बीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक काव्य-गोष्ठी 22 नवम्बर 2020 दिन रविवार को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता सुख्यात कवयित्री सुश्री संध्या सिंह ने की I संचालन का दायित्व श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज‘ ने सँभाला I इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र का समारंभ कवयित्री आभा खरे की कविता ‘मनकही’ पर हुए विमर्श से हुआ, जिसमें ओबीओ लखनऊ-चैप्टर के सदस्य प्रतिभागी बने I इस विमर्श का प्रतिवेदन अलग से तैयार कर ओबीओ एडमिन को भेजा जा रहा है I कार्यक्रम के दूसरे सत्र का समारंभ संचालक ‘मनुज’ की सरस्वती-वंदना से हुआ, जो गोकर्ण सवैये [SSI X 7 + II] यति (11,12) पर आधारित था I सवैया नीचे दिया जा रहा है -
‘माता पधारो यहाँ ज्ञान रोता, नहीं पूछ है राह होती अगम I
सच्चा झुके नित्य मिथ्या हँसे है, खड़ी विध्न बाधा हुई आँख नम II
झूठा यहाँ मान सम्मान पाता, गुणीं जीव पीछे घिरा घोर तमI
भंडार हो ज्ञान का आप ही माँ, न कोई निराशा न विश्वास कम II’
वन्दना के बाद काव्य-पाठ हेतु श्री मृगांक श्रीवास्तव का आह्वान निम्नांकित दोहे से हुआ-
हँसते-हँसते सोचने अगर लगोगे आप I
तब मृगांक जी का कहीं समझोगे परिमापII
स्वागत करता आपका श्रेष्ठ हास्य के दूतI
नमन मनुज का है तुम्हें हे वाणी के पूतII’
कवि श्री मृगांक श्रीवास्तव ने हास्य-व्यंग्य पर आधारित कुछ मनोरंजक कवितायें सुनाईं I इनमें कुछ इस प्रकार हैं –
‘दीवाली पर लक्ष्मी जी की पूजा’
सबने पूजा में लगाया खूब ध्यान
माँ लक्ष्मी को रिझाने
कोई असली कमल ले आया
तो कहीं से कोई
एक उल्लू पकड़ लाया
भाँति-भाँति के जतन
माँ को कैसे रिझाया जाय
सबने चाहा माँ
उन्हें खूब अमीर कर दें
उनके घर सोने-चांदी से भर दें
इससे पहले कि मुकेश अंबानी भी
माँ के द्वार पर दस्तक दें,
अति व्यस्त माँ प्रकट हो बोलीं-
‘मुकेश प्लीज तू तो बस,
अब रहने दे।
‘डकवर्थ लुईस विधि से जीत’
पति ने तर्क दिया
पत्नी ने काट दिया
वह चिल्लाया, वह चिल्लायी
फिर वह जब कसकर चीखी
वह जीत गयी ऐसे
कमजोर टीम भी क्रिकेट में
डकवर्थ लुईस विधि से
जीत जाय जैसे।
डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने अपनी कविता ‘सहिष्णुता’ प्रस्तुत की I इसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं –
दूर तलक हरियाली होगी
पीपल बरगद के छाँव सी,
तराई की तपती उग्रता से
दूर पली एक गाँव सी ।
दिल की माटी पर जाग उठेगा
दया सांत्वना के अंकुर
अनुकम्पा के मसीहा मानव
धरती धारण को आतुर ।।
कवयित्री कौशाम्बरी जी द्वारा प्रस्तुत कविता में एक बेचैनी दिखी, कुछ इस प्रकार –
जीवन रथ क्यों गति हीन हुआ
अंतर्लीन हुई संज्ञा मेरी क्यों ?
खुद में खुद को ढूँढ़ रही हूँ
जीवन क्यों मटियामेट हुआ ?
गज़लकार आलोक रावत आहत लखनवी’ ने बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़ / फाईलातुन फाईलातुन फाईलातुन फाईलुन / 2122 2122 2122 212 पर आधारित अपनी गज़ल प्रस्तुत की जिसमे इंसानी फितरत और समय की कशमकश बड़ी शिद्दत से उभर कर सामने आती है – जैसे-
इस क़दर माहिर है वो गठजोड़ की रणनीति में
काम पड़ने पर वो रिश्ता जोड़कर मुझसे मिला II1II
मैं उसे दिल में जगह देता नहीं क्यूँ कर भला
जो गिले-शिकवे पुराने छोड़कर मुझसे मिला II2II
डॉ. अर्चना प्रकाश ने एक विरहिणी के उस स्वरुप का सुन्दर वर्णन किया, जहाँ मिलन का कोई अवसर है ही नहीं I सुश्री महादेवी वर्मा यदि कहती हैं कि ‘मैं विरह में चिर हूँ’ तो अर्चना जी कहती हैं -
दर्द लाया हर सवेरा ।
नभ घिरे बादल घनेरा ,
झांकता सा मीत मेरा ।
भोर की ऊषा बनी ,
साँझ बाती सी जली ।
पर न आया मन चितेरा ।
चिर विरह है गीत मेरा !
कवयित्री कुंती मुकर्जी की कवितायें प्रायशः छोटी होती हैं, पर उनमें हमेशा एक गहरा चिंतन अन्तर्हित होता है I प्रमाणस्वरूप उनके द्वारा प्रस्तुत की गयी कविता यहाँ प्रस्तुत है -
मैं यदा-कदा उस गली से गुज़रती रही..!
तुम्हारी यादों का नामोनिशान नहीं मिलता..!!
लोगों से सुनती रहती..!
तुम्हारा यशगान..!!
जी करता मैं भी तुम्हारी दरबार में आऊँ..!
कितनी बार मैंने साहस भी किया..!!
झरोखे से तुम्हें एक बार देखा..!
सच कहूँ..!!
मुझे यकीन न हुआ..!
तुम कैसे देवता बन गये..?
डॉ.शरदिंदु मुकर्जी ने अपनी कविता ‘बाजार’ प्रस्तुत की I बाजार से हम सबका साबका पड़ता ही रहता है और हम जब भी वहाँ जाते हैं, बाजार के अंग बन जाते हैं I बाजार को दूर से निरपेक्ष दृष्ट से देखना एक अलग अनुभव है, जिसे शरदिंदु जी ने अपनी कविता में कुछ इस प्रकार साझा करने की कोशिश की है I
साँझ ढलते ही बदल जाएगा चेहरा / जल उठेंगे चिराग / जग उठेंगे आश्वासन / होगा बाहरी शृंगार / और, / अंदर घिर आएगा तमस / करवट लेगा बाज़ार / कुछ दुकानों की बत्ती / बुझेगी सदा के लिए, / पड़ा रह जाएगा सामान / स्मृति के अंध कूप में -/ भीड़ के किनारे खड़ा / मुस्कुरा रहा हूँ मैं -/ अंदर से किसी ने कहा / 'वस्तु हो तुम/ तुम ही विक्रेता हो / तुम ही हो खरीदार / तुम भीड़ हो / तुम ही हो बाज़ार ।'
डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने ‘आस’ शीर्षक से कुछ ‘बरवै’(12,7) प्रस्तुत किये, जिनकी बानगी निम्नवत है -
आस बिना क्या जीवन क्या विश्वास ?
इसी सहारे दुनिया कायम खास II
वैद्य देह का आखिर हुआ हताश ।
जरा है रोग असाध बुझती आश II
रूप-रंग सब ढरिगा रही न वास ।
फूल डारि पर अटका पिय की आस II
आस लिए धनि आयी थी ससुराल ।
वन-विहंग अब पिंजर में बेहाल II
कभी बुझेगी चातक आकुल प्यास ?
जब तक है यह जीवन तब तक आस II
मन के भी तुम काले सचमुच कृष्ण ।
आस भरी वह राधा मरी सतृष्ण II
गज़लकार भूपेन्द्र सिंह ने बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़ / मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन221-2121-1221-212 पर अपनी गजल कही i इसके कुछ चुनिन्दा शेर इस प्रकार हैं -
हर नक़्श उसका ला सकूँ अपने ख़याल में,
तस्वीर उसकी दिल में बना कर ग़ज़ल कहूँ I
सोचा था मैक़दे में कभी अपने हाथ से,
साक़ी को एक जाम पिलाकर ग़ज़ल कहूँ I
आबाद हो न पाए तो बेहतर यही है अब,
बर्बादियों का जश्न मनाकर ग़ज़ल कहूँ I
अहले-ख़िरद से बस ये गुज़ारिश है कुछ कहें,
मैं किस तरह जज़्बात दबाकर ग़ज़ल कहूँ I
ईश्वर ने जो इन्द्रिया मानव शरीर को प्रदान की हैं उनमें आँख सर्वोपरि है I आँख सुन्दरता का मानक तो है ही उपयोग की दृष्टि से भी उसका व्यापक महत्व है i इसलिए हमारी दृष्टि किस पर हो, यह सुविचारित होना चाहिए I कवयित्री निर्मला शुक्ल ने अपनी कविता में इसी का निर्देश किया है I यथा- –
जाने जो विस्तार गगन का
झरनों में भी सरगम देखे ।
मेघ घुमड़ते आसमान में
कविता अंतर्मन में देखे ।
पंछी जब करते हों कलरव
वीणा का तब वादन देखे ।
भाषायें जब गौण बने तब
संकेतों का नर्तन देखे।
कवयित्री आभा खरे अपनी कविता में मन की बारिश की बात करती हैं, क्या कभी किसी ने वह स्वाद चखा है और चखना भी कब है ?--
जब उदासी के घन सघन हों, आ बैठें सिरहाने
और रात ने सुलगा ली हो बीड़ी
ठीक वैसे ही
जैसे नीले दरवाजे वाली उस ड्योढ़ी पर बैठी
बड़ी बी ने आँसुओं को रोकने की
नाक़ाम सी कोशिश करते हुए सुलगा ली हो चिलम अपनी
कि आज फिर बड़े मियाँ ने शायद
गाली-गलौज कर
मार-पीट कर
बंद कर दिया है
बड़ी बी के मुँह पर
दरवाजा .... वो नीला दरवाजा
संचालक श्री मनोज शुक्ल ने दीप का आलम्बन लेकर अपना एक मनोहारी गीत प्रस्तुत किया, जिसकी विशेषता यह भी थी कि इसमें चिन्तन दृष्टि नितांत पारंपरिक नहीं है I यही कारण है कि इस कविता में एक अनूठा आकर्षण है I
आप अपनी दृष्टि को फिर से जगाओ,
हर जगह बाती तुम्हें जलती मिलेगी।
दीपकों की फौज से पाकर सहारा
कालिमा भयमुक्त सी फलती मिलेगी।
आप लो संकल्प दीपक के तले का
ये अँधेरा आपको ही छाँटना है।
वर्तिकाओं को बढ़ाकर मान देकर
दर्द उनका भी समझना बाँटना है।
आप जिसको ढूँढ़ते हो दीप के घर
पीर का पर्वत, लिए बाती यहाँ है।
राख होती वर्तिका का मौन तप है
है वहीं पर रोशनी जलती जहाँ है।
ऋग्वेद के मन्त्र 'सप्तयुज्जंति रथमेकचक्रमेको अश्वोवहति सप्तनामा' के अनुसार सूरज के रथ में कुल सात घोड़े हैं I संभवतः सूर्य किरण में विद्यमान इन्द्रधनुषी सात रंगों के कारण वेदों में ऐसी परिकल्पना हुयी हो पर कवयित्री नमिता सुंदर एक आठवें घोड़े को भी खोज लाती हैं I सूरज स्वयं हँसकर पूछता है कि क्या अभी इस आठवे घोड़े का संज्ञान तुम्हें नहीं हो पाया और फिर समाधान भी सूरज ही करते हैं I सात अलग-अलग रंगों के समुच्चय से जो रंग बनता है वह आठवाँ घोड़ा है I कैसी विदग्ध परिकल्पना है I कहना न हो कि नमिता जी ने अपनी विलक्षण मेधा का परिचय इस कविता में नई उद्भावना के रूप में दिया है -
बोले विहँस, तेजोमय अदिति पुत्र
हुई नहीं क्या मुलाकात अब तक?
कहाँ रही हो खोज, वह आठवाँ अश्व?
इन सातों के रंगों से ले, एक-एक किरण
रचा है वो अलबेला तुरंग
उसकी गति सबसे न्यारी
जिसने साधा
उसकी मुट्ठी में वल्गायें सारी।
कवयित्री संध्या सिंह ने अपनी कविता में सुख-दुःख की अभिव्यक्ति में भाषा की कसमसाहट और असमर्थता का संकेत तो किया पर अभिव्यक्ति हमेशा भाषा से ही संभव है, अतः दोनों को रूपायित करने की एक बेहतरीन कोशिश इस कविता में दिखती है I यथा-
दुःख
निर्वात है
और भाषा एक तारामंडल
दो सितारों के बीच की दूरी है
भाषा से
बचा हुआ दुःख
दुःख
दरअसल
एक विसर्ग है
जो अक्सर छूट जाता है
भाषा से ....सबसे आगे हजार अश्व के रथ पर
अध्यक्षीय पाठ के बाद गोष्ठी के समापन की घोषणा हुयी i मेरा मन सूरज के आठवें घोड़े पर अटका रहा I मैं सोचने लगा -
क्या फर्क पड़ता
यदि सूर्य के रथ में अश्व
सात नहीं आठ होते
यूँ तो रथ में नहीं होती
अश्व की संख्या कभी भी निश्चित
विष्णु और कृष्ण ने
मात्र चार अश्वों से काम चलाया
राह-केतु और शनि
विराजते है अष्टाश्व रथ पर
अर्जुन के पास था शताश्व रथ
इंद्र सबसे आगे
हजार अश्व के रथ पर
रथहीन तो सिर्फ थे
वे वनवासी-राम और लक्ष्मण
युद्ध
यात्रा या भ्रमण
नहीं तय होते है कभी
अश्व की संख्या से
न वे तय होते हैं
आयुधों और संसाधन के भंडार से
वे तय होते आये हैं हमेशा
व्यक्ति के पुरुषार्थ से
उसके चरित्र से, आत्मबल से
उसके धैर्य और विश्वास से
इसीलिये
मानता हूँ मैं कि
कोई फर्क नहीं पड़ता
सूर्य के रथ में अश्व कितने हैं,
फर्क तो तब पड़ता
जब रथ कभी विपथ होता
और डूब जाता यह ब्रह्माण्ड
प्रलय या विनाश के किसी
भयावह गर्त्त में
अनिश्चित काल के लिए
या फिर
ईश्वर के हृदय में
सिसृक्षा के फिर से जागने तक
जब तक ऐसा नहीं होता
सिर्फ रथ के अश्वों की संख्या से
नहीं पड़ता कोई फर्क (सद्य रचित )
(अप्रकाशित/ मौलिक )
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