Open Books Online2024-03-29T14:23:35Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadavhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991268086?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://www.openbooksonline.com/group/Baal_Sahitya/forum/topic/listForContributor?user=3twfteota4whi&feed=yes&xn_auth=noसोमू का संकल्प (बाल-कथा)tag:www.openbooksonline.com,2023-09-28:5170231:Topic:11102092023-09-28T10:49:51.579Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadav
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<p>सोमू तड़के ही उठ गया था। वैसे तो वह रोज ही सूरज उगने के पहले उठ जाता था, अपने नित्यकार्य से निवृत्त होकर स्कूल जाता था। पर आज तो छुट्टी थी, और छुट्टी के दिन उसकी सुबह की दिनचर्या कुछ अलग होती थी। वह अपने दोस्तों के साथ हाथ में कुछ खाली बोरियों को लेकर निकल पड़ता था और सड़क पर चलते हुए कचरा, पन्नी, थ्रेश इत्यादि बिनकर उपयुक्त कचरे के डिब्बे में डाल देता था।<br></br> उसको जब किसी ने पूछा, "बच्चे, तुम कचरा क्यों उठाते हो? यह कार्य तो नगर-निगम वालों का होता है।"<br></br> उसने तपाक से उत्तर दिया,…</p>
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<p>सोमू तड़के ही उठ गया था। वैसे तो वह रोज ही सूरज उगने के पहले उठ जाता था, अपने नित्यकार्य से निवृत्त होकर स्कूल जाता था। पर आज तो छुट्टी थी, और छुट्टी के दिन उसकी सुबह की दिनचर्या कुछ अलग होती थी। वह अपने दोस्तों के साथ हाथ में कुछ खाली बोरियों को लेकर निकल पड़ता था और सड़क पर चलते हुए कचरा, पन्नी, थ्रेश इत्यादि बिनकर उपयुक्त कचरे के डिब्बे में डाल देता था।<br/> उसको जब किसी ने पूछा, "बच्चे, तुम कचरा क्यों उठाते हो? यह कार्य तो नगर-निगम वालों का होता है।"<br/> उसने तपाक से उत्तर दिया, "अंकल जी, जब हम कचरा फैंक सकते हैं और सड़कों पर डाल सकते हैं तो उठाने की और सही जगह पर फैंकने की जिम्मेदारी भी तो हमारी ही होती है।" <br/> और यह कहते हुए वह आगे बढ़ गया। हँसता-खेलता बचपन ! पर इस उम्र में इतनी ज़िम्मेदारी! उस व्यक्ति की नज़र में आ गया था अपना सोमू। फिर क्या था, अक्सर वह सोनू से टकरा ही जाते थे। और धीरे-धीरे कब सोनू उनका अपने बेटे-सा हो गया पता ही न चला। <br/> आज अनंत चतुर्दर्शी थी, और सोनू से पता ही चल ही चुका था कि आज उसने एक नई मोहिम छेड़नी है। उससे बात करते हुए जो पता चला था आइए वो सब आपको भी बताता हूँ।<br/> सोमू के कहना था कि हम भगवान गणेश की प्रतिमा को गणेश चतुर्थी के दिन घरों में या झाँकियों को धाम-धूम से पधराते हैं और अनंत-चौदस तक उनकी पूजा-पाठ अर्चना-आराधना करते हैं। पर हम जब इनको विसर्जित करते हैं तब उसके बाद हम यह मान बैठते हैं कि हमारी पूजा सम्पन्न हुई। पर मेरे अनुसार यह पूर्णतः अधूरी है...।<br/> "अधूरी... वह कैसे?"<br/> सोमू ने कहा, " हम गणेश पूजन की सामग्री भी तो साथ लेकर जाते हैं। फूल-माला, रोली-चावल , भोग, नारियल इत्यादि। इन सब के बाद जो पन्नी बच जाती है, फूल माला जो इधर-उधर पड़ी मिलती हैं...बाबा रे! इतना सब कचरा हो जाता है कि..."<br/> "तो क्या तुम उसको भी उठाकर सफाई करने का काम करने की सोच रहे हो?"<br/> "जी हाँ अंकल जी। मेरी पूजा तो तभी पूरी होगी।" <br/> और यह कहते हुए वह अपने दोस्तों के साथ कब वहाँ से चला गया इस बात का एहसास ही नहीं हुआ। <br/> यही तो सही अर्थ में पूर्ण पूजा होती है। आपको क्या लगता है?</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित।<br/></p> कुकुभ छन्द,बादल दादा-दादी जैसेtag:www.openbooksonline.com,2021-06-04:5170231:Topic:10613272021-06-04T04:00:52.832Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadav
<p>बाल-कविता<br></br><br></br></p>
<p>श्वेत,सुनहरे,काले बादल,आसमान पर उड़ते हैं।<br></br>दादा-दादी के केशों से,मुझे दिखाई पड़ते हैं।।</p>
<p></p>
<p>मन करता बादल मुट्ठी में,भरकर अपने सहलाऊँ।<br></br>दादी के केशों से खेलूँ, सुख सारा ही पा जाऊँ।।</p>
<p></p>
<p>रिमझिम बरसा जब करते घन,नभ पर नाच रहे मानो।<br></br>दादी मेरी पूजा करके,जल छिड़काती यूँ जानो।।</p>
<p></p>
<p>काली-पीली आँधी आती,झर-झर बादल रोते हैं।<br></br>गुस्से में जब होती दादी,बिल्कुल वैसे होते हैं।।</p>
<p></p>
<p>दादी पर दादाजी मेरे,कभी जो बड़बड़ करते…</p>
<p>बाल-कविता<br/><br/></p>
<p>श्वेत,सुनहरे,काले बादल,आसमान पर उड़ते हैं।<br/>दादा-दादी के केशों से,मुझे दिखाई पड़ते हैं।।</p>
<p></p>
<p>मन करता बादल मुट्ठी में,भरकर अपने सहलाऊँ।<br/>दादी के केशों से खेलूँ, सुख सारा ही पा जाऊँ।।</p>
<p></p>
<p>रिमझिम बरसा जब करते घन,नभ पर नाच रहे मानो।<br/>दादी मेरी पूजा करके,जल छिड़काती यूँ जानो।।</p>
<p></p>
<p>काली-पीली आँधी आती,झर-झर बादल रोते हैं।<br/>गुस्से में जब होती दादी,बिल्कुल वैसे होते हैं।।</p>
<p></p>
<p>दादी पर दादाजी मेरे,कभी जो बड़बड़ करते हैं।<br/>उमड़-घुमड़ कर बड़े जोर से,बादल गड़गड़ करते हैं।।</p>
<p></p>
<p>जब भी खेलूँ आँख मिचौनी,साया घन सा चाहूँ मैं।<br/>दादी के आँचल में छुपकर,नजर कहीं ना आऊँ मैं।।</p>
<p></p>
<p>आसमान को वश में रखना,ज्यूँ बादल को आता है।<br/>दादा-दादी के साये में,रहना मुझको भाता है।।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित<br/><br/><br/><br/></p> करो उजागर प्रतिभा अपनीtag:www.openbooksonline.com,2021-05-31:5170231:Topic:10609772021-05-31T14:35:00.230Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadav
<p>प्रतिभा छुपी हुई है सबमें,करो उजागर,<br></br>अथाह ज्ञान,गुण, शौर्य समाहित,तुम हो सागर।</p>
<p><br></br>डरकर,छुपकर,बन संकोची,रहते क्यूँ हो?<br></br>मन पर निर्बलता की चोटें,सहते क्यूँ हो?</p>
<p></p>
<p>तिमिर चीर रवि द्योत धरा पर ले आता है।<br></br>अंधकार से डरकर क्यूँ नहीं छिप जाता है?</p>
<p><br></br>पराक्रमी राहों को सुलभ सदा कर देते,<br></br>आलस प्रिय जिनको,बना बहाने ही लेते।</p>
<p></p>
<p>तंत्र,मन्त्र,ज्योतिष विद्या,कर्मठ के संगी,<br></br>भाग्य भरोसे जो बैठे वो सहते तंगी।</p>
<p><br></br>प्रबल भुजाओं को खोलो,प्रशंस्य…</p>
<p>प्रतिभा छुपी हुई है सबमें,करो उजागर,<br/>अथाह ज्ञान,गुण, शौर्य समाहित,तुम हो सागर।</p>
<p><br/>डरकर,छुपकर,बन संकोची,रहते क्यूँ हो?<br/>मन पर निर्बलता की चोटें,सहते क्यूँ हो?</p>
<p></p>
<p>तिमिर चीर रवि द्योत धरा पर ले आता है।<br/>अंधकार से डरकर क्यूँ नहीं छिप जाता है?</p>
<p><br/>पराक्रमी राहों को सुलभ सदा कर देते,<br/>आलस प्रिय जिनको,बना बहाने ही लेते।</p>
<p></p>
<p>तंत्र,मन्त्र,ज्योतिष विद्या,कर्मठ के संगी,<br/>भाग्य भरोसे जो बैठे वो सहते तंगी।</p>
<p><br/>प्रबल भुजाओं को खोलो,प्रशंस्य बनो,<br/>राष्ट्रप्रेम हित योगदान का तुम भी अंश बनो।</p>
<p></p>
<p>निश्शंक होय बढ़ते जो,मंजिल पाते हैं।<br/>वो अपने बल-बूते पर अव्वल आते हैं।</p>
<p><br/>परिचय श्रेष्ठ बनाना हो तो,आगे आओ,<br/>वरना दूजों के बस सम्बन्धी कहलाओ।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p><br/><br/></p> #लावणी छन्द,पर्यायवाची शब्द याद करने का आसान उपायtag:www.openbooksonline.com,2021-05-03:5170231:Topic:10596022021-05-03T09:35:20.289Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadav
<p><br></br>फूल,कुसुम या पुष्प,सुमन हो,<br></br>चन्दन,मलयज,मलयोद्भव।<br></br>आराधन,पूजा,उपासना,<br></br>कृष्ण,मुरारी,मधु,माधव।</p>
<p>कृपा,दया,अनुग्रह,करुणा की,<br></br>चाह,कामना,अभिलाषा।<br></br>अम्बा,दुर्गा,देवी,मैया,<br></br>सरस्वती,वाणी,भाषा।</p>
<p>लक्ष्मी,कमला,रमा,मंगला,<br></br>गणपति,शिवसुत भी आओ,<br></br>आंजनेय,बजरंगबली,हनु,<br></br>धन,दौलत,संपत्ति लाओ।</p>
<p>सुरतरंगिणी,सुरसरि,गंगा,<br></br>जैसे स्नेहस,घी,घृत है।<br></br>नद,सरि,सरिता,नदी,आपगा,<br></br>अमिय,सुधा,मधु,अमृत है।</p>
<p>सागर,अर्णव,जलनिधि,वारिधि,<br></br>व्योम,गगन,अम्बर,नभ भी।…<br></br></p>
<p><br/>फूल,कुसुम या पुष्प,सुमन हो,<br/>चन्दन,मलयज,मलयोद्भव।<br/>आराधन,पूजा,उपासना,<br/>कृष्ण,मुरारी,मधु,माधव।</p>
<p>कृपा,दया,अनुग्रह,करुणा की,<br/>चाह,कामना,अभिलाषा।<br/>अम्बा,दुर्गा,देवी,मैया,<br/>सरस्वती,वाणी,भाषा।</p>
<p>लक्ष्मी,कमला,रमा,मंगला,<br/>गणपति,शिवसुत भी आओ,<br/>आंजनेय,बजरंगबली,हनु,<br/>धन,दौलत,संपत्ति लाओ।</p>
<p>सुरतरंगिणी,सुरसरि,गंगा,<br/>जैसे स्नेहस,घी,घृत है।<br/>नद,सरि,सरिता,नदी,आपगा,<br/>अमिय,सुधा,मधु,अमृत है।</p>
<p>सागर,अर्णव,जलनिधि,वारिधि,<br/>व्योम,गगन,अम्बर,नभ भी।<br/>पर्वत,अचल,शैल,नग,भूधर,<br/>पूज्य,मान्य,श्रद्धेय सभी।</p>
<p>भूतल,धरती,वसुधा पर जब,<br/>भानु,अरुण,दिनकर चमके,<br/>जग,महितल,दुनिया,भुव सारा,<br/>चारु,रम्य,सुंदर दमके।</p>
<p>बरखा,वर्षा,बारिश,वृष्टि,<br/>पवन,तनून,हवा बहती।<br/>लता,वल्लरी,बेल झूम कर,<br/>वृक्ष,विटप,तरु पर रहती।</p>
<p>बादल,बदरा,मेघ,पयोधर,<br/>पानी,नीर,सलिल भाये।<br/>मछली,जलचरी,मत्स्य ,मीन अरु,<br/>मंडुक, मेंढक,प्लव आये।</p>
<p>आम,रसाल,आम्र,अमृतफल,<br/>कमल,जलज,पंकज खिलते,<br/>कोकिल,कोयल,पिक,मधुगायन,<br/>उषा,भोर सुनने मिलते।</p>
<p>मुनि,सन्यासी,तपसी,योगी,<br/>विज्ञ,बुद्ध,पंडित,ज्ञानी।<br/>गुरु,शिक्षक,व्याख्याता सारे,<br/>ब्रह्म,ईश,अंतर्यामी।</p>
<p>माँ,जननी,माता,धात्री,जा,<br/>जनक,पिता,पितु,दयिता ने।<br/>अंतःकरण,हृदय,मन,मानस,<br/>शुद्ध किया वधु,वनिता ने।</p>
<p>पुत्र,तनय,सुत,नंदन,बेटा,<br/>आँख,नयन,चख का तारा।<br/>सुता,स्वजा,बिटिया,तनुजा से,<br/>हर्षित,मुदित ये जग सारा।</p>
<p>तात,बंधु,भ्राता,भाई अरु,<br/>अंतरंग,साथी,सहचर।<br/>प्रेम,प्यार,अनुराग,प्रीति से,<br/>महके सदन,भवन,गृह,घर।</p>
<p>पठन,पढ़ाई,परिशीलन से,<br/>बुद्धि,चेतना,मति जागे।<br/>हो विख्यात,यशस्वी सारे,<br/>कदम बढ़ाओ सब आगे।</p>
<p>अनुनय,विनती,विनय,प्रार्थना,<br/>छात्र,शिष्य,अध्येता से।<br/>'शुचि' रचना से लाभ उठाओ,<br/>याद करो सब दृढ़ता से।</p>
<p><br/><br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p> अब मै नहीं चिढूंगाtag:www.openbooksonline.com,2020-09-29:5170231:Topic:10212992020-09-29T06:57:51.066Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadav
बाल कहानी<br />
*अब मैं नहीं चिढूंगा*<br />
.. डॉ सोमनाथ यादव "सोम"<br />
<br />
आज फिर कक्षा में<br />
सहपाठियों ने अनिल की हंसी उड़ाई,अनिल का कसूर इतना ही था कि आज वह पिकनिक पर जाने के लिए रुपए जमा नहीं कर सका और एक बार फिर जमा कर देने के लिए कहा गया,अनिल को आज बड़ा बुरा लगा,अपने पिता पर भी गुस्सा आ रहा था,वह सोच रहा था कि अगर उसके पिता गरीब न होते तो उसकी बार बार हंसी नहीं उड़ाई जाती।<br />
हालाकि सोमेश ने भी रुपए जमा नहीं किए थे,मगर कक्षा में उसकी हंसी नहीं उड़ाई गई,सभी लड़के जानते थे कि सोमेश के उपर मजाक का कोई असर नहीं होता…
बाल कहानी<br />
*अब मैं नहीं चिढूंगा*<br />
.. डॉ सोमनाथ यादव "सोम"<br />
<br />
आज फिर कक्षा में<br />
सहपाठियों ने अनिल की हंसी उड़ाई,अनिल का कसूर इतना ही था कि आज वह पिकनिक पर जाने के लिए रुपए जमा नहीं कर सका और एक बार फिर जमा कर देने के लिए कहा गया,अनिल को आज बड़ा बुरा लगा,अपने पिता पर भी गुस्सा आ रहा था,वह सोच रहा था कि अगर उसके पिता गरीब न होते तो उसकी बार बार हंसी नहीं उड़ाई जाती।<br />
हालाकि सोमेश ने भी रुपए जमा नहीं किए थे,मगर कक्षा में उसकी हंसी नहीं उड़ाई गई,सभी लड़के जानते थे कि सोमेश के उपर मजाक का कोई असर नहीं होता है।कक्षा से बाहर निकलते समय अनिल काफी उदास था,अनिल को उदास देखकर सोमेश ने पूछा _ इतने उदास क्यों हो मित्र ? सोमेश की बात सुनकर अनिल ने सोचा कि सब कुछ जानते हुए भी सोमेश उससे उसकी उदासी का कारण पूछ रहा है,जरूर वह भी उसका मजाक बना रहा है,इस कारण उसने कोई जवाब नहीं दिया और अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया।<br />
सोमेश सब कुछ समझ गया। उसने कहा _ मित्र, जरा जरा सी बात में नाराज नहीं होते यह सब कुछ तो चलता ही रहता है,इसे भूल कर हंसते खेलते अपने घर जाओ,अनिल कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप चला गया। घर आकर अनिल ने कोहराम मचा दिया,उसने अपने पिता जी से कहा कि उसे हर कीमत में रुपए चाहिए,चाहे वह रुपए कही से भी लाए।अनिल के पिता मनहरण लाल काफी गरीब थे वह बड़ी मुश्किल से अनिल को पढा़ पा रहा था।अनिल की जिद ने उन्हें चिंता में डाल दिया,काफी सोच विचार करने के बाद किशन लाल सेठ के पास पहुंचे,किशन लाल समान गिरवी रखकर पैसा दिया करता था।मनहरण लाल ने घर से लाए समान सेठ के पास गिरवी रख रुपए ले लिए।<br />
रुपए पाकर अनिल बड़ा खुश हुआ,वह सोचने लगा कि अब वह अपने कक्षा के छात्रों की बोलती बन्द कर देगा,वह भी पिकनिक पर जाएगा। अगले दिन स्कूल के बाहर उसे सोमेश मिल गया । अनिल ने सोमेश से पूछा क्यों सोमेश क्या तुम पिकनिक पर जाओगे? सोमेश ने जवाब दिया, नहीं मित्र, में नहीं जाऊंगा। मगर मैं तो जाऊंगा जमा करने के लिए रुपए भी लाया हूं अनिल बोला। लेकिन तुम्हारे पास अचानक पैसा कहा से आ गया? सोमेश ने पूछा।पिता जी ने दिया है, अनिल बोला । सोमेश समझ गया कि अनिल के पिता कही से उधार लेकर पैसा लाए होंगे? सोमेश ने अनिल से कहा अनिल, तुमने पैसा लेते समय यह सोचा कि तुम्हारे पिता जी पैसा कहा से लाए है? अनिल ने कहा, नहीं सोचा, मुझे पिकनिक में जाना जरूरी है,कक्षा में सभी लड़के मेरे गरीबी का मजाक उड़ाते है,अब मै पैसा जमा कर दूंगा तो मेरा मजाक नहीं बनाएंगे। ऐसा कब तक होगा? सोमेश ने उसे समझाया , देखो अनिल,मजाक से कभी घबराना,डरना नहीं चाहिए,जो लोग तुम्हारी गरीबी का मजाक बनाते है,शायद उन्हें यह भी नहीं मालूम कि उनसे भी ज्यादा अमीर लोग मौजूद है,और शायद तुम्हें भी यह नहीं मालूम कि तुमसे ज्यादा गरीब लोग मौजूद हैं।गरीब होना बुरी बात नहीं है,आज तुम गरीब हो अगर मेहनत से पढोगे,लिखोगे तो कल तुम भी अमीर बन सकते हो। तुम अपने ऊपर मजाक से चिढ़ते क्यो हो? इतना कहकर सोमेश ने अनिल की ओर देखा,उसे लगा कि अनिल के ऊपर उसकी बात का असर हो रहा है। कुछ देर चुप रहने के बाद पुनः फिर से कहा, अनिल अगर तुम्हे अपने मित्रो से होड़ करनी है तो पढ़ाई में करो,तुम अच्छे नंबर पाकर उनके मजाक का उत्तर दो,तुम बेकार में चिढ़ते हो, मै भी गरीब हूं वे लोग भी मेरा मजाक उड़ाते थे मगर मै चिढ़ता ही न था,इसलिए उन लोग मेरा मजाक उड़ाना बन्द कर दिये। याद रखो कि जो जितना ज्यादा चिढ़ेगा लोग उसको उतना ही ज्यादा चिढ़ायेंगे । सोमेश की बात सुनकर अनिल सोच में डूब गया,उसे लगा कि वह कितनी बड़ी गलती कर रहा था, उसने सोमेश से कहा , तुम ठीक कहते हो मित्र, मजाक उड़ाने का सिलसिला तो अंतहीन है,कब तक मै उनकी बराबरी कर पाऊंगा? आम मै भी मजाक उड़ाए जाने पर खामोश रहा करूंगा,और अच्छे नंबरों से पास होकर उनके मजाक का करारा जवाब दूंगा।<br />
इतने में स्कूल की घंटी बज उठी , दोनों कक्षा में जा पहुंचे। आज फिर अनिल का नाम पुकारा गया उसने बड़ी दृढ़ता पूर्वक जवाब दिया कि वह पिकनिक पर नहीं जाएगा,कक्षा में हंसी का ठहाका गूंज उठा, तरह तरह की आवाजें आने लगीं,मगर अनिल शांत बैठा रहा। कुछ दिनों परीक्षा चालू हो गई,सभी विद्यार्थी परीक्षा में लग गए।<br />
तिवारी सर परिणाम बताने कक्षा में प्रवेश किये,सभी विद्यार्थी शांत हो गए। तिवारी सर सभी छात्रों का एक एक नाम पुकार रहे थे तथा परीक्षा परिणाम बता रहे थे तभी अनिल का नाम तिवारी सर पुकारे, यस सर कहकर अनिल खड़ा हुआ,तिवारी सर उसे बधाई देते हुए कहा, तुम प्रथम श्रेणी से पास हुए हो। उसने सोमेश की तरफ देखा सोमेश इशारे से बधाई देते हुए मुस्कुरा दिया,उसे मुस्कुराते देख बाकी लड़के खामोश हो गए।<br />
*डॉ सोमनाथ यादव "सोम"*<br />
1, प्रेस क्लब भवन,<br />
बिलासपुर (छत्तीसगढ़) अनूठा जन्मदिन ( बाल कहानी )tag:www.openbooksonline.com,2019-07-31:5170231:Topic:9893622019-07-31T13:30:47.281Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadav
<p>अनूठा जन्मदिन <br></br> ***************</p>
<p>पाखी आज बहुत खुश थी । स्कूल से आई और बैग एक ओर पटककर सीधे रसोई में जाकर चिल्लाई - " माँ ... माँ ..."<br></br> " क्या हुआ , इतनी क्यों चहक रही है ? माँ ने मुस्कुराते हुए पूछा ।<br></br> " माँ , आज मेरी कक्षा के एक मित्र विभु का जन्मदिन है , और उसने हमारी कक्षा के सभी मित्रों को घर पर पार्टी में बुलाया है ।"<br></br> " ओह ! तो ये खुशी जन्मदिन की पार्टी की है । " माँ ने गाल पर हलकी सी चपत लगाते हुए कहा ।<br></br>
" हाँ माँ ..." कहते हुए वह माँ से लिपट गई ।<br></br>
"…</p>
<p>अनूठा जन्मदिन <br/> ***************</p>
<p>पाखी आज बहुत खुश थी । स्कूल से आई और बैग एक ओर पटककर सीधे रसोई में जाकर चिल्लाई - " माँ ... माँ ..."<br/> " क्या हुआ , इतनी क्यों चहक रही है ? माँ ने मुस्कुराते हुए पूछा ।<br/> " माँ , आज मेरी कक्षा के एक मित्र विभु का जन्मदिन है , और उसने हमारी कक्षा के सभी मित्रों को घर पर पार्टी में बुलाया है ।"<br/>
" ओह ! तो ये खुशी जन्मदिन की पार्टी की है । " माँ ने गाल पर हलकी सी चपत लगाते हुए कहा ।<br/>
" हाँ माँ ..." कहते हुए वह माँ से लिपट गई ।<br/>
" अच्छा बाबा अच्छा... चली जाना , पर पहले 'यूनिफार्म' बदलकर हाथ-मुँह तो धोकर आ ... तब तक मैं तेरे लिए खाना लगा देती हूँ । "<br/>
" ठीक है माँ ..."<br/>
भोजन करने के बाद पाखी बिस्तर पर थोड़ा आराम करने को लेटी तो पार्टी में जाने की खुशी में नींद भी नहीं आ रही थी ।उसकी नज़रें सामने दीवार पर टँगी घड़ी पर ही टिकी हुई थीं कि कब पाँच बजे और वह तैयार होकर अपने मित्र के घर पार्टी में जाये , केक खाये और ख़ूब नाचे । सोचते-सोचते आखिर पाखी को नींद आ ही गई । <br/>
" पाखी... ओ पाखी ... सोती रहेगी क्या ? दोस्त की पार्टी में नहीं जाना तुझे ? " माँ पाखी को हिलाते हुए बोलीं ।<br/>
" पार्टी शब्द सुनते ही पाखी जल्दी से उठ बैठी । आँखें मलते हुए बोली , " हाँ माँ , मैं बस अभी तैयार होती हूँ । "<br/>
" पाखी माँ के सामने तैयार होकर आई तो माँ ने उसके गाल पर प्यार करते हुए कहा , " बड़ी सुंदर लग रही है मेरी बेटी , नज़र न लगे किसी की । जा बाहर तेरा भाई गाड़ी 'स्टार्ट' कर कब से इंतज़ार कर रहा है । और सुन ... समय से आ जाना । ज़्यादा देर मत करना । " <br/>
" ठीक है माँ ..." वह दौड़कर बाहर निकल गई । मित्र का घर उसके घर से बहुत अधिक दूर नहीं था । वे पाँच मिनिट में ही पहुँच गए । <br/>
विभु के सभी मित्र आ चुके थे । पाखी ने एक नज़र पूरे कमरे में दौड़ाई , ये देखने के लिए कि उसके मित्र ने अपना जन्मदिन मनाने वाला कमरा किस तरह सजाया है , परन्तु वह देखकर आश्चर्यचकित हो गई कि किसी भी दीवार पर न तो बैलून टँगे थे और न ही रंगीन झालरें । जैसे कि सभी जन्मदिन पार्टी में होता है । इसकी जगह दीवारों पर हरे-भरे पेड़-पौधों के चित्र लगे हुए थे । जीव-जंतुओं के चित्रों की कटिंग काटकर चिपकाई गई थी । कुछ पोस्टर भी थे जिन पर हाथ से रंगीन अक्षरों में कुछ सन्देश लिखे हुए थे । पाखी ने एक-एक कर संदेशों को पढ़ना शुरू किया - <br/>
" हमने अब यह ठाना है , जीवों को बचाना है ।"<br/>
" जंतुओं की जब करोगे रक्षा , तभी होगी पर्यावरण की सुरक्षा । "<br/>
" प्रकृति की रक्षा है देश की रक्षा । "<br/>
" धरती माँ का करो सम्मान , यह है हमारी जान । "<br/>
पाखी से रहा न गया तो वह विभु के पास जाकर पूछ बैठी , " आज तो तुम्हारा जन्मदिन है न , फिर तुमने घर को बैलून , सितारों से क्यों नहीं सजाया ? "<br/>
" पाखी , पहले ये बताओ , क्या तुम्हें ये सजावट अच्छी नहीं लगी ?"<br/>
" हाँ , लगी तो ... परन्तु जन्मदिन पर भी कोई ऐसे घर को सजाता है ? " <br/>
" हा हा हा ... तुम्हारे आने से पहले ये सभी दोस्त भी यही प्रश्न कर रहे थे । अच्छा पाखी ये बताओ , परसों हमारी हिन्दी की अध्यापिका ने कक्षा में क्या समझाया था ? "<br/>
" क्या समझाया था ? " <br/>
" यही न कि पेड़ कटते जा रहे हैं , जिससे बारिश होना कम हो गई है । जंगल न रहने से जीव-जंतुओं जैसे शेर , चीता , हिरण आदि को रहने के लिए घर नहीं मिलता है , इसलिए कभी-कभी वे भटकते हुए शहर में भी आ जाते हैं । "<br/>
" हाँ याद आया । ये भी कहा था , अगर हमने अभी भी प्रकृति को बचाना शुरू नहीं किया तो बढ़ते प्रदूषण के कारण मनुष्य का जीवित रहना भी मुश्किल हो जाएगा । "<br/>
" हाँ तो अब समझ गई न , मैंने ये सब क्यों किया ? "<br/>
" हम्म... बहुत अच्छे से , परन्तु अभी भी एक बात समझ नहीं आई । इस तरह तुम क्या दिखाना चाहते हो ? "<br/>
" पाखी , मैं सबको सन्देश देना चाहता हूँ बस और कुछ नहीं। आज मेरी कक्षा के मित्रों के अलावा और भी मित्र आये हैं , रिश्तेदार आये हैं । वे सब इसे देखेंगे , पढ़ेंगे तो उनके भीतर से आवाज़ जरूर आएगी कि एक पेड़ लगाना इतना भी मुश्किल नहीं । यदि सब इससे प्रेरणा लेकर एक-एक पेड़ भी लगायेंगे तो फिर इस धरती को हरा-भरा होने से कोई न रोक पायेगा । "<br/>
" हूँ... बिल्कुल सही कहा विभु । अभी बारिश का मौसम है । मेरी माँ कहती है कि पौधे लगाने का यह सही समय है । मैंने सोच लिया है , अब मैं भी एक पेड़ अवश्य लगाऊँगी । "<br/>
" हम भी लगायेंगे , हम भी लगायेंगे ... "सभी मित्रों का एक साथ स्वर गूँजा । फिर सबने तालियाँ बजा-बजाकर अपनी सहमति दी । <br/>
" मुझे पता था मेरे सभी मित्र मेरी सोच में मेरा साथ देंगे , इसीलिए मैंने 'रिटर्न गिफ़्ट' के लिए पहले ही ढेर सारे पौधे खरीद लिए हैं ।" विभु ने एक कोने में रखे पौधों की ओर इशारा करते हुए कहा । <br/>
" अरे वाह ! " सबने खुशी से जोरदार तालियाँ बजाई ।<br/>
" अरे विभु ! बातें ही करते रहोगे कि केक भी काटोगे ? " माँ ने हँसते हुए कहा ।<br/>
" हाँ माँ , क्यों नही । " <br/>
विभु केक काट रहा था और उसके मित्र इस अनूठे जन्मदिन पर अपने मित्र और मित्रता पर गर्व करते हुए तालियाँ बजाते हुए गा रहे थे , " बार-बार ये दिन आये ... बार-बार ये दिल गाये ... तुम जियो हज़ारों साल ... ये मेरी है आरज़ू ..."<br/>
***************************************<br/>
मौलिक , स्वरचित एवम अप्रकाशित</p> चुन्नी की बाजीजान (बाल-कविता)tag:www.openbooksonline.com,2019-06-03:5170231:Topic:9857132019-06-03T04:19:28.780Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadav
<p>कबूतर बाजी आ गईं<br></br>बालकनी पर बैठ गईं।</p>
<p></p>
<p>लू-लपटें चल रहीं<br></br>आसरा वो ढूंढ रहीं।</p>
<p></p>
<p>कबूतर बाजी अंदर आईं<br></br>फ्लैट पूरा जब घूम आईं।</p>
<p></p>
<p>मिला न कोई अड्डा मन का<br></br>पंखों से था ख़तरा तन का।</p>
<p></p>
<p>कौने में दुबक कर बैठ गईं<br></br>जैसे-तैसे प्राण बचा पाईं।</p>
<p></p>
<p>चुन्नी ने पंखे ऑफ़ किये<br></br>कबूतरनी के फोटो लिये।</p>
<p></p>
<p>सेल्फ़ी भी ख़ूब ली गईं<br></br>खाना-पानी ही भूल गईं।</p>
<p></p>
<p>रात जब होने को आई<br></br>चुन्नी को अब याद…</p>
<p>कबूतर बाजी आ गईं<br/>बालकनी पर बैठ गईं।</p>
<p></p>
<p>लू-लपटें चल रहीं<br/>आसरा वो ढूंढ रहीं।</p>
<p></p>
<p>कबूतर बाजी अंदर आईं<br/>फ्लैट पूरा जब घूम आईं।</p>
<p></p>
<p>मिला न कोई अड्डा मन का<br/>पंखों से था ख़तरा तन का।</p>
<p></p>
<p>कौने में दुबक कर बैठ गईं<br/>जैसे-तैसे प्राण बचा पाईं।</p>
<p></p>
<p>चुन्नी ने पंखे ऑफ़ किये<br/>कबूतरनी के फोटो लिये।</p>
<p></p>
<p>सेल्फ़ी भी ख़ूब ली गईं<br/>खाना-पानी ही भूल गईं।</p>
<p></p>
<p>रात जब होने को आई<br/>चुन्नी को अब याद आई।</p>
<p></p>
<p>भोजन-पानी भर कटोरी<br/>पास कबूतरनी रख आईं।</p>
<p></p>
<p>बड़े सबेरे दुपट्टा फैंका<br/>कबूतरनी पकड़ न पाईं।</p>
<p></p>
<p>पंख ताक़त से फड़फड़ाकर<br/>कबूतर बाजी अब उड़ पाईं।</p>
<p></p>
<p>नज़र गई दरवाज़े पर जब<br/>ठंडी हवा में वो भाग पाईं।</p>
<p></p>
<p>चुन्नी खड़ी हो बालकनी पर<br/>टाटा कर वीडियो बना रहीं।</p>
<p></p>
<p>कबूतर बाजी गोते लगाकर<br/>साथियों संग अब उड़ती रहीं।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)<br/>शेख़ शहज़ाद उस्मानी<br/>शिवपुरी (मध्यप्रदेश)<br/>[03 जून, 2019]</p> 'अब तुम्हारे हवाले ... बहिनों' ( संस्मरण)tag:www.openbooksonline.com,2019-01-20:5170231:Topic:9701732019-01-20T10:37:37.635Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadav
<p>उन दोनों की मैं बहुत शुक्रगुजार हूं। बताऊं क्यूं? क्योंकि इस बार के गणतंत्र दिवस में उन दोनों ने मुझे भी अपने साथ शामिल कर ही लिया। जिस तरह उन दोनों को सजाया-संवारा गया, राष्ट्रीय ध्वज से गौरवान्वित किया गया; उसी तरह मुझे भी! उन दोनों को गुड्डू ही चलाता है। मुझे तो केवल उसके अब्बूजान 'मिर्ज़ा साहिब' ही कभी-कभार चलाते हैं। लेकिन घर के अन्य सदस्यों के इरादों के विपरीत उन दोनों ने मुझे न तो किसी को बेचने की बात सोची और न ही किसी को दी। एक बार तो एक कबाड़ी के सामने मेरी बोली लगाई गई! लेकिन सात…</p>
<p>उन दोनों की मैं बहुत शुक्रगुजार हूं। बताऊं क्यूं? क्योंकि इस बार के गणतंत्र दिवस में उन दोनों ने मुझे भी अपने साथ शामिल कर ही लिया। जिस तरह उन दोनों को सजाया-संवारा गया, राष्ट्रीय ध्वज से गौरवान्वित किया गया; उसी तरह मुझे भी! उन दोनों को गुड्डू ही चलाता है। मुझे तो केवल उसके अब्बूजान 'मिर्ज़ा साहिब' ही कभी-कभार चलाते हैं। लेकिन घर के अन्य सदस्यों के इरादों के विपरीत उन दोनों ने मुझे न तो किसी को बेचने की बात सोची और न ही किसी को दी। एक बार तो एक कबाड़ी के सामने मेरी बोली लगाई गई! लेकिन सात सौ रुपए में सौदा तय न हो पाने पर मैं कबाड़ख़ाने में जाने से बच गई। उस दिन के बाद पता नहीं क्या हुआ; गुड्डू के अब्बूजान अतीत की बातें याद कर इतने भावुक हुए कि मुझे नहला धुलाकर मेरी मरम्मत करा कर मुझे सुबह-शाम चला कर व्यायाम करने लगे। नतीज़ा यह हुआ कि गुड्डू ने भी मुझ पर फिर से अपना प्यार बरसाना शुरू कर दिया।<br/>उसकी तरह आख़िर मुझे भी याद है कि किस तरह मिर्ज़ा साहिब नन्हे गुड्डू को मेरे हैंडिल पर टंगी डोलची में बिठा कर घुमाने ले जाते थे। थोड़ा बड़ा होने पर मेरे सीट वाले डंडे पर बाल-सीट में गुड्डू को स्कूल, बाज़ार, हर जगह ले जाया जाता था। वे गोल्डन दिन न तो मैं भूल सकती हूं और न ही गुड्डू और उसके अब्बूजान।<br/>मैं जानती हूं कि वक़्त के साथ नये ज़माने की साइकलों का दौर शुरू होते ही मेरी गिनती "एन्टीक़" वस्तुओं में होने लगी और गुड्डू के लिए आधुनिक साइकलें बारी-बारी से मिर्ज़ा साहिब को ख़रीदनी ही पड़ी। अब तो वह गिअर वाली साइकल ही चलाता है नई बनी चिकनी सड़कों पर। मैं कभी घर के स्टोर-रूम में, तो कभी गोदाम में बांधी गई। लेकिन मिर्ज़ा साहिब मुझे अक्सर याद करते रहते और कभी न कभी मुझे उपयोग में लाते ही। ख़ासकर तब जब उनके स्कूटर का पेट्रोल ख़त्म हो जाता या जब उन्हें अपनी तोंद कम करने की फ़िक्र होने लगती!<br/>ख़ैर, इस बार के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर गुड्डू के कहने पर ही मुझे भी नहलाया-धुलाया गया। तिरंगे फ़ीतों और झंडों से मैं भी गौरवान्वित हुई। दरअसल उस दिन मिर्ज़ा साहिब ने गुड्डू को पुराने एलबम में मुझ पर सवारी करते नन्हे गुड्डू की ढेर सारी सुंदर फोटो दिखाईं थीं। तो यह तय हुआ कि स्कूल से लौट कर अपनी-अपनी साइकलों से छब्बीस जनवरी की परेड देखने तात्यांटोपे मैदान जायेंगे और वहां से वीर सावरकर पार्क घूमने जायेंगे। सो घर की तीनों साइकलें पहले से ही तैयार कर लीं गईं थीं। गणतंत्र दिवस के दिन गिअर वाली बड़ी साइकल गुड्डू ने चलाई, छोटी वाली साइकल उसके पड़ोसी दोस्त गोविंद ने और एन्टीक़ साइकल मिर्ज़ा साहिब ने ख़ुद चलाई। भीड़भाड़ से और ट्रैफ़िक से बचने के लिए गलियों से होते हुए शॉर्ट-कट से वे लोग परेड मैदान में पहुंचे। बड़ा मज़ा आया। गुड्डू के और मिर्ज़ा साहिब के दोस्त उन्हें और हमें बड़े आश्चर्य और दिलचस्पी से देख रहे थे। मैं किसी नई साइकल से कम सुंदर नहीं लग रही थी। आख़िर घर पर मेरी भी बराबर देखभाल करते थे मिर्ज़ा साहिब और उनका लाड़ला बेटा 'गुड्डू'! <br/>उस समय की ख़ुशी मैं बयान नहीं कर सकती, जब मिर्ज़ा साहिब ने खुले दिल से सबके सामने मेरी बढ़िया सेहत और बढ़िया परफोर्मेंस की तारीफ़ की और गुड्डू ने भी मुझे कुछ देर चलाया अपने दोस्त को डंडे में बिठा कर। मुझे लगा कि यह वही नन्हा गुड्डू है, जिसे मिर्ज़ा साहिब मुझ पर बिठा कर घुमाने ले जाया करते थे। घर लौट कर वापस मुझे घर की गैलरी में बांध कर भले रख दिया गया, लेकिन मुझे इस बात का संतोष और ख़ुशी है कि मैं आज भी इस प्यारे से परिवार की बहुमूल्य पुरानी सम्पत्ति यानी "एन्टीक़ कलेक्शन" में शामिल हूं, समय-समय पर मेरा सदुपयोग किया जाता है बेचने के बजाय। बस अपनी दोनों साइकल बहिनों से यही कहती हूं कि "अब तुम्हारे हवाले इनकी सवारी और व्यायाम बहिनों !"</p>
<p></p>
<p>(मौलिक, अप्रसारित व अप्रकाशित)<br/><br/></p> जुगत (बाल-लघुकथा/बाल-कहानी)tag:www.openbooksonline.com,2018-12-27:5170231:Topic:9670712018-12-27T18:32:30.792Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadav
<p>गुड्डू, गोविंद और गोपी तीनों अलग अलग कक्षाओं के थे और तीनों दोस्त भी नहीं थे। स्कूल में आज फिर वे तीनों न तो मध्यान्ह अवकाश में अपना मनपसंद गेम खेल पाये थे और न ही इस समय खेल के पीरियड में उन्हें उनकी कक्षा के साथियों ने अपने साथ किसी खेल में शामिल किया था। </p>
<p>अचानक गुड्डू के मन में कुछ सूझा। अपने-अपने खाली टिफ़िन के साथ वह उन दोनों को शौचालय के पास के छोटे मैदान की ओर ले गया। खो-खो के खेल की तरह तीनों अपने-अपने टिफ़िन लेकर एक पंक्ति में उकड़ू बैठ गये। अंतिम छोर पर बैठे गुड्डू ने अपने…</p>
<p>गुड्डू, गोविंद और गोपी तीनों अलग अलग कक्षाओं के थे और तीनों दोस्त भी नहीं थे। स्कूल में आज फिर वे तीनों न तो मध्यान्ह अवकाश में अपना मनपसंद गेम खेल पाये थे और न ही इस समय खेल के पीरियड में उन्हें उनकी कक्षा के साथियों ने अपने साथ किसी खेल में शामिल किया था। </p>
<p>अचानक गुड्डू के मन में कुछ सूझा। अपने-अपने खाली टिफ़िन के साथ वह उन दोनों को शौचालय के पास के छोटे मैदान की ओर ले गया। खो-खो के खेल की तरह तीनों अपने-अपने टिफ़िन लेकर एक पंक्ति में उकड़ू बैठ गये। अंतिम छोर पर बैठे गुड्डू ने अपने क्षेत्र के कंकड़ पत्थर बीने। बीच में बैठे गोविंद ने अपने क्षेत्र के और शौचालय की तरफ़ के क्षेत्र के कंकड़-पत्थर गोपी ने बीने। फिर तीनों ने गत्ते के एक बड़े से डब्बे में अपने-अपने टिफ़िन उड़ेल दिये।</p>
<p>अब गोविन्द के मन में कुछ सूझा। उसकी सलाह पर वे तीनों शौचालय के आसपास की खर-पतवार और फ़ालतू नुकसानदायक पौधे-झांड़ियां उखाड़ने लगे। कुछ ही समय में शौचालय के आसपास स्वच्छता और अधिक जगह दिखाई देने लगी। दूर धूप में बैठी एक चपरासी आंटी यह सब देख रहीं थीं। उन्होंने एक महिला शिक्षक को सारी बात बतायी और फिर वे दोनों उन तीनों बच्चों के पास पहुंची। गुड्डू ने उन्हें खो-खो, क्रिकेट, फुटबॉल और हैंडबॉल खेलने वाले विद्यार्थियों के उनके प्रति उपेक्षापूर्ण रवैए के बारे में बताते हुए उन तीनों के खेल के इस अंदाज़ के बारे में बताते हुए कहा - "देखिए, अब यहां आने में कोई लड़की नहीं डरेगी। यहां भी हम खो-खो या कबड्डी खेल सकेंगे। चपरासी आंटी शर्मिंदा सी हो गईं। उनका काम इन बच्चों ने कर दिखाया था। शिक्षिका उन तीनों को प्राचार्य महोदया के पास ले गईं, जहां उन्हें न केवल शाबासी मिली, बल्कि खेल शिक्षक को बुलवाकर अगले सप्ताह के लिए उन्हें हैंडबॉल दिये जाने की अनुमति भी दी गई। वे तीनों बड़ी ख़ुशी के साथ अपनी-अपनी कक्षाओं में पहुंच गये।</p>
<p></p>
<p>(<strong>मौलिक व अप्रकाशित</strong>)</p> बाल कविताtag:www.openbooksonline.com,2018-08-04:5170231:Topic:9430902018-08-04T16:13:41.224Zआशीष यादवhttp://www.openbooksonline.com/profile/Ashishyadav
फूल खिले जो बगिया में<br />
वह कितने सुन्दर लगते हैं<br />
लाल ,गुलाबी,नीले,पीले<br />
मन खुशियों से भरते हैं<br />
<br />
तितली उड़ती रंग-बिरंगी<br />
फूलों पर है इधर-उधर<br />
भँवरे भी गुँजन करते<br />
उन पर मंडराने लगते हैं<br />
<br />
चूँ-चूँ करती चिड़ियाँ भी<br />
आकर डाली पर खेल रहीं<br />
इस डाली से उस डाली पर<br />
उड़ कर झूला झूल रहीं<br />
<br />
हाथ बढ़ा कर फूलों को<br />
मुन्ना है लगा तोड़ने जब<br />
तब माँ ने उसको समझाया<br />
इनको है छूना तुम मत<br />
<br />
बड़े परिश्रम से यह पौधे<br />
बढ़ते और पनपते हैं<br />
लगे हुए डाली पर ही<br />
यह अच्छे सुन्दर लगते हैं<br />
<br />
मुन्ना तब माँ से बोला<br />
मैं इनमें पानी डालूँगा<br />
सुन्दर…
फूल खिले जो बगिया में<br />
वह कितने सुन्दर लगते हैं<br />
लाल ,गुलाबी,नीले,पीले<br />
मन खुशियों से भरते हैं<br />
<br />
तितली उड़ती रंग-बिरंगी<br />
फूलों पर है इधर-उधर<br />
भँवरे भी गुँजन करते<br />
उन पर मंडराने लगते हैं<br />
<br />
चूँ-चूँ करती चिड़ियाँ भी<br />
आकर डाली पर खेल रहीं<br />
इस डाली से उस डाली पर<br />
उड़ कर झूला झूल रहीं<br />
<br />
हाथ बढ़ा कर फूलों को<br />
मुन्ना है लगा तोड़ने जब<br />
तब माँ ने उसको समझाया<br />
इनको है छूना तुम मत<br />
<br />
बड़े परिश्रम से यह पौधे<br />
बढ़ते और पनपते हैं<br />
लगे हुए डाली पर ही<br />
यह अच्छे सुन्दर लगते हैं<br />
<br />
मुन्ना तब माँ से बोला<br />
मैं इनमें पानी डालूँगा<br />
सुन्दर सुरभित पुष्प वाटिका<br />
मित्रों को दिखलाऊँगा<br />
<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित