रोटी.....( अतुकांत कविता)

रोटी का जुगाड़
कोरोना काल में
आषाढ़ मास में
कदचित बहुत कठिन रहा
आसान जेठ में भी नहीं था.
पर, प्रयास में नए- नए मुल्ला
अजान उत्साह से पढ रहे थे...
दारु मृत संजीवनी सुरा बन गयी थी
सरकार के लिए भी,
कोरोना पैशैन्ट्स के लिए भी
और, पीने वालों का जोश तो देखने लायक था,
सबकी चाँदी थी...!
आषाढ़ तो बर्बादी रही..
इधर मानसून की बारिश
उधर मज़दूरो की भुखमरी
और, बेरोज़गारी.....
सच, मानो कलेजा मुुँह
को आ गय़ा...!
जिन्दगी फुफकारने लगी
रोटी भूख को ठेंगा दिखाने लगीं
सरकारों का सा साँस फूल ही चुका था,
कोरोना का राक्षस
अब अट्टाहस करने लगा है,
और ...मजदूर को रोटी...
दूर की कौड़ी...!

(मौलिक और अप्रकाशित)