विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी's Posts - Open Books Online2024-03-29T07:32:08Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathihttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991277996?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://www.openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=0158exn9ih3ka&xn_auth=noकुछ मुक्तक (भाग-5)tag:www.openbooksonline.com,2017-07-05:5170231:BlogPost:8652092017-07-05T11:21:03.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
मात्रा विन्यास<br />
1222 1222 1222 1222<br />
<br />
लगे वो जल परी जैसी, अधर मधु हास बिखराती।<br />
वो तरुणी वारुणी जैसी, नशा नस नस में महकाती।<br />
लगे ज्यों दिव्य मूरत सी, रचा खुद ब्रह्म ने जिसको।<br />
हुई मदहोश महफिल पर, तुरत ही ताजगी आती।<br />
<br />
अलग है बात कुछ तुझमें, नहीं हर एक में मिलती।<br />
भरी तू दोपहर जैसी, सुहानी शाम भी लगती।<br />
निशा का मस्त आंचल तू, सुबह की ताजगी तुझमें।<br />
स्वयं शृंगार कर उपमा, तुझे है आरती करती।<br />
<br />
है कैसा हाल अब उनका, खबर कोई सुनाये तो।<br />
तड़प मन की मेरे जाकर, कोई उनको बताये तो।<br />
दरस की आस ले मन में, पड़ा मैं द्वार…
मात्रा विन्यास<br />
1222 1222 1222 1222<br />
<br />
लगे वो जल परी जैसी, अधर मधु हास बिखराती।<br />
वो तरुणी वारुणी जैसी, नशा नस नस में महकाती।<br />
लगे ज्यों दिव्य मूरत सी, रचा खुद ब्रह्म ने जिसको।<br />
हुई मदहोश महफिल पर, तुरत ही ताजगी आती।<br />
<br />
अलग है बात कुछ तुझमें, नहीं हर एक में मिलती।<br />
भरी तू दोपहर जैसी, सुहानी शाम भी लगती।<br />
निशा का मस्त आंचल तू, सुबह की ताजगी तुझमें।<br />
स्वयं शृंगार कर उपमा, तुझे है आरती करती।<br />
<br />
है कैसा हाल अब उनका, खबर कोई सुनाये तो।<br />
तड़प मन की मेरे जाकर, कोई उनको बताये तो।<br />
दरस की आस ले मन में, पड़ा मैं द्वार पर उनके।<br />
झलक बस एक दिलवर की, कोई मुझको दिखाये तो।<br />
<br />
तेरे दीदार में जाना, न जाने बात कैसी है।<br />
तू जैसे जाम रिंदों का, सुबह के चाय जैसी है।<br />
तृषा मन की बुझी मेरे, तुम्हारी इक झलक पाकर।<br />
मैं चातक प्यास से व्याकुल, तू स्वाती बूंद जैसी है।<br />
<br />
इबादत हो अगर सच्ची, प्रकट तो ईश हो जाते।<br />
पुकारा था उन्हें दिल से, तो क्योंकर वो नहीं आते।<br />
तड़प धरती की सच्ची थी, समंदर में दिखा अंबर।<br />
कि यूं ही दरम्यां दिल के, नजर दिलवर मेरे आते।<br />
<br />
शुकूनोचैन छीना है, तुम्हारी याद ने प्रियवर।<br />
चुरायी नींद आंखों से, तेरे अंदाज ने प्रियवर।<br />
तू जीनत है अमानत है, अजब नायाब मोती है।<br />
भरा है रंग जीवन में, हमारे आप ने प्रियवर।<br />
<br />
मौलिक वह अप्रकाशितकुछ मुक्तक (भाग-४)tag:www.openbooksonline.com,2017-04-03:5170231:BlogPost:8472322017-04-03T03:59:36.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
सजी दुल्हन के जोड़े में, हंसी वो रूप की रानी।<br />
सुनहरे रंग की बिंदिया, चमक माथे पे नूरानी।<br />
हरी चूनर खिला चहरा, गुलाबी होंठ की लाली।<br />
हजारों हुश्न देखे पर, नहीं उसका कोई सानी।<br />
<br />
तुम्हारी सादगी देखी, तुम्हारा साज देखा है।<br />
मगर हर रूप में जाना, जुदा अंदाज देखा है।<br />
तुम्हारी सादगी चमके, कुमुदिनी फूल के जैसे।<br />
तुम्हारे साज में हमने, सदा ऋतुराज देखा है।<br />
<br />
खुली आंखें रहीं मेरी, अचानक देखकर उनको।<br />
धरा पर ईश ने भेजा, रमा रति उर्वशी किसको।<br />
अगर नख शिख करूं वर्णन, तो केवल लफ्जबाजी है।<br />
हमारी मति हुई जड़ सी, निहारूं…
सजी दुल्हन के जोड़े में, हंसी वो रूप की रानी।<br />
सुनहरे रंग की बिंदिया, चमक माथे पे नूरानी।<br />
हरी चूनर खिला चहरा, गुलाबी होंठ की लाली।<br />
हजारों हुश्न देखे पर, नहीं उसका कोई सानी।<br />
<br />
तुम्हारी सादगी देखी, तुम्हारा साज देखा है।<br />
मगर हर रूप में जाना, जुदा अंदाज देखा है।<br />
तुम्हारी सादगी चमके, कुमुदिनी फूल के जैसे।<br />
तुम्हारे साज में हमने, सदा ऋतुराज देखा है।<br />
<br />
खुली आंखें रहीं मेरी, अचानक देखकर उनको।<br />
धरा पर ईश ने भेजा, रमा रति उर्वशी किसको।<br />
अगर नख शिख करूं वर्णन, तो केवल लफ्जबाजी है।<br />
हमारी मति हुई जड़ सी, निहारूं एकटक उनको।<br />
<br />
तुम्हारी इक झलक पाकर, हमें इतनी खुशी होती।<br />
किसी प्यासे को ज्यों पानी, किसी भूखे को ज्यों रोटी।<br />
कई दिन से नहीं देखा, लगे कुछ गुम गया मेरा।<br />
दिखे जब आज वो मुझको, मिला अनमोल सा मोती।<br />
<br />
परायी वो अमानत है, मेरा अधिकार ना उस पर।<br />
सड़क का एक पत्थर हूं, नहीं उसका कोई रहबर।<br />
कदम से लग कहा मैंने, चले क्या साथ हम दोनों।<br />
बनो मत बावले प्यारे, कहा उसने मुझे हंसकर।<br />
<br />
मौलिक और अप्रकाशितकुछ मुक्तक (भाग-३)tag:www.openbooksonline.com,2017-03-31:5170231:BlogPost:8460212017-03-31T08:56:26.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
मात्रा विन्यास-<br />
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२<br />
<br />
अभी भी याद आती हैं, सुहानी शाम की बातें।<br />
बड़े ही चाव से करना, बिना वो काम की बातें।<br />
कहा तुमने बहुत हमसे, सुना हमने बहुत लेकिन।<br />
अधूरी आज भी चुभती, बिना अंजाम की बातें।<br />
<br />
घने बरगद तले अपना, भरी वो दोपहर मिलना।<br />
पसीने से सने चेहरे, दुपट्टे से हवा करना।<br />
किया वादा तो पूरी पर, अधूरी आस थी अब भी।<br />
जुदाई की घड़ी आयी, हथेली खीझ कर मलना।<br />
<br />
चले चर्चा कोई जब भी, तेरा ही नाम आता है।<br />
भुलाता हूं तुझे लेकिन, सुबह ओ शाम आता है।<br />
अधूरे प्यार का किस्सा, अभी हिस्सा है यादों का।<br />
कसम…
मात्रा विन्यास-<br />
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२<br />
<br />
अभी भी याद आती हैं, सुहानी शाम की बातें।<br />
बड़े ही चाव से करना, बिना वो काम की बातें।<br />
कहा तुमने बहुत हमसे, सुना हमने बहुत लेकिन।<br />
अधूरी आज भी चुभती, बिना अंजाम की बातें।<br />
<br />
घने बरगद तले अपना, भरी वो दोपहर मिलना।<br />
पसीने से सने चेहरे, दुपट्टे से हवा करना।<br />
किया वादा तो पूरी पर, अधूरी आस थी अब भी।<br />
जुदाई की घड़ी आयी, हथेली खीझ कर मलना।<br />
<br />
चले चर्चा कोई जब भी, तेरा ही नाम आता है।<br />
भुलाता हूं तुझे लेकिन, सुबह ओ शाम आता है।<br />
अधूरे प्यार का किस्सा, अभी हिस्सा है यादों का।<br />
कसम वो तीसरी तेरी, मरा गुलफाम जाता है।<br />
<br />
चली दिल पर मेरे छूरी, शहादत पा गये हम तब।<br />
तड़पता छोड़ कर मुझको, गये वो मुस्कुरा कर जब।<br />
बिना उनके लगे सूना, कदम बढ़ते नहीं आगे।<br />
नहीं मालूम मुझको है, दुबारा कब मिलेंगे अब।<br />
<br />
बहुत मायूस दिन था वो, नहीं मैं मिल सका उनसे।<br />
हुआ मुझसे ही धोखा ये, नहीं कोई गिला रब से।<br />
अगर उनसे मिला होता, परेशां वो नहीं होते।<br />
मुवाफी दीजिए हमको, खतां होगी नहीं अब से।<br />
<br />
खुमारी सी रही तारी, नशा सा छा गया मुझ पर।<br />
बढ़ी दिल की मेरे धड़कन, हुआ तन में अजब सरसर।<br />
जमीं पर पांव ना टिकते, गगन में घूमता मानो।<br />
हुआ दीदार जब उनका, समय भी रुक गया पल भर।<br />
<br />
सभी उपमान फीके हैं, तुम्हारे रूप के आगे।<br />
तपिश दीपक की जैसे हो, दहकते धूप के आगे।<br />
नहीं ऐसा कोई पार्लर, संवारे रूप जो तेरा।<br />
परियां भी लगे फीकी, मेरे महबूब के आगे।<br />
<br />
परिंदा प्यार का यारों, मेरा मन शायराना है।<br />
बुनूं मैं नीड़ शब्दों का, वहीं दुनिया बसाना है।<br />
अगर तुम आ सको आओ, क्षितिज तक हम उड़ेंगे।<br />
मुहब्बत-पंख की ताकत, हमें भी आजमाना है।<br />
<br />
बहुत वो खूबसूरत था, तुम्हारा साथ ऐ हमदम।<br />
कहें दो चार पल की क्या, हमें सौ साल लगते कम।<br />
मिले मौका गुजारें हम, वहीं कुछ उम्र तक रुक कर।<br />
जुदा होने की बातें सुन, हुई थी आंख अपनी नम।<br />
<br />
कहूं मैं बात क्या मन की, है मेरा मन नहीं मेरा।<br />
हुआ वश में तुम्हारे ये, है जादू कौन सा फेरा।<br />
दशा मेरी है पागल सी, नहीं कुछ सूझता मुझको।<br />
दिखे हर एक कण में ही, सलोना रूप वह तेरा।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितकुछ मुक्तक (भाग-२)tag:www.openbooksonline.com,2017-03-18:5170231:BlogPost:8436432017-03-18T14:14:11.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
मुहब्बत खूबसूरत है, इसे बदनाम मत करना।<br />
देना दिल तबीयत से, कभी अहसान मत करना।<br />
खुदा की ये नियामत है, नहीं हर एक को मिलती।<br />
ये नेमत हाथ लग जाये, कभी इंकार मत करना।<br />
<br />
मुहब्बत खेल मत समझो, खुदा की ये इबादत है।<br />
यही इंसान की फितरत, यही शमसीर कुदरत है।<br />
मुहब्बत का परिंदा है यहां, हर शख्स हर जर्रा।<br />
दिलों में क्यों भरा नफरत, जहां में क्यों अदावत है।<br />
<br />
बुरा वो मान लें शायद, करूं इजहार यदि उनसे।<br />
गिरा दें मुझको नजरों से, जता दूं प्यार यदि उनसे।<br />
अगर वो साथ चलते तो, जहन्नुम भी हंसी होता।<br />
खुदा भी मिल गया मुझको,…
मुहब्बत खूबसूरत है, इसे बदनाम मत करना।<br />
देना दिल तबीयत से, कभी अहसान मत करना।<br />
खुदा की ये नियामत है, नहीं हर एक को मिलती।<br />
ये नेमत हाथ लग जाये, कभी इंकार मत करना।<br />
<br />
मुहब्बत खेल मत समझो, खुदा की ये इबादत है।<br />
यही इंसान की फितरत, यही शमसीर कुदरत है।<br />
मुहब्बत का परिंदा है यहां, हर शख्स हर जर्रा।<br />
दिलों में क्यों भरा नफरत, जहां में क्यों अदावत है।<br />
<br />
बुरा वो मान लें शायद, करूं इजहार यदि उनसे।<br />
गिरा दें मुझको नजरों से, जता दूं प्यार यदि उनसे।<br />
अगर वो साथ चलते तो, जहन्नुम भी हंसी होता।<br />
खुदा भी मिल गया मुझको, मिले अभिसार यदि उनसे।<br />
<br />
हमारी खूबियां भूलो, न चाहो तुम हमें जाना।<br />
बहुत आसां नहीं होगा, ख्यालों से मिटा पाना।<br />
गिले शिकवे बहुत होंगे, कई गुस्ताखियां होगी।<br />
रहे बस याद कोई था, तुम्हारा एक दीवाना।<br />
<br />
बजा है साज मधुरिम तब, सुना आवाज जब उनका।<br />
मिली सारी खुशी हमको, हुआ दीदार जब उनका।<br />
खुदा भी मिल गया होता, अगर हां कर दिये होते।<br />
कयामत आ गया मुझ पर, मिला इंकार जब उनका।<br />
<br />
कभी सोचा नहीं मैंने, कि ये भी सोच लेंगे सब।<br />
हमारी कल्पना को भी, किसी से जोड़ देंगे सब।<br />
लिखूंगा मैं कोई कविता, बनेगी सौ कहानी फिर।<br />
अधूरी हर कहानी में, नया कुछ जोड़ देंगे सब।<br />
<br />
मेरा दिल और का धन है, वो दिल और उनका है।<br />
किसी मैं और का रहबर, साहिल और उनका है।<br />
मिले होते अगर पहले, तो शायद सोचते लेकिन।<br />
सफर मेरा अलग उनसे, मंजिल और उनका है।<br />
<br />
मिलेगा सिर्फ उतना ही, लिखा जो भाग्य में होगा।<br />
समय से और पहले भी, नहीं कुछ हाथ में होगा।<br />
तड़प ले चाहे जितना हम, मुताबिक खुद के वो देता।<br />
किसी को पहले हो जाये, किसी का बाद में होगा।<br />
<br />
बुरे का संग किया तुमने, कहां परिणाम शुभ होगा।<br />
करेगा पार क्या तुमको, फंसा मझधार खुद होगा।<br />
बड़ों से की बगावत जो, नहीं रणनीति अच्छी थी।<br />
किसी का दिल दुखाया गर, तुझे भी खूब दुख होगा।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितकुछ मुक्तकtag:www.openbooksonline.com,2017-02-22:5170231:BlogPost:8380012017-02-22T05:59:04.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
हमारे पीछे तुम आयीं, तुम्हारे पीछे हम भागे।<br />
न बोलूं मैं तेरे आगे, न बोलो तुम मेरे आगे।<br />
जुबां खामोश है लेकिन, निगाहें बोल देती हैं।<br />
हम भी रात भर रोये, तुम भी रात भर जागे।<br />
<br />
हम भी मुस्कुराते हैं, तुम भी मुस्कुराते हो।<br />
सबसे हम बताते हैं, सबसे तुम बताते हो।<br />
लगा ये रोग कैसा है, हमारे दिल को ऐ जाना।<br />
तुमसे हम छुपाते हैं, हमसे तुम छुपाते हो।<br />
<br />
तुम्हारी भावनाओं को, समझता हूं मगर चुप हूं।<br />
सदा खामोश लब की मैं, सुनता हूं मगर चुप हूं।<br />
इशारों ही इशारों में, जो भेजा खत हमें तुमने।<br />
निमंत्रण तेरी आंखों का, पढ़ता…
हमारे पीछे तुम आयीं, तुम्हारे पीछे हम भागे।<br />
न बोलूं मैं तेरे आगे, न बोलो तुम मेरे आगे।<br />
जुबां खामोश है लेकिन, निगाहें बोल देती हैं।<br />
हम भी रात भर रोये, तुम भी रात भर जागे।<br />
<br />
हम भी मुस्कुराते हैं, तुम भी मुस्कुराते हो।<br />
सबसे हम बताते हैं, सबसे तुम बताते हो।<br />
लगा ये रोग कैसा है, हमारे दिल को ऐ जाना।<br />
तुमसे हम छुपाते हैं, हमसे तुम छुपाते हो।<br />
<br />
तुम्हारी भावनाओं को, समझता हूं मगर चुप हूं।<br />
सदा खामोश लब की मैं, सुनता हूं मगर चुप हूं।<br />
इशारों ही इशारों में, जो भेजा खत हमें तुमने।<br />
निमंत्रण तेरी आंखों का, पढ़ता हूं मगर चुप हूं।<br />
<br />
हमारी वेदनाओं को, नहीं तुम जान पाओगो।<br />
कहेगो अश्क को पानी, हंसोगे टाल जाओगे।<br />
हुआ बेदर्द हाकिम जब, सुनायें दर्द हम किसको।<br />
हमारी कब्र पर आकर, सभी कुछ जान जाओगे।<br />
<br />
हम से लोग कहते हैं, जो मन में है बयां कर दूं।<br />
लूटा है मुझे किसने, मैं चोरी ये अयां कर दूं।<br />
दिल की बात दिल में ही रहे, होगा यही बेहतर।<br />
उठेंगी आग की लपटे, जो शोले को हवा कर दूं।<br />
<br />
मगन अपनी वो महफिल में, इधर आंसू बहाता हूं।<br />
लगा जो चोट इस दिल को, उसे हंसकर छुपाता हूं।<br />
सुना है मेरी गीतों पर, बहुत वो दाद देतें हैं।<br />
उन्हें मालूम ना शायद, कि नगमे दर्द गाता हूं।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितमाता - पिता ( रोला गीत )tag:www.openbooksonline.com,2017-02-11:5170231:BlogPost:8360752017-02-11T09:38:36.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
<div class="adn ads"><div class="gs"><div class="ii gt adP adO" id=":mu"><div class="a3s aXjCH m15a2c6d57c0ce2b3" id=":mt"><p dir="ltr">पिता धरा की शक्ति, धारणा के वाहक हैं।<br></br>माता धरा समान, सृष्टि की संचालक हैं।<br></br>दिया आपने जन्म, न उतरे ऋण की थाती।<br></br>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">पिता धरातल ठोस, और मां ममता धारा।<br></br>पिता स्वयं वट वृक्ष, छांव मां ने पैसारा।<br></br>हम सब फल रसदार, मिष्ठता उनसे आती।<br></br>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।…</p>
</div>
</div>
</div>
</div>
<div class="adn ads"><div class="gs"><div id=":mu" class="ii gt adP adO"><div id=":mt" class="a3s aXjCH m15a2c6d57c0ce2b3"><p dir="ltr">पिता धरा की शक्ति, धारणा के वाहक हैं।<br/>माता धरा समान, सृष्टि की संचालक हैं।<br/>दिया आपने जन्म, न उतरे ऋण की थाती।<br/>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">पिता धरातल ठोस, और मां ममता धारा।<br/>पिता स्वयं वट वृक्ष, छांव मां ने पैसारा।<br/>हम सब फल रसदार, मिष्ठता उनसे आती।<br/>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">पिता अटल गिरिराज, और मां झरना पावन।<br/>पिता दुपहरी जेट, मास मां रिमझिम सावन।<br/>जेठ ताप कम दाब, फुहारें सावन आती।<br/>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">पिता सूर्य की ज्योति, जगाते बरबस हमको।<br/>माता सुंदर रात, सुलाती सारे जग को।<br/>बिना रात के दिवस, दिवस बिन रात न आती।<br/>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">पिसता आटा पिता, और मां गर्म चपाती।<br/>पिता दीप में तेल, बनी मां जलती बाती।<br/>पिता वही है गीत, लोरिया जो मां गाती।<br/>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">विस्तृत अम्बर तात, और मां उसमें तारा।<br/>पत्थर के शिव पिता, मातृ गंगा की धारा।<br/>निकली शिव के भाल, गंग त्रय ताप मिटाती।<br/>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">वे नारियल समान, और मां उसमें रस सी।<br/>गर्म दूध सम तात, मातु ज्यों ठंडी लस्सी।<br/>दूध करे तन पुष्ट, जुड़ाती इससे छाती।<br/>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">स्वाती बूंद समान, पिता मां सीपी होती।<br/>पालन पोषण जनन, बने जिससे हम मोती।<br/>सब उनकी ही देन, हमारी कुछ न थाती।<br/>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">दिया आपने जन्म, आपके आभारी हम।<br/>दो हमको आशीष, बने आज्ञाकारी हम।<br/>जब तम हो घनघोर, जलूं बन दीपक बाती।<br/>मात- पिता गुणगान, आज ये जिह्वा गाती।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मौलिक और अप्रकाश्िात</p>
</div>
</div>
</div>
</div>सिन्धु सी नयनों वाली (रोला गीत) भाग-२tag:www.openbooksonline.com,2016-11-28:5170231:BlogPost:8165352016-11-28T17:00:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
<p>लिपट चंद्रिका चंद्र, करें वे प्रणय परस्पर।<br></br> निरखें उन्हें चकोर, भाग्य को कोसें सत्वर।।<br></br> हाय रूप सुकुमार, कंचु अरुणाभा वाली।<br></br> स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥<br></br> <br></br> व्याकुल हुए चकोर, मेघ चंदा को ढक ले।<br></br> रसधर सुन्दर अधर, हृदय कहता है छू ले।।<br></br> सीमा अपनी जान, लगे सब रीता खाली।<br></br> स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥<br></br> <br></br> रहे उनीदे नैन, सजग अब निरखे उनको।<br></br> देख देख हरषाय, तृप्त करते निज मन को।।<br></br> हुए अधूरे आप, नहीं वह मिलने वाली।<br></br> स्वर्ग परी…</p>
<p>लिपट चंद्रिका चंद्र, करें वे प्रणय परस्पर।<br/> निरखें उन्हें चकोर, भाग्य को कोसें सत्वर।।<br/> हाय रूप सुकुमार, कंचु अरुणाभा वाली।<br/> स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥<br/> <br/> व्याकुल हुए चकोर, मेघ चंदा को ढक ले।<br/> रसधर सुन्दर अधर, हृदय कहता है छू ले।।<br/> सीमा अपनी जान, लगे सब रीता खाली।<br/> स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥<br/> <br/> रहे उनीदे नैन, सजग अब निरखे उनको।<br/> देख देख हरषाय, तृप्त करते निज मन को।।<br/> हुए अधूरे आप, नहीं वह मिलने वाली।<br/> स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥<br/> <br/> उडगन छुपते भोर, सूर्य जब चमके नभ में।<br/> धरा जगी चहुंओर, सचल जीवन हो जग में।<br/> हुये अस्त कविराय, उदित वह होने वाली।<br/> स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥<br/> <br/> जिसमें ढूढ़ा काव्य, नहीं वह काव्य हमारी।<br/> जहां काव्य मौजूद, पहुंच न दृष्टि हमारी।<br/> नहीं उभरते भाव, शब्द आडम्बर खाली।।<br/> स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥<br/> <br/> अहा कपासी रूप, भीत छूने से लगता।<br/> कहीं लगे न मैल, प्रदूषित बने धवलता।।<br/> फीका लगे तुषार, सार आगारों वाली।<br/> स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥<br/> <br/> निरभ्र रूप आकाश, वही है उतरा मानो।<br/> द्वय रवि उसके नैन, तेज है बिखरा जानो।।<br/> उर के भीतर उतर, रही है उसकी लाली।<br/> स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥<br/> <br/> <br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p></p>
<p>जिन्दगी की जद्दोजहद में कुछ इस तरह उलझा कि एक लम्बे समय तक इस मंच से दूर रहा। जिन्दगी की दुश्वारियों को कुछेक कदम पीछे छोड़ते हुए एकबार पुनः इस सम्मानित मंच पर आना हुआ है। आप सब गुरुजनों से पूर्ववत् आशीर्वाद और स्नेह की आकांक्षा है। इसी क्रम में पूर्व में लिखी एक रचना "सिन्धु सी नयनों वाली" का अगला भाग आप सबके चरणों में समर्पित करता हूं। इस गीत को मैंने अपने एक अनन्य मित्र विनय कुमार पाठक की प्रेरणा से लिखा है। अतः इसे उन्हें समर्पित करता हूं।<br/>******************************</p>संसद की गरिमा घटी (कुंडलिया छंद)tag:www.openbooksonline.com,2014-02-15:5170231:BlogPost:5122842014-02-15T07:26:48.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
चुन गुण्डे संसद गये, करते हैं उत्पात।<br />
लोकतंत्र के माथ पर, यह कलंक की बात॥<br />
यह कलंक की बात, लात घूँसा चलता है।<br />
मिर्च पाउडर फेंक, नोंच माइक देता है॥<br />
देना हमें जवाब, आज गुण्डों को सुन।<br />
भेजें सज्जन लोग, देश हित में हम चुन॥<br />
<br />
भारत के इतिहास में, है काला अध्याय।<br />
संसद में फेंका गया, जूता चप्पल हाय॥<br />
जूता चप्पल हाय, नहीं क्यों उनको मारे।<br />
चुनकर नमक हराम, गये संसद जो सारे॥<br />
करते हैं खिलवाड़, तनिक न आये लज्जत।<br />
पापी पामर नीच, कलंकित करता भारत॥<br />
<br />
संसद की गरिमा घटी, घटा देश का मान।<br />
लुटा ठगा लगने लगा, आज आम…
चुन गुण्डे संसद गये, करते हैं उत्पात।<br />
लोकतंत्र के माथ पर, यह कलंक की बात॥<br />
यह कलंक की बात, लात घूँसा चलता है।<br />
मिर्च पाउडर फेंक, नोंच माइक देता है॥<br />
देना हमें जवाब, आज गुण्डों को सुन।<br />
भेजें सज्जन लोग, देश हित में हम चुन॥<br />
<br />
भारत के इतिहास में, है काला अध्याय।<br />
संसद में फेंका गया, जूता चप्पल हाय॥<br />
जूता चप्पल हाय, नहीं क्यों उनको मारे।<br />
चुनकर नमक हराम, गये संसद जो सारे॥<br />
करते हैं खिलवाड़, तनिक न आये लज्जत।<br />
पापी पामर नीच, कलंकित करता भारत॥<br />
<br />
संसद की गरिमा घटी, घटा देश का मान।<br />
लुटा ठगा लगने लगा, आज आम इंसान॥<br />
आज आम इंसान, परिस्थिति का मारा है।<br />
किंकर्तव्यविमूढ़, नहीं कोई चारा है॥<br />
नेता दुर्गुण खान, कलंकित करते महिमा।<br />
घटा देश का मान, घटी संसद की गरिमा॥<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितदुख और जीवन (सवैया गीत)tag:www.openbooksonline.com,2014-02-07:5170231:BlogPost:5088722014-02-07T14:22:17.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
इस जीवन में दुख ही दुख है, गृह त्याग चलें वन गौतम नाई।<br />
फिर भी संग छूट नहीं दुख से, घर बैठ सुता सुत नारि रोवाई॥<br />
मन सूख रहा जग आतप से, अब नैन वरीष गये हरियाई।<br />
बहु भांति विचार किया हमने, पथ कंटक झेल रहो जग भाई॥<br />
<br />
यदि तृप्त नहीं मन तो भटके, जब तोष हुआ दुख तो मिटता है।<br />
पर तृप्त करें किस भांति इसे, यह तो बिन बात के भी हठता है॥<br />
हठवान बड़ा मन मान नहीं, भगवान कहो तुम ही समझाई।<br />
पद पंकज में जब ध्यान लगे, तब छोड़ रहा मन है हठताई॥<br />
<br />
मन की हठता सुन है तब ही, जब ही इसको तुम ढील दियो है।<br />
कहता मन लोलुप जो तुम से,…
इस जीवन में दुख ही दुख है, गृह त्याग चलें वन गौतम नाई।<br />
फिर भी संग छूट नहीं दुख से, घर बैठ सुता सुत नारि रोवाई॥<br />
मन सूख रहा जग आतप से, अब नैन वरीष गये हरियाई।<br />
बहु भांति विचार किया हमने, पथ कंटक झेल रहो जग भाई॥<br />
<br />
यदि तृप्त नहीं मन तो भटके, जब तोष हुआ दुख तो मिटता है।<br />
पर तृप्त करें किस भांति इसे, यह तो बिन बात के भी हठता है॥<br />
हठवान बड़ा मन मान नहीं, भगवान कहो तुम ही समझाई।<br />
पद पंकज में जब ध्यान लगे, तब छोड़ रहा मन है हठताई॥<br />
<br />
मन की हठता सुन है तब ही, जब ही इसको तुम ढील दियो है।<br />
कहता मन लोलुप जो तुम से, उसके सुर में सुर आप दियो है॥<br />
निज आत्म सुनो सच वो कहता, 'वह ईश्वर अंश' कहे बुध भाई।<br />
अनमोल बड़ा यह जीवन है, इसको नर वीर न व्यर्थ गवाई॥<br />
<br />
गह सार रहें जग में डट के, दुख झंझट से अब दूर भगें ना।<br />
जग में जब ईश्वर जन्म दिये, तब ईश दिये कुछ कार्य करें ना॥<br />
बिन कर्म किये घर ईश गये, उनको यह सूरत क्यों दिखलाई?<br />
डर रंच नहीं इस जीवन से, जग में रह कर्म करो कुछ भाई॥<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितगणतंत्र दिवस (कुंडलिया छंद)tag:www.openbooksonline.com,2014-01-26:5170231:BlogPost:5043192014-01-26T09:18:12.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
गणतंत्र दिवस शुभकामना, प्रेषित है श्रीमान।<br />
झंडा ऊँचा नित रहे, बढ़े देश का मान॥<br />
बढ़े देश का मान, निरंतर उन्नत भारत।<br />
हर जन हो खुशहाल, नहीं हो कोई आरत॥<br />
आम व्यक्ति गणराज, किन्तु तंत्र में है विवश।<br />
फिर कैसा गणतंत्र, और ये गणतंत्र दिवस॥<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
गणतंत्र दिवस शुभकामना, प्रेषित है श्रीमान।<br />
झंडा ऊँचा नित रहे, बढ़े देश का मान॥<br />
बढ़े देश का मान, निरंतर उन्नत भारत।<br />
हर जन हो खुशहाल, नहीं हो कोई आरत॥<br />
आम व्यक्ति गणराज, किन्तु तंत्र में है विवश।<br />
फिर कैसा गणतंत्र, और ये गणतंत्र दिवस॥<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितचिंता के कुछ दोहेtag:www.openbooksonline.com,2014-01-22:5170231:BlogPost:5030102014-01-22T07:00:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
<p>नैतिकता के पतन से, फैला कंस प्रभाव॥<br/> मात- पिता सम्मान नहि, नस नस में दुर्भाव॥<br/> <br/> पश्चिम संस्कृति जी रहे, हम भूले निज मान।<br/> कहते हम संतान कपि, जबकि हैं हनुमान॥<br/> <br/> निज गौरव को भूलकर, बनते मार्डन लोग।<br/> ये भी क्या मार्डन हुए, पाल रहे बस रोग॥<br/> <br/> अपने घर में त्यक्त है, वैदिक ज्ञान महान।<br/> महा मूढ़ मतिमंद हम, करते अन्य बखान॥<br/> <br/> लौटें अपने मूल को, जो है सबका मूल।<br/> पोषित होता विश्व है, सार बात मत भूल॥<br/> <br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>नैतिकता के पतन से, फैला कंस प्रभाव॥<br/> मात- पिता सम्मान नहि, नस नस में दुर्भाव॥<br/> <br/> पश्चिम संस्कृति जी रहे, हम भूले निज मान।<br/> कहते हम संतान कपि, जबकि हैं हनुमान॥<br/> <br/> निज गौरव को भूलकर, बनते मार्डन लोग।<br/> ये भी क्या मार्डन हुए, पाल रहे बस रोग॥<br/> <br/> अपने घर में त्यक्त है, वैदिक ज्ञान महान।<br/> महा मूढ़ मतिमंद हम, करते अन्य बखान॥<br/> <br/> लौटें अपने मूल को, जो है सबका मूल।<br/> पोषित होता विश्व है, सार बात मत भूल॥<br/> <br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>बिटिया के जन्म पर ( घनाक्षरी छंद)tag:www.openbooksonline.com,2014-01-19:5170231:BlogPost:5013812014-01-19T06:30:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
5 जनवरी 2014 को रात्रि 8.45 बजे मेरी बिटिया ने जन्म लिया। मैं उसे माँ दुर्गा का प्रसाद मानता हूँ। पिता बनने का सुख ही कुछ दिव्यानुभूतिकारी होता है। गदगद् भाव से मैं अपनी पुत्री को माँ दुर्गा का स्वरूप मान कर एक घनाक्षरी छंद प्रस्तुत कर रहा हूँ-<br />
*****************************<br />
सुता रूप धार मात, गेह जो पधारी आप,<br />
चरण युगल माथ, कोटिश: नवाता हूँ।<br />
आह्लादकारी जन्म, किलकारी रही गूँज,<br />
मुग्धकारी महतारी, आप गुन गाता हूँ॥<br />
जैसे लिया जन्म मात, किया उपकार बहु,<br />
वैसे जियो शत साल, हिय से मनाता हूँ।<br />
जन उर ताप हारी,…
5 जनवरी 2014 को रात्रि 8.45 बजे मेरी बिटिया ने जन्म लिया। मैं उसे माँ दुर्गा का प्रसाद मानता हूँ। पिता बनने का सुख ही कुछ दिव्यानुभूतिकारी होता है। गदगद् भाव से मैं अपनी पुत्री को माँ दुर्गा का स्वरूप मान कर एक घनाक्षरी छंद प्रस्तुत कर रहा हूँ-<br />
*****************************<br />
सुता रूप धार मात, गेह जो पधारी आप,<br />
चरण युगल माथ, कोटिश: नवाता हूँ।<br />
आह्लादकारी जन्म, किलकारी रही गूँज,<br />
मुग्धकारी महतारी, आप गुन गाता हूँ॥<br />
जैसे लिया जन्म मात, किया उपकार बहु,<br />
वैसे जियो शत साल, हिय से मनाता हूँ।<br />
जन उर ताप हारी, भव भय पार कारी,<br />
प्रकृति स्वरूप तुम, मुग्ध गुन गाता हूँ॥<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितकितने कर्ण?tag:www.openbooksonline.com,2013-10-29:5170231:BlogPost:4635502013-10-29T05:30:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
<p>जाने कितने कर्ण जन्मते यहाँ गली फुटपाथों पर। <br></br> या गंदी बस्ती के भीतर या कुन्ती के जज्बातों पर॥<br></br> कुन्ती इन्हें नहीं अपनाती न ही राधा मिलती है।<br></br> इसीलिये इनके मन में विद्रोह अग्नि जलती है॥<br></br> द्रोण गुरु से डांट मिली और परशुराम का श्राप मिला। <br></br> जाति- पांति और भेदभाव का जीवन में है सूर्य खिला॥<br></br> सभ्य समाज में कर्ण यहाँ जब- जब ठुकराये जाते हैं।<br></br> दुर्योधन के गले सहर्ष तब- तब ये लगाये जाते हैं।<br></br> इनके भीतर का सूर्य किन्तु इन्हें व्यथित करता रहता।<br></br> भीतर ही भीतर इनकी…</p>
<p>जाने कितने कर्ण जन्मते यहाँ गली फुटपाथों पर। <br/> या गंदी बस्ती के भीतर या कुन्ती के जज्बातों पर॥<br/> कुन्ती इन्हें नहीं अपनाती न ही राधा मिलती है।<br/> इसीलिये इनके मन में विद्रोह अग्नि जलती है॥<br/> द्रोण गुरु से डांट मिली और परशुराम का श्राप मिला। <br/> जाति- पांति और भेदभाव का जीवन में है सूर्य खिला॥<br/> सभ्य समाज में कर्ण यहाँ जब- जब ठुकराये जाते हैं।<br/> दुर्योधन के गले सहर्ष तब- तब ये लगाये जाते हैं।<br/> इनके भीतर का सूर्य किन्तु इन्हें व्यथित करता रहता।<br/> भीतर ही भीतर इनकी आत्मा को मथता रहता।<br/> महलों में पले- बढ़े अर्जुन को चुनौती देते हैं।<br/> बनकर कृष्ण ढाल उनका इनको डंस लेते हैं॥<br/> ये भीतर ही भीतर खुद से लड़ते रहते हैं।<br/> जो नीति व्यवस्था इन्हें कुचलती उसे कुचलते रहते हैं॥<br/> कहो बंधु! कर्णों के पीछे किसकी कुत्सित चाल छिपी।<br/> दुर्वासा का वर या कुन्ती की पहली गलती॥<br/> सूरजों का बहशीपन या और व्यवस्था कोई है।<br/> देख कर्ण की दीन दशा को अपनी आत्मा रोई है॥<br/> इन्हें दिला दो हक इनका जिसके ये अधिकारी हैं।<br/> नहीं धकेलों इन्हें परिधि में ये धीर- वीर व्रतधारी हैं॥<br/> <br/> मौलिक और प्रकाशित</p>यदि मैं भी रावण बन जाऊँtag:www.openbooksonline.com,2013-10-24:5170231:BlogPost:4601632013-10-24T02:40:21.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
यदि मैं भी रावण बन जाऊँ।<br />
इन्द्रिय लोलुप इन्द्र विरुद्ध मैं, इन्द्रजीत सुत जाऊँ।<br />
धरे लूट धन धन कुबेर जो, उसको अभी छुड़ाऊँ॥<br />
भंग करे जो भगिनि अस्मिता, अंग भंग करवाऊँ।<br />
घर के भेदी को तत्क्षण मैं, घर से दूर भगाऊँ॥<br />
आँख उठाये देश तरफ वो, सिर धड़ से अलग कराऊँ।<br />
बैरी बनकर ईश भी आयें, उनसे बैर उठाऊँ॥<br />
नहीं देश में घुसने दूँ मैं, दसों शीश कटवाऊँ।<br />
कर विकास निज मातृभूमि का, लंका स्वर्ण बनाऊँ॥<br />
वैज्ञानिक तकनीकि उन्नति, स्वर्ग धरा पर लाऊँ।<br />
शनि सम क्रूर जनों को अपने, वश कर नाच नचाऊँ॥<br />
पवन, अग्नि, जल, सूर्य, चंद्र को,…
यदि मैं भी रावण बन जाऊँ।<br />
इन्द्रिय लोलुप इन्द्र विरुद्ध मैं, इन्द्रजीत सुत जाऊँ।<br />
धरे लूट धन धन कुबेर जो, उसको अभी छुड़ाऊँ॥<br />
भंग करे जो भगिनि अस्मिता, अंग भंग करवाऊँ।<br />
घर के भेदी को तत्क्षण मैं, घर से दूर भगाऊँ॥<br />
आँख उठाये देश तरफ वो, सिर धड़ से अलग कराऊँ।<br />
बैरी बनकर ईश भी आयें, उनसे बैर उठाऊँ॥<br />
नहीं देश में घुसने दूँ मैं, दसों शीश कटवाऊँ।<br />
कर विकास निज मातृभूमि का, लंका स्वर्ण बनाऊँ॥<br />
वैज्ञानिक तकनीकि उन्नति, स्वर्ग धरा पर लाऊँ।<br />
शनि सम क्रूर जनों को अपने, वश कर नाच नचाऊँ॥<br />
पवन, अग्नि, जल, सूर्य, चंद्र को, निज अनुकूल बनाऊँ।<br />
वयं रक्ष सह शांति मंत्र यह, जन- जन में पहुंचाऊँ॥<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितठगे गये हम लोग (रोला गीत)tag:www.openbooksonline.com,2013-09-15:5170231:BlogPost:4356732013-09-15T13:11:26.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
बनते संत महान, काम घटिया ही करते।<br />
खोले धर्म दुकान, कर्म बनिया के करते॥<br />
उनसे लेकर मंत्र, हृदय विह्वल हो रोया।<br />
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥<br />
<br />
छोड़ो माया मोह, नित्य हमको समझाया।<br />
कब्जाकर पर भूमि, आश्रम निज बनवाया।<br />
शैम्पू साबून तेल, बेंचते संत वणिक या।<br />
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥<br />
<br />
चमत्कार बहु भांति, भांति अनुभव करवाते।<br />
भूले सारा ज्ञान, जेल अपवित्र बताते॥<br />
परम संत क्या जेल, पलंग जंगल हो या?<br />
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥<br />
<br />
एक दिवस प्रण ठान, संत जंगल में बैठे।<br />
लायेगा करतार, साधना के बल…
बनते संत महान, काम घटिया ही करते।<br />
खोले धर्म दुकान, कर्म बनिया के करते॥<br />
उनसे लेकर मंत्र, हृदय विह्वल हो रोया।<br />
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥<br />
<br />
छोड़ो माया मोह, नित्य हमको समझाया।<br />
कब्जाकर पर भूमि, आश्रम निज बनवाया।<br />
शैम्पू साबून तेल, बेंचते संत वणिक या।<br />
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥<br />
<br />
चमत्कार बहु भांति, भांति अनुभव करवाते।<br />
भूले सारा ज्ञान, जेल अपवित्र बताते॥<br />
परम संत क्या जेल, पलंग जंगल हो या?<br />
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥<br />
<br />
एक दिवस प्रण ठान, संत जंगल में बैठे।<br />
लायेगा करतार, साधना के बल ऐंठे॥<br />
कहाँ गया वो तेज, आज तू कारा सोया?<br />
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥<br />
<br />
किस पर हो विश्वास, जगत ठग से बोझिल है।<br />
सदमार्ग बताता संत, किन्तु छल में शामिल है॥<br />
जप तप व्रत औ ध्यान, लगे जीवन ही खोया।<br />
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितसिन्धु सी नयनों वाली (रोला गीत)tag:www.openbooksonline.com,2013-09-15:5170231:BlogPost:4354932013-09-15T09:45:48.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
तेरे सुन्दर नैन, नैन में सागर तैरे।<br />
उसमें डूबा चांद, चांद को दुनिया हेरे॥<br />
मिला नहीं जब चांद, तुझे उपमा दे डाली।<br />
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥<br />
<br />
तेरे काले केश, अमावस जैसे लगते।<br />
भटक गये सुकुमार, अलक में उलझे रहते॥<br />
चांद अमावस साथ, अरे अद्भुत है आली।<br />
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥<br />
<br />
वीणा की झंकार, मधुर श्रवणों में घोले।<br />
अरुण ओष्ठ पुट खोल, बैन जब- जब तू बोले॥<br />
नहीं सुनूँ झंकार, लगे सब सूना खाली।<br />
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥<br />
<br />
धरे पयोधर वक्ष, कलश अमृत के लगते।<br />
पी कर वय…
तेरे सुन्दर नैन, नैन में सागर तैरे।<br />
उसमें डूबा चांद, चांद को दुनिया हेरे॥<br />
मिला नहीं जब चांद, तुझे उपमा दे डाली।<br />
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥<br />
<br />
तेरे काले केश, अमावस जैसे लगते।<br />
भटक गये सुकुमार, अलक में उलझे रहते॥<br />
चांद अमावस साथ, अरे अद्भुत है आली।<br />
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥<br />
<br />
वीणा की झंकार, मधुर श्रवणों में घोले।<br />
अरुण ओष्ठ पुट खोल, बैन जब- जब तू बोले॥<br />
नहीं सुनूँ झंकार, लगे सब सूना खाली।<br />
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥<br />
<br />
धरे पयोधर वक्ष, कलश अमृत के लगते।<br />
पी कर वय सुकुमार, पुष्ट तन मन से होते॥<br />
करते हैं श्रृंगार, पयोधर तेरे आली।<br />
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नैनों वाली॥<br />
<br />
गालों का अरुणाभ, चकित सूरज को करता।<br />
किन्तु चंद्र शीतल्य, कपोलों में खुद भरता॥<br />
आह्लादित मन गात, रूप लावण्यों वाली॥<br />
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितकर्तव्य बोध (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2013-08-31:5170231:BlogPost:4247682013-08-31T02:30:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
<p>खट- खट की आवाज सुनकर गली के कुत्ते भौंकने लगे। चोर कुछ देर शांत हो गये। थोड़ी देर बाद फिर से खोदने लगे। कुत्ते फिर भौंकने लगे।</p>
<p>चोरों ने डंडा मारकर कुत्तों को भगाना चाहा, लेकिन कुत्ते निकले निरा ढीठ, वे और तेज भौंकने लगे। लाल मोहन ही क्या अब तो सारा मुहल्ला जाग चुका था । लेकिन किसी ने अपने बिस्तर से उठकर बाहर यह पता करने की ज़हमत नहीं उठायी कि कुत्ते भौंक क्यों रहे थे ।</p>
<p>सुबह-सुबह पूरे मुहल्ले में यह ख़बर आग बनी थी, लाल मोहन लुट चुका है।<br/> <br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p>खट- खट की आवाज सुनकर गली के कुत्ते भौंकने लगे। चोर कुछ देर शांत हो गये। थोड़ी देर बाद फिर से खोदने लगे। कुत्ते फिर भौंकने लगे।</p>
<p>चोरों ने डंडा मारकर कुत्तों को भगाना चाहा, लेकिन कुत्ते निकले निरा ढीठ, वे और तेज भौंकने लगे। लाल मोहन ही क्या अब तो सारा मुहल्ला जाग चुका था । लेकिन किसी ने अपने बिस्तर से उठकर बाहर यह पता करने की ज़हमत नहीं उठायी कि कुत्ते भौंक क्यों रहे थे ।</p>
<p>सुबह-सुबह पूरे मुहल्ले में यह ख़बर आग बनी थी, लाल मोहन लुट चुका है।<br/> <br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>आओ लोकतंत्र- लोकतंत्र खेलें (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2013-08-08:5170231:BlogPost:4103292013-08-08T14:30:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
अचानक मेरे पांव ठिठक गये। कुछ बच्चे कह रहे थे, आओ लोकतंत्र लोकतंत्र खेलें। मैंने सोंचा- कई खेल सुना है, खेला भी है, मसलन- गिल्ली-डंडा, छुपा- छुपी, कबड्डी, खो- खो आदि। ये नया खेल कौन सा है- लोकतंत्र- लोकतंत्र? मैंने देखा- एक बच्चा जमीन पे लेटा हुआ है, दूसरा बच्चा उसके पास बैठा है। वह रोते हुए कह रहा है- माई- बाप सहाय लागो, मेरा बच्चा भूख से मर रहा है। मैं भी भूख से व्याकुल हूँ। आज मुझे कोई काम नहीं मिला। सहाय लागो माई- बाप सहाय लागो।<br />
एक बच्चा आता है और उसके आगे 24 रूपये फेंक कर कहता है- ले जा…
अचानक मेरे पांव ठिठक गये। कुछ बच्चे कह रहे थे, आओ लोकतंत्र लोकतंत्र खेलें। मैंने सोंचा- कई खेल सुना है, खेला भी है, मसलन- गिल्ली-डंडा, छुपा- छुपी, कबड्डी, खो- खो आदि। ये नया खेल कौन सा है- लोकतंत्र- लोकतंत्र? मैंने देखा- एक बच्चा जमीन पे लेटा हुआ है, दूसरा बच्चा उसके पास बैठा है। वह रोते हुए कह रहा है- माई- बाप सहाय लागो, मेरा बच्चा भूख से मर रहा है। मैं भी भूख से व्याकुल हूँ। आज मुझे कोई काम नहीं मिला। सहाय लागो माई- बाप सहाय लागो।<br />
एक बच्चा आता है और उसके आगे 24 रूपये फेंक कर कहता है- ले जा भूख मिटा ले अपनी।<br />
जो लड़का रो रहा है- वह कहता है, माई- बाप इस 24 रुपल्ली में क्या मिलेगा?<br />
तब तक एक दूसरा लड़का आता है। उसने वह 24 रूपया उठा लिया और उसमें से 10 रूपये देते हुए कहा- जा दिल्ली चला जा वहाँ 10 रूपये में दोनों जन का पेट आराम से भर जायेगा।<br />
रोने वाला बच्चा कहता है- माई- बाप गरीबी का मजाक मत बनाओ? हम पर तरस खाओ।<br />
तब तक एक तीसरा बच्चा आता है। वह 10 रूपये उठा कर दूसरे लड़के की जेब में रखते हुए कहता है- मूर्ख आदमी! पेट तो 1 रूपये में भर जाता है, फिर 10 रूपये देने की क्या जरूरत है?<br />
वह रोने वाले बच्चे की तरफ मुड़कर 2 रूपये का सिक्का फेंकता है और कहता है- चलते हैं हमें अभी और भी गरीबों का भला करना है।<br />
तब तक चौथा बच्चा आता है, वह 2 रूपये का सिक्का उठाकर देने वाले बच्चे को वापस करते हुए कहता है- तुम मैंगों इंडियन फूल का फूल रहेगा। गरीबी- वरीबी कुछ नहीं होती यह केवल मानसिक बीमारी है। इसका इलाज नहीं हो सकता।<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितभूख का बीमा (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2013-08-07:5170231:BlogPost:4093062013-08-07T08:03:20.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
रहीम - यार! अपन लोग की लाइफ का कोई गेरन्टी नहीं।<br />
राम - ये सेठ लोग अक्खी दुनिया के हिस्से की गेरन्टी खुद ही ले लेना चाहता है।<br />
-हाँ यार! देख कल अपने सेठ की गाड़ी क्या ठुकी कि बीमा का केस दायर कर दिया। अब साल्ला 4-5 लाख तो मिल ही जायेगा उसको।<br />
-लेकिन तुझे मालूम है? कल अपन के मोहल्ले में अश्फाक मोची का इकलौता लड़का, बेचारा भूख से तड़प कर मर गया।<br />
-काश अपन लोग के भूख भी का बीमा होता यार, तो भूख लगने या मरने पर कुछ तो मिल जाता!<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
रहीम - यार! अपन लोग की लाइफ का कोई गेरन्टी नहीं।<br />
राम - ये सेठ लोग अक्खी दुनिया के हिस्से की गेरन्टी खुद ही ले लेना चाहता है।<br />
-हाँ यार! देख कल अपने सेठ की गाड़ी क्या ठुकी कि बीमा का केस दायर कर दिया। अब साल्ला 4-5 लाख तो मिल ही जायेगा उसको।<br />
-लेकिन तुझे मालूम है? कल अपन के मोहल्ले में अश्फाक मोची का इकलौता लड़का, बेचारा भूख से तड़प कर मर गया।<br />
-काश अपन लोग के भूख भी का बीमा होता यार, तो भूख लगने या मरने पर कुछ तो मिल जाता!<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितशाश्वत प्रेम (कुंडलिया छंद)tag:www.openbooksonline.com,2013-07-22:5170231:BlogPost:4009562013-07-22T14:30:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
1-<br />
शाश्वत प्रेम सदैव है, सृष्टि आदि अनुमन्य।<br />
यह ईश्वर का अंग है, करके सब हों धन्य॥<br />
करके सब हो धन्य, जगत का सार यही है।<br />
वश में होते ईश, प्रेम का काट नहीं है॥<br />
कबिरा मीरा सूर, शशी आदिक इसमें रत।<br />
नहीं वासना युक्त, प्रेम तो सत्व शाश्वत॥<br />
<br />
2-<br />
बहती गंगा प्रेम यह, बांध सका नहिं कोय।<br />
अन्हवाये तन प्रेम में, हर मन निर्मल होय॥<br />
हर मन निर्मल होय, कलुष अंतर का मिटता।<br />
नहीं वासना युक्त, प्रेम वश ईश्वर मिलता॥<br />
निकल अचल हिमवान, सिन्धु चंचल में मिलती।<br />
गंगा प्रेम प्रतीक, निरंतर कलकल बहती॥<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
(संशोधित)
1-<br />
शाश्वत प्रेम सदैव है, सृष्टि आदि अनुमन्य।<br />
यह ईश्वर का अंग है, करके सब हों धन्य॥<br />
करके सब हो धन्य, जगत का सार यही है।<br />
वश में होते ईश, प्रेम का काट नहीं है॥<br />
कबिरा मीरा सूर, शशी आदिक इसमें रत।<br />
नहीं वासना युक्त, प्रेम तो सत्व शाश्वत॥<br />
<br />
2-<br />
बहती गंगा प्रेम यह, बांध सका नहिं कोय।<br />
अन्हवाये तन प्रेम में, हर मन निर्मल होय॥<br />
हर मन निर्मल होय, कलुष अंतर का मिटता।<br />
नहीं वासना युक्त, प्रेम वश ईश्वर मिलता॥<br />
निकल अचल हिमवान, सिन्धु चंचल में मिलती।<br />
गंगा प्रेम प्रतीक, निरंतर कलकल बहती॥<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
(संशोधित)गूँज (लघुकथा)tag:www.openbooksonline.com,2013-07-10:5170231:BlogPost:3950022013-07-10T08:30:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
राजू मोबाइल से गाना सुनने में मस्त था- "वो इक लड़की थी जिसे मैं प्यार करता था।"<br />
तब तक उसके कानों में पिता जी की आवाज गूंजी- "सूरदास का पद नहीं सुन सकते थे क्या? या मीरा, तुलसी, कबीर का भजन सुनते?"<br />
राजू डर गया और उसने गाना सुनना बंद कर दिया।<br />
दो दिन बाद की बात है पिता जी अपने मोबाइल से गीत सुन रहे थे-"धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाये।"<br />
तब तक उनके कानों में आवाज गूँजी- "पिता जी! यह किसका पद या भजन है?"<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
(संशोधित)
राजू मोबाइल से गाना सुनने में मस्त था- "वो इक लड़की थी जिसे मैं प्यार करता था।"<br />
तब तक उसके कानों में पिता जी की आवाज गूंजी- "सूरदास का पद नहीं सुन सकते थे क्या? या मीरा, तुलसी, कबीर का भजन सुनते?"<br />
राजू डर गया और उसने गाना सुनना बंद कर दिया।<br />
दो दिन बाद की बात है पिता जी अपने मोबाइल से गीत सुन रहे थे-"धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाये।"<br />
तब तक उनके कानों में आवाज गूँजी- "पिता जी! यह किसका पद या भजन है?"<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
(संशोधित)आखिर हम क्या हो गये ( कविता )tag:www.openbooksonline.com,2013-04-20:5170231:BlogPost:3503542013-04-20T14:38:24.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
बचपन में हम कागज की नाव बनाया करते थे<br />
पानी में उसे तैराया करते थे<br />
कागज के हेलिकाप्टर उड़ाया करते थे<br />
रेत के घर बनाया करते थे<br />
निर्जीव गुड्डे- गुड्डियों की शादी रचाया करते थे<br />
तितलियाँ प्यारी लगतीं थीं<br />
वस्तुएं जिज्ञासा पैदा<br />
करतीं थीं<br />
बचपन का उमंग था<br />
हौंसलों में दम था<br />
यह आशंका नहीं थी<br />
कि कागज की नाव डूबती है या नहीं<br />
हेलिकाप्टर उड़ता है या नहीं<br />
रेत का घर टिकता है या नहीं<br />
तितलियाँ सहचर होती हैं या नहीं<br />
ज्यों ज्यों हम बड़े हए<br />
स्कूल कॉलेज में किताबों को पढ़े हुए<br />
ज्ञान का विकास होता गया<br />
हौंसलों का नाश होता…
बचपन में हम कागज की नाव बनाया करते थे<br />
पानी में उसे तैराया करते थे<br />
कागज के हेलिकाप्टर उड़ाया करते थे<br />
रेत के घर बनाया करते थे<br />
निर्जीव गुड्डे- गुड्डियों की शादी रचाया करते थे<br />
तितलियाँ प्यारी लगतीं थीं<br />
वस्तुएं जिज्ञासा पैदा<br />
करतीं थीं<br />
बचपन का उमंग था<br />
हौंसलों में दम था<br />
यह आशंका नहीं थी<br />
कि कागज की नाव डूबती है या नहीं<br />
हेलिकाप्टर उड़ता है या नहीं<br />
रेत का घर टिकता है या नहीं<br />
तितलियाँ सहचर होती हैं या नहीं<br />
ज्यों ज्यों हम बड़े हए<br />
स्कूल कॉलेज में किताबों को पढ़े हुए<br />
ज्ञान का विकास होता गया<br />
हौंसलों का नाश होता गया<br />
जिज्ञासा मृत होती गयी<br />
निर्भीकता की जगह कायरता घर करती गयी<br />
अब हम कुछ भी नया करने से डरते हैं<br />
कोई हौंसला करने में सौ बार सोंचते हैं<br />
आगा- पीछा सब देखते हैं<br />
हानि- लाभ सब परखते हैं<br />
वो अनहोनी में होनी करने की चाहत कहाँ गयी<br />
रात में परियों के आवाज की खनखनाहट कहाँ गयी<br />
क्या हम सचमुच बड़े हो गये<br />
या उम्र- ठग के द्वारा ठगे गये<br />
या हम एक भला आदमी होने से रह गये<br />
या मूढ़ता अज्ञानता की खाई में धंसते चले गये<br />
आखिर हम क्या हो गये?<br />
<br />
(रचना पूर्णत: मौलिक व अप्रकाशित है)रफ्तार (चार मुक्तक)tag:www.openbooksonline.com,2013-04-13:5170231:BlogPost:3462922013-04-13T15:33:22.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
उजाला चाहते हैं वज्म में खुद जलना होगा,<br />
सफर तय करना है तो गिर कर सम्भलना होगा।<br />
इतनी आसानी से मंजिल नहीं मिलती यारों,<br />
जिन्दगी की रफ्तार को कुछ बदलना होगा॥<br />
<br />
मंहगाई की रफ्तार यूँ बढ़ती जा रही है,<br />
इसी के इर्द- गिर्द दुनिया सिमटती जा रही है।<br />
तिस पर ये बेरोजगारी घोटाले और लूट,<br />
ये जिन्दगी इक दलदल में बदलती जा रही है॥<br />
<br />
सुना है उसने एक नई कार खरीद ली,<br />
समझता है जिन्दगी में रफ्तार खरीद ली।<br />
पर क्या पता उस नादान अहमक को,<br />
अपने पाले में मुसीबत बेकार खरीद ली॥<br />
<br />
जिन्दगी के भी कुछ उसूल होते हैं,<br />
अगर हम उनके माकूल…
उजाला चाहते हैं वज्म में खुद जलना होगा,<br />
सफर तय करना है तो गिर कर सम्भलना होगा।<br />
इतनी आसानी से मंजिल नहीं मिलती यारों,<br />
जिन्दगी की रफ्तार को कुछ बदलना होगा॥<br />
<br />
मंहगाई की रफ्तार यूँ बढ़ती जा रही है,<br />
इसी के इर्द- गिर्द दुनिया सिमटती जा रही है।<br />
तिस पर ये बेरोजगारी घोटाले और लूट,<br />
ये जिन्दगी इक दलदल में बदलती जा रही है॥<br />
<br />
सुना है उसने एक नई कार खरीद ली,<br />
समझता है जिन्दगी में रफ्तार खरीद ली।<br />
पर क्या पता उस नादान अहमक को,<br />
अपने पाले में मुसीबत बेकार खरीद ली॥<br />
<br />
जिन्दगी के भी कुछ उसूल होते हैं,<br />
अगर हम उनके माकूल होते हैं।<br />
तो होती है खुशियों की बारिस सदा,<br />
अगरचे हर कदम पर शूल होते हैं॥मालिक सबका एक है (दोहा छंद)tag:www.openbooksonline.com,2013-04-12:5170231:BlogPost:3454862013-04-12T07:34:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
मालिक सबका एक है, खुदा गॉड भगवान।<br />
धर्म पंथ में बांटकर, भटक गया इंसान॥<br />
<br />
निराकार साकार ही, दोनों ईश्वर रूप।<br />
देह और छाया सदृश, संग-संग हैं धूप॥<br />
<br />
सूरज तारे चांद सब, सगुण ईश के रूप।<br />
नियति नियम निर्गुण कहें, अद्भुत भव्य अनूप॥<br />
<br />
ईश प्राप्ति निज खोज है, खोज सके तो खोज।<br />
मोह निशा से घिर मनुज, बाहर भटके रोज॥<br />
<br />
आत्मरूप में जाग नर, भटक नहीं अन्यत्र।<br />
तुझ में ईश्वर ईश तू, तू ही तू सर्वत्र॥<br />
<br />
धूम- अग्नि दिन- रात से, सुख से दुख संयुक्त।<br />
धूप संग ही छांव है, सत्य कौन प्रभु उक्त॥
मालिक सबका एक है, खुदा गॉड भगवान।<br />
धर्म पंथ में बांटकर, भटक गया इंसान॥<br />
<br />
निराकार साकार ही, दोनों ईश्वर रूप।<br />
देह और छाया सदृश, संग-संग हैं धूप॥<br />
<br />
सूरज तारे चांद सब, सगुण ईश के रूप।<br />
नियति नियम निर्गुण कहें, अद्भुत भव्य अनूप॥<br />
<br />
ईश प्राप्ति निज खोज है, खोज सके तो खोज।<br />
मोह निशा से घिर मनुज, बाहर भटके रोज॥<br />
<br />
आत्मरूप में जाग नर, भटक नहीं अन्यत्र।<br />
तुझ में ईश्वर ईश तू, तू ही तू सर्वत्र॥<br />
<br />
धूम- अग्नि दिन- रात से, सुख से दुख संयुक्त।<br />
धूप संग ही छांव है, सत्य कौन प्रभु उक्त॥कारगिल युद्ध पर उसे गर्व है? (घनाक्षरी)tag:www.openbooksonline.com,2013-03-31:5170231:BlogPost:3391352013-03-31T11:17:19.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
कारगिल हार के जो, हार पे ही गर्व करे,<br />
हार जूतियों का उस नीच को पिन्हाइये।<br />
एक से न काम चले, जूता एक और मिले,<br />
भाई एक जोड़ी मेरा, पूरा करवाइये॥<br />
पाक पाप धूर्तबाज, कल बल छल बाज,<br />
कपटी से शांति बात, भूल मन जाइये।<br />
अफजल कसाब ज्यों, मनुजता के शत्रु को,<br />
फांसी पर चढ़ाओ या, तोप से उड़ाइये॥
कारगिल हार के जो, हार पे ही गर्व करे,<br />
हार जूतियों का उस नीच को पिन्हाइये।<br />
एक से न काम चले, जूता एक और मिले,<br />
भाई एक जोड़ी मेरा, पूरा करवाइये॥<br />
पाक पाप धूर्तबाज, कल बल छल बाज,<br />
कपटी से शांति बात, भूल मन जाइये।<br />
अफजल कसाब ज्यों, मनुजता के शत्रु को,<br />
फांसी पर चढ़ाओ या, तोप से उड़ाइये॥कोयल दीदी! (सार छंद)tag:www.openbooksonline.com,2013-03-21:5170231:BlogPost:3359682013-03-21T07:12:21.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
कोयल दीदी! कोयल दीदी! मन बसंत बौराया।<br />
सुरभित अलसित मधु मय मौसम, रसिक हृदय को भाया॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! वन बंसत ले आयी।<br />
कूं कूं उसकी बोली प्यारी, हर जन मन को भायी॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! बागों में फूल खिले।<br />
लोभी भौंरे कलियों का भी, रस निर्दय चूस चले॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! साजन घर को जाओ।<br />
मुझ विरहा की विरह वेदना, निष्ठुर पिया सुनाओ॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! कू कू करके गाए।<br />
जग में मीठी बोली अच्छी, राग द्वेष मिट जाए॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! तुम हो भोली भाली।<br />
तेरी अंडा कौआ खाये, उसकी कर…
कोयल दीदी! कोयल दीदी! मन बसंत बौराया।<br />
सुरभित अलसित मधु मय मौसम, रसिक हृदय को भाया॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! वन बंसत ले आयी।<br />
कूं कूं उसकी बोली प्यारी, हर जन मन को भायी॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! बागों में फूल खिले।<br />
लोभी भौंरे कलियों का भी, रस निर्दय चूस चले॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! साजन घर को जाओ।<br />
मुझ विरहा की विरह वेदना, निष्ठुर पिया सुनाओ॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! कू कू करके गाए।<br />
जग में मीठी बोली अच्छी, राग द्वेष मिट जाए॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! तुम हो भोली भाली।<br />
तेरी अंडा कौआ खाये, उसकी कर रखवाली॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! काला कौआ आया।<br />
कांव-कांव का शोर मचाये, सबकी नींद उड़ाया॥<br />
<br />
कोयल दीदी! कोयल दीदी! कौआ काला काना।<br />
धूर्त बहुत मक्कारी उसमें, होता बड़ा सयाना॥ईचक दाना बीचक दाना (सार छंद)tag:www.openbooksonline.com,2013-03-20:5170231:BlogPost:3356822013-03-20T05:30:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
(सार / ललित छंद16+12मात्रायें:- छन्नपकैया छंद पर एक प्रयोग )<br />
<br />
ईचक दाना बीचक दाना,होली होली प्यारी।<br />
भर पिचकारी साजन मारी,रंगी सारी सारी॥<br />
ईचक दाना बीचक दाना,उड़ता रंग अबीरा।<br />
हुलियारों की टोली आयी,गाते फाग कबीरा॥<br />
ईचक दाना बीचक दाना,भंग चढ़ी अब हमको।<br />
प्रेम पर्व होली है भाई,रंग दूँगा मैं सबको॥<br />
ईचक दाना बीचक दाना,गुझिया हलवा पूरी।<br />
गुलगुल्ला और छने जलेबी,खाये धनिया झूरी॥<br />
ईचक दाना बीचक दाना,दादा दादी छुपकर।<br />
छक्कर पीते भंग झूमते,रंग खेलते डटकर॥<br />
ईचक दाना बीचक दाना,बड़ी तेज मंहगाई।<br />
खाली थैली गर्म…
(सार / ललित छंद16+12मात्रायें:- छन्नपकैया छंद पर एक प्रयोग )<br />
<br />
ईचक दाना बीचक दाना,होली होली प्यारी।<br />
भर पिचकारी साजन मारी,रंगी सारी सारी॥<br />
ईचक दाना बीचक दाना,उड़ता रंग अबीरा।<br />
हुलियारों की टोली आयी,गाते फाग कबीरा॥<br />
ईचक दाना बीचक दाना,भंग चढ़ी अब हमको।<br />
प्रेम पर्व होली है भाई,रंग दूँगा मैं सबको॥<br />
ईचक दाना बीचक दाना,गुझिया हलवा पूरी।<br />
गुलगुल्ला और छने जलेबी,खाये धनिया झूरी॥<br />
ईचक दाना बीचक दाना,दादा दादी छुपकर।<br />
छक्कर पीते भंग झूमते,रंग खेलते डटकर॥<br />
ईचक दाना बीचक दाना,बड़ी तेज मंहगाई।<br />
खाली थैली गर्म मार्केट,होली जाय भुलाई॥तात मान एक बात (मनहरण घनाक्षरी)tag:www.openbooksonline.com,2013-03-15:5170231:BlogPost:3338642013-03-15T09:11:26.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
देश में विदेश के सलाहकार सेनदार,<br />
प्रीति में अनीति रीति, भूल के न लाइये।<br />
नीतिवान बुद्धिमान, राजकाज जानकार,<br />
नेक राज एक बार, देश में बनाइये॥<br />
जाति-पांति भेद-भाव, ऊँच-नीच के दुराव,<br />
हैं समाज कोढ़-घाव, दूर छोड़ आइये।<br />
देवियाँ करें पुकार, तात मान एक बात,<br />
लाज आज नारियों कि, देश में बचाइये॥
देश में विदेश के सलाहकार सेनदार,<br />
प्रीति में अनीति रीति, भूल के न लाइये।<br />
नीतिवान बुद्धिमान, राजकाज जानकार,<br />
नेक राज एक बार, देश में बनाइये॥<br />
जाति-पांति भेद-भाव, ऊँच-नीच के दुराव,<br />
हैं समाज कोढ़-घाव, दूर छोड़ आइये।<br />
देवियाँ करें पुकार, तात मान एक बात,<br />
लाज आज नारियों कि, देश में बचाइये॥अखबार की सुर्खियाँ (घनाक्षरी छंद)tag:www.openbooksonline.com,2013-03-14:5170231:BlogPost:3331042013-03-14T15:25:34.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
सैनिक शहीद हुए, फिर नाउम्मीद हुए,<br />
मौन सरकार आज, कोई तो बुलाइये।<br />
<br />
राज फरमान जारी, सोलह की उम्र न्यारी,<br />
प्यारियों से रास खूब, जमके रचाइये॥<br />
<br />
कानून गया भाड़ में, खुदकुशी तिहाड़ में,<br />
खोखली सरकार को, जड़ से मिटाइये।<br />
<br />
माँ भारती पुकारती,हैं देवियाँ गुहारती,<br />
लाज आज नारियों की, देश में बचाइये॥
सैनिक शहीद हुए, फिर नाउम्मीद हुए,<br />
मौन सरकार आज, कोई तो बुलाइये।<br />
<br />
राज फरमान जारी, सोलह की उम्र न्यारी,<br />
प्यारियों से रास खूब, जमके रचाइये॥<br />
<br />
कानून गया भाड़ में, खुदकुशी तिहाड़ में,<br />
खोखली सरकार को, जड़ से मिटाइये।<br />
<br />
माँ भारती पुकारती,हैं देवियाँ गुहारती,<br />
लाज आज नारियों की, देश में बचाइये॥कर पनीर तैयार (दोहा छंद)tag:www.openbooksonline.com,2013-03-13:5170231:BlogPost:3328342013-03-13T14:00:00.000Zविन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठीhttp://www.openbooksonline.com/profile/Vindhyeshwariprasadtripathi
अपनी गलती को प्रिये! मत समझो तुम भार।<br />
दूध फटा तो क्या हुआ, कर पनीर तैयार॥<br />
<br />
जीवन का उद्देश्य क्या, मिला हमें क्यों जन्म।<br />
परमपिता को याद कर, करें निरन्तर कर्म॥<br />
<br />
घृणा और पर डाह से, हो खुशियों का नाश।<br />
प्रेम और सद्भाव से, मन में भरे प्रकाश॥<br />
<br />
प्रेम और विश्वास हैं, दोनों एक समान।<br />
जबरन ये न हो सके, चाहे जाये जान॥<br />
<br />
दृश्य बदलते हैं प्रिये! बदलो अपनी दृष्टि।<br />
निज नजरों के दोष से, दोषी दिखती सृष्टि॥<br />
<br />
मेरी गलती भूलते, प्रतिदिन ही भगवान।<br />
मैं भी प्रतिदिन भूलता, उनका हर अहसान॥<br />
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मेरी चिंता है जिसे, मुझको रखता…
अपनी गलती को प्रिये! मत समझो तुम भार।<br />
दूध फटा तो क्या हुआ, कर पनीर तैयार॥<br />
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जीवन का उद्देश्य क्या, मिला हमें क्यों जन्म।<br />
परमपिता को याद कर, करें निरन्तर कर्म॥<br />
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घृणा और पर डाह से, हो खुशियों का नाश।<br />
प्रेम और सद्भाव से, मन में भरे प्रकाश॥<br />
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प्रेम और विश्वास हैं, दोनों एक समान।<br />
जबरन ये न हो सके, चाहे जाये जान॥<br />
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दृश्य बदलते हैं प्रिये! बदलो अपनी दृष्टि।<br />
निज नजरों के दोष से, दोषी दिखती सृष्टि॥<br />
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मेरी गलती भूलते, प्रतिदिन ही भगवान।<br />
मैं भी प्रतिदिन भूलता, उनका हर अहसान॥<br />
<br />
मेरी चिंता है जिसे, मुझको रखता याद।<br />
वह ईश्वर कैसे मुझे, दे सकता अवसाद॥