ख़ूब इतराते हैं हम अपना ख़ज़ाना देख कर आँसुओं पर तो कभी उन का मुहाना देख कर..
ग़ैब जब बख्शे ग़ज़ल तो बस यही कहता हूँ मैं अपनी बेटी दी है उसने और घराना देख कर. .
साँप डस ले या मिले सीढ़ी ये उस के हाथ है, हम को आज़ादी नहीं चलने की ख़ाना देख कर..
इक तजल्ली यक-ब-यक दिल में मेरे भरती गयी एक लौ का आँधियों से सर लड़ाना देख कर..
ऐसे तो आसान हूँ वैसे मगर मुश्किल भी हूँ मूड कब कैसा रहे; तुम आज़माना देख कर. .निल…