></br> <br></br> <span>कुछ रह्म तो दिखा मेरे शौक़े कसीर पे</span> <br></br> <span>पाबंदियाँ लगा न दीदे ना-गुज़ीर पे //३</span> <br></br> <br></br> <span>यकता है इस जहान में क़ुदरत की हर मिसाल</span> <br></br> <span>तामीरे ख़ल्क़ मुन्हसिर है कब नज़ीर पे…</span></p>
<p><span>2212 1212 2212 12</span> <br/> <br/> <span>अच्छे बुरे का बार है सबके ज़मीर पे</span> <br/> <span>ख़ुद को जवाब देना है नफ़्से अख़ीर पे //१</span> <br/> <br/> <span>रख ले मुझे तू चाहे जितना नोके तीर पे</span> <br/> <span>मरने का ख़ौफ़ हो भी क्या दिल के असीर पे //२</span> <br/> <br/> <span>कुछ रह्म तो दिखा मेरे शौक़े कसीर पे</span> <br/> <span>पाबंदियाँ लगा न दीदे ना-गुज़ीर पे //३</span> <br/> <br/> <span>यकता है इस जहान में क़ुदरत की हर मिसाल</span> <br/> <span>तामीरे ख़ल्क़ मुन्हसिर है कब नज़ीर पे //४</span> <br/> <br/> <span>कोई बनाए हुस्न को तेरे भी पाएदार</span> <br/> <span>वरना निशाना क्या लगे हद्फ़े शरीर पे //५</span> <br/> <br/> <span>देता है बख्त किसलिए मुझको जहाँ का ग़म</span> <br/> <span>दुनिया का कुछ असर नहीं होता फ़क़ीर पे //६</span> <br/> <br/> <span>करना बसर ये ज़िंदगी आसान काम है</span> <br/> <span>इक सीध होके चलना है टेढ़ी लकीर पे //७</span> <br/> <br/> <span>बाज़ीचा-ए-अमा से कब तक खेलना है 'राज़'</span> <br/> <span>बरसाए शम्स नूर क्या ज़ुल्मत पज़ीर पे //८</span> <br/> <br/> <span>~ राज़ नवादवी</span> <br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित</span> <br/> <br/> <span>बार- बोझ; नफ़्से अख़ीर- अस्तित्व के आख़िर पे; असीर- बंदी; शौक़े कसीर- खंडित अभिलाषा; ना-गुज़ीर- अपरिहार्य/ आवश्यक/ लाज़िमी; यकता- बेमिस्ल, अद्वितीय; तामीरे ख़ल्क़- सृष्टि का निर्माण; मुनहसिर- निर्भर; नज़ीर- उदाहरण; पाएदार- स्थायी; हद्फ़े शरीर- ऐसा लक्ष्य जो स्थिर न हो, चपल हो; बख्त- भाग्य; बाज़ीचा-ए-अमा- अन्धकार के खिलौने; शम्स- सूर्य; नूर- प्रकाश; ज़ुल्मत पज़ीर- जिसने अँधेरे को स्वीकार कर लिया हो</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८३tag:www.openbooksonline.com,2018-12-13:5170231:BlogPost:9653402018-12-13T22:21:21.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२१२२ २१२२ २१२२ २१२</span> <br></br><br></br><span>दिल मेरा ख़ाली नहीं ज्यों कस्रते आज़ार से</span> <br></br><span>है फुगाँ मजबूर अपनी फ़ितरते इसरार से //१</span><br></br><br></br><span>लाख समझाऊँ तेरी तब-ए-सितम को प्यार से</span> <br></br><span>तू मुकर जाता है अपने वादा-ए-इक़रार से //२</span> <br></br><br></br><span>वस्ल की तश्नालबी बढ़ जाती है दीदार से</span> <br></br><span>कम नहीं फिर दिल ये चाहे सुहबते बिस्यार से //३</span> <br></br><br></br><span>आ गए जब तंग हम हर वक़्त की गुफ़्तार से</span> <br></br><span>सीख ली हमने ज़ुबाने ख़ामुशी…</span></p>
<p><span>२१२२ २१२२ २१२२ २१२</span> <br/><br/><span>दिल मेरा ख़ाली नहीं ज्यों कस्रते आज़ार से</span> <br/><span>है फुगाँ मजबूर अपनी फ़ितरते इसरार से //१</span><br/><br/><span>लाख समझाऊँ तेरी तब-ए-सितम को प्यार से</span> <br/><span>तू मुकर जाता है अपने वादा-ए-इक़रार से //२</span> <br/><br/><span>वस्ल की तश्नालबी बढ़ जाती है दीदार से</span> <br/><span>कम नहीं फिर दिल ये चाहे सुहबते बिस्यार से //३</span> <br/><br/><span>आ गए जब तंग हम हर वक़्त की गुफ़्तार से</span> <br/><span>सीख ली हमने ज़ुबाने ख़ामुशी दीवार से //४</span> <br/><br/><span>क़ुव्वते दिल है ज़रूरी लड़ने को मंझधार से</span> <br/><span>कश्तियाँ चलती फ़क़त कब हाथ में पतवार से //५</span> <br/><br/><span>आओ दुनिया को बदल दें इक नई यलगार से</span> <br/><span>सरहदों पे, या हो दिल पे, वास्ता है वार से //६</span> <br/><br/><span>फ़त्हे जाँ से क़ब्ल फ़त्हे दिल की हम कोशिश करें</span><br/><span>हो कलम से काम जब क्यों काम लें तलवार से //७</span> <br/><br/><span>चुप भी रहकर उनसे दिल की राह क्या होती, मगर</span> <br/><span>मसअला कुछ और उलझा कोशिशे इज़हार से //८</span> <br/><br/><span>जानता हूँ मैं फरेबे हुस्न की चालाकियाँ</span><br/><span>है उन्हें आदत सी 'हाँ' भी करने की इनकार से //९</span> <br/><br/><span>बे समर सा आदमी सूखा शज़र हो जाता है</span> <br/><span>झूठ के कीड़े चिपकने जब लगें किरदार से //१०</span> <br/><br/><span>हों पशेमाँ याद कर अपने सितम की शिद्दतें</span> <br/><span>हाल पुर्सिश जब करें वो अपने ही बीमार से //११</span> <br/><br/><span>इश्क़ में जीना भी मरने की तरह इक बार है</span> <br/><span>इक दफ़ा से जो न हो फिर वो न हो सौ बार से //१२</span> <br/><br/><span>राज़ को अफ़सोस क्या हो फ़ितरते अफ़्सुर्दा का</span> <br/><span>जुज़ ग़मे दिल निकले भी क्या सीना-ए-अफ़्गार से //१३</span> <br/><br/><span>~ राज़ नवादवी</span> <br/><br/><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित</span> <br/><br/><span>कस्रते आज़ार- रंज का आधिक्य; फुगाँ- आर्तनाद, पुकार, दुहाई; फ़ितरते इसरार- बार-बार कहने की आदत, ज़िद या हठ करने का स्वभाव; सुहबते बिस्यार- प्रचुर साहचर्य; गुफ़्तार- वार्तालाप, बातचीत; यलगार- आक्रमण, धावा; बे समर- बिना फल के; फ़ितरते अफ़्सुर्दा- उदास रहने का स्वभाव; सीना-ए-अफ़्गार- क्षत-विक्षत सीना</span> <br/><br/></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८२tag:www.openbooksonline.com,2018-12-12:5170231:BlogPost:9650832018-12-12T13:08:02.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२१२२ २१२२ २१२२ २१२</span> <br></br><br></br><span>जह्र बनके काम करती है दवाई देख ली</span> <br></br><span>अच्छे अच्छों की भी हमने रहनुमाई देख ली //१</span><br></br><br></br><span>पीठ पीछे मर्तबा ए बे अदाई देख ली</span> <br></br><span>तेरी भी मेहमाँ नवाज़ी हमने, भाई देख ली //२</span> <br></br><br></br><span>आरज़ी थी दो दिनों की जाँ फ़िज़ाई देख ली</span> <br></br><span>इश्क़ की ताबे जुनूने इब्तिदाई देख ली //३</span> <br></br><br></br><span>दिन को सोना और शब की रत-जगाई देख ली</span> <br></br><span>मय की जो भी कैफ़ियत थी इंतिहाई देख ली…</span></p>
<p><span>२१२२ २१२२ २१२२ २१२</span> <br/><br/><span>जह्र बनके काम करती है दवाई देख ली</span> <br/><span>अच्छे अच्छों की भी हमने रहनुमाई देख ली //१</span><br/><br/><span>पीठ पीछे मर्तबा ए बे अदाई देख ली</span> <br/><span>तेरी भी मेहमाँ नवाज़ी हमने, भाई देख ली //२</span> <br/><br/><span>आरज़ी थी दो दिनों की जाँ फ़िज़ाई देख ली</span> <br/><span>इश्क़ की ताबे जुनूने इब्तिदाई देख ली //३</span> <br/><br/><span>दिन को सोना और शब की रत-जगाई देख ली</span> <br/><span>मय की जो भी कैफ़ियत थी इंतिहाई देख ली //४</span> <br/><br/><span>गर भरा हो जाम पूरा तो छलक ही जाता है</span> <br/><span>लब ने जोशे कैफ़ की बे-एतिनाई देख ली //५</span> <br/><br/><span>ता हलक लबरेज़ ख़ुम को चैन कब मैकश बिना</span> <br/><span>रायगाँ साक़ी से कर दीदा दराई देख ली //६</span> <br/><br/><span>तू अलग कुछ भी नहीं मेरी अना की साख्त से</span> <br/><span>मैंने करके तेरी भी उक़दा कुशाई देख ली //७</span> <br/><br/><span>है फुगाँ भी बेख़बर ख़ुद बाईसे आज़ार से</span> <br/><span>करके उसने रोज़ो शब नाला-सराई देख ली //८</span> <br/><br/><span>देखना क्या उस नज़र का और बाक़ी रह गया</span> <br/><span>जिसने रेज़े रेज़े में क़ुदरत नुमाई देख ली //९</span> <br/><br/><span>राज़ हमने हिन्द में जम्हूरियत के नाम पे</span> <br/><span>ख़ानदानी हिज्ब की भी पेशवाई देख ली //१०</span> <br/><br/><span>~ राज़ नवादवी</span> <br/><br/><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/><br/><span>मर्तबा- श्रेणी, दर्ज़ा</span> <br/><span>बे अदाई- अशिष्टाचार</span> <br/><span>आरज़ी- अस्थाई</span> <br/><span>जाँ फ़िज़ाई- ताज़ा या पुनर्जीवित करना</span><br/><span>ताबे जुनूने इब्तिदाई- प्रारंभिक जुनून की चमक</span> <br/><span>बे-एतिनाई- लापरवाही, ध्यान न देना</span> <br/><span>ख़ुम- शराब रखने की सुराही</span> <br/><span>रायगाँ- व्यर्थ</span> <br/><span>दीदा दराई- आँख से आँख मिलाकर देखना</span> <br/><span>अना- स्वयं, ईगो</span> <br/><span>साख्त- बनावट</span> <br/><span>उकदा कुशाई- गाँठ खोलना</span><br/><span>फ़ुगाँ- आर्तनाद, दुहाई, पुकार</span> <br/><span>बाईसे आज़ार- रंज, मुसीबत, रोग का कारण</span> <br/><span>नाला-सराई- दुःख का गान</span> <br/><span>जम्हूरियत- प्रजातंत्र</span> <br/><span>हिज्ब- पक्ष, दल</span> <br/><span>पेशवाई- नेतृत्व</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८१tag:www.openbooksonline.com,2018-12-12:5170231:BlogPost:9651462018-12-12T09:00:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>2122 1122 1122 22/ 112</span><br></br> <br></br> <span>बज़्मे अग्यार में नासूरे नज़र होने तक</span> <br></br> <span>क्यों रुलाता है मुझे दीदा-ए-तर होने तक //१</span><br></br> <br></br> <span>कितने मुत्ज़ाद हैं आमाल उसके कौलों से</span> <br></br> <span>टुकड़े करता है मेरा लख़्ते जिगर होने तक //२</span> <br></br> <br></br> <span>गिर के आमाल की मिट्टी में ये जाना मैंने</span><br></br> <span>तुख़्म को रोज़ ही मरना है शज़र होने तक //३</span> <br></br> <br></br> <span>मौत का ज़ीस्त में मतलब है अबस हो जाना</span> <br></br> <span>ज़िंदा हूँ हालते…</span></p>
<p><span>2122 1122 1122 22/ 112</span><br/> <br/> <span>बज़्मे अग्यार में नासूरे नज़र होने तक</span> <br/> <span>क्यों रुलाता है मुझे दीदा-ए-तर होने तक //१</span><br/> <br/> <span>कितने मुत्ज़ाद हैं आमाल उसके कौलों से</span> <br/> <span>टुकड़े करता है मेरा लख़्ते जिगर होने तक //२</span> <br/> <br/> <span>गिर के आमाल की मिट्टी में ये जाना मैंने</span><br/> <span>तुख़्म को रोज़ ही मरना है शज़र होने तक //३</span> <br/> <br/> <span>मौत का ज़ीस्त में मतलब है अबस हो जाना</span> <br/> <span>ज़िंदा हूँ हालते बेजा में गुज़र होने तक //४</span> <br/> <br/> <span>बूदे आफ़ाक़ी का दरमाँ नहीं है दुनिया में</span> <br/> <span>जीना पड़ता है फ़रिश्तों की नज़र होने तक //५</span> <br/> <br/> <span>क़ब्ल मिलने से तेरे कब था सुकूं जीने में</span> <br/> <span>रहगुज़ारों में भटकते रहे घर होने तक //६</span> <br/> <br/> <span>उसने शाइस्तगी से क़त्ल मेरा कर डाला</span> <br/> <span>ज़िंदा रक्खा है किसे उसने ख़बर होने तक //७</span> <br/> <br/> <span>दुख में फ़ौरन ही दवा काम नहीं करती है</span> <br/> <span>दर्द को झेलना पड़ता है असर होने तक //८</span> <br/> <br/> <span>ख़्वाबबीदा है अगरचे ये ज़माना शब में</span> <br/> <span>रात ख़ुद जागती है वक़्ते सहर होने तक //९</span> <br/> <br/> <span>इश्क़ उसका है फ़ुसूं 'राज़' ख़यालों में मेरे</span> <br/></p>
<p>रेग का सीप में तब्दीले गुहर होने तक <span>//१०</span> <br/> <br/> <span>~राज़ नवादवी</span> <br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/> <br/> <span>बज़्मे अग्यार- ग़ैर लोगों की महफ़िल; मुत्ज़ाद- परस्पर विरोधी, विपरीत; आमाल- कर्म; कॉल- कथन; लख्ते जिगर- जिगर का टुकड़ा, प्यारा होना; तुख्म- बीज; शज़र- पौधा, पेड़; अबस- निष्फल, व्यर्थ; बूदे आफ़ाकी- सांसारिक अस्तित्व; दरमाँ- इलाज; ख़्वाबबीदा- ख़्वाब में डूबा; सदफ़- सीप; तख़लीक़े गुहर- मोती की रचना</span> <br/> <br/> <br/> <br/> <br/></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८०tag:www.openbooksonline.com,2018-12-08:5170231:BlogPost:9647752018-12-08T09:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२१२२ २१२२ २१२२ २१२</span> <br></br> <br></br> <span>ज़र्बे दिल तू दे, पे हम दिल की दवाई तो करें</span> <br></br> <span>हम तेरी ख़ू ए गुनह की मुस्तफ़ाई तो करें //१</span><br></br> <br></br> <span>कह के दिल की बात किस्मत आज़माई तो करें</span> <br></br> <span>करते हों गर वो जो मुझसे कज अदाई तो करें //२ </span><br></br> <br></br> <span>नफ़रतों को ख़त्म कर दिल की सफ़ाई तो करें</span> <br></br><span>आप समझें गर हमें भी अपना भाई,तो करें //३ </span><br></br> <br></br> <span>गर मिलें हम, कुछ नहीं पर, ख़ुश अदाई तो करें </span><br></br> <span>आप हमसे…</span></p>
<p><span>२१२२ २१२२ २१२२ २१२</span> <br/> <br/> <span>ज़र्बे दिल तू दे, पे हम दिल की दवाई तो करें</span> <br/> <span>हम तेरी ख़ू ए गुनह की मुस्तफ़ाई तो करें //१</span><br/> <br/> <span>कह के दिल की बात किस्मत आज़माई तो करें</span> <br/> <span>करते हों गर वो जो मुझसे कज अदाई तो करें //२ </span><br/> <br/> <span>नफ़रतों को ख़त्म कर दिल की सफ़ाई तो करें</span> <br/><span>आप समझें गर हमें भी अपना भाई,तो करें //३ </span><br/> <br/> <span>गर मिलें हम, कुछ नहीं पर, ख़ुश अदाई तो करें </span><br/> <span>आप हमसे इतनी भी वादा वफ़ाई तो करें //४ </span><br/> <br/> <span>है पता उनके सियासी फ़न की भी बाज़ीगरी</span> <br/> <span>रहनुमा जो हैं वो पहले रहनुमाई तो करें //५ </span><br/> <br/> <span>आओ देखें तो तवालत हम तनाबे इश्क़ की</span> <br/> <span>हों निसारे जाँ तेरे, उकदा कुशाई तो करें //६ </span><br/> <br/> <span>तू नहीं है रू ब रू पर फ़िक्र में दायम तो है</span> <br/> <span>हिज्र में इस वस्ल की हम रू नुमाई तो करें //७ </span><br/> <br/> <span>हैं नहीं दरकार हमको जिस्म की आसाइशें</span><br/> <span>दे ख़ुदा इतना कि हम हाज़त रवाई तो करें //८ </span><br/> <br/> <span>आबे ज़मज़म ही समझ कर पीलें अपने अश्क 'राज़'</span> <br/> <span>प्यास के मारे हैं हम, रोज़ा कुशाई तो करें //९ </span><br/> <br/> <span>~ राज़ नवादवी </span><br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित" </span><br/> <br/> <span>ख़ू- आदत; मुस्तफ़ाई- पवित्र और पुनीत बनाना, मुस्तफ़ा का काम करना; कज अदाई- ग़लत ढंग से पेश आना; ख़ुश अदाई- सकारात्मक भाव-भंगिमा; तवालत- लम्बाई; वादा वफ़ाई- वादे को पूरा करना; तनाब- रज्जू; उकदा कुशाई- गाँठ खोलना; दायम- नित्य; आबे ज़मज़म- ज़मज़म नदी का पवित्र पानी; हाज़त रवाई- आवश्यकता की पूर्ति; आसाइशें- सुख, चैन; रोज़ा कुशाई- व्रत तोड़ना; </span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७९tag:www.openbooksonline.com,2018-12-06:5170231:BlogPost:9647402018-12-06T09:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२२१२ २२१२ २२१२ १२</span> <br></br> <br></br> <span>जब से मैं अपने दिल का सूबेदार हो गया</span> <br></br> <span>सहरा भी मेरे डर से लालाज़ार हो गया //१</span><br></br> <br></br> <span>छोड़ा जो तूने साथ, ख़ुद मुख्तार हो गया</span> <br></br> <span>तू क्या, ज़माना मेरा ख़िदमतगार हो गया //२</span><br></br> <br></br> <span>आईन मेरा ग़ैर क्या बतलायेंगे मुझे</span> <br></br> <span>मैं ख़ुद ही अपना आइना बरदार हो गया //३</span><br></br> <br></br> <span>गर बेमज़ा है आशिक़ी मेरे हवाले से</span> <br></br> <span>तू क्यों फ़साने में मेरे किरदार हो गया…</span></p>
<p><span>२२१२ २२१२ २२१२ १२</span> <br/> <br/> <span>जब से मैं अपने दिल का सूबेदार हो गया</span> <br/> <span>सहरा भी मेरे डर से लालाज़ार हो गया //१</span><br/> <br/> <span>छोड़ा जो तूने साथ, ख़ुद मुख्तार हो गया</span> <br/> <span>तू क्या, ज़माना मेरा ख़िदमतगार हो गया //२</span><br/> <br/> <span>आईन मेरा ग़ैर क्या बतलायेंगे मुझे</span> <br/> <span>मैं ख़ुद ही अपना आइना बरदार हो गया //३</span><br/> <br/> <span>गर बेमज़ा है आशिक़ी मेरे हवाले से</span> <br/> <span>तू क्यों फ़साने में मेरे किरदार हो गया //४</span> <br/> <br/> <span>मजनूँ बना मैं इश्क़ में, आँसू की क्या बिसात</span> <br/> <span>जोशे जुनूँ में चश्म से खूँबार हो गया //५</span><br/> <br/> <span>लुत्फ़े हुबाबे इश्क़ की हस्ती न थी दराज़ //६</span><br/> <span>पैदा हुआ वो जिस घड़ी मिस्मार हो गया</span> <br/> <br/> <span>साया ख़ुद अपने यास का आया हमारे काम</span> <br/> <span>तीरा-ए-ग़म में ज़ानू-ए-ग़मख़्वार हो गया //७</span><br/> <br/> <span>दिल मुहलते फ़िराक़ में सोज़ाँ था हर घड़ी</span> <br/> <span>यूँ इश्क़ मेरा आतिशे फ़िन्नार हो गया //८</span> <br/> <br/> <span>जब तक जहाँ था क़ल्ब में कुछ ना दिखा मुझे</span><br/> <span>देखा शिफ़र तो ख़ल्क़ का दीदार हो गया //९</span> <br/> <br/> <span>उस माहरू का 'राज़' मैं कैसे करूँ इलाज</span> <br/> <span>तीमारदारी में मैं ख़ुद बीमार हो गया //१०</span> <br/> <br/> <span>~राज़ नवादवी</span> <br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/> <br/> <span>सूबेदार- सूबे का शासक; लालाज़ार- लाल फूलों का खेत; आईन- नियम, क़ानून; आइना बरदार- आइना ढोने वाला; खूँबार- खून बरसाने वाला; मिस्मार- ध्वस्त; तीरा-ए-ग़म- ग़म का अन्धकार; लुत्फ़े हुबाबे इश्क़- प्रेम के बुलबुले का आनंद; जानू-ए-ग़मख़्वार- ग़म में सांत्वना देनेवाला का घुटना; फ़िन्नार- नरक, पर्गेटरी;</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७८tag:www.openbooksonline.com,2018-12-05:5170231:BlogPost:9647242018-12-05T09:57:05.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>१२१२ ११२२ १२१२ २२ </span><br></br><br></br><span>कभी तो बख्त ये मुझपे भी मेहरबाँ होगा</span> <br></br><span>मेरी ज़मीन के ऊपर भी आस्माँ होगा //१</span><br></br><br></br><span>गवाह भी नहीं उसका न कुछ निशाँ होगा</span> <br></br><span>जो तेरे हुस्न के ख़ंजर से कुश्तगाँ होगा //२</span> <br></br><br></br><span>हम एक गुल से परेशाँ हैं उसकी तो सोचो</span> <br></br><span>वो शख्स जिसकी हिफ़ाज़त में गुलसिताँ होगा //३</span> <br></br><br></br><span>ये ख़ल्क हुब्बे इशाअत का इक नतीजा है</span> <br></br><span>गुमाँ नहीं था कि होना सुकूंसिताँ होगा…</span></p>
<p><span>१२१२ ११२२ १२१२ २२ </span><br/><br/><span>कभी तो बख्त ये मुझपे भी मेहरबाँ होगा</span> <br/><span>मेरी ज़मीन के ऊपर भी आस्माँ होगा //१</span><br/><br/><span>गवाह भी नहीं उसका न कुछ निशाँ होगा</span> <br/><span>जो तेरे हुस्न के ख़ंजर से कुश्तगाँ होगा //२</span> <br/><br/><span>हम एक गुल से परेशाँ हैं उसकी तो सोचो</span> <br/><span>वो शख्स जिसकी हिफ़ाज़त में गुलसिताँ होगा //३</span> <br/><br/><span>ये ख़ल्क हुब्बे इशाअत का इक नतीजा है</span> <br/><span>गुमाँ नहीं था कि होना सुकूंसिताँ होगा //४</span> <br/><br/><span>बदलते दौर में हैरत नहीं तेरा अपना</span> <br/><span>भले ही ज़ख्म न दे पर, नमकफ़िशाँ होगा //५</span> <br/><br/><span>लकीरे बख़्त में ख़ालिक़ ने लिख दिया है 'राज़' //६</span> <br/><span>ख़याले यार ही आशिक़ का ख़ानुमाँ होगा</span><br/><br/><span>~ राज़ नवादवी</span> <br/><br/><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/><br/><span>बख्त- किस्मत; कुश्तगाँ- मारा गया; हुब्बे इशाअत- प्रकट होने की चाह; लकीरे बख़्त- भाग्य की रेखा; सुकूंसिताँ- सुकूं ले जाने वाला; नमकफ़िशाँ- नमक छिड़कने वाला; ख़ानुमाँ- घर</span> <br/><br/></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७७tag:www.openbooksonline.com,2018-12-03:5170231:BlogPost:9643762018-12-03T14:00:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>2122 2122 2122 212</span><br></br> <br></br> <span>बाग़पैरा क्या करे गुल ही न माने बात जब</span><br></br> <span>शम्स का रुत्बा नहीं कुछ, हो गई हो रात जब //१</span><br></br> <br></br> <span>बाँध देना गाँठ में तुम गाँव की आबोहवा</span> <br></br> <span>शह्र के नक्शे क़दम पर चल पड़ें देहात जब //२</span><br></br> <br></br></p>
<p>दोस्त मंसूबा बनाऊं मैं भी तुझसे वस्ल का</p>
<p>तोड़ दें तेरी हया को मेरे इक़दमात जब <span>//३</span> <br></br> <br></br> <span>इक किरन सी फूटने को आ गई बामे उफ़ुक़</span> <br></br> <span>रौशनी की जुस्तजू में खो गया…</span></p>
<p><span>2122 2122 2122 212</span><br/> <br/> <span>बाग़पैरा क्या करे गुल ही न माने बात जब</span><br/> <span>शम्स का रुत्बा नहीं कुछ, हो गई हो रात जब //१</span><br/> <br/> <span>बाँध देना गाँठ में तुम गाँव की आबोहवा</span> <br/> <span>शह्र के नक्शे क़दम पर चल पड़ें देहात जब //२</span><br/> <br/></p>
<p>दोस्त मंसूबा बनाऊं मैं भी तुझसे वस्ल का</p>
<p>तोड़ दें तेरी हया को मेरे इक़दमात जब <span>//३</span> <br/> <br/> <span>इक किरन सी फूटने को आ गई बामे उफ़ुक़</span> <br/> <span>रौशनी की जुस्तजू में खो गया ज़ुल्मात जब //४</span> <br/> <br/> <span>देखिए फिर से समंदर अब्र कब पैदा करे</span> <br/> <span>आसमां में क्या मिले वो हो चुकी बरसात जब //५</span> <br/> <br/><span>किसलिए बीते दिनों की हाय तौबा कीजिए</span> <br/> <span>हाल में ख़ुद हों नुमायाँ माज़ी के असरात जब //६ </span><br/> <br/> <span>करवटें कर लीजे अपनी लुत्फ़े फ़र्दा की तरफ़</span> <br/> <span>ख्व़ाब में आके डराये चेहरा-ए-माफ़ात जब //७ </span><br/> <br/> <span>क्या करें घोड़े प्यादे, क्या करें अब फ़ील भी</span> <br/> <span>खा चुके शतरंज की बाज़ी में शह और मात जब //८ </span><br/> <br/> <span>है हमारी ज़िंदगानी गर्दिशे अय्याम सी</span><br/> <span>वस्ल का इम्काँ भी क्या, हों हिज्र में दिन रात जब //९ </span> <br/> <br/> <span>ख़ुद में पैदा कीजिए इक कैफ़ियत तस्लीम की</span> <br/> <span>शौक़े दिल का साथ न दें बेवफ़ा हालात जब //१० </span><br/> <br/> <span>जान लेने की क़सम थी जान देने के लिए</span> <br/> <span>कर न तू वादा खिलाफ़ी हो गई है बात जब //११</span><br/> <br/> <span>हो इशाअत हम पे भी नज़रे करम ए हुस्न की</span> <br/> <span>राज़ की हाज़िर जवाबी से मिटें ख़द्शात जब //१२ </span> <br/> <br/> <span>~ राज़ नवादवी</span> <br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span><br/> <br/> <span>बाग़पैरा- माली, बाग़ की देखभाल करने वाला; शम्स- सूर्य; इक्दामात- अग्रसरता, पहल; बामे उफ़ुक़- क्षितिज के छज्जे पर; ज़ुल्मात- अँधेरे; गुज़राने गम- दुःख का आगमन; नुमायाँ- प्रकट; फ़र्दा- आने वाला कल; माफ़ात- जो व्यतीत हो हो; गर्दिशे अय्याम- दिन रात का चक्कर; वस्ल- मिलन; इम्काँ- संभावना; तस्लीम- स्वीकार करना; इशाअत- प्रकटन; ख़द्शात- शंकाएँ</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७६tag:www.openbooksonline.com,2018-12-01:5170231:BlogPost:9645162018-12-01T21:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>2121 2121 2121 212</span><br></br> <br></br> <span>उड़ रहे थे पैरों से ग़ुबार, देखते रहे</span><br></br> <span>वो न लौटे जबकि हम हज़ार देखते रहे //१</span> <br></br> <br></br> <span>ताब उसकी, बू भी उसकी, रंग भी था होशकुन</span> <br></br> <span>गुल को कितनी हसरतों से ख़ार देखते रहे //२</span> <br></br> <br></br> <span>हम तो राह देखते थे उनके आने की मगर</span><br></br> <span>वो हमारा सब्रे इन्तेज़ार देखते रहे //३</span></p>
<p></p>
<p>तोड़ते थे बेदिली से वो मकाने इश्क़, हम </p>
<p>टूटते मकाँ का इंतेशार देखते रहे //४ …</p>
<p><br></br></p>
<p><span>2121 2121 2121 212</span><br/> <br/> <span>उड़ रहे थे पैरों से ग़ुबार, देखते रहे</span><br/> <span>वो न लौटे जबकि हम हज़ार देखते रहे //१</span> <br/> <br/> <span>ताब उसकी, बू भी उसकी, रंग भी था होशकुन</span> <br/> <span>गुल को कितनी हसरतों से ख़ार देखते रहे //२</span> <br/> <br/> <span>हम तो राह देखते थे उनके आने की मगर</span><br/> <span>वो हमारा सब्रे इन्तेज़ार देखते रहे //३</span></p>
<p></p>
<p>तोड़ते थे बेदिली से वो मकाने इश्क़, हम </p>
<p>टूटते मकाँ का इंतेशार देखते रहे //४ </p>
<p><br/> <span>सख़्त जाँ बनाने दरम्यानी ऐतबार को</span> <br/> <span>टूटता है कैसे ऐतबार, देखते रहे //५ </span></p>
<p><br/> <span>देखते थे टकटकी निगाह से उन्हें भी हम</span> <br/> <span>हैरतों से हम को भी मज़ार देखते रहे //६ </span><br/> <br/> <span>सर्फ़ हो रही थी साँस साँस अपनी ज़िंदगी</span> <br/> <span>उड़ रही थी धूल बेशुमार, देखते रहे //७ </span><br/> <br/> <span>हम गिरीबाँ चाक होके देखते थे उनकी सू </span><br/> <span>वो हमारा ज़ख्मे आश्कार देखते रहे //८ </span><br/> <br/> <span>आ रही थी लाश सरहदों से मरने वालों की</span> <br/> <span>रोके रिश्ते दार ज़ार ज़ार देखते रहे //९</span><br/> <br/> <span>हम किसी फ़क़ीर की तरह जहाँ से चल दिए</span><br/> <span>जो न थे तबा से बुर्दबार, देखते रहे //१० </span><br/> <br/> <span>ले गए उड़ा के माल साहिबाने इक़्तेदार</span> <br/> <span>जो थे इनके सच में दावेदार, देखते रहे //११ </span><br/> <br/> <span>जब भी बात इश्क़ में उठी जफ़ा ओ ज़ुल्म की</span> <br/> <span>लोग क्यों तुझे ही बार बार देखते रहे //१२</span><br/> <br/> <span>जैसे कोई देखता है अपने घर को टूटता</span> <br/> <span>राज़ हम यूँ कूचा ए निगार देखते रहे //१३ </span><br/> <br/> <span>~राज़ नवादवी</span><br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/> <br/><span>इंतेशार- बिखराव; ज़ख्मे आश्कार- प्रकट घाव; बुर्दबार- शांतचित्त, गंभीर, सहनशील; साहिबाने इक़्तेदार- हैसियत वाले लोग; निगार- प्रेमिका</span><br/></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७५tag:www.openbooksonline.com,2018-12-01:5170231:BlogPost:9644352018-12-01T06:00:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>2122 1122 1212 22/ 112</span> <br></br> <br></br> <span>उसका बदला हुआ तर्ज़े करम सताता था</span> <br></br> <span>यार बेज़ार था कुछ यूँ कि कम सताता था //१</span><br></br> <br></br> <span>होके कुछ यूँ वो ब मिज़गाने नम सताता था</span> <br></br> <span>कब मैं समझा कि वो अबरू-ए-ख़म सताता था</span> //२ <br></br> <br></br> <span>दूर रहने पे तेरी क़ुरबतों की याद आई</span><br></br> <span>पास रहने पे जुदाई का ग़म सताता था</span> //३ <br></br> <br></br> <span>जिनको इफ़रात थी रिज़्को ग़िज़ा की जीने में</span> <br></br> <span>ऐसे लोगों को भी कर्बे शिकम…</span></p>
<p><span>2122 1122 1212 22/ 112</span> <br/> <br/> <span>उसका बदला हुआ तर्ज़े करम सताता था</span> <br/> <span>यार बेज़ार था कुछ यूँ कि कम सताता था //१</span><br/> <br/> <span>होके कुछ यूँ वो ब मिज़गाने नम सताता था</span> <br/> <span>कब मैं समझा कि वो अबरू-ए-ख़म सताता था</span> //२ <br/> <br/> <span>दूर रहने पे तेरी क़ुरबतों की याद आई</span><br/> <span>पास रहने पे जुदाई का ग़म सताता था</span> //३ <br/> <br/> <span>जिनको इफ़रात थी रिज़्को ग़िज़ा की जीने में</span> <br/> <span>ऐसे लोगों को भी कर्बे शिकम सताता था</span> //४ <br/> <br/> <span>पैकरे लफ़्ज़ के जल्वों में मुंकशिफ़ होकर</span> <br/> <span>मेरे अहसास को हुब्बे कलम सताता था</span> //५ <br/> <br/> <span>बेवफ़ा की मैं समझता था सादा पुरकारी</span> <br/> <span>और, क्यों हुस्न का फ़ैज़े निअम सताता था //६ </span><br/> <br/> <span>ता'न उसकी यूँ सताती थी मेरे सीने को</span> <br/> <span>ज्यों मेरी जेब को वज़्ने दिरम सताता था</span> //७ <br/> <br/> <span>मर गए तो हमें हाले अदम सताता है</span> <br/> <span>साँस थी तो गमे बूदे किदम सताता था</span> //८ <br/> <br/> <span>अब तो तू है नहीं पे तेरे पास रह के भी</span><br/> <span>कब नहीं राज़ को तेरा अलम सताता था //९</span></p>
<p></p>
<p><span>~ राज़ नवादवी </span></p>
<p></p>
<p><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span></p>
<p></p>
<p><span>तर्ज़े करम- कृपा करने का ढंग; बेज़ार- विमुख; </span>ब मिज़्गाने नम- भीगी बरौनियों के साथ; तिरछी भौहें (शेर में- तिरछी भौहों वाला); गिज़ा- भोजन, खाद्य पदार्थ; रिज्क- भोजन, जीविका, रोज़ी; <span>कर्बे शिकम- अंतड़ियों का दर्द; पैकरे लफ़्ज़ के जल्वों में मुंकशिफ़- शब्दों के शरीर की छटा में अभिव्यक्त; हुब्बे कलम- कलम का प्रेम; सादा पुरकारी- दिखने में भला, मगर सच में धूर्त होने का भाव, छलिया पान; फ़ैज़े निअम- नेमतों से प्राप्त होने वाले लाभ; ता'न- कटाक्ष, व्यंग; वज़्ने दिरम- सिक्कों का बोझ; हाले अदम- परलोक की परिस्थिति; गमे बूदे किदम- प्राचीन अस्तित्व का दुःख; </span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७४tag:www.openbooksonline.com,2018-11-26:5170231:BlogPost:9636602018-11-26T06:34:09.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p>२१२२ ११२२ ११२२ २२/ १२२</p>
<p></p>
<p>मैं हूँ साजिद, मेरा मस्जूद मगर जाने ना <br></br>घर में साकिन हैं कई, सबको तो घर जाने ना //१</p>
<p></p>
<p>ख़ुद ही पोशीदा है तू ख़ल्क़ में तो क्या शिकवा <br></br>कोई क्या आए तेरे दर पे अगर जाने ना //२</p>
<p></p>
<p>दोनों टकराती हैं हर रोज़ सरे बामे उफ़ुक़ <br></br>मोजिज़ा है कि कभी शब को सहर जाने ना //३</p>
<p></p>
<p>ये अलग बात है तू मुझपे नज़र फ़रमा नहीं <br></br>वरना क्या बात है जो तेरी नज़र जाने ना //४</p>
<p></p>
<p>तू मुदावा है मेरे गम का तुझे क्या मालूम <br></br>बात यूँ है कि…</p>
<p>२१२२ ११२२ ११२२ २२/ १२२</p>
<p></p>
<p>मैं हूँ साजिद, मेरा मस्जूद मगर जाने ना <br/>घर में साकिन हैं कई, सबको तो घर जाने ना //१</p>
<p></p>
<p>ख़ुद ही पोशीदा है तू ख़ल्क़ में तो क्या शिकवा <br/>कोई क्या आए तेरे दर पे अगर जाने ना //२</p>
<p></p>
<p>दोनों टकराती हैं हर रोज़ सरे बामे उफ़ुक़ <br/>मोजिज़ा है कि कभी शब को सहर जाने ना //३</p>
<p></p>
<p>ये अलग बात है तू मुझपे नज़र फ़रमा नहीं <br/>वरना क्या बात है जो तेरी नज़र जाने ना //४</p>
<p></p>
<p>तू मुदावा है मेरे गम का तुझे क्या मालूम <br/>बात यूँ है कि दवा अपना असर जाने ना //५</p>
<p></p>
<p>चर्खे उल्फ़त में कोई मील का पत्थर तो नहीं <br/>ख़ुद की परवाज़ की ऊँचाई को पर जाने ना //६</p>
<p></p>
<p>जीतना है तेरी फ़ित्रत तो चलो देखेंगे <br/>हारना इश्क़ में तो मेरा जिगर जाने ना //७</p>
<p></p>
<p>'राज़' हम क्यों रखें पुरसिश की तवक़्क़ो उससे<br/>हाल क्या पूछे वो जब वज्हे ज़रर जाने ना //८</p>
<p></p>
<p>~ राज़ नवादवी</p>
<p></p>
<p>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</p>
<p></p>
<p>साजिद- सज्दा करने वाला; मसजूद-जिसे सज्दा किया गया हो; साकिन- घर कानिवासी; पोशीदा- गुप्त; ख़ल्क़- सृष्टि; सरे बामे उफ़ुक़- क्षितिज के छज्जे पर; मोजिज़ा-जादू; चर्खे उल्फ़त- प्रेम का आकाश; पुरसिश- पूछ ताछ; तवक़्क़ो- उम्मीद; वज्हे ज़रर- चोट का कारण</p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७३ एक मज़ाहिया ग़ज़लtag:www.openbooksonline.com,2018-11-25:5170231:BlogPost:9636332018-11-25T04:29:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p></p>
<p><span>2122 1122 1122 22/ 122</span><br></br><br></br><span>वह्म को खोल के हमने तो वहम कर डाला</span> <br></br><span>जीभ थी ऐंठती, इस दर्द को कम कर डाला</span> <br></br><br></br><span>बाज़ लफ़्ज़ों के तलफ़्फ़ुज़ को हज़म कर डाला</span><br></br><span>नर्म जो थी न सदा उसको नरम कर डाला</span><br></br><br></br><span>क़ह्र की छुट्टी करी सीधे कहर को लाकर</span><br></br><span>टेढ़े अलफ़ाज़ पे हमने ये सितम कर डाला</span> <br></br><br></br><span>क्योंकि लंबी थी बहुत रस्मो क़वायद पे बहस</span><br></br><span>ख़त्म होती नहीं ख़ुद, हमने ख़तम कर…</span></p>
<p></p>
<p><span>2122 1122 1122 22/ 122</span><br/><br/><span>वह्म को खोल के हमने तो वहम कर डाला</span> <br/><span>जीभ थी ऐंठती, इस दर्द को कम कर डाला</span> <br/><br/><span>बाज़ लफ़्ज़ों के तलफ़्फ़ुज़ को हज़म कर डाला</span><br/><span>नर्म जो थी न सदा उसको नरम कर डाला</span><br/><br/><span>क़ह्र की छुट्टी करी सीधे कहर को लाकर</span><br/><span>टेढ़े अलफ़ाज़ पे हमने ये सितम कर डाला</span> <br/><br/><span>क्योंकि लंबी थी बहुत रस्मो क़वायद पे बहस</span><br/><span>ख़त्म होती नहीं ख़ुद, हमने ख़तम कर डाला</span><br/><br/><span>बंदा पंजाबी था कहने लगा सुन ऐ पुत्तर</span><br/><span>नज़्म को खींच कर हमने तो नज़म कर डाला</span></p>
<p></p>
<p><span>अब तो हम राज़ हैं मर्दुम नहीं, बस इक दुम हैं</span> <br/><span>मर के मर्दुम से हर्फ़े 'मर' को क़लम कर डाला</span><br/><br/></p>
<p>~राज़ नवादवी </p>
<p></p>
<p>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</p>
<p></p>
<p>मर्दुम- मनुष्य, आदमी, सभ्य</p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७२tag:www.openbooksonline.com,2018-11-21:5170231:BlogPost:9622162018-11-21T12:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>2122 2122 2122 212</span> <br></br> <br></br> <span>सोचता हूँ तुझमें कब बंदा नवाज़ी आएगी</span><br></br> <span>तेरे तर्ज़े क़ौल में किस दिन गुदाज़ी आएगी //१</span><br></br> <br></br> <span>मैं अभी बच्चा हूँ मुझको छेड़ते हो किसलिए</span> <br></br> <span>मैं बड़ा भी होऊँगा, क़द में दराज़ी आएगी //२</span> <br></br> <br></br> <span>देखता तो है पलट कर वो इशारों में अभी</span><br></br> <span>मुस्कुराएगा वो कल, तब-ए- तराज़ी आएगी //३ </span> <br></br> <br></br> <span>तेरा ये हुस्ने मुजस्सम और मेरी दीवानगी</span> <br></br> <span>मिल गए हम दोनों फिर…</span></p>
<p><span>2122 2122 2122 212</span> <br/> <br/> <span>सोचता हूँ तुझमें कब बंदा नवाज़ी आएगी</span><br/> <span>तेरे तर्ज़े क़ौल में किस दिन गुदाज़ी आएगी //१</span><br/> <br/> <span>मैं अभी बच्चा हूँ मुझको छेड़ते हो किसलिए</span> <br/> <span>मैं बड़ा भी होऊँगा, क़द में दराज़ी आएगी //२</span> <br/> <br/> <span>देखता तो है पलट कर वो इशारों में अभी</span><br/> <span>मुस्कुराएगा वो कल, तब-ए- तराज़ी आएगी //३ </span> <br/> <br/> <span>तेरा ये हुस्ने मुजस्सम और मेरी दीवानगी</span> <br/> <span>मिल गए हम दोनों फिर क्या क्या फराज़ी आएगी //४ </span> <br/> <br/> <span>सरगुज़श्ते ज़िंदगी फिर से लिखेंगे ऐ क़ज़ा</span><br/> <span>हाथ में फिर से हमारे हारी बाज़ी आएगी //५ </span></p>
<p><br/> <span>मैं गिरफ़्तारे मुहब्बत हूँ, मुझे ठुकरा नहीं</span> <br/> <span>उल्फ़ते बर हक़ पसे इश्के मजाज़ी आएगी //६ </span> <br/> <br/> <span>कर ख़ुदाई से मुहब्बत, खल्क भी होगी मुरीद</span> <br/> <span>कृष्ण के जैसे तुझे भी नयनवाज़ी आएगी //७ </span><br/> <br/> <span>मैं नहीं कहता ख़ुदा मिल जाएगा पर ये भी है</span> <br/> <span>सर झुकाकर सज्दे में तब-ए-नियाज़ी आएगी //८ </span><br/> <br/><span>राज़ हम समझेंगे तू भी शायरे क़ामिल हुआ</span><span> </span><br/><span>जब तेरे तर्ज़े सुखन में जाँ गुदाज़ी आएगी //९</span><span> </span></p>
<p><br/> <span>~ राज़ नवादवी</span><br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span><br/> <br/> <span>तर्ज़े क़ौल- कथन कहने की शैली; गुदाज़ी- मांसल होना; दराज़ी- लम्बाई; सादासिफ़त-सरल स्वभाव का; तब-ए-तराज़ी- सहमति का स्वभाव, रजामंदी; फराज़ी- बुलंदी, ऊँचाई; उल्फ़ते बर हक़- सच की मुहब्बत; सरगुज़श्त- कहानी, वृत्तांत; क़ज़ा- मृत्यु; पसे इश्के मजाज़ी- सांसारिक/ भौतिक प्रेम के बाद; नयनवाज़ी - बाँसुरी बजाना; तब-ए-नियाज़ी- विनम्रता का स्वाभाव; कामिल- पूर्ण; शिराज़ी- पर्शिया का एक महान सूफ़ी शायर</span> <br/></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७१tag:www.openbooksonline.com,2018-11-19:5170231:BlogPost:9616302018-11-19T04:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p>2212 1212 2212 1212<br></br> <br></br> ख़ुशियों से क्या मिले मज़ा, ग़म ज़िंदगी में गर न हो<br></br><span>शामे हसीं का लुत्फ़ क्या जब जलती दोपहर न हो</span><br></br> <br></br> लुत्फ़े वफ़ा भी दे अगर बेदाद मुख़्तसर न हो</p>
<p>इक शाम ऐसी तो बता जिसके लिए सहर न हो <br></br> <br></br> हालात जीने के गराँ भी हों तो क्या बुराई है<br></br> मजनूँ मिले कहाँ अगर सहराओं में बसर न हो <br></br> <br></br> ऐसी रविश तो ढूँढिए गिर्यावरी ए आशिक़ी <br></br> तकलीफ़ देह भी न हो, नाला भी बेअसर न हो<br></br> <br></br> ख़ुशियों के मोल बढ़ते हैं रंजो अलम के क़ुर्ब से <br></br> तादाद…</p>
<p>2212 1212 2212 1212<br/> <br/> ख़ुशियों से क्या मिले मज़ा, ग़म ज़िंदगी में गर न हो<br/><span>शामे हसीं का लुत्फ़ क्या जब जलती दोपहर न हो</span><br/> <br/> लुत्फ़े वफ़ा भी दे अगर बेदाद मुख़्तसर न हो</p>
<p>इक शाम ऐसी तो बता जिसके लिए सहर न हो <br/> <br/> हालात जीने के गराँ भी हों तो क्या बुराई है<br/> मजनूँ मिले कहाँ अगर सहराओं में बसर न हो <br/> <br/> ऐसी रविश तो ढूँढिए गिर्यावरी ए आशिक़ी <br/> तकलीफ़ देह भी न हो, नाला भी बेअसर न हो<br/> <br/> ख़ुशियों के मोल बढ़ते हैं रंजो अलम के क़ुर्ब से <br/> तादाद की बिसात क्या आगे में गर शिफ़र न हो <br/> <br/> कैसी है बद ख़्याली-ए-अहले ज़माँ, कहते फिरें </p>
<p>करते हैं इश्क़ लोग वो जिनमें कोई हुनर न हो <br/> <br/> दुनिया है ख़्वाब गाह गर, बालीं परस्त मैं रहूँ <br/> सोने दे राज़, ख़ुद की अब ताज़िंदगी ख़बर न हो<br/> <br/> ~ राज़ नवादवी</p>
<p></p>
<p>“मौलिक एवं अप्रकाशित”</p>
<p></p>
<p>बेदाद- अनीति, अत्याचार; मुख़्तसर- संक्षिप्त; रविश- पद्धति, आचार-विचार; गिर्यावरी ए आशिक़ी- प्रेम में आँसू बहाना; नाला- आर्तनाद, पुकार; क़ुर्ब- सामीप्य; शिफ़र- शून्य; अहले ज़माँ- ज़माने के लोग; बालीं परस्त- पलंग पे पड़ा रहने वाला, आराम तलब</p>
<p> </p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७०tag:www.openbooksonline.com,2018-11-17:5170231:BlogPost:9610892018-11-17T05:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>2122 1122 1122 22/ 112</span><br></br> <br></br> <span>सब्र रक्खो तो ज़रा हाल बयाँ होने तक</span><br></br> <span>आग भी रहती है ख़ामोश धुआँ होने तक //१</span><br></br> <br></br> <span>समझेंगे आप भला क्यों ये गुमाँ होने तक</span><br></br> <span>इश्क़ होता नहीं है दर्दे फुगाँ होने तक //२</span> <br></br> <br></br> <span>तज्रिबा ये जो है सब आलमे सुग्रा का यहाँ</span> <br></br> <span>जाँ गुज़रती है सराबों से निहाँ होने तक //३</span> <br></br> <br></br> <span>मुझको फ़िरदोस ने फिर से है निकाला बाहर</span> <br></br> <span>कौन है आलमे बाला में…</span></p>
<p><span>2122 1122 1122 22/ 112</span><br/> <br/> <span>सब्र रक्खो तो ज़रा हाल बयाँ होने तक</span><br/> <span>आग भी रहती है ख़ामोश धुआँ होने तक //१</span><br/> <br/> <span>समझेंगे आप भला क्यों ये गुमाँ होने तक</span><br/> <span>इश्क़ होता नहीं है दर्दे फुगाँ होने तक //२</span> <br/> <br/> <span>तज्रिबा ये जो है सब आलमे सुग्रा का यहाँ</span> <br/> <span>जाँ गुज़रती है सराबों से निहाँ होने तक //३</span> <br/> <br/> <span>मुझको फ़िरदोस ने फिर से है निकाला बाहर</span> <br/> <span>कौन है आलमे बाला में यहाँ होने तक //४</span> <br/> <br/> <span>भारी पड़ती है रिहाई पे तमन्ना की कशिश</span> <br/> <span>कौन आज़ाद हुआ दाम गिराँ होने तक //५</span> <br/> <br/> <span>ख़्वाब देखे नहीं तो ख़्वाब की ताबीर क्या हो</span> <br/> <span>तीर चलता ही नहीं दस्ते कमाँ होने तक //६</span> <br/> <br/> <span>फ़र्द पाए न सुकूं ख़ुद में तो समझो कि वो फिर</span> <br/> <span>ख़ाना बरदोश ही रहता है मकाँ होने तक //७</span> <br/> <br/> <span>तौबा कर लूँ तेरी यादों के सिलसिले से मगर</span> <br/> <span>हस्ती मिटती है कहाँ ख़ाके जहाँ होने तक //८</span> <br/> <br/><span>'राज़' मालूम है सबको तू नमाज़ी है नहीं</span> <br/> <span>दो घड़ी बैठ तो ले नस्र-ए- अजाँ होने तक //९</span> <br/> <br/> <span>~ राज़ नवादवी</span> <br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span><br/> <br/> <span>दर्दे फुगाँ- आर्तनाद की पीड़ा; आलमे सुग्रा- मनुष्य का शरीर जिसमें सब कुछ है जो ब्रह्माण्ड में है; सराब- मृग-मरीचिका; निहाँ- छिपना, गुप्त होना; फ़िरदोस- स्वर्ग; आलमे बाला- परलोक; दाम- फंदा, पाश, बंधन; गिराँ- भारी, वज़नी; ब दस्ते कमाँ- हाथ में लिए धनुष के साथ; फ़र्द- एक अकेला व्यक्ति; ख़ाना बरदोश- खाना ब दोश; नस्र-ए- अजां- अज़ान की आवाज़ संचारित करना</span> <br/></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६९tag:www.openbooksonline.com,2018-11-17:5170231:BlogPost:9610842018-11-17T04:45:34.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>2212 1212 2212 1212</span><br></br><br></br><span>ख़ुश्बू सी यूँ हवा में है, लगता वो आने वाला है</span> <br></br><span>आबोहवा का हाल भी पिछले ज़माने वाला है //१</span><br></br><br></br><span>बाहों का तुम सहारा दो, तूफ़ान आने वाला है</span><br></br><span>दरिया तुम्हारे प्यार का सबको डुबाने वाला है ///२</span><br></br><br></br><span>बनते हो तीसमार खाँ, मेरी भी पर ज़रा सुनो</span> <br></br><span>इक दिन ये वक़्त आईना तुमको दिखाने वाला है //३</span> <br></br><br></br><span>मैं तो बड़े सुकून से सोया था तन्हा अपने घर</span><br></br><span>मुझको…</span></p>
<p><span>2212 1212 2212 1212</span><br/><br/><span>ख़ुश्बू सी यूँ हवा में है, लगता वो आने वाला है</span> <br/><span>आबोहवा का हाल भी पिछले ज़माने वाला है //१</span><br/><br/><span>बाहों का तुम सहारा दो, तूफ़ान आने वाला है</span><br/><span>दरिया तुम्हारे प्यार का सबको डुबाने वाला है ///२</span><br/><br/><span>बनते हो तीसमार खाँ, मेरी भी पर ज़रा सुनो</span> <br/><span>इक दिन ये वक़्त आईना तुमको दिखाने वाला है //३</span> <br/><br/><span>मैं तो बड़े सुकून से सोया था तन्हा अपने घर</span><br/><span>मुझको वफ़ा के खेल में तू ही तो लाने वाला है //४</span> <br/><br/><span>है ये भिखारी आज का, कम है न मालदार से</span> <br/><span>कहते हैं सब उसे कि वो चिल्लर भुनाने वाला है //५</span> <br/><br/><span>मैं भी ज़रा तो देख लूँ, तेरे लिए सुना बहुत</span><br/><span>बाज़ीचा ए हयात में तू भी निशाने वाला है //६</span> <br/><br/><span>थोड़ी तसल्ली तो रखो, होगा तुम्हे भी इल्म ये</span><br/><span>जिसने किया गुनाह वो, नज़रें चुराने वाला है //७</span> <br/><br/><span>जो है मुहाफ़िज़े अवाँ, उस का भी ख़ौफ़ कम नहीं</span> <br/><span>कहते हैं दूर ही रहो, जो भी है, थाने वाला है //८</span> <br/><br/><span>छज्जे से फ़िर नया कोई चेहरा दिखा है राज़ को</span> <br/><span>कोठे से वो पतंग फिर हर दिन उड़ाने वाला है //९</span><br/><br/><span>~ राज़ नवादवी</span><br/><br/><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/><br/><span>बाज़ीचा ए हयात- जीवन रूपी खेल; मुहाफ़िज़े अवाँ- समय का प्रहरी</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६८tag:www.openbooksonline.com,2018-11-11:5170231:BlogPost:9609442018-11-11T12:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p>2122 1122 1122 22</p>
<p> </p>
<p>जब भी होता है मेरे क़ुर्ब में तू दीवाना</p>
<p>दौड़ता है मेरी नस नस में लहू दीवाना //१</p>
<p> </p>
<p>एक हम ही नहीं बस्ती में परस्तार तेरे </p>
<p>जाने किस किस को बनाए तेरी खू दीवाना //२</p>
<p> </p>
<p>इश्क़ में हारके वो सारा जहाँ आया है</p>
<p>इसलिए अश्कों से करता है वजू दीवाना //३</p>
<p> </p>
<p>लोग आते हैं चले जाते हैं सायों की तरह</p>
<p>क्या करे बस्ती का भी होके ये कू दीवाना //४</p>
<p></p>
<p>चन्द लम्हों में ही हालात बदल जाते थे</p>
<p>मेरे नज़दीक जो…</p>
<p>2122 1122 1122 22</p>
<p> </p>
<p>जब भी होता है मेरे क़ुर्ब में तू दीवाना</p>
<p>दौड़ता है मेरी नस नस में लहू दीवाना //१</p>
<p> </p>
<p>एक हम ही नहीं बस्ती में परस्तार तेरे </p>
<p>जाने किस किस को बनाए तेरी खू दीवाना //२</p>
<p> </p>
<p>इश्क़ में हारके वो सारा जहाँ आया है</p>
<p>इसलिए अश्कों से करता है वजू दीवाना //३</p>
<p> </p>
<p>लोग आते हैं चले जाते हैं सायों की तरह</p>
<p>क्या करे बस्ती का भी होके ये कू दीवाना //४</p>
<p></p>
<p>चन्द लम्हों में ही हालात बदल जाते थे</p>
<p>मेरे नज़दीक जो आता था अदू दीवाना //५</p>
<p> </p>
<p>कब ये ज़ाहिर हुआ लहरों पे तलातुम के सबब </p>
<p>मौजे दरिया को बना देती है जू दीवाना //६</p>
<p> </p>
<p>क्यों बनाता नहीं तू जलवानुमाई से मुझे</p>
<p>मुझको कपड़ों से बनाता है रफ़ू दीवाना //७</p>
<p> </p>
<p>तुझको आएगा मेरे जैसे दिवानों पे तरस</p>
<p>तू भी होगा जो मुहब्बत में कभू दीवाना //८</p>
<p> </p>
<p>मुझमें लैला को भी मजनूँ का भरम होता है </p>
<p>यूँ दिखे है मेरा हुलिया, मेरा मू दीवाना //9 </p>
<p> </p>
<p>दौर ये लैला ओ मजनूँ की मुहब्बत का नहीं</p>
<p>तूने क्या सोचा था, क्यों हो गया तू दीवाना? //१०</p>
<p> </p>
<p>मुझको दरकार नहीं तश्नगी ये दुनिया की</p>
<p>मैं तो रहता हूँ पये इशरते हू दीवाना //११</p>
<p> </p>
<p>ताब आँखों की तेरी आग लगा देती है</p>
<p>यूँ रगों में नहीं दौड़े है लहू दीवाना //१२</p>
<p> </p>
<p>'राज़' ये शह्र है, मजनूँ का बियाबाँ तो नहीं</p>
<p>लाख मिल जाएं जो खोजे यहाँ तू दीवाना //१३</p>
<p> </p>
<p></p>
<p>~ राज़ नवादवी</p>
<p> </p>
<p>“मौलिक एवं अप्रकाशित”</p>
<p> </p>
<p>क़ुर्ब- सामीप्य; कफ़े पा- तलवा; फ़ुरक़त- जुदाई; कू- गली; कता- विच्छेद; अदू- दुश्मन, प्रतिद्वंदी; जू- नदी, चश्मा, स्रोत; मू- बाल; शुआ- किरण; खल्क- दुनिया; क़ल्ब- अंतःकरण, ह्रदय; हू- ईश्वर, ब्रह्म; क़हत- दुर्भिक्ष, सूखा; वा- हाय हाय; सू- दिशा;</p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६७tag:www.openbooksonline.com,2018-11-07:5170231:BlogPost:9601472018-11-07T06:30:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>1212 1122 1212 22</span></p>
<p><span>.</span></p>
<p><span>हमारी रात उजालों से ख़ाली आई है</span><br></br> <span>बड़ी उदास ये अबके दिवाली आई है //१</span><br></br> <br></br> <span>चमन उदास है कुछ यूँ ग़ुबारे हिज्राँ में <br></br> कली भी शाख़ पे ख़ुशबू से ख़ाली आई है //२ </span><br></br> <br></br> <span>फ़ज़ा ख़मोश है घर की, अमा है सीने में</span> <br></br> <span>हमारा सोग मनाने रुदाली आई है //३ </span><br></br> <br></br> <span>मवेशी खा गए या फिर है मारा</span> पालों ने</p>
<p><span>कभी कभार ही फ़सलों पे बाली आई है…</span></p>
<p><span>1212 1122 1212 22</span></p>
<p><span>.</span></p>
<p><span>हमारी रात उजालों से ख़ाली आई है</span><br/> <span>बड़ी उदास ये अबके दिवाली आई है //१</span><br/> <br/> <span>चमन उदास है कुछ यूँ ग़ुबारे हिज्राँ में <br/> कली भी शाख़ पे ख़ुशबू से ख़ाली आई है //२ </span><br/> <br/> <span>फ़ज़ा ख़मोश है घर की, अमा है सीने में</span> <br/> <span>हमारा सोग मनाने रुदाली आई है //३ </span><br/> <br/> <span>मवेशी खा गए या फिर है मारा</span> पालों ने</p>
<p><span>कभी कभार ही फ़सलों पे बाली आई है //४ </span><br/> <br/> <span>बता ऐ ताइरे खिरमन, तू घर बसायेगा?</span> <br/> <span>हमारे हिस्से में इक ख़ुश्क डाली आई है //५ </span></p>
<p></p>
<p><span>जवाब कुछ नहीं हमको मिला तेरे दर से </span> <br/> <span>नज़र जो लौट के आई सवाली आई है //६ </span><br/> <br/> <span>हुआ बहीज मैं कुछ यूँ कि तुझको छूने की</span> <br/> <span>मेरे दिमाग़ में फ़ित्ना ख़याली आई है //७ </span></p>
<p></p>
<p><span>बुरा न मानूँ मैं शीरीं ज़बान का तेरी</span><br/> <span>मेरे सवाल के बदले जो ग़ाली आई है</span> //८<br/> <br/> <span>नहीं है राज़ कोई नौकरी तो हैं बैठे</span> <br/> <span>पुराना काम है जिसपे बहाली आई है //9</span><br/> <br/> <span>~राज़ नवादवी</span><br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/> <br/> <span>अमा- अन्धता, गहरा बादल; रुदाली- दूसरों के मातम में पैसे लेकर रुदन करने वाली औरतें; ताइरे खिरमन- खलिहानों पे पलने वाला पक्षी; बहीज-आनंदित, हर्षित; फ़ितना ख्याली- गड़बड़ करने का ख़्याल; बहाली-पुनर्नियुक्ति</span></p>राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६६tag:www.openbooksonline.com,2018-11-04:5170231:BlogPost:9597712018-11-04T02:00:00.000Zराज़ नवादवीhttp://www.openbooksonline.com/profile/RazNawadwi
<p><span>२१२२ २१२२ २१२२</span> <br></br><br></br> <span>है वो मेरा दोस्त, मेरा नुकताचीं भी</span> <br></br> <span>शर्म खाए उससे कोई ख़ुर्दबीं भी //१</span><br></br> <br></br> <span>काविशे सुहबत में आके मैंने जाना</span> <br></br> <span>हाँ में उसकी तो छुपा था इक नहीं भी //२</span> <br></br> <br></br> <span>जब उफ़ुक़ पे सुब्ह लाली खिल रही थी</span> <br></br> <span>थी हया से सुर्ख थोड़ी ये ज़मीं भी //३</span> <br></br> <br></br> <span>दूर क्यों जाना है ज़्यादा जुस्तजू में</span> <br></br> <span>पालती है जबकि दुश्मन आस्तीं भी //४…</span> <br></br> <br></br></p>
<p><span>२१२२ २१२२ २१२२</span> <br/><br/> <span>है वो मेरा दोस्त, मेरा नुकताचीं भी</span> <br/> <span>शर्म खाए उससे कोई ख़ुर्दबीं भी //१</span><br/> <br/> <span>काविशे सुहबत में आके मैंने जाना</span> <br/> <span>हाँ में उसकी तो छुपा था इक नहीं भी //२</span> <br/> <br/> <span>जब उफ़ुक़ पे सुब्ह लाली खिल रही थी</span> <br/> <span>थी हया से सुर्ख थोड़ी ये ज़मीं भी //३</span> <br/> <br/> <span>दूर क्यों जाना है ज़्यादा जुस्तजू में</span> <br/> <span>पालती है जबकि दुश्मन आस्तीं भी //४</span> <br/> <br/> <span>हाय वो अहदे जवानी के गये दिन</span> <br/> <span>चर्ख सी तेरी चमकती थी ज़बीं भी //५</span> <br/> <br/> <span>छीन कर मेरा सुकूं वो पूछता था</span> <br/> <span>क्यों सुकूं मिलता नहीं तुझ को कहीं भी //६</span> <br/> <br/> <span>क्या तुझे दूँ मैं, तू मेरे दर खड़ा है</span> <br/> <span>लुट चुकी है मेरी दुनिया और दीं भी //७</span> <br/> <br/> <span>हाय उसको पाने की मेरी तमन्ना</span> <br/> <span>वो जवाँ है और सूरत से हसीं भी //८</span> <br/> <br/> <span>हर घड़ी कुहराम सा दिल में मचा है</span> <br/> <span>चाहे कितना हो लूँ मैं खिलवत गुजीं भी //९</span><br/> <br/> <span>मुझपे है अहसां फ़रामोशी की ला'नत</span> <br/> <span>जबकि मैं तो कर चुका था आफ्रीं भी //१०</span><br/> <br/> <span>कुछ तो कीजे मेरे कौले लब की इज़्ज़त</span> <br/> <span>आप मुझको टोक देते हैं कहीं भी //११</span> <br/> <br/> <span>तोड़ लूँ मैं राज़ कैसे उससे रिश्ता</span> <br/> <span>वो है दिखता सख्त, पर है नाजनीं भी //१२</span> <br/> <br/> <span>~ राज़ नवादवी</span><br/> <br/> <span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span> <br/> <br/> <span>नुकताचीं- आलोचना करने वाले; ख़ुर्दबीं- माइक्रोस्कोप; काविशे सुहबत- साहचर्य की टोह; चर्ख- आस्मां; खिलवत गुजीं- एकांतप्रिय; आफ्रीं- धन्यवाद; कौले लब- बोले गये शब्द;</span></p>