जब नहीं था
समय
तब तुम घूमती थी
और मंडराती थी
हमारे इर्द-गिर्द
करती थी परिक्रमा
और मैं देता था झिडक
अब मैं
हूँ घर पर मुसलसल
साथ तुम भी हो
व्यस्तता भी अब नहीं कोई
कितु मेरे पास तुम आती नहीं
परिक्रमा तो दूर की है बात
ढंग से मुसक्याती नहीं
नहीं होता
यकीं इस बदलाव पर
नहीं आ सकतीं
किसी बहकावे में तुम
और फिर अफवाह की भी बात क्या
कब यकीं करती थीं तुम
इन पर प्रिये
आज
पीना चाहता हूँ…