Open Books Online2024-03-28T17:36:26Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3mhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991268571?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://www.openbooksonline.com/group/Pustak_samiksha/forum/topic/listForContributor?user=249pje3yd1r3m&feed=yes&xn_auth=noपुस्तक समीक्षा : मोहरे (उपन्यास)tag:www.openbooksonline.com,2024-02-19:5170231:Topic:11163392024-02-19T12:23:57.389Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3m
<p>समीक्षा पुस्तक<strong> : मोहरे</strong> (उपन्यास)</p>
<p>लेखक <strong> : दिलीप जैन</strong></p>
<p>मूल्य <strong>: रुपये 150/-</strong></p>
<p>प्रकाशक <strong>: बोधि प्रकाशन, जयपुर (राज.)</strong></p>
<p>आय एस बी एन <strong>: 978-93-5536-602-3</strong></p>
<p> </p>
<p> ‘मोहरे’ जो स्वयं नहीं चलते. उनको चलाया जाता है किसी और के द्वारा.</p>
<p>शतरंज के खिलाड़ी और शतरंज के जानकार, ‘मोहरे’ शब्द से भलीभाँति परिचित होंगे.</p>
<p>‘मोहरे’ मात्र…</p>
<p>समीक्षा पुस्तक<strong> : मोहरे</strong> (उपन्यास)</p>
<p>लेखक <strong> : दिलीप जैन</strong></p>
<p>मूल्य <strong>: रुपये 150/-</strong></p>
<p>प्रकाशक <strong>: बोधि प्रकाशन, जयपुर (राज.)</strong></p>
<p>आय एस बी एन <strong>: 978-93-5536-602-3</strong></p>
<p> </p>
<p> ‘मोहरे’ जो स्वयं नहीं चलते. उनको चलाया जाता है किसी और के द्वारा.</p>
<p>शतरंज के खिलाड़ी और शतरंज के जानकार, ‘मोहरे’ शब्द से भलीभाँति परिचित होंगे.</p>
<p>‘मोहरे’ मात्र शतरंज के खेल में ही नहीं होते. </p>
<p>हम इन्हें अपने आम जीवन में भी देखते हैं. भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में, बाज़ार में, सरकारी और गैर सरकारी महकमों में.</p>
<p> लेखक दिलीप जैन को यह मोहरा दिखा है पुलिस महकमें में.</p>
<p> इस उपन्यास ‘मोहरे’ की भूमिका लिखी है डॉ. वन्दना मुकेश ने जो यू. के. में कार्यरत हैं. और मुझे तो लगता है यह कथा भी दिलीप जैन ने अपने यू.के. प्रवास के दौरान ही लिखी है, क्योंकि भारत में बैठकर लिखने से इनको अपने ‘आसामी’ बनने का खतरा महसूस हुआ होगा. आप कहेंगे ये आसामी क्या है ?</p>
<p> इस उपन्यास के अनुसार पुलिस थाने में शिकायत लेकर पहुँचने वाला शिकायतकर्ता पुलिस के लिए ‘आसामी’ होता है. </p>
<p>डॉ. वन्दना मुकेश ने भूमिका में इस उपन्यास को उपन्यासिका की संज्ञा दी है. शायद पृष्ठ संख्या उनका पैमाना रहा हो या फिर कथानक में पात्रों की संख्या रही हो या दिलीप जैन द्वारा कथा के बेवजह विस्तार को कम कर देना रहा हो. खैर ...</p>
<p> इस उपन्यास की पटकथा आज भी सामयिक है किन्तु कुछ बातें हैं, जो महसूस करातीं हैं कि यह घटित होना 30-40 वर्ष पूर्व अधिक सटीक था.</p>
<p> इस कथा का प्रमुख पात्र, संभ्रान्त मध्यमवर्गीय परिवार का एक युवा है. जो अपने पिता की ना-नुकुर और नाराज़गी के पश्चात भी, रोज़गार का अवसर पुलिस महकमें में खोजता है.</p>
<p>वह पुलिस सब-इंस्पेक्टर के पद पर पिता की इस हिदायत के साथ जाता है कि “किसी गरीब और कमज़ोर को न सताए और बेगुनाह की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहे.</p>
<p> जैसे किसी नदी में पानी की गहराई बाहर खड़े रहकर नहीं जानी जा सकती, बिलकुल वैसी ही स्थिति उस पुलिस सब-इंस्पेक्टर की होती है जब वह अन्य पुलिस कर्मी को कहता है “मैं रंगरूट नहीं, सब-इंस्पेक्टर हूँ” और जवाब में वह पुलिस कर्मी कह देता है “सब-इंस्पेक्टर बाहर वालों के लिए हो, यहाँ तो नये-नये रंगरूट हो”</p>
<p> सारी कहानी भ्रष्ट व्यवस्था में आ फँसे एक सब-इंस्पेक्टर के ईमानदार बने रहने के संघर्ष पर आधारित है. किस प्रकार एक ईमानदार सब-इंस्पेक्टर को दोहरी मार झेलना पड़ती है. उसके अधिकारी और सह-कर्मी तो उससे नाखुश रहते ही हैं. शिकायतकर्ता, रसूख वाले लोग और नेतागण भी उसे परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.</p>
<p> भ्रष्टाचार को रोकना तब अधिक कठिन होता है जब वह उपर से नीचे आया हुआ होता है. नीचे वाले जहाँ एक चाय से संतुष्ट हो जाते हैं वहीं बड़ों को दारू की बोतल चाहिए.</p>
<p>दिलीप जैन ने जिस भाषा शैली का प्रयोग किया है वह व्यंग्यात्मक भले न हो, किन्तु उसमें एक चुटीलापन अवश्य है. जो पाठक के अधरों में सतत एक मुस्कान बनाए रखने में कामयाब है. दिलीप जैन ने इस उपन्यास में कहानी के मुख्य पात्र सब-इंस्पेक्टर के व्यक्तिगत जीवन में घटित प्रेम-प्रसंग,विवाह और दोस्ती यारी जैसी जीवनचर्या की बातों को भी बहुत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है.</p>
<p>कोई भी पृष्ठ आपको उबाऊ या थकाऊ नहीं मिलेगा. एक बार जब आप पढ़ना प्रारम्भ करेंगे तो अन्त तक बिना रुके ही पढ़ते चले जायेंगे. यह मेरा विश्वास है.</p>
<p>यह उपन्यास लिखने के पीछे जो कारण मुझे महसूस हुआ उसे मैं इस उपन्यास में आयी दो पंक्तियों से बताता हूँ. जो मूलतः पञ्चतंत्र की कहानी का अंश है - “राजा ने सभी से एक टेंक में एक लोटा दूध डालने को कहा तो सभी ने दूध की बजाय पानी डाला, यह सोचकर कि सभी तो दूध डाल रहे हैं, मैं पानी डाल दूं तो क्या फर्क पड़ता है ?” सभी लोग आज भी पानी ही डाल रहे हैं किन्तु लेखक का विचार है यदि उसमें एक आदमी एक लोटा दूध ही डाल देता तो वह पानी दूध भले न बनता,किन्तु पानी का रंग तो बदल ही सकता था. भ्रष्टाचार मुक्ति की यही प्रेरणा देने का कार्य इस उपन्यास में दिलीप जैन ने किया है.</p>
<p>इस उपन्यास के पूर्व भी दिलीप जैन के चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. इनके सभी उपन्यास बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुए हैं.</p>
<p>आदरणीय दिलीप जैन का यह उपन्यास साहित्य जगत में बहुत प्रसिद्धि पाए. अपना उचित मुकाम बनाए यही मेरी हार्दिक शुभकामना है.</p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’</p>
<p>उज्जैन.</p> पुस्तक समीक्षा: सुर्ख़ लाल रंग (कहानी संग्रह)tag:www.openbooksonline.com,2023-06-02:5170231:Topic:11056732023-06-02T07:00:46.062Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3m
<p></p>
<div>पुस्तक का नाम : सुर्ख़ लाल रंग</div>
<div><div>विधा: कहानी सँग्रह</div>
<div>लेखक: विनय कुमार </div>
<div>प्रकाशक: अगोरा प्रकाशन </div>
<div>मूल्य : 499/- रु (सज़िल्द) 160 /- (अज़िल्द)</div>
<div>प्रथम संस्करण: वर्ष 2022</div>
<div>पृष्ठ संख्या : 120 </div>
<div>ज़मीन से जुड़ी माटी की महक लिए हुए विनय कुमार जी की कहानियाँ</div>
<div>विनय कुमार जी का यह प्रथम कहानी संग्रह है जिस हेतु आप बधाई के पात्र हैं। </div>
<div>सबसे पहले इसके आवरण पृष्ठ की चर्चा करना चाहूँगी। आवरण पर सुर्ख़ लाल रंग…</div>
</div>
<p></p>
<div>पुस्तक का नाम : सुर्ख़ लाल रंग</div>
<div><div>विधा: कहानी सँग्रह</div>
<div>लेखक: विनय कुमार </div>
<div>प्रकाशक: अगोरा प्रकाशन </div>
<div>मूल्य : 499/- रु (सज़िल्द) 160 /- (अज़िल्द)</div>
<div>प्रथम संस्करण: वर्ष 2022</div>
<div>पृष्ठ संख्या : 120 </div>
<div>ज़मीन से जुड़ी माटी की महक लिए हुए विनय कुमार जी की कहानियाँ</div>
<div>विनय कुमार जी का यह प्रथम कहानी संग्रह है जिस हेतु आप बधाई के पात्र हैं। </div>
<div>सबसे पहले इसके आवरण पृष्ठ की चर्चा करना चाहूँगी। आवरण पर सुर्ख़ लाल रंग का एक गोलाकार बना हुआ है, और एक लंबे केशों वाली स्त्री जिसके हाथ में नन्ही चिड़िया है और लाल रंग का ही वस्त्र पहनी है , नीचे बने पानी में गोता लगाने के लिए तैयार है और उसके केशों को नन्हीं नन्हीं चिड़ियों ने अपना आराम करने का स्थान बना लिया है। यह काल्पनिक चित्र बेहद सुंदर बन पड़ा है। </div>
<div>प्रस्तुत कहानी संग्रह की अनुक्रमाणिका की बात करें तो इसमें कुल 14 कहानियाँ प्रकाशित हुई है। </div>
<div>सर्वप्रथम कहानी का शीर्षक 'सुर्ख़ लाल रंग' ही है जो कहानी संग्रह का भी शीर्षक है। </div>
<div>इस कहानी में एक ऐसा गाँव का चित्रण है जिसमें एकता का माहौल था परंतु कुछ दिनों से यहाँ का वातावरण बदल गया था। लोगों के मध्य दंगे-फसाद का भय पनपने लगा था। इस गाँव में रज्ज़ाक जोकि करघे पर काम करता था और लक्ष्मण दोनों दोस्त होते हैं । लक्ष्मण के बेटी की शादी तय होती है और वह रज्ज़ाक से उसकी शादी का जोड़ा यानी की साड़ी बनाने को कहती है। वह ख़ुशी से मान जाता है और वह इस काम की शुरूवात भी कर देता है परंतु बीच में ही दंगे भड़क उठते हैं और गाँव खाली होने लगता है परंतु रज्ज़ाक अपना काम पूरा करके ही जाना चाहता है। कार्य जब समापन पर आता है तब पीछे से कोई उसपर वार करता है और उसके शरीर से लहू बहकर साड़ी पर उतर आता है और रंग सुर्ख़ लाल हो जाता है जैसा वह चाहता था। यह अंत बहुत ही मार्मिक बना है । </div>
<div>दूसरी कहानी 'असली परिवर्तन' में एक बैंक प्रबंधक का संघर्ष है जिसकी पोस्टिंग दूर दराज गाँव में हो जाती है और वह न सिर्फ बैंक के हूलिये को सही करवाता है परंतु उसके व्यवसाय को बढ़ाने हेतु भी रात-दिन एक कर देता है और स्टाफ को प्रेम-भाव से ही नियमित और समय पर आने हेतु प्रेरित करता है। इसी बीच जब उसको पता चलता है कि आसपास कुछ आदिवासी बस्तियाँ भी है तब वह अपने एक सहयोगी के साथ जाकर उन ग्रामीणों से कर वसूली के लिए उनसे चर्चा करता है परंतु उनके हालातों को समक्ष देखने के बाद वह तय कर लेता है कि अब उसको उन गरीबों को काम दिलवाने के लिये भी कार्य करना होगा। देश के विकास हेतु न सिर्फ कागज़ों पर अपितु ज़मीनी तौर पर भी कार्य करना होगा इसी उद्देश्य को सिद्ध करती है यह कहानी जो बहुत ही सहजता से लिखी गयी है और इसको पढ़ते हुए महसूस होता है कि लेखक के साथ हम भी इन सब स्थानों और कार्यों में उनके साथ हैं। </div>
<div>तीसरी कहानी 'आत्मनिर्भरता' एक सेवानिवृत विदुर पिता की कहानी है जो अपने बच्चों से पैसे नहीं माँगता । दोनों बेटे ही बारी-बारी से उनको अपने साथ रखते हैं और ध्यान से उनकी जेब में खर्च के लिये कुछ पैसे रख देते हैं। जब बड़ा बेटा ऐसा करना भूल जाता है तो छोटे बेटे के इधर उधर की बातों में पूछने से वह अपरोक्ष रूप से बोल पड़ते हैं कि वह गलती से बाहर जाते वक्त दूसरा कुर्ता पहन लेते हैं जिसकी जेब में पैसे नहीं होते सो वह चाहते हुए भी बच्चों के लिये ताज़ा मूंगफली नहीं ला पाते हैं। छोटे बेटे को पता चल जाता है और वह अपने बड़े भाई से खुलकर अपने पिता की खुद्दारी की बात करता है। बड़े बेटे को अपनी गलती का एहसास हो जाता है और वह अपनी आदत भी सुधार लेता है और पिता धीरे धीरे उनके सामने खुल जाते हैं और अब वह अपने चेक बुक पर रकम लिखना भी शुरू कर देते हैं। बुजुर्गों को घर में सहज बनाने के लिए उनको इस बात का एहसास कराना होता है कि बच्चे उनके साथ हैं और हर घड़ी उनके साथ रहेंगे। बुजुर्ग विमर्श पर यह एक सुंदर ममोवैज्ञानिक कहानी बन पड़ी है।</div>
<div>चौथी कहानी 'इंतज़ार' एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसको माँ के गर्भ में ही कुछ खिला दिया था पिता ने ताकि उसका जन्म ही न हो परंतु विधि के विधान ने कुछ और ही तय कर लिया था और उसका जन्म तो हुआ पर जो खिलाया गया था उसका असर उसके चेहरे पर आ गया और वह सुंदरता की श्रेणी में आने से बाहर हो गयी। पिता की इस घिनौनी हरकत का पता चलते ही वह उनसे नफ़रत करने लगती है और तय कर लेती है कि वह डॉक्टर बनेगी और वो भी प्लास्टिक सर्जरी की सर्जन। समय के साथ पिता को अपने किये पर पश्चाताप होता है और माता-पिता चाहते है कि उसकी समय पर शादी हो जाये या वह अपनी पसन्द के लड़के से विवाह कर ले परंतु उसकी सूरत से कौन प्यार कर सकता है और जो उसके साथ हुआ कहीं ऐसा ही आगे उसकी बच्ची के साथ न होजाए के भय से वह इनकार करती रहती है बाद में उनके ही घर के पास रहने वाले डॉ वर्मा जो उसके घर अक्सर आते रहते हैं के बारे में उसको जब उसकी माँ बताती है कि वह उसको पसंद करते है तो वह उनके साथ करीब के पार्क में जाकर बातचीत करती है और उनको इंतज़ार करने को कहती है। इंसान का कोई भी घाव क्यों न हो उसपर प्यार का मरहम लगाने से कभी न कभी असर दिखने लगता है और घाव ठीक हो जायेंगे की आशा जाग उठती है। यही इस कहानी के माध्यम से बताने का प्रयास हुआ है। यह भी एक मनोवैज्ञानिक कहानी बन पड़ी है ।</div>
<div>'उदास चाँदनी' एक प्रेम कहानी है जिसमें कहानी का नायक का मिजाज कुछ हटकर है और नायिका उसको इतना प्रेम करती है कि वह नौकरी करती है और नायक को समय-समय पर पैसे भी देती रहती है। दोनों को एक दूसरे के साथ अच्छा भी लगता है। धीरे-धीरे नायिका को लगने लगता है कि उसका प्यार उसको अवॉयड कर रहा है और ऐसा वह जानबूझकर कर रहा है पर उसको स्मरण हो आता है कि इस तरह से रिश्ता निभाने की चाहत भी तो उसीने करी थी। सो जहाँ तक हो सकेगा वह आगे भी ऐसा ही करती रहेगी। बस उसको मेसेज कर देती है कि वह अगले हफ़्ते भी उसका इंतज़ार करेगी। दूसरी प्रेम कहानियों की तरह इस कहानी में भी उतार-चढ़ाव तो हैं पर हैप्पी एंडिंग जैसा कुछ नहीं है। पर इसके नायक और नायिका की सोच और उन दोनों का दुनिया को देखने और समझने का नज़रिया अलग-अलग है दोनों ही पात्रों का मनोविश्लेषण लेखक ने बहुत ही करीने से किया है और साथ ही दोनों के ममोविज्ञान को भी बहुत ही सुंदरता से प्रस्तुत किया है।</div>
<div>'कोई और चारा भी तो नहीं' उन किसानों पर आधारित मार्मिक कहानी है जिन्होंने मवेशियों और नीलगाय के आतंक को झेला है। ये पशु जिस तरह से आकर फ़सलो को तहस-नहस कर जाते थे, किसानों के बहुत प्रयासों के बावजूद जब कोई उपाय कारगर न हो सका तो समाज के ऐसे लोग जो इन मवेशियों को पवित्र मानकर पूजा करते थे, को उन पशुओं को मारने के लिये हत्यार उठाने पड़ गए। ह्रदय विदारक घटनाएँ जिनसे किसानों को झूझना पड़ा उनका सजीव चित्रण करके लेखक ने किसानों के जीवन के उन संघर्षों से परिचय करवाया है जिसके बारे में अखबारों में न्यूज़ के रूप में आया, टी.वी. चैनलों ने भी दिखाया परंतु शब्दों में पिरोकर इस तरह से प्रस्तुत करना यह आपके न सिर्फ एक ज़िम्मेदार नागरिक होने का सूचक है अपितु आपके इन घटनाओं को करीब से महसूस कर उनको कहानी में पिरोना आपका लेखकीय कौशल को उजागर करता है। साधुवाद के पात्र हैं विनय कुमार जी।</div>
<div>'चन्नर' संस्मरणात्मक शैली में लिखी इस कहानी में भारत देश का वह इतिहास है जो अंग्रेजो के जाने के उपरांत हमारे गाँव और अंचलों के लोगों से जुड़ा हुआ है। यह एक बेहद भवनात्मक कहानी है जो है तो एक गाँव के एक दरोगा के घर काम करने वाला एक व्यक्ति 'चन्नर' की। उसके जीवन की, उसके संघर्ष की, उस पर हो रहे अत्याचार की और अंग्रेजो के बाद किस तरह से समाज में लोग जीते थे, जाति- बिरादरी, ऊँच-नीच कितना उस दौरान से वर्तमान के गाँवो और अंचल बस्ती में हो रहे परिवर्तन की फिर वो चाहे उनके रहन-सहन की हो, उनकी सोच की हो, उनके काम की हो या उनके विकास की। चन्नर एक व्यक्ति विशेष नहीं है यह समाज का एक ऐसा समुदाय है जिसने न सिर्फ शारीरिक अपितु मानसिक प्रताड़ना झेली है और लंबे अरसे तक समाज में उपेक्षित रहा है। एक कहानी में इतना कुछ समेट लेना और वो भी इतनी सहजता से ! यह कहानी उन पाठकों के लिये उत्तम साबित होगी जो अंचलों के बारे में जानते ही नहीं। उनके लिए ज़मीनी तौर पर बहुत कुछ सिखाएगी यह कहानी।</div>
<div>'जीत का जश्न' कोरोना की महामारी के दौरान देश के कुछ राज्यों में चुनाव था जिसके चलते गाँव से पलायन करके गए ग्रामीणों को वहाँ के प्रतिवादी नेताओं ने उनको बुलवा भेजा ताकि ये लोग चुनाव के पहले इनके लिये प्रचार-प्रसार कर सकें और इनको खाना-पीना , दारू आदि पिलाकर वोटों की राजनीति खेल सकें। गाँव से जुड़े मजदूर वर्ग हमेंशा की तरह इन लोगों के झाँसे में आ गए और कोरोना के दूसरे चरण में कईयों ने अपनी जान गंवाई और दूसरी तरफ जीत का जश्न मनाया गया। वर्तमान राजीनीति का एक बेहतरीन उदाहरण इस कहानी के माध्यम से उजागर होता है। </div>
<div>'जुनैद' आत्मकथात्मक शैली में लिखी यह कहानी एक कश्मीरी लड़के जुनैद से जुड़ी है जब आपकी पोस्टिंग भोपाल में हुई थी। जुनैद से आपका परिचय एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में हुआ था और वहीं पता चला कि वह ग़ज़ल लिखता है। कुछ मुलाकातों में उन्होंने यह जाना कि वह कश्मीर से आया है और एक विद्यार्थी है। कश्मीरियों की परेशानियाँ और देश के होकर भी कटे हुए के दर्द से गुज़र रहे कश्मीरियों के दुःख-दर्द को आपने जुनैद के मुँह से सुना जो आँखे नम कर देता है। बाद में जुनैद उनको बार-बार फोन करता है मदद माँगने के लिये जिसको आप टालते है परंतु जब वह फॉर्म को भरने की बात करता है और मदद की गुहार करता है तब आप उसकी मदद करते हैं। एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति के लिये संवेदना जगाती हुई एक अच्छी कहानी है। </div>
<div>'पुतले का दर्द' रेडीमेड कपड़ों की दूकान में काम करने वाले एक व्यक्ति की कहानी जो औरतों के प्रति संवेदनशील था और उनकी इज्जत करता था। फिर चाहे वह उसकी माँ हो, बहनें हो, या दूकान में रखे हुए औरतों के पुतले जिनको वह बड़े से आदरभाव से सजाता था। उसका जिस स्त्री से विवाह होता है वह भी बहुत सीधी-सरल महिला है, और इन दोनों की एक बेटी है। तीनों बहुत ही प्यार से साथ रहते हैं, नायक की पत्नी को स्तन का कैंसर है जैसे ही पता चलता है नायक उसके ईलाज में कहीं कमी नहीं छोड़ता और नौबत यहाँ तक आ जाती है कि उसके पत्नी का एक स्तन की सर्जरी करना पड़ जाती है। उसके बाद उसके चेहरे की उदासी को देखकर, उसको अपनी पत्नी की पीड़ा सहन नहीं होती और वह तय कर लेता है कि वह इसके लिये अपने डॉक्टर से बात करेगा। एक पति का अपनी पत्नी के लिये प्यार एवं उसके प्रति उसकी संवेदना और साथ ही पुतलों से भी ऐसे ही संवेदना से उनको सजाने की क्रिया पुरुषों में भी संवेदना और कोमलता के भाव होने की पुष्टि करता है। पति-पत्नी के प्रेम की एक प्यारी सी कहानी हुई है। </div>
<div>'फिर चाँद ने निकलना छोड़ दिया' आरंभ से यह कहानी काल्पनिक है जिसमें धरती पर कई दिनों से रात को चाँद नहीं दिखा है, लोगों के मन में ढेरों सवाल हैं उनकी चर्चाओं में इस बात के लिए आश्चर्य के साथ चिंता भी है कि आखिर इस अनहोनी के पीछे का क्या कारण हो सकता है। एक पंडित इन चर्चाओं में अपनी रोटी सेकने का प्रयास करता है और लोगों को इसके लिये उपाय बातायेगा कह कर उनको संतुष्ट करने का प्रयास करता है। वही तारों के लोक में भी इसी बात को लेकर चिंता व्याप्त है। देवता इसके पीछे का कारण चाँद के साक्ष्य में धरती पर हो रहे अमानवीय व्यवहार बताते हैं जिसमें छोटी बच्चियों पर बढ़ते बलात्कार के हादसे हैं। इस बीच बारिश तो हो जाती परंतु चाँद नहीं आता। परंतु सृष्टि के लिये देव एक तारे को चाँद बना देते हैं पर वो उस असली चाँद जैसी रौशनी नहीं दे पाता क्योंकि चाँदनी सँग नही है। इसके अंत में लेखक ने एक प्रश्न पूछा है जिसका उत्तर हम सबको तलाशना है । और वो प्रश यह है,' अब आप ही बताइए , क्या आसमान पर वही पुराना चाँद देखा है जो आप कुछ महीनों पहले देखा करते थे। आप सच सच बताइएगा, अब वह नहीं दिखता है ना!'</div>
<div>'मुर्दा परम्पराएँ' एक छोटे किसान के दर्द की कहानी है जिसके घर में पिता की मृत्यु हो जाती है और पुरानी परंपराओं के चलते जो खर्च उसको बताया जाता है जिससे उसको लगने लगा कि जब उसकी माँ मरी थी तब उनके खेत का आधा हिस्सा उसके बापू ने बेच दिया था और अब बापू की मृत्यु के बाद बचा कुचा खेत भी इन परंपराओं की बलि चढ़ जाएगा। एक भावनात्मक कहानी बनी है जिसमें समाज में पुरानी परंपराओं की आड़ में संवेदनहीन सोच आज भी मौजूद है। </div>
<div>'यह बस होना ही था' दो दोस्तों की कहानी है और उनके बच्चों के साथ प्रेम को दर्शाती है। पिता-पुत्र का प्रेम तो स्वाभाविक होता है परंतु दोस्त के बच्चे से भी उतना ही प्रेम करना साथ ही बच्चों का भी अपने पिता के दोस्त से पिता-सा ही प्रेम करना सुखद अनुभव होता है। ऐसा ही कुछ इस कहानी के पात्रों के बीच होता है। एक दोस्त का बेटा बनारस पढ़ने जाता है जिसको मिलने अक्सर उसका अंकल ही आता है। एक बार कोचिंग जाते समय कोहरे के कारण रास्ते में उसका एक्सीडेंट हो जाता है और वह कोमा में चला जाता है। जब डॉक्टर उनको सही स्थिति बता देते हैं, दोस्त उस लड़के के पिता को सांत्वना देता है और हृदय को मजबूत रखने को कहता है। बच्चे की मृत्यु हो जाती है और दोनों दोस्त उस बच्चे के अंगदान करने हेतु डॉक्टर के पास जाते हैं। यहीं इस कहानी का मार्मिक अंत है। इस कहानी के ज़रिए लेखक ने बनारस के गंगा घाट, वहाँ की गलियाँ, संस्कृति, त्यौहार इत्यादि का बेहद सुंदर एवं रोचक वर्णन किया है। </div>
<div>प्रस्तुत कहानी सँग्रह की अंतिम कहानी 'सौदा' है। जो गाँव में दो अलग-अलग जाति-बिरादरी के मध्य ज़मीन को लेकर सौदे पर आधारित है। एक किसान के लिये अपने बेटी की शादी करना बहुत बड़ा सपना होता है । इसके लिये अक्सर इन लोगों को या तो कर्ज़ लेना पड़ जाता है या अपनी ज़मीन को बेचने के लिये विवश हो जाते हैं। गाँव के लोग व्यवसायिक बनकर ज़मीन को खरीद तो लेते हैं परंतु उनको इस बात से संतोष भी होता है कि आख़िर गाँव की बेटी के लिये अपरोक्ष रूप से ही सही पर वह काम तो आये। </div>
<div>विनय कुमार जी सभी कहानियों में माटी की महक है, सहज और स्वाभाविक भाषा-शैली है। आपने बीच-बीच में आवश्यकता के अनुसार आँचलिक भाषाओं का प्रयोग बहुत ही करीने से किया है। आपको इस बेहतरीन सँग्रह के लिये हार्दिक बधाई एवं भविष्य के लिये शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ।</div>
</div>
<div>अप्रकाशित, अप्रसारित ।</div> पुस्तक समीक्षा : ‘कहे जैन कविराय’ (कुण्डलिया संग्रह)tag:www.openbooksonline.com,2022-09-30:5170231:Topic:10912262022-09-30T12:31:23.884Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3m
<p><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10831484277?profile=original" rel="noopener" target="_blank"><img class="align-right" src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10831484277?profile=RESIZE_710x"></img></a> <br></br> रचनाकार : अशोक कुमार जैन <br></br> प्रकाशक : अमोघ प्रकाशन, गुरुग्राम-122001(हरियाणा)<br></br> मूल्य : रूपये १००/- मात्र.</p>
<p> ‘कहे जैन कविराय’ कुण्डलिया संग्रह के कुण्डलीकार अशोक कुमार जैन, परिचय बताता है कि आपका मूल लेखन गद्य ही रहा है। क्योंकि पूर्व में आपका बाल उपन्यास, उपन्यास, जीवन प्रसंग और लघुकथाओं का संग्रह प्रकाशित हुआ है. किन्तु ऐसा…</p>
<p><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10831484277?profile=original" target="_blank" rel="noopener"><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10831484277?profile=RESIZE_710x" class="align-right"/></a><br/> रचनाकार : अशोक कुमार जैन <br/> प्रकाशक : अमोघ प्रकाशन, गुरुग्राम-122001(हरियाणा)<br/> मूल्य : रूपये १००/- मात्र.</p>
<p> ‘कहे जैन कविराय’ कुण्डलिया संग्रह के कुण्डलीकार अशोक कुमार जैन, परिचय बताता है कि आपका मूल लेखन गद्य ही रहा है। क्योंकि पूर्व में आपका बाल उपन्यास, उपन्यास, जीवन प्रसंग और लघुकथाओं का संग्रह प्रकाशित हुआ है. किन्तु ऐसा नहीं है कि पद्य लेखन में इनका यह प्रथम प्रयास हो. इनकी बाल कविताएँ और मुक्तक की पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकीं हैं। यह बात अवश्य चकित करती है कि कुण्डलिया संग्रह के पूर्व कोई दोहा संग्रह आपका नहीं आया। कारण यह है कि कुण्डलिया एक मिश्रित छंद है जिसकी प्रथम दो पंक्तियाँ एक दोहा होता है और उसी दोहे के अंतिम चरण से प्रारम्भ कर रोला छंद रचा जाता है। छंद की इस विशेषता के अतिरिक्त एक और विशेषता है कि छंद का प्रथम शब्द, उसके अंश या शब्द समूह को छंद के अंत में रखा जाता है। एक तरह से कहा जाये तो ऐसा प्रतीत होता है कोई कुण्डली मारकर बैठा सर्प अपनी दुम को निहार रहा हो।</p>
<p></p>
<p> कविवर अशोक कुमार जैन जो अपने जीवन के 68 वसंत पार कर चुके हैं। उनका यह कुण्डलिया संग्रह जीवन के अनुभवों का दस्तावेज़ है कहना गलत नहीं होगा। क्यों? यह आप उनके कुछ छंद पढ़कर आसानी से समझ सकते हैं-</p>
<p></p>
<p>घर में तुलसी रोपिये, तुलसी है वरदान।<br/> वायु को पोषित करे, तुलसी गुण की खान।।<br/> तुलसी गुण की खान, ये पर्यावरण सुधारे।<br/> आक्सीजन दे प्राण, बचाती सदा हमारे।<br/> कहे जैन कविराय, न पनपे रोग उदर में।<br/> फल फूलों के संग,उगाओ तुलसी घर में।।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>नफ़रत उससे कीजिये, जो इस काबिल होय।<br/> वरना धागा प्रेम का, सबसे रखो पिरोय।।<br/> सबसे रखो पिरोय, दुष्ट इक दिन सुधरेंगे।<br/> जीवन होगा सौम्य, और रिश्ते निखरेंगे।<br/> कहे जैन कविराय, कीजिए सदा मुहब्बत।<br/> तोहफों की मुस्कान, बाँटकर त्यागो नफ़रत।।</p>
<p></p>
<p> सहृदय व्यक्ति होने के साथ-साथ कवि एक साहित्यिक पत्रिका का श्रेष्ठ सम्पादक भी है इसकारण सामाजिक समस्याओं से उसका जुड़ाव होना स्वाभाविक ही है। यही कारण है कि कोरोना काल में श्रमिकों के पलायन के हृदय-विदारक दृश्य देखकर वे लिखते हैं-</p>
<p></p>
<p>भूखे नर-नारी चले, अपने-अपने गाँव।<br/> तपती जलती सड़क पर, झुलसे नंगे पाँव।।<br/> झुलसे नंगे पाँव, ढूँढ़ते ठौर-ठिकाना।<br/> जहाँ बालकों हेतु, मिले मुट्ठी भर खाना।<br/> कहे जैन कविराय, अधर हैं जलते सूखे।<br/> रोज़गार की मार, झेलकर निकले भूखे।।</p>
<p></p>
<p> कवि को जहाँ समाज की अच्छाईयाँ और बुराईयों को देख रहा है वहीँ उसकी दृष्टि अपनी दिन-दिन बढ़ते वय पर भी है और उस दृष्टि में पूरी सकारात्मकता भी है-</p>
<p></p>
<p>टूटे मनकों की तरह, बिखरी जीवन माल।<br/> अंग शिथिल सब हो रहे, अब जीवन जंजाल।।<br/> अब जीवन जंजाल, रोग से बचना होगा।<br/> नित्य योग और उचित भोग से साधना होगा।<br/> कहे जैन कविराय, भले अपने सब छूटे।<br/> आत्मशक्ति से संचित कर, ये मनके टूटे ।।</p>
<p> ‘कहे जैन कविराय’ इस पुस्तक में 112 कुण्डलिया छंदों के अतिरिक्त कवि के द्वारा रचित लगभग 20 ग़ज़लें भी इस पुस्तक के द्वितीय भाग में संग्रहित की गईं हैं। कुछ अशआर देखें –</p>
<p></p>
<p>महकते फूल हैं खुमारी है <br/> ये नशा आज हम पे भारी है<br/> *<br/> मोती यूँ न हाथ लगे हैं <br/> सागर खूब खंगाले होंगे <br/> *<br/> फूलों को तजकर खारों को <br/> पाले ऐसी क्यारी देखी</p>
<p></p>
<p> ऐसे हरफनमौला व्यक्ति छन्दकार, लघुकथाकार, उपन्यासकार और शायर अशोक कुमार जैन का साहित्य क्षेत्र में क्या अवदान रहा होगा सहज ही समझ में आता है। उनके रचे छंदों में कुछ शिल्पगत त्रुटियाँ रहीं हैं, किन्तु उनके भावों के आवरण ने उन सब को ढँक दिया है। मैं उनके विविध रंगी साहित्य लेखन के लिए उन्हें बधाई देता हूँ। उनका यह कुण्डलिया संग्रह जहाँ तक पाठकों के हाथों में पहुँचे वहाँ तक ऊर्जा का संचार करे यही मेरी शुभकामनाएँ हैं.</p>
<p>समीक्षक <br/> अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’<br/> 40/54, राजस्व कॉलोनी, फ्रीगंज, <br/> उज्जैन -456 010 (म.प्र.)<br/> मो- 9827256343</p> समीक्षा : चाक पर घूमती रही मिट्टीtag:www.openbooksonline.com,2022-07-09:5170231:Topic:10862862022-07-09T08:32:06.922Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3m
<p></p>
<h2><span style="font-size: 18pt;">पुस्तक : चाक पर घुमती रही मिट्टी (ग़ज़ल संग्रह)</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">रचनाकार : आराधना प्रसाद</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">प्रकाशक : ग्रथ अकादमी, 19, पहली मंज़िल,</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">2, अंसारी रोड,दरियागंज, नई दिल्ली-02</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">मूल्य : 250/- मात्र.</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">पृष्ठ संख्या : 128…</span></h2>
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<h2><span style="font-size: 18pt;">पुस्तक : चाक पर घुमती रही मिट्टी (ग़ज़ल संग्रह)</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">रचनाकार : आराधना प्रसाद</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">प्रकाशक : ग्रथ अकादमी, 19, पहली मंज़िल,</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">2, अंसारी रोड,दरियागंज, नई दिल्ली-02</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">मूल्य : 250/- मात्र.</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">पृष्ठ संख्या : 128</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> </span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> पहले रचनाकार आराधना प्रसाद का परिचय करा दूँ। यह विज्ञान विषय से स्नातकोत्तर हैं। इनके पच्चीस से अधिक साझा ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। दो पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। इन्हें बिहार उर्दू एकेडमी द्वारा एक से अधिक बार पुरस्कृत किया जा चुका है।</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> ‘चाक पर घुमती रही मिट्टी’ ग़ज़ल संग्रह का प्राक्कथन सम्माननीय द्विजेन्द्र द्विज साहब ने लिखा है।</span></h2>
<h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 18pt;"> “ग़ज़ल कहनी है अब उस आसमां से <a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10631949481?profile=original" target="_blank" rel="noopener"><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10631949481?profile=RESIZE_710x" class="align-right"/></a></span></h2>
<h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 18pt;">जहाँ सब ख़त्म करते हैं वहाँ से”</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> इस शेर के हवाले से द्विज साहब कहते हैं पाठक आश्वस्त रहे, वह इस खूबसूरत संकलन की ग़ज़लों को पढ़ते हुए अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति के एकदम अलग और नये पडावों से गुज़रने जा रहा है।</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> प्राक्कथन का दूसरा भाग ही समझूँ क्योंकि यहाँ शीर्ष पर मात्र ‘2’ लिखा है। इसके अन्तर्गत ग़ज़ल क्षेत्र सुप्रसिद्ध एवं सम्माननीय विजय कुमार स्वर्णकार कहते हैं “लगता है कि ग़ज़ल में अभिव्यक्ति के नये प्रतिमान स्थापित होंगे। पिछले एक दशक में जिन महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों ने उल्लेखनीय सृजन किया है, उनमें आराधना प्रसाद अग्रणी हैं।” उन्होंने रदीफ़ चयन को चुनौतीपूर्ण मानते हुए ग़ज़लों में प्रयुक्त रदीफ़ ‘धूप, बारिश, कोहरा, ख़ुशबू,मिट्टी, तितली, मछली’ के लिए शाइरः की इस प्रयोगधर्मिता की तारीफ़ करते हुए उनके साहस की तारीफ़ भी की है।</span></h2>
<h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 18pt;">ऐसा क्या है तुम्हारी आखों में</span></h2>
<h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 18pt;">तुमको ढूँढें गली-गली आँखें</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> </span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> और प्राक्कथन के ही तीसरे भाग में जनाब संजय कुमार कुंदन साहब, जनाब द्विजेन्द्र द्विज साहब एवं जनाब विजय कुमार स्वर्णकार साहब की बात को ही आगे बढ़ाते हुए ग़ज़लकारा को एक तजरबेकार गुलूकारा तो बताते ही हैं साथ ही कहते हैं “तहत में पढ़ते हुए भी सामयीन के ज़हनो-दिल से उतनी ही आसानी से राब्ता क़ायम कर लेती हैं।” उन्होंने आगे कहा है कि “आराधना प्रसाद की ग़ज़लें सतही इज़हार से बचती और इशारों में बात करती नज़र आती हैं। जैसे -</span></h2>
<h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 18pt;">मेरी वहशतज़दा निगाहों को</span></h2>
<h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 18pt;">ख़ूबसूरत बहुत लगी तितली”</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> </span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">ग़ज़ल के इन सभी जानकारों के इतना कहने के कारण यह संग्रह पढ़ने के लिए मैं आतुर हो उठा, प्रत्येक ग़ज़ल पढ़ने के पश्चात मुझे ऐसा लगा अगली ग़ज़ल अब क्या पहली से बेहतर होगी किन्तु मैं गलत साबित होता गया और अंतिम ग़ज़ल तक सभी ग़ज़लें एक से बढ़कर एक पढ़ने मिलीं।</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">आसान से लगने वाले अशआर के अर्थ निकालो तो समझ आता है कि क्या गहराई है हर शेर की।</span></h2>
<h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 18pt;">कैसे चुप रह सकेंगी दीवारें</span></h2>
<h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 18pt;">नींव को जब हिला दिया हमने</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> एक नींव का बिम्ब लेकर कितनी गहरी बात कही है शाइरः ने।</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> </span></h2>
<h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 18pt;">बहुत बेज़ार हूँ इस ज़िन्दगी से</span></h2>
<h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 18pt;">सुनहरा ख़्वाब वो दिखला गया है</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> आसान सा दिखने वाला शेर जब इसमें कही बात पर गौर करें तो हम पाते हैं। हाँ, यही तो हो रहा है। कैसे चैन से जीने वालों को व्यर्थ के सब्ज़बाग़ दिखा कर उनकी ज़िन्दगी में व्यर्थ की हलचल पैदा की जा रही है । तमाम ऐसे अशआर हैं। मुझे लगता है कि बाकी पुस्तक पढ़कर ही समझें तो बेहतर है।</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> ब्लर्ब पर वरिष्ठ सम्पादक और पूर्व सांसद आर. के. सिन्हा जी ने भी कहा है “आराधना प्रसाद की गजलों में भाषा की सरलता के साथ-साथ शिल्प व् कथ्य का स्तर उत्कृष्ट है।”</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">‘चाक पर घुमती रही मिट्टी’ ग़ज़ल-संग्रह में एक और विशेष बात देखने मिली है</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">कि शाइरः ने अपने संग्रह के विषय में या ये कहूँ किसी भी विषय में कुछ नहीं कहा है। अक्सर रचनाकार आत्मकथ्य या अपनी बात के अन्तर्गत अपनी रचनाओं से सम्बन्धित कुछ ऐसी जानकारियाँ भी साझा करते हैं, जिन्हें पाठक वर्ग जानना चाहता है । मुझे आशा है अपने अगले संग्रह में आराधना प्रसाद जी अवश्य ही इन बातों का ध्यान रखेंगी।</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> मैं उनके इस ग़ज़ल संग्रह ‘चाक पर घूमती रही मिट्टी’ की सफलता के लिए हृदय से शुभकामनाएँ देता हूँ।</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;"> </span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">~ अशोक कुमार रक्ताले</span></h2>
<h2><span style="font-size: 18pt;">उज्जैन.</span></h2> "लघुकथा कौमुदी" - यथार्थ और कल्पना के बीच की ज़मीन पर पनपती लघुकथाएँ. . .tag:www.openbooksonline.com,2022-05-01:5170231:Topic:10830592022-05-01T14:40:52.263Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3m
<div dir="auto"><strong>"लघुकथा कौमुदी" - यथार्थ और कल्पना के बीच की ज़मीन पर पनपती लघुकथाएँ. . .</strong></div>
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<div dir="auto">वर्तमान में लघुकथा, साहित्य की एक ऐसी विधा बन चुकी है जिसकी कथ्य शैली का विस्तार निरंतर बढ़ रहा है। बहुत से रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति को, पहले से तय मानकों से हटकर लिखने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में भले ही वे किसी विशेष शैली को लेकर नहीं चल पाते लेकिन अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखने में सफल अवश्य होते हैं, ये एक अच्छी बात है। ऐसे ही रचनाकारों…</div>
<div dir="auto"><strong>"लघुकथा कौमुदी" - यथार्थ और कल्पना के बीच की ज़मीन पर पनपती लघुकथाएँ. . .</strong></div>
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<div dir="auto">वर्तमान में लघुकथा, साहित्य की एक ऐसी विधा बन चुकी है जिसकी कथ्य शैली का विस्तार निरंतर बढ़ रहा है। बहुत से रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति को, पहले से तय मानकों से हटकर लिखने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में भले ही वे किसी विशेष शैली को लेकर नहीं चल पाते लेकिन अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखने में सफल अवश्य होते हैं, ये एक अच्छी बात है। ऐसे ही रचनाकारों में एक नाम है; काव्य विधा में स्थापित शकुंतला अग्रवाल 'शकुन' का, जिनका लघुकथा सँग्रह हाल ही में मुझे पढ़ने के लिए मिला।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">'सहित्यागार' द्वारा प्रकाशित एवं बहुरंगी हार्डबाउंड कवर से सुसज्जित, 'लघुकथा कौमुदी' नाम से आकर्षित करते इस सँग्रह में कुल 91 लघुकथाओं को शामिल किया गया है। शामिल लघुकथाओं के विषय सुंदर और सार्थक है। अधिकांश रचनाएँ समाज की विभिन्न विसंगतियों को उभारने का न केवल प्रयास करती हैं बल्कि यथा संभव उनका विश्लेषण भी करती नजर आती हैं। शामिल रचनाएं किसी एक विशेष शैली की न होकर कथ्य के हिसाब से अपनी बात कहती नज़र आती हैं, जिसे लेखिका के लेखन का एक सुंदर पक्ष कहा जा सकता है। इसका एक उदाहरण संग्रह की प्रथम रचना 'धानी चूनर' में भी देखा जा सकता है जिसमें एक सैनिक-विधवा के आदर्श और उसके समर्पण को, परिवार के लिए प्रभावी ढंग से दर्शाया गया है।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ नारी विमर्श पर रची गईं हैं। इनमें 'घानी का बैल', 'भविष्य', 'सशक्त', 'सबको मार दिया' जैसी रचनाएँ सहज ही आकर्षित करती हैं। लघुकथा 'कवच' में एक विधवा द्वारा सजने संवरने के पीछे, उसका समाज की बेचारगी तथा लोलुप नजरों से बचने का कारण बताना विचारणीय है। एक और लघुकथा 'स्त्री' का कथन "बुद्ध और महावीर बनने से ज्यादा मुश्किल है स्त्री बनना" भी सोचने पर विवश करता है। लघुकथा 'आड़' और 'सरप्राइज़' युवा होते बच्चों के भटकते कदमों को दर्शाने के साथ लिव इन रिलेशनशिप के विषय को सामने रखती है। तो 'हवा' लघुकथा में गलत रास्ते पर जाती बेटी के संभलने का संदेश सुंदरता से दिखाया गया है। एक रचना 'गिरगिट' में बिना सोचे समझे ऐसे प्रेम में फंसकर पछताने का (लव ज़िहाद) कथानक बुना गया है।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">नैतिकता के कथ्य पर ही रची गई 'काबिल' 'अलविदा' और 'बधाई' जैसी रचनाएं सहज ही ग़लत व्यक्ति के तत्काल विरोध करने का अपना संदेश देने में सफल रही हैं। ऐसी ही एक रचना 'विष बेल' में मां द्वारा बेटे की चरित्रहीनता पर लिया गया निर्णय "खानदान की विष बेल को और नहीं बढ़ने दूँगी" बहुत बड़ा संदेश दे जाता है। एक और रचना 'दाग' में भी एक माँ द्वारा बेटे के बजाए 'बहू' का साथ देना प्रभावी बना है।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">सामाजिक सरोकार से जुड़ी रचनाओं में</div>
<div dir="auto">एक है 'ओढ़नी का दस्तूर', जिसमें परिवार के मुख्य सदस्य की मृत्यु पर पगड़ी रस्म जैसी प्रथा के समानांतर स्त्री संदर्भ में भी इस प्रथा को अपनाने की पैरवी की गई है। इसी तरह एक लघुकथा 'अरमान' में बेटी के जन्म होने पर भी दादी को 'स्वर्ण सीढ़ी' प्रदान करने का कदम भेदभाव पर सही चोट करता है। 'खून' नामक लघुकथा में अनाथालय से बच्चे लेने के विषय पर अच्छा कथ्य बुना गया है।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">वृद्धावस्था में बच्चों की बेरूख़ी के विषय पर मानवेत्तर रचना 'भीत' प्रभावित करती है तो </div>
<div dir="auto">लघुकथा 'सफ़र' तथा 'दुआएं' में क्रमशः बेटे के सकारत्मक और नकरात्मक रूख़ का दिखाना अच्छा बना है। कोरोना काल में वेश्यावृत्ति से जुड़े प्रभाव पर रचित लघुकथा 'आग' तथा गरीब नौकर को चोर समझ लेने के कथ्य पर लघुकथा 'चोरी' सहित और भी 'संकल्प', 'सम्मान', 'पुलिस', 'दोषारोपण', 'अनर्थ', 'छतरी', 'प्रस्ताव', 'पत्थर' और बोझ जैसी कई लघुकथाएं सहज ही अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">कुछ लघुकथाएं विषय अच्छा होने बाद भी प्रस्तुति के स्तर पर काफी हल्की रही हैं, ऐसी लघुकथाओं में 'आहुति', 'बारिश की बूंद', भरोसा, 'सब्र', 'अंकुश', 'द्वंद', 'इतिहास', 'पर्दा', 'असर', 'पिंजरे', 'सपने' और 'लकीरें' रचनाओं को देखा जा सकता है।</div>
<div dir="auto"> </div>
<div dir="auto">रचनाओं के शीर्षक पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। मूली, उथल पुथल, मज़ाक जैसे शीर्षक लघुकथा की गंभीरता को कम करते हैं। सँग्रह में एक दो रचनाओं में कथ्य की समरूपता का आभास (पुलिस/सबको मार दिया, अलविदा/बधाई) भी असहज करता है। लेखिका को इस समरूपता और शीर्षकों के चयन पर भविष्य में और अधिक ध्यान देना चाहिए।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">बहरहाल विषयों की विविधता और रचनाओं में यथार्थ के बीच काल्पनिक समावेश के साथ एक सार्थक सोच सहज ही लेखिका के सुंदर लेखन के प्रति आशान्वित करती है।</div>
<div dir="auto">लेखिका के समृद्ध एवं उज्जवल भविष्य की शुभेच्छा के साथ. . . </div>
<div dir="auto">हार्दिक शुभकामनाएं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">विरेंदर ‘वीर’ मेहता</div>
<div dir="auto">8130607208</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">लघुकथा संग्रह - लघुकथा कौमुदी</div>
<div dir="auto">पृष्ठ - 112</div>
<div dir="auto">मूल्य - ₹ 200/</div>
<div dir="auto">प्रथम संस्करण - 2022</div>
<div dir="auto">संग्रह लेखिका - शकुंतला अग्रवाल 'शकुन'</div>
<div dir="auto">प्रकाशक - सहित्यागार, धामाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर</div>
<div dir="auto"></div> समीक्षा -समकालीन मुकरियाँtag:www.openbooksonline.com,2022-01-23:5170231:Topic:10777492022-01-23T16:20:27.117Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3m
<p><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10035676062?profile=original" rel="noopener" target="_blank"><img class="align-left" src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10035676062?profile=RESIZE_710x" width="200"></img></a> समीक्षा : ‘समकालीन मुकरियाँ ’<br></br> सम्पादक – त्रिलोक सिंह ठकुरेला <br></br> ISBN : 978-81-95138-18-0<br></br> प्रकाशक – राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर <br></br> मूल्य : रुपये 200/- मात्र</p>
<p></p>
<p> <span style="font-size: 24pt;"><strong>त्रि</strong></span>लोक सिंह ठकुरेला जी के सम्पादन में प्रकाशित यह सातवीं पुस्तक है । इसके पूर्व उनके द्वारा आधुनिक हिंदी…</p>
<p><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10035676062?profile=original" target="_blank" rel="noopener"><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10035676062?profile=RESIZE_710x" width="200" class="align-left"/></a>समीक्षा : ‘समकालीन मुकरियाँ ’<br/> सम्पादक – त्रिलोक सिंह ठकुरेला <br/> ISBN : 978-81-95138-18-0<br/> प्रकाशक – राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर <br/> मूल्य : रुपये 200/- मात्र</p>
<p></p>
<p> <span style="font-size: 24pt;"><strong>त्रि</strong></span>लोक सिंह ठकुरेला जी के सम्पादन में प्रकाशित यह सातवीं पुस्तक है । इसके पूर्व उनके द्वारा आधुनिक हिंदी लघुकथाएँ, कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर, कुण्डलिया कानन, कुण्डलिया संचयन , समसामयिक हिंदी लघुकथाएँ और कुण्डलिया छंद के नये शिखर का भी सम्पादन किया गया है । कुण्डलिया सहित हिंदी छंदों, मुकरियों और गीत, बालगीत पर भी आपका पूरा अधिकार है । आपकी रचनाएँ विभिन्न प्रदेशों की पाठ्यपुस्तकों में सम्मिलित की गई हैं। </p>
<p></p>
<p> 'समकालीन मुकरियाँ ’ जो कि मुकरियों का एक साझा संकलन है, इसमें वरिष्ठ छंदकार अशोक कुमार रक्ताले जी सहित अंजलि सिफ़र, इंद्र बहादुर सिंह ‘इन्द्रेश’, कैलाश झा ‘किंकर’, तारकेश्वरी ‘सुधि’, डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल, डॉ. विपिन पाण्डेय, सत्यनारायण शिवराम सिंह, हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’ एवं स्वयं त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी की भी मुकरियाँ प्रकाशित हुई हैं । विरल हो चली यह पुरातन काव्य विधा अब पुनः नवजीवन पा रही है । आइये कह मुकरी विधा में योगदान दे रहे कुछ रचनाकारों की कह -मुकरियों से रू-ब-रू होते हैं – </p>
<p>उसका आना मन को भाए ।<br/> आते ही सुध-बुध बिसराए ।<br/> जकड़े जब-तब वह बेदर्दी ।<br/> ऐ सखि,साजन ? ना सखि सर्दी ।.....अशोक कुमार रक्ताले</p>
<p> </p>
<p>माना जाता है की अमीर खुसरो ही इस काव्य-विधा के जनक रहे हैं , तत्पश्चात भारतेंदु और नागार्जुन ने इसे आगे बढ़ाया । आज इसे आगे बढाने के महत्वपूर्ण कार्य में यह प्रयास भी देखें –</p>
<p> </p>
<p>उस पर मुझको है अभिमान ।<br/> करूँ निछावर अपनी जान ।<br/> मन-भावन वह रंग-बिरंगा ।<br/> क्या सखि साजन ? नहीं तिरंगा ।..........अंजलि सिफ़र</p>
<p> </p>
<p>काव्य-विधा मुकरी को कुछ विद्वत्त जन पहेली का ही प्रकार मानते हैं, जबकि हम पुरातन रचनाकारों की मुकरियाँ देखते हैं तो स्पष्ट होता है कि यह दो सखियों के मध्य संवाद है और आज इसमें थोड़ा बदलाव हुआ है तब भी इसे दो सखियों के संवाद रूप में ही प्रस्तुत किया गया है –</p>
<p> </p>
<p>नहीं मिले तो उलझन लागे ।<br/> उसको पाकर आलस भागे ।<br/> उसके बिना रहा न जाय ।<br/> क्या सखी, नशा ? नहिं सखि, चाय ।...........इंद्र बहादुर सिंह ‘इन्द्रेश’<br/> <br/> छंद विधा में इसे पादाकुलक श्रेणी के छंद की तरह माना गया है, क्योंकि मुकरी की चारों पंक्तियाँ जब 16-16 मात्राओं की होती हैं तब वह दो-दो पदों की तुकांतता के साथ एक छंद की भाँति हो जाती हैं ।<br/> पढ़िये मद्यपान के कुप्रभाव को इंगित कर सचेत करती कह मुकरी --</p>
<p> </p>
<p>पत्नी बच्चे डर-डर जाते ।<br/> संध्या में जव वे घर आते ।<br/> सौ-सौ गुण, पर एक खराबी ।<br/> की सखि, साजन ? नहीं शराबी ।........कैलाश झा ‘किंकर’</p>
<p> </p>
<p>मुकरी में सदैव सोलह-सोलह मात्राएँ ही हों ऐसा आवश्यक नहीं है । कई बार मुकरियों में प्रथम दो पंक्तियाँ 15-15 मात्राओं की रखकर अगली दो पंक्तियाँ 16-16 मात्राओं की भी रचनाकारों द्वारा ले ली जाती हैं –</p>
<p> </p>
<p>वन में, मन में खिले पलाश ।<br/> मौके की हो रही तलाश ।<br/> आते ही होगी बरजोरी ।<br/> क्या सखि, साजन ? ना सखि, होरी ।.............डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल </p>
<p> </p>
<p>इस काव्य-विधा पर जैसे-जैसे लेखन बढ़ा है, नये-नये प्रयोग भी प्रारम्भ हो गये हैं । कई रचनाकार छह चरणों में भी इस छंद को पूर्ण कर रहे हैं । जैसा कि सम्पादक द्वारा पुस्तक की भूमिका में ज़िक्र किया है, किन्तु मानक अनुसार न होने से उन रचनाओं को पुस्तक में स्थान नहीं दिया गया है । पुस्तक में मानक पर आधारित रचनाओं का ही प्रकाशन हुआ है. देखें- </p>
<p> </p>
<p>जब-जब मेरा तन-मन हारा ।<br/> दिया सदा ही मुझे सहारा ।<br/> उसके बिना न आये निंदिया ।<br/> क्या सखि साजन ? ना सखि, तकिया ।..........तारकेश्वरी ‘सुधि’</p>
<p> </p>
<p>मुकरी एक मन-मोहक काव्य-कला है । यही कारण है कि अल्पकाल में ही कई रचनाकारों द्वारा इस विधा पर कार्य प्रारम्भ किया गया । जितने रचनाकारों को इस पुस्तक में स्थान मिला है उससे भी अधिक किसी कारणवश छूट गये हैं । किसे पुस्तक में स्थान दे किसे नहीं यह सम्पादक के चयन मान-दण्ड पर निर्भर करता है और यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है, इस पुस्तक के सभी रचनाकार श्रेष्ठ मुकरीकार हैं । <br/> देखें –</p>
<p> </p>
<p>खुद को उससे खूब बचाऊँ ।<br/> दुबक रज़ाई में घुस जाऊँ ।<br/> फिर भी उसने हर पल ताड़ा ।<br/> क्या सखि, साजन ? नहिं सखि, जाड़ा ।................ डॉ. विपिन पाण्डेय <br/> या</p>
<p> </p>
<p>अंग लिपट ठंडक हर लेता ।<br/> तन मन को गर्माहट देता ।<br/> वह मेरे जीवन का संबल ।<br/> क्यों सखि, साजन ? ना सखि कंबल ।.......सत्यनारायण शिवराम सिंह<br/> या </p>
<p> </p>
<p>मेरे पीछे-पीछे आता ।<br/> मेरा साथ उसे है भाता ।<br/> मेरा रक्षक है अलबत्ता ।<br/> क्या सखि साजन ? ना सखि, कुत्ता............हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’</p>
<p> </p>
<p>इस पुस्तक ‘समकालीन मुकरियाँ’ के सम्पादक स्वयं एक श्रेष्ठ मुकरीकर हैं । उनका एक मुकरी संग्रह ‘आनंद मंजरी’ पूर्व में प्रकाशित हुआ है । यही कारण है कि विभिन्न रचनाकारों की श्रेष्ठ मुकरियों का संग्रह हमें उपलब्ध हुआ है । यह पुस्तक साहित्य जगत में प्रतिष्ठित हो । मैं इस पुस्तक के सभी रचनाकारों एवं सम्पादक को बधाई एवं शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ ।</p>
<p> </p>
<p>समीक्षक -<br/> अनामिका सिंह <br/> शिकोहाबाद, फिरोज़ाबाद (उ.प्र.)</p> समीक्षा : 'न बहुरे लोक के दिन' (नवगीत संग्रह)tag:www.openbooksonline.com,2022-01-11:5170231:Topic:10765992022-01-11T18:07:41.158Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3m
<p><strong><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10035679077?profile=original" rel="noopener" target="_blank"><img class="align-right" src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10035679077?profile=RESIZE_710x"></img></a> ‘न बहुरे लोक के दिन’</strong></p>
<p>रचनाकार – अनामिका सिंह</p>
<p>प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर (राज.)</p>
<p>ISBN : 978-93-5536-091-5</p>
<p>मूल्य - रूपये 250/-</p>
<p> </p>
<p> वर्ष २०२२ का प्रथम मास और चर्चित नवगीतकार अनामिका सिंह की प्रथम पुस्तक ‘न बहुरे लोक के दिन’ का प्राप्त होना एक सुखद अनभूति कराता है. आदरणीया का छंद रचते-रचते कब…</p>
<p><strong><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10035679077?profile=original" target="_blank" rel="noopener"><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/10035679077?profile=RESIZE_710x" class="align-right"/></a>‘न बहुरे लोक के दिन’</strong></p>
<p>रचनाकार – अनामिका सिंह</p>
<p>प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर (राज.)</p>
<p>ISBN : 978-93-5536-091-5</p>
<p>मूल्य - रूपये 250/-</p>
<p> </p>
<p> वर्ष २०२२ का प्रथम मास और चर्चित नवगीतकार अनामिका सिंह की प्रथम पुस्तक ‘न बहुरे लोक के दिन’ का प्राप्त होना एक सुखद अनभूति कराता है. आदरणीया का छंद रचते-रचते कब गीतों की ओर झुकाव हुआ पता ही नहीं चला और आज उनका यह प्रथम नवगीत ग्रन्थ हाथ में है.</p>
<p> </p>
<p> पुस्तक की भूमिका लिखते हुए श्री वीरेंद्र आस्तिक लिखते हैं ‘संग्रह के नवगीत एक नए प्रकार के भाषा मुहावरे में गढ़े हुए हैं’ और श्री मंज़र-उल वासै कहते हैं ‘ उन्होंने गीतों को पसीने से सींचा है, ममत्व का दुग्ध पिलाया है, लोकहित की भावना की खाद दी है’ वहीँ श्री भगवान् प्रसाद सिन्हा संग्रह में आये गीतों को लोकतंत्र पर आये संकट के सचेतक मानते हैं. तीनों वरिष्ठ और श्रेष्ठ नवगीतकारों को पढ़ने के पश्चात ग्रन्थ के गीतों को पढ़ने के लिए मन लालायित हो उठा.</p>
<p> </p>
<p> ग्रन्थ का प्रथम गीत ‘अम्मा की सुध आई’ यह प्रतीति कराने के लिए पर्याप्त है कि बेटियाँ विवाहोपरांत भी माँ और उसके कष्टों को कभी भूल नहीं पातीं ‘<strong>अपढ़ बाँचती मौन पढ़ी थी, जाने कौन पढ़ाई</strong>’...यह दो पंक्तियाँ किसी भी पाठक को साक्षात माँ के दर्शन करा देती हैं.</p>
<p> </p>
<p> गीत जब छंदबद्ध हों उनका प्रवाह निर्बाध हो और प्रयुक्त प्रतीक और बिम्ब पाठक के हृदय को स्पर्श करने वाले हों तो वह सहज ही पाठक के मन में अपनी जगह बना लेते हैं –</p>
<p>राजकोष तो भरा मगर,क्यों</p>
<p>रीता है कश्कोल ?</p>
<p>यहाँ कश्कोल क्या है ? वही हर नागरिक की आस का पात्र, जो उसकी शासक से अपेक्षा है.</p>
<p> </p>
<p>साठ के दशक से आरम्भ नवगीतों को सुघढ़ भाषा, शिल्प और कथ्य के साथ विस्तार देता यह ग्रन्थ कुछ और अप्रयुक्त शब्दों के साथ नये प्रतिमान गढ़ रहा है. </p>
<p><strong> अनाचार</strong></p>
<p><strong>की जड़ काटेंगी</strong></p>
<p><strong>उत्तरदायी थी संज्ञाएँ</strong></p>
<p><strong>मचवे पकड़े सिंहासन के</strong></p>
<p><strong>वे यश की</strong></p>
<p><strong>कह रहीं कथाएँ.</strong></p>
<p><strong> या</strong></p>
<p><strong>मरघट सम</strong></p>
<p><strong>मातम जन-गण-मन</strong></p>
<p><strong>राजा बाँधे शगुन कलीरे.</strong></p>
<p> </p>
<p> नवगीत सृजन एक संवेदनशील मन की तपस्या का परिणाम होता है. जिसे परम्परा और आधुनिक काल का पूर्ण बोध हो. सामयिक विसंगतियों पर क़लम चलाना आसान नहीं है. किन्तु कवयित्री की क़लम बहुत आशान्वित कर रही है.</p>
<p> </p>
<p><strong>ठकुरसुहाती करें चौधरी</strong></p>
<p><strong>दाल बुद्धि पर ताला.</strong></p>
<p><strong>लगा विवेकी चिन्तन में है</strong></p>
<p><strong>जातिवाद का जाला.</strong></p>
<p><strong> </strong></p>
<p><strong>घायल बचपन हुआ, बिलोते</strong></p>
<p><strong>कट्टर धर्म मथानी में.</strong></p>
<p> </p>
<p> अपने नवगीतों में कवयित्री ने जहाँ समाज के पिछड़े और शोषित वर्ग की पीड़ा को मुखर किया है वहीँ समाज की अंदरूनी विसंगतियों और रूढ़ियों पर भी जाग्रति लाने का प्रयास किया है.सत्ता या समाज दोनों के विरोध में यह क़लम ग्रन्थ की प्रत्येक रचना में बिना किसी समझौते के चली है, चाहे इनका गीत ‘छोडो जी सरकार’, आग लगा दी पानी में या ‘यह न होगा’ हो-</p>
<p><strong>ओढ़कर बैठे रहेंगे मौन,</strong></p>
<p><strong>यह न होगा.</strong></p>
<p><strong>हम करेंगे</strong></p>
<p><strong>जुल्म का प्रतिरोध.</strong></p>
<p> इस ग्रन्थ के सत्तर गीतों में किस-किस गीत पर रचनाकार को बधाई दूँ, प्रत्येक गीत का अपना तेवर है और सभी गीत श्रेष्ठ हैं.यह 160 पृष्ठों का ग्रन्थ ‘न बहुरे लोक के दिन’ साहित्य जगत में अपना विशेष मुक़ाम बनाएगा, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ मैं कवयित्री को इसके प्रकाशित होने पर बहुत-बहुत बधाई देता हूँ.</p>
<p> </p>
<p>~ अशोक कुमार रक्ताले</p>
<p>40/54, राजस्व कॉलोनी,</p>
<p>उज्जैन -456010</p>
<p>चलभाष – 9827256343 </p> समीक्षा पुस्तक : दोहा-सागरtag:www.openbooksonline.com,2020-05-01:5170231:Topic:10055432020-05-01T12:11:47.701Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3m
<div>समीक्षा : दोहा-सागर<br></br> रचयिता : पंकज शर्मा ‘तरुण’<br></br> प्रकाशक : उत्कर्ष प्रकाशन,<br></br> 142, शाक्य पूरा, कंकर खेडा,<br></br> मेरठ केंट-२५०००१, (उ.प्र.)<br></br> प्रथम संस्करण 2019<br></br> मूल्य :<span> </span><span class="replaced">रुपये</span><span> </span>150/-</div>
<div>.<br></br> पंकज शर्मा ‘तरुण’ का दोहा-संग्रह ‘दोहा-सागर’ हाथ में आया तो बहुत प्रसन्नता हुई. पिछले कुछ वर्षों से पुनः देश में छंद लेखन में वृद्धि हुई है और दोहा एक ऐसा छंद है जो दो ही पंक्तियों में<span> …</span></div>
<div>समीक्षा : दोहा-सागर<br/> रचयिता : पंकज शर्मा ‘तरुण’<br/> प्रकाशक : उत्कर्ष प्रकाशन,<br/> 142, शाक्य पूरा, कंकर खेडा,<br/> मेरठ केंट-२५०००१, (उ.प्र.)<br/> प्रथम संस्करण 2019<br/> मूल्य :<span> </span><span class="replaced">रुपये</span><span> </span>150/-</div>
<div>.<br/> पंकज शर्मा ‘तरुण’ का दोहा-संग्रह ‘दोहा-सागर’ हाथ में आया तो बहुत प्रसन्नता हुई. पिछले कुछ वर्षों से पुनः देश में छंद लेखन में वृद्धि हुई है और दोहा एक ऐसा छंद है जो दो ही पंक्तियों में<span> </span><span class="replaced">गंभीर</span><span> </span>बात सरलता से कह जाता है. छंदों में सर्वाधिक लेखन दोहा छंद का ही हो रहा है. लगभग प्रति सप्ताह ही कोई दोहा छंद संग्रह प्रकाशित हो रहा है.</div>
<div><br/> छंद के शिल्प और उसकी गेयता को बनाए रखते हुए रचे गए दोहे जब किसी विशेष उद्देश्य से रचे जाते हैं तभी उनकी सार्थकता होती है. पंकज शर्मा ‘तरुण’ के दोहों में वह बात देखने मिलती है. इनकी पुस्तक में किसी एक विषय को केन्द्रित कर दोहे नहीं लिखे हैं. किन्तु इन दोहों में समाज सुधार, देश के विकास, राजनीति और पर्यावरण संरक्षण का भाव बार-बार आया है.</div>
<div><br/> बोले मुँह पर प्यार से, करे पीठ पर वार।<br/> ऐसे<span> </span><span class="replaced">धोखेबाज़</span><span> </span>से, सब रिश्ते बेकार।।</div>
<div><br/> आसपास जो नीम हो, मिलती ठंडी छाँव।<br/> प्राण वायु सबको मिले, स्वस्थ रहेगा गाँव।।</div>
<div><br/> आज जब कोरोना के कारण हर कोई बार-बार हाथों को धोकर स्वच्छ रखने का सन्देश दे रहा है. वही सन्देश दोहे के रूप में भी दिया जा सकता है. यह इस दोहे में देखें.</div>
<div><br/> भोजन से पहले सखा, धोएं<span> </span><span class="replaced">दोनों</span><span> </span>हाथ।<br/> बीमारी सब दूर हो, रहता शीतल माथ।।</div>
<div><br/> इस पुस्तक में पूरे एक<span> </span><span class="replaced">हज़ार</span><span> </span>दोहे हैं. इन दोहों में मात्र<span> </span><span class="replaced">ऊपर</span><span> </span>वर्णित विषयों पर ही दोहे रचे गए हों ऐसा नहीं है. इस पुस्तक में लगभग हर विषय को छूने का प्रयास दोहाकार द्वारा किया गया है. कुछ और दोहे देखें –</div>
<div><br/> दुनिया इक बाज़ार है, बिकती है हर<span> </span><span class="replaced">चीज़</span>।<br/> प्रेम प्यार बिकता नहीं, बो ले इसका बीज।।</div>
<div><br/> जीवन सारा सौंप दो, साँवलिया के नाम।<br/> सारी माया त्याग के, जपो निरंतर श्याम।।</div>
<div><br/> स्वस्थ अगर होगा बदन, मन में रहे उमंग।<br/> भर<span> </span><span class="replaced">जाएँगे</span><span> </span>आप ही, इस जीवन में रंग।।</div>
<div><br/> दोहाकार ने अपने दोहों में हिंदी के साथ आंग्ल भाषा के प्रयोग से भी कोई<span> </span><span class="replaced">परहेज़</span><span> </span>नहीं किया है, बोलचाल में प्रचलित शब्दों को<span> </span><span class="replaced">जस-का-तस</span><span> </span>दोहों में रख लिया है.</div>
<div><br/> सुविधा इंटरनेट की, है यह तो वरदान।<br/> दुरुपयोग करो नहीं, समझो रे<span> </span><span class="replaced">इनसान</span>।।</div>
<div><br/> ‘दोहा-सागर’ पंकज शर्मा तरुण का पहला दोहा-संग्रह है. इसकारण कुछ कमियाँ भी इसमें रह गईं हैं. फिर भी यह एक उत्तम दोहा-संग्रह है. मैं उनको इस पुस्तक के प्रकाशित होने पर बहुत-बहुत बधाई देता हूँ. आशा है यह पुस्तक दोहा-छंद पसंद करने वाले पाठकों के बीच अपना अलग मुकाम बनाएगी.<span> </span><span class="replaced">शुभकामनाएँ</span>.</div>
<div><br/> समीक्षक :-<br/> अशोक कुमार रक्ताले<br/> ४०/५४, राजस्व-कॉलोनी,<br/> उज्जैन-१० (म.प्र.)<br/> मोबाइल : 9827256343</div> देवभूमि के इतिहास का गौरव-पृष्ठ है –यह उपन्यास ‘चन्द्रवंशी’ ::डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:www.openbooksonline.com,2019-12-31:5170231:Topic:9982552019-12-31T06:49:07.116Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3m
<p>अतीत से जुड़ना भी एक मानवीय प्रवृत्ति है I जिन साहित्यकारों को अतीत से मोह होता है वे प्रायशः भारतीय इतिहास के किसी गौरवशाली पृष्ठ को टटोलते हैं और उसमे निहित सामग्री या इतिवृत्त के आधार पर कथा या काव्य रचते हैं I रामायण और महाभारत पर आधारित साहित्यिक रचनाये भी हमारे इतिहास की ही विविधामयी अभिव्यक्ति है I भारत का उत्तराखंड जिसे देवभूमि भी कहा जाता है, उसका अपना एक गरिमामयी इतिहास है I संभव है कि पहाड़ की आंचलिक भाषा (गढ़वाली / कुमायनी) में उसके दस्तावेज भी मौजूद हों I यह भी हो सकता है कि अंचल…</p>
<p>अतीत से जुड़ना भी एक मानवीय प्रवृत्ति है I जिन साहित्यकारों को अतीत से मोह होता है वे प्रायशः भारतीय इतिहास के किसी गौरवशाली पृष्ठ को टटोलते हैं और उसमे निहित सामग्री या इतिवृत्त के आधार पर कथा या काव्य रचते हैं I रामायण और महाभारत पर आधारित साहित्यिक रचनाये भी हमारे इतिहास की ही विविधामयी अभिव्यक्ति है I भारत का उत्तराखंड जिसे देवभूमि भी कहा जाता है, उसका अपना एक गरिमामयी इतिहास है I संभव है कि पहाड़ की आंचलिक भाषा (गढ़वाली / कुमायनी) में उसके दस्तावेज भी मौजूद हों I यह भी हो सकता है कि अंचल की दंतकथाओं और किंवदंतियों में उन कथाओं के उत्स मिलते हों I अतः इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि इन सब सामग्रियों और उत्स के आधार पर पहाडी भाषा में प्रभूत उपन्यास या काव्य लिखे गए हैं I हिन्दी मे खासकर कुमायूंनी संस्कृति और सभ्यता को साहित्य की विधा में उतारने वाले साहित्यकारों में शैलेश मटियानी, शिवानी, हिमांशु जोशी, पंकज बिष्ट और मनोहरश्याम जोशी प्रमुख नाम हैं, जिन्होंने पर्वतांचल की गौरव गाथाओं को अपने अनमोल शब्द-चित्र दिए हैं I इस परंपरा में एक नया नाम कौस्तुभ आनन्द चंदोला है, जिन्होंने देवभूमि के कथानकों पर लेखनी चलाकर प्रतिष्ठा और पुरस्कार दोनों अर्जित किये हैं I इन्होने उत्तराखंड के प्रख्यात न्याय देवता गोलू देव की जीवन गाथा पर अपना पहला लोकप्रिय उपन्यास ‘सन्यासी योद्धा’ लिखा था I विवेच्य उपन्यास ‘चन्द्रवंशी’ इनका दूसरा उपन्यास है I </p>
<p>चन्द्रवंशी’ उपन्यास में उत्तराखंड के कुमायूँनी क्षेत्र के चन्द्रवंशी राजा कल्याणचंद (शा.का.1729-47 ) का इतिवृत्त प्रस्तुत किया गया है I इतिहास के ब्याज से हम सभी जानते हैं कि राजगद्दी पाने के लिए राजपरिवारों में हमेशा ही अपने भाई और बन्धु-बांधवों को जान से मार देने की कुत्सित परम्परा रही है I इन हत्याओं और दुरभिसंधियों से बचने के लिये लोग असमर्थ, अवयस्क और सुकुमार उत्तराधिकारियों को उनके संरक्षक राज्य से बाहर किसी सुरक्षित स्थान पर अज्ञातवास के लिए भेज देते थे ताकि यदि कभी अनुकूल समय आता तो उस जायज उत्तराधिकारी को राज्य सिंहासन पर बिठाया जा सके I प्रजा भी राजवंश के उस धरोहर को हाथों हाथ स्वीकार कर लेती थी I </p>
<p>चन्द्रवंशी’ उपन्यास के कथानायक कल्याणचंद भी एक ऐसे ही राजा थे जिन्हें उनके नाना सुमेर सिंह ने अपने विश्वासपात्रों के सहयोग से कुमायूं क्षेत्र के अल्मपुरी का शासक बनाया I राजा बनने से पूर्व कल्याणचंद ने मुफलिसी का जो जीवन जिया उसमें महज रोटी जुटाने के लिए उन्हें जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी I जाहिर है कि किसी राजपुत्र के समान उन्हें कोई शिक्षा-दीक्षा या शस्त्र प्रशिक्षण प्राप्त नहीं हुआ था I उपन्यासकार ने स्वयं इस राजा को कई बार माटी का माधो कहा है I एक दरिद्र को अगर अचानक सारी राजसी सुविधाएं, सम्मान और भोग सुलभ हो जायें और जिसका सूत्र उन मुठ्ठी भर लोगों पर हो जिनके अपने दुराग्रह और प्रतिशोध हों तो वह कठपुतली राजा सिवाय उन मुठ्ठी भर लोगों के इशारे पर नाचने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकता है I राजा कल्याणचंद के साथ भी यही हुआ I उनके नाना सुमेर सिंह ने कृतज्ञ-विवश राजा से आदेश प्राप्त कर पूर्व राजा के विश्वासपात्रों की हत्याएं करवाई I केवल संदेह के आधार पर कितने ही निर्दोषों को फाँसी दे दी गयी I अनेक प्रकांड विद्वानों की आँखे निकलवा ली गयीं I यह अनाचार केवल इसलिए हुआ कि राजा का खौफ कायम हो सके और राज्यसत्ता निर्विघ्न हो जाए I राजा की असहायता, निर्बलता और उसकी मानसिक विपन्नता के बीच गहरे द्वंद्व को उपन्यासकार चंदोला जी ने जिस खूबी से स्वाभाविकता का जामा पहनाया है, उसके लिए वे बधाई के पात्र हैं I हर गलत निर्णय के बाद राजा में जो धीरे-धीरे सकारात्मक (Positive) परिवर्तन उभरता है उसका बड़ा ही वास्तविक (Realistic) वर्णन उपन्यास में मिलता है I राजा के नाना सुमेर सिंह ने कल्याणचंद को राजा अवश्य बनाया, पर वे स्वयं और उनका विश्वासपात्र दल इतना योग्य नहीं था, जो राजा को सन्मार्ग पर ले जा सके I इसलिए राजा कुमन्त्रणा के दलदल में धंसते चले गए I उन्होंने अपने विवेक से जिन योग्य लोगों को उच्च पद प्रदान किये उन पर भी राजा को भरोसा न करने दिया गया I परिणाम यह हुआ कि रूहेल सरदार हाफिज रहमत खां ने राजा को परास्त कर उसकी राजधानी अल्मपुरी पर कब्जा कर लिया I राजा कल्याणचंद को गढ़वाल प्रदेश के राजा प्रदीप्तशाह की शरण लेनी पड़ी I प्रदीप्तशाह एक उदार शासक था I उसने अल्मपुरी की सहायता हेतु रूहेल सरदार हाफिज रहमत खां की कठिन संधि शर्तों को स्वीकार कर कल्याणचंद को पुनः अल्मपुरी का राजा बनाया I अब तक कल्याणचंद में परपक्वता आ चुकी थी I रुहेलों से मिली हार ने उसका सारा मनोविज्ञान ही बदल कर रख दिया I राजा अब स्वतंत्र निर्णय लेने लगा I उसने नई फ़ौज का संगठन किया I धन और जन-बल बढ़ाया I कूटनीति से काम लिया और एक बड़ी लड़ाई में रुहेलों को अपने राज्य से बहिष्कृत कर फिर से सर्वशक्ति संपन्न राजा बना I उपन्यास का कथानक यहीं तक है I</p>
<p>इस उपन्यास के शिल्प में नवीनता है I राजा कल्याणचंद वृद्ध हो चुके हैं i उनकी आँखें भयानक संक्रमण का शिकार हैं I वे मानो उबली पड़ती हैं I इससे राजा का चेहरा डरावना हो गया है I किसी भी उपचार से पीड़ा शांत नहीं होती I राजा को अपना अतीत याद आता है I कहीं यह उस पाप की सजा तो नहीं I राजा ने कुमंत्रणा में फंसकर कितने ही निर्दोषों की आँखें निकलवा ली थीं I राजा को मृत्यु के पदचाप त्रस्त करते रहते हैं I उनका चिंतन दार्शनिक हो उठता है और वह जीवन, उसकी नश्वरता पर विचार करता है I वह जीवन जिस पर मानव का कोई वश नहीं है I इन्ही विराग-क्षणों में राजा अपने स्मृति की पोटली खोलता है और अपनी जीवन कथा का दिग्दर्शन करता है I</p>
<p>यह उपन्यास प्रथम पुरुष के रूप में आत्म-कथन के रूप में लिखा गया है परन्तु विशेष बात यह है कि हर नये दृश्य में पात्र-परिवर्तन होने पर नया पात्र भी अपनी कथा प्रथम पुरुष में ही व्यक्त करता है I उप-शीर्षकों में पात्र बार-बार भी आते है पर उनका स्वरुप सदैव प्रथम पुरुष जैसा ही रहता है I मजे की बात यह है कि इससे उपन्यास के संगठन और उसकी संप्रेषणीयता में कोई कमी नहीं आयी है I एक लेखकीय ईमानदारी जो इस उपन्यास में विशेष रूप से दिखती है वह है कथाकार द्वारा कथानक पर कसाव बनाए रखना I वह सामान्य पाठक की अपेक्षाओं के अनुसार नृत्य-संगीत, रास-रंग और प्रेम के उद्दाम प्रसंगों की ओर ज़रा भी आकर्षित नहीं हुआ, उसका सारा ध्यान कथानक से न्याय करना रहा है I यही कारण है कि इस उपन्यास में रंजक तत्वों की कुछ कमी हो सकती है पर वह कथाकार की अपनी ईमानदारी है I</p>
<p>राजा कल्याणचंद कथानायक हैं I उनका चरित्र उपन्यास का सबसे सशक्त चरित्र है I उसमे खामियां भी हैं और महनीयता भी I जिन परिस्थितियों से गुजर कर वह राजा बने और जिस प्रकार जिन लोगों द्वारा बनाए गए वह सब बड़ा ही स्वाभाविक है I कथाकार ने ढेर सारी खामियों के बाद भी राजा कल्याणचंद के चरित्र को कहीं भी अप्रिय नहीं होने दिया, यह उनके लेखन का अपना कौशल है I अन्य चरित्र जो प्रभावित करते हैं, उनमें शिवदेव जोशी का चरित्र अनुकरणीय है I वह एक विद्वान् और वीर योद्धा है I उनके अंदर सूझ- बूझ और उच्च विचार शक्ति है I देशप्रेम और राज्य निष्ठा तो मानो उनकी पूंजी ही है I पं० शिवानन्द, पं० लक्ष्मी चंद, पं रमावल्ल्भ पन्त, राजा के नाना सुमेरु, राजा की दासी रानी, राजा के मित्र अनूप, रूहेल सरदार हाफिज रहमत खां आदि उपन्यास के अन्य मुख्य चरित्र हैं I गढ़वाल नरेश प्रदीप्तशाह विशिष्ट भूमिका में है I उनका चरित्र आदर्श है I उन्होंने जिस तरह अपने धन और जन-बल से राजा कल्याणचंद की सहायता की और रुहेलों से हुयी संधि के एक प्रस्ताव का उल्लंघन कर कल्याणचंद को फिर से अल्मपुरी का राजा बनाया यह स्वत अनुकरणीय चरित्र है I कथाकार के संवाद प्रभावशाली है I कहीं-कहीं कुछ बड़े हैं पर कथा के तारतम्य में होने के कारण अखरते नहीं हैं I मनोरंजन के लिए उपन्यास पढ़ने वालों को इस कथा से कुछ मायूसी हो सकती है पर साहित्य और इतिहास के जो गंभीर अध्येता हैं, जिन्हें कुछ नया जानने की सदैव ललक रहती है, उन्हें यह उपन्यास अवश्य आप्यायित करेगा, मेरा ऐसा विश्वास है I</p>
<p> 537ए /005 , महाराजा अग्रसेन नगर</p>
<p> सीतापुर रोड से ताड़ीखाना मोड़ पर</p>
<p> निकट डॉ. पंवार चौराहा, लखनऊ I</p>
<p> (मौलिक एवं अप्रकाशित ) </p>
<p> </p> समीक्षा पुस्तक : टुकड़ा-टुकड़ा धूप (दोहा संकलन)tag:www.openbooksonline.com,2019-05-05:5170231:Topic:9833052019-05-05T19:17:24.614Zधर्मेन्द्र कुमार सिंहhttp://www.openbooksonline.com/profile/249pje3yd1r3m
<p>पुस्तक : टुकड़ा-टुकड़ा धूप (दोहा संकलन)</p>
<p>सम्पादक : रेखा लोढ़ा ‘स्मित’</p>
<p>सह-सम्पादक : वीरेंद्र कुमार लोढ़ा</p>
<p>मूल्य : रूपये 150/- मात्र</p>
<p>प्रकाशक : बोधि प्रकाशन,</p>
<p>सी-46, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन,</p>
<p>नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर -302006</p>
<p> </p>
<p> दोहा एक ऐसा अर्ध-सममात्रिक छंद है जो अपने दो पदों की कुल अड़तालीस मात्राओं में ऐसी बड़ी-बड़ी बातें कह जाता है, जो कभी कोई जरूरी सन्देश होता है कभी कोई सीख होती है तो कभी किसी की सुन्दरता का वर्णन…</p>
<p>पुस्तक : टुकड़ा-टुकड़ा धूप (दोहा संकलन)</p>
<p>सम्पादक : रेखा लोढ़ा ‘स्मित’</p>
<p>सह-सम्पादक : वीरेंद्र कुमार लोढ़ा</p>
<p>मूल्य : रूपये 150/- मात्र</p>
<p>प्रकाशक : बोधि प्रकाशन,</p>
<p>सी-46, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन,</p>
<p>नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर -302006</p>
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<p> दोहा एक ऐसा अर्ध-सममात्रिक छंद है जो अपने दो पदों की कुल अड़तालीस मात्राओं में ऐसी बड़ी-बड़ी बातें कह जाता है, जो कभी कोई जरूरी सन्देश होता है कभी कोई सीख होती है तो कभी किसी की सुन्दरता का वर्णन भी. किन्तु जो भी होता है वह दोहाकार के शब्द चयन और कहने के तरीके पर निर्भर करता है कि वह दोहा पाठक के मन पर अपना कितना प्रभाव छोड़ेगा. कहा तो सदैव यही जाता है कि दोहा इस तरह रचा जाए की उसमें ‘घाव करे गंभीर’ वाली बात हो.</p>
<p> श्रीमती रेखा लोढ़ा ‘स्मित’ द्वारा संपादित दोहा-संकलन “टुकड़ा-टुकड़ा धूप”, जिसमें १००-१०० दोहे प्रति दोहाकार लेकर सात दोहाकारों के सात सौ दोहे प्रकाशित हुए हैं. दोहा-संग्रहों, दोहा संकलनों में सतसई का एक विशेष चलन देखा गया है. शायद यही कारण रहा हो की इस संकलन में भी सात सौ दोहे रखे गए हों.</p>
<p> संपादिका जी ने अपने सम्पादकीय में जिस तरह रचनाकारों का परिचय कराया है उससे ज्ञात होता है कोई नवीन रचनाकर है तो कोई दोहाकार के साथ व्यंगकार भी है कोई गीतकार और कोई लघु-कथाकार. दोहा छंद हो या और कोई काव्य विधा रचनाकर की अन्य विधाएं उसकी रचनात्मकता पर अपना प्रभाव छोडती ही हैं और यही दोहा छंद में एक विविधता ला देती हैं. इस संकलन के भी प्रथम दोहाकार भँवर ‘प्रेम’ जो छंद के क्षेत्र में भले नवीन हों किन्तु आयुर्वेद चिकित्सा के क्षेत्र में एक सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और जैसा मैंने कहा है दोहाकार की अन्य विधा का उसकी रचना पर प्रभाव अवश्य होता है तो यह भँवर ‘प्रेम’ जी के इस दोहे से सिद्ध भी होता है –</p>
<p>चाहो यदि खाना पचे, इतना रखना याद |</p>
<p>मत पीना पानी तुरत, तुम भोजन के बाद ||</p>
<p>यह एक उत्तम चिकित्सकीय सलाह भी है, क्योंकि भोजन के बाद तुरंत पानी पीने से पाचन-क्रिया बाधित होती है. यह एक ही नहीं इसी मिज़ाज के और भी दोहे उन्होंने रचे हैं इस संकलन केलिए</p>
<p>शीतल जल हो स्नान का, पहले धोना पैर | पीना का जल गुनगुना नहीं रोग की खैर ||</p>
<p>और</p>
<p>अपच कभी हो आपको, कर लो जल उपवास | सबसे सरल उपाय है , रखना यह विश्वास ||</p>
<p>पुस्तक के दूसरे दोहाकार हैं जी.पी. पारिक जी इनका एक दोहा-संग्रह मैं पहले भी पढ़ चुका हूँ. इनके दोहों से इनके आध्यात्म की और झुकाव का प्रमाण सहज ही मिलता है. इनके अधिकाँश दोहे हमें परमात्मा की ओर ले जाते हैं.</p>
<p>बालक है ये मन बड़ा, भाग रहा चहुँ ओर |</p>
<p>सही समझ से बाँधिए, ले सुमिरन की डोर ||</p>
<p>इस दोहे से दोहाकार का सीधा इशारा चंचल चपल मन को नियंत्रित रखने की ओर है और ईश्वर भक्ति इसका उत्तम मार्ग है यह भी उन्होंने इस दोहे में बताया है.</p>
<p>जतन बड़ा तन प्यास का, बुझा रहे हैं प्यास | करिए प्रभु की बंदगी, जगे मिलन की आस ||</p>
<p>दुनिया चाहे घूम लो, हो अपनों का साथ | हर्ष प्रेम सुख वास हो, सहज सरल सब पाथ ||</p>
<p>सूरज का सिंदूर ले, लिया धरा से धीर | सागर से विस्तार ले, नारी सहती पीर ||</p>
<p> इस संकलन की तीसरी दोहाकार हैं ज्योत्सना सक्सेना जी जो किसी फिल्म के लिए गीतकार भी रह चुकी हैं. इनके दोहों में राजनीति का रंग है तो श्रृंगार, भक्ति और रिश्ते-नाते पर भी चिंतन है.नारी जो माँ है उसे बेटियों की चिंता होना एक स्वाभाविक बात है और यह ज्योत्सना जी के दोहों में भी देखने मिलता है.</p>
<p>नहीं पराई बेटियाँ, कहते सारे शोध |</p>
<p>दिल से अपना मान लो, ऐसा है अनुरोध ||</p>
<p>आज के दौर में जहाँ आये दिन बहुओं को तरह-तरह के कारण बताकर प्रताड़ित किया जा रहा है, यहाँ तक की कई बार ह्त्या तक कर दी जाती है. तब उपरोक्त दोहा बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. क्योंकि बेटियाँ सभी के परिवार में होती हैं और उनको ब्याहकर किसी अन्य परिवार का हिस्सा बनना है. यदि नया परिवार उस बेटी को अपनी बेटी की तरह अपनाएगा तो वह भी उस परिवार के लिए उतना ही समर्पण भाव रखेगी. ज्योत्सना जी के अन्य दोहे कुछ इसप्रकार हैं .</p>
<p>माटी जैसी ही दिखे, काया की पहचान | साँसें कच्ची डोर हैं, कच्चे घट सी जान ||</p>
<p>मणिमुक्ता नयनों झरे, रहे होंठ पर मौन | मन वीणा के तार को, छेड़ गया है कौन ||</p>
<p> दोहा-संकलन के चौथे दोहाकार हैं नरेंद्र दाधीच जी. जो कि दोहाकार होने के साथ-साथ एक प्रसिद्द गीतकार भी हैं. इनके अधिकाँश दोहे प्रकृति के इर्द-गिर्द घुमते हुए बहुत नाजुक कलम से रचे गए लगते हैं, किन्तु वहीँ वीरों की भूमि राजस्थान के वीरों के शौर्य का गुणगान करने के लिए उतनी ही सख्ती भी दिखालाई देती है.</p>
<p>नारी पन्ना सी बने, आँसू गिरे न एक |</p>
<p>निज सूत को भी वार दे, सहती कष्ट अनेक ||</p>
<p>पन्ना धाय की वीरता और त्याग की गाथा से कौन परिचित न होगा. कविवर अपने दोहे से प्रत्येक नारी को उसी प्रकार वीर और बलिदानी होने का सन्देश दे रहे हैं. इनके अन्य दोहे भी उतने ही मनमोहक हैं.</p>
<p>माँ चन्दा की चाँदनी, माँ चन्दन सी शीत | माँ मृदंग की थाप है, माँ लोरी का गीत ||</p>
<p>मधुमक्खी ने कर लिया, फूलों का रसपान | बूँद-बूँद मधु जोड़कर, किया जगत को दान ||</p>
<p>प्रहलाद पारीक जी एक दोहाकार होने के साथ ही साथ उत्तम व्यंगकार भी हैं.’टुकड़ा-टुकड़ा धूप’ में इनके दोहे पांचवे नंबर पर रखे गए हैं . प्रहलाद जी चूंकि व्यंगकार हैं तो उनकी शासन के कार्यों और आज के दौर की विसंगतियों पर पैनी नजर होगी ही. यही उनके दोहे भी कह रहे हैं.</p>
<p>ज्यादा झुकना छोड़ दे, खा जाएगा मात |</p>
<p>हंटर रख ले हाथ में, होगी तब कुछ बात ||</p>
<p>स्पष्ट सी बात है आज का समय अत्याधिक विनम्रता दिखाने का समय नहीं है. अपने कार्य सिद्ध करने के लिए विनम्रता के साथ ही आपके पास एक ऐसी शक्ति भी आवश्यक है जो सामने वाले पक्ष को भयभीत करता हो. अन्य दोहों में भी दोहाकार ने अपनी बात सीधे ही कहने का प्रयास किया है.</p>
<p>खूब दुकानें खुल चुकीं, सबको भारी ज्ञान | मठाधीश करने लगे, खुद का ही सम्मान ||</p>
<p>गीत गजल सब कह रहे, अपनी-अपनी सोच | तू भी अपनी बात कह, मत बालों को नोच ||</p>
<p>‘टुकड़ा-टुकड़ा धूप’ की सम्पादक रेखा लोढ़ा ‘स्मित’, जिनका एक दोहा-संग्रह और गीत संग्रह आदि पूर्व में प्रकाशित हो चुके हैं, ने स्वयं के दोहों को पुस्तक में छठवें नम्बर पर स्थान दिया है. दोहा छंद उनकी प्रमुख काव्य विधा है रेखा जी आज एक प्रतिष्ठित दोहाकार हैं. दोहा छंद पर चलती उनकी कलम सहजता से बिम्बों का आधार लेकर अपनी बात को दोहों के माध्यम पाठक तक पहुँचाती है.</p>
<p>झाड़ कँटीले उग गए, मन के आँगन आज |</p>
<p>कैसे भावों पर सजें, अब फूलों के ताज ||</p>
<p>आज के इस भौतिकतावादी युग ने जहाँ रिश्ते-नातों से अधिक निज स्वार्थ का पोषण किया है. उसके कारण प्रत्येक व्यक्ति का मन दूषित हो गया है. ऐसे में चाहकर भी किसी के प्रति निर्मल भाव मन में ला पाना असंभव सा प्रतीत होता है. यही बात अपने दोहे में रेखा जी ने काँटे और फूलों को प्रतीक बनाकर कही है. इस संकलन में उनके अधिकाँश दोहे परिवार और समाज के कष्टों को आधार बनाकर रचे गए हैं.</p>
<p>मसल-मसल कर फेंक दी, नन्ही कालिका आज |त्रिभुवन पर होने लगा,अब रति पति का राज ||</p>
<p>मोबाइल ने छीन ली, रिश्तों से पहचान | अहसासों को छोड़कर, आभासों को मान ||</p>
<p>दोहा-संकलन के अंतिम दोहाकार के रूप में शकुन्तला अग्रवाल ‘शकुन’ जी के दोहों को स्थान मिला है. संकलन में दोहों को अंतिम स्थान मिलने का अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि उनके दोहे किसी अन्य दोहाकार के दोहों से कमतर हों. किसी न किसी के दोहों को तो अंत में स्थान पाना ही था. इनका स्वयं का एक दोहा-संग्रह प्रकाशित हो चुका है जबकि कई संकलनो में इनके दोहे प्रकाशित हुए हैं.</p>
<p>प्रस्तुत पुस्तक में इनके दोहों के प्रमुख विषय है प्रेम, पंछी, प्रकृति, परिवार और परमात्मा.</p>
<p>छेड़े मीठी तान जब, कोयलिया के गीत |</p>
<p>हम सबका नव वर्ष तो, तब आयेगा मीत ||</p>
<p>अंग्रेजी नव वर्ष पर शोर-शराबा करते युवाओं और उत्साहीजनों को उलाहना देता और सत्य से परिचित कराता यह दोहा पाठक को इस बात से भी परिचित कराता है की भारत में नव वर्ष वह होता है जब सारी प्रकृति नवीन परिधान पहने नजर आती है. वह ठण्ड से ठिठुरता मौसम नहीं होता. अन्य दोहे भी शकुन जी ने इतने ही सुन्दर रचे हैं.</p>
<p>अमरबेल सा नित बढे, खुदगर्जी का रोग | मन से मन के मेल का, कैसे हो संजोग ||</p>
<p>जग में पढता कौन अब, प्रेम भरे अध्याय | लगे गटकने हम सभी, धन-दौलत की चाय ||</p>
<p> इस संकलन की भूमिका वीरेंद्र कुमार लोढ़ा जी ने लिखी है. पुस्तक के मुख-पृष्ठ पर उनका नाम सह-संपादक के रूप में भी लिखा है. सम्पादक द्वारा अपने सम्पादकीय में उनके विषय में कुछ लिखा नहीं है किन्तु वीरेंद्र जी सह-सम्पादक हैं तो अवश्य ही उन्होंने भी पुस्तक के सम्पादन में महत्वपूर्ण योगदान दिया होगा.</p>
<p>कुल मिलाकर “टुकड़ा-टुकड़ा धूप” आज के समय का साहित्य जगत में श्रेष्ठ दोहा-संकलन है और हर कविता और छंद पसंद करने वाले पाठक को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए. मैं इस दोहा-संकलन के सम्पादक, सह-सम्पादक और सभी दोहाकारों को बहुत-बहुत बधाई देता हूँ और आशा करता हूँ कि यह पुस्तक अधिक से अधिक छंद-काव्य प्रेमियों तक पहुँचेगी.</p>
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<p>समीक्षक : अशोक कुमार रक्ताले,</p>
<p>54/40, राजस्व-कॉलोनी, फ्रीगंज,</p>
<p>उज्जैन-456010 (म.प्र.)</p>
<p>मो.-09827256343.</p>