रोज़ सितम वो ढाते देखो हम बेबस बेचारों पर
कोई अंकुश नहीं लगाता इन सरमाया दारों पर।
मजदूरों का जीवन देखो कितना मुश्किल होता है
बिस्तर पास नहीं जब होता सो जाते अख़बारों पर।
भूक ग़रीबी ज्यों की त्यों क्यों तख़्त नशीं कुछ तो बोलो
दोष मढ़ोगे कब तक आख़िर पिछली ही सरकारों पर।
वक़्त नहीं है पास किसी के सबको अपनी आज पड़ी
दौर पुराना ख़्वाब लगे जब भीड़ जुटे चौबारों पर।
बच्चे झुककर बात करेंगे घर के सारे लोगों से
आईने जब लग जाएँगे घर की सब दीवारों पर।
शह पर सरमाया दारों की झूठी ख़बरें छाप रहे
कैसे अब विश्वास करें हम यारो इन अख़बारों पर।
(मौलिक व अप्रकाशित)
नाथ सोनांचली
आद0 लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर जी सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और प्रतिक्रिया का हृदयतल से आभार बन्धुवर। सादर
Jul 14, 2020
रवि भसीन 'शाहिद'
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी, इस लाजवाब ग़ज़ल पर दाद और बधाई क़ुबूल फ़रमाएँ!
Jul 16, 2020
नाथ सोनांचली
आद0 रवि भसीन 'शाहिद' जी सादर अभिवादन। ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और दाद के लिए हृदय से शुक्र गुजार हूँ। आभार आपका
Jul 18, 2020