”मुझे वह लड़की कुछ असामान्य सी दिखी I मेरे सामने ही अकेली गुमसुम बैठी थी I मैं कुछ पूछना चाहती थी कि अचानक उसने उदास आँखों से मुझे देखते हुए कहा, ‘आज के दिन ही लगभग इसी समय मेरे पिता ने हमेशा के लिए आँखें बंद कर ली थीं I मैं अवाक् रह गयी I तो यह था उसकी बेचैनी का रहस्य I एक बेटी की संवेदना पिता के लिए I मैंने बहुतेरा सोचा कि इससे क्या कहूँ ? पर कुछ कह न पाई I बाद में मेरी वह संवेदना इस कविता में अभिव्यक्त हुयी –
‘रहते हैं वे यहीं आस-पास / दिखाई न दें भले ही / पर देते हैं आभास / दर्पण के दूसरी ओर / शीशे की सतह पर / पोंछने को आँसू / देने को साथ ।“
यह कहना था बहुमुखी प्रतिभा की धनी कवयित्री नमिता सुंदर का, जो अपनी ही कविता पर एक परिचर्चा में लेखकीय वक्तव्य दे रही थीं I यह ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की मासिक संध्या माह फरवरी 2020 का अवसर था, जो श्री मृगांक श्रीवास्तव के आवास डी 1/343 , सेक्टर-एफ़, जानकीपुरम, लखनऊ पर कार्यक्रम में पहली बार पधारे वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि श्री नरेंद्र भूषण की अध्यक्षता और ग़ज़लकार आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ के संचालन में दिनांक 23 फरवरी 2020 को समारोहपूर्वक मृगांक जी के सौजन्य से मनाया गया I यह कार्यक्रम दो चरणों में बँटा था I पहले चरण में कवयित्री सुश्री नमिता सुंदर की दो कविताओं पर परिचर्चा थी, जिसमें प्रथम कविता पर लेखकीय मंतव्य समास रूप में पहले ही दिया जा चुका है I कविता के संदर्भ और प्रसंग से उपस्थित विद्वान् भले ही नावाकिफ थे पर उसके मर्म को सबने समझा और अपने विचारों द्वारा प्रस्तुत भी किया I डॉ. शरदिंदु मुकर्जी एवं डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव इस बात पर सहमत थे कि यह कविता उस अदृश्य चेतना के बारे में है जो पग-पग पर हमे सँभालती है I वह ईश्वर भी हो सकता है I दूसरी कविता पर डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने नमिता जी की दूसरी कविता के अंश –‘ताला बंद हर कुठरिया / बढ़ेगा धीरे धीरे/ /हल्का नीला उजास/ / मुक्त करने को खुद को/ बहुत जरुरी है/ /खुद से खुद की/ यह मुलाकात।‘ का उल्लेख करते हए मनुष्य को अपने अंतस से जुड़ने और अन्तर्यामी से तादात्म्य बनाये रखने की आवश्यकता पर बल दिया I इसे और अधिक स्पष्ट करते हए उन्होंने कहा कि मनुष्य के भीतर जो एक दूसरा मनुष्य है उन दोनों के लिए आवश्यक है कि वे एक दूसरे को जानें, समझे और आपस में ताल मेल बनाकर रखें I
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘पंचवटी’ काव्य में एकाकी और साधना-तत्पर लक्ष्मण की भावदशा को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है –
कोई पास न रहने पर भी
जन मन मौन नहीं रहता
आप आप की सुनता है वह
आप आप से है कहता
डॉ. अशोक शर्मा देर से आये थे I हमें उनके विचार नहीं मिल पाए, पर आलोक रावत और भूपेन्द्र सिंह ने इसे आत्मालोचन से जोड़कर देखा I अध्यक्ष नरेंद्र भूषण ने इस बात को दूसरी तरह से कहा और वह यह कि पुत्र के विकास में माता-पिता के अदृश्य हाथ की भूमिका बड़ी अहम् होती है I वे स्वयं अपने पिता की याद और उनके सम्मान में एक साहित्यिक संगठन - ‘सुन्दरम’ चला रहे हैं I
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में काव्य पाठ का आगाज मृगांक श्रीवास्तव की हास्य रसात्मक रचनाओं से हुआ i उन्होंने बड़ी ही प्रासंगिक और हालिया घटनाओं पर आधारित व्यंग्य रचनाएँ सुनाकर एक प्रच्छन्न संदेश भी दिया कि हास्य रस केवल हँसने के लिए ही नहीं होता उसे गहराई से समझने की भी आवश्यकता है i उनका एक दोहा प्रस्तुत है –
एक ओर नारी कहैं, सब नर मूरख आंहि I
साथ-साथ यह भी कहें हम उनते कम नाहि II
डॉ. शरदिंदु मुकर्जी की कविताओं का अपना एक मेयार है I वे अपनी परवाज से समझौता नहीं करते I वे जब ‘अजस्र शब्दों’ की बात करते हैं तो सुधी पाठक चौंकता है I यह विशेषण और विशेष्य अद्भुत है I शब्दों का अनवरत प्रवाह और सहस्र स्पंदन और सब आपस में गड्ड-मड्ड I जरा सोचिये क्या स्थिति होगी I अधिक जानने के लिए कविता के प्रस्तुत अंश को आत्मसात करना होगा –
सहस्र स्पंदन / अजस्र शब्दों में बिखर कर / अपनी ही भीड़ में भटक गए हैं / मैं क्षितिज के अंतिम द्वार पर खड़ा / संपूर्ण एकाकी / सुन रहा हूँ उनका नि:शब्द गुंजन I
डॉ. अंजना मुखोपाध्याय की रचना ने फिल्म ‘त्रिशूल’ की याद ताजा कर दी I अमिताभ बच्चन संजीव कुमार से कहते हैं – मैं एक बात और बता दूँ मि० गुप्ता, मैं पाँच लाख का सौदा करने आया हूँ और मेरी जेब में पाँच फूटी कौड़ी भी नहीं हैं I’ इस लिहाज से कविता मुलाहिजा फरमाइये –
हरकत ऐसी पनप रही इन गलियों के तहखाने में I
जैसे बोली लगा रहा हो बिन लागत इन मयखानों में II
डॉ. अशोक शर्मा मिथकों पर आधारित उपन्यास रचकर भक्ति और अध्यात्म से जुड़ गए हैं I उनकी आस्था का प्रतीक यह वंदना है –
गणपति के चरणों का वन्दन
माँ के चरणों का अभिनन्दन
हे परम पिता, हे परमेश्वर
हे ज्योतिर्पुंज हजार नमन i
कवयित्री संध्या सिंह मूलतः समकालीन कविता से जुड़ी हैं और उन्होंने अपना एक स्थान बनाया है I वे कभी-कभी दोहे या ग़ज़ल सुनाकर चमत्कृत करती रहती हैं I इस बार उन्होंने एक ग़ज़ल सुनाई जिसके चंद अशआर इस प्रकार हैं -
घाव में काँटा चुभाया है किसी ने I
इंतहा को आजमाया है किसी ने II
नींद से हम हड़बड़ा कर उठ गए हैं
नाम लेकर फिर बुलाया है किसी ने II
कवयित्री नमिता सुंदर ने रंगों की बात की I रंग वर्ण को तो कहते ही हैं साथ ही लाज, प्रेम, उत्साह, आनंद, सुहागा, नाटक और धाक या प्रभाव को भी कहते हैं I नमिता जी के अनुसार इन सबका मिजाज बदल गया है, अब ये असरहीन हो गये हैं और इसका परिणाम क्या हुआ i आज और आने वाला कल बदल गया - ऐसे-
यह कैसा हो गया है / रंगों का मिजाज / कितना भी बिखेरो / धूसर सा ही नजर आता है / आने वाला कल / धीरे-धीरे रेंगता आज
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ’होश’ को देश की मिट्टी से प्यार है क्योंकि इस मिट्टी से वे खुद बने हैं i ऐसी स्थिति में यदि वे आवाज़-ए-वतन बन जाएँ तो इसमें आश्चर्य क्या ?
तेरी मिट्टी से बना हूँ मैं
ऐ वतन सुन तेरी सदा हूँ मैं
संचालक आलोक रावत ग़ज़ल के रसिया हैं I साथ ही प्रयोगधर्मी भी I सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ने ‘कलगी बाजरे’ की कविता में- ये उपमान मैले हो गये हैं / देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच’ की अलख जगाकर अपने तार सप्तक’ के माध्यम से नई कविता का शंखनाद किया था जिसका प्रभाव आज के नव-गीत तक दिखता है I वैसा ही कुछ ग़ज़ल में ढलने की कोशिश आलोक रावत भी करते दिखते हैं I यहाँ प्रस्तुत ग़ज़ल में उन्होंने नैपकिन, पिन और सुपर रिन का प्रयोग जिस अंदाज में किया है वह मैले हो चुके उपमानों से शायर की बगावत ही है –
मैं उसकी जीस्त में शामिल था नैपकिन की तरह
ये बात आज भी चुभती है किसी पिन की तरह I
हों पश्चाताप के आँसू अगर खरे सच्चे
तो मन का मैल मिटाते हैं सुपर रिन की तरह I
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने तुलसी का आलंबन लेकर एक भक्तिपरक घनाक्षरी सुनाई और रसाभास कर वातावरण ही बदल दिया -
राम जी का नमन सदा गूंजता है आठों याम
कानों में गयी है भक्ति रस बूँद घुलसी I
डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने आसन्न होली के मद्देनजर चार सवैये सुनाये I इसके बाद मुक्त छंद में उन्होंने ‘रचनाधर्मिता’ शीर्षक से एक कविता सुनाकर सबको गंभीर कर दिया i एक निदर्शन इस प्रकार है -तौलते हैं हम / समय की धार / और करते हैं सदा / आक्रांत दुर्वह काल क्षण को / बदलते हैं लोक मानस की / समूची सोच वैचारिक प्रलय से / हम समय की धार को भी मोड़ते हैं / क्रान्ति से करते युगांतर को उपस्थित / और मिट जाते हैं शहीदों की तरह / आग का शोला / लगाता है दिशा में आग जैसे / और करता है जलाकर राख वह / जड़िमा जगत की / इससे पहले कि वह / बुझ जाए स्वयं ही / भास्वर करता सदा / अपने समय को I
अध्यक्ष नरेंद्र भूषण जी ने सभी कवियों की प्रस्तुति को सराहा और फिर अपनी रचना में अभिमान के प्रति स्वयं को धिक्कृत करते हुए एक संदेश इस प्रकार दिया –
अगला पल अनजान तुम्हारा भूषण जी I
बेमतलब अभिमान तुम्हारा भूषण जी II
एक अन्य ग़ज़ल में अध्यक्ष महोदय ने आलसी लोगों पर करारा व्यंग्य किया I यथा-
किसी भी कारवाँ में चंद मेहनतकश मिला करते
वहीं हर आलसी पैरों में छाला ढूंढ़ लेते हैं I
अध्यक्षीय कविता पाठ का समापन ही इस साहित्य संध्या का प्रस्थान बिंदु था I इसके बाद अल्पाहार की व्यवस्था थी I मृगांक जी का आतिथ्य बहुत ही भाव-भीना था I सब के साथ मैं भी उसका भरपूर लुत्फ़ ले रहा था I लेकिन मन में उठ रहा था डॉ. शरदिंदु मुकर्जी का ‘नि:शब्द गुंजन’ I मुझे लगा -
एक गुंजन होता है / भ्रमर में / जब वह निज आकार से / बहुत छोटे पंख से / करता है / उड़ने की एक संभव कोशिश / जिसे शायद वह कर न पाता / यदि उसे होता / अपने पंखो के / छोटे होने का संज्ञान I
एक गुंजन / होता है शंख में / आस्थावादी कहते हैं / जब लगाओगे उसे कान में / सुनाई देगी तब तुम्हें / उसमें रामधुन I
एक वह गूँज जो / होती है अनहद-नाद में / जिसे सुन पाते हैं / कभी कोई कबीर या सिद्ध / यह हम मानते हैं I
एक वह / जो गूँजता है मन में हमारे / विकट एकांत क्षण में / जिसे सुन पाते हैं कभी हम / शायद किसी प्रेरणा से अज्ञात / आभास देता जो / निज उपस्थिति का / करता हुआ / नि:शब्द गुंजन I
(अप्रकाशित/मौलिक )
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