बैशाख उतर रहा था, ज्येष्ठ की मुद्रा आक्रामक थी I मौसम के इस संधिकाल में जब ग्रीष्म ने अपनी जिह्वा फैलानी शुरू की, तब 19 मई 2019 को सायं 3 बजे ओपन बुक्स ऑन लाइन के साहित्यिक योद्धा 37, रोहतास एन्क्लेव, लखनऊ में परिचर्चा और काव्य-पाठ का दुन्दुभि-नाद करने हेतु कविता के प्रांगण में समवेत हुए – ‘कर्मक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: I
कार्यक्रम की सदारत डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने की I संचालन युवा कवि मनोज शुक्ल ‘मनुज’ द्वारा किया गया I
प्रथम चरण में डॉ. अशोक शर्मा के उपन्यास ‘सीता के जाने के बाद राम’ का अंश-पाठ ( पृष्ठ 28 से 36) हुआ , जिसमें रावण की माता कैकसी के चरित्र में नारी-विमर्श को विचार-बिन्दु बनाया गया I रचनाकार के रूप में सर्वप्रथम डॉ. अशोक शर्मा ने अपने विचार प्रकट किये और बताया कि किस प्रकार कैकसी के मनस्त्ताप को अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें मणि के रूप में उसकी एक सहेली का पात्र योजना करनी पड़ी I कवयित्री संध्या सिंह ने परिस्थिति से विवश तरुणी कैकसी के विवाह प्रस्ताव पर वृद्ध विश्रवा की स्वीकृति पर प्रश्न उठाये और कहा कि उस युग में भी एक श्रेष्ठ सम्मानित और यशस्वी मुनि को पुत्री समान नारी को एक ही निवेदन में विवाह स्वीकृति दे देना क्या उस समय की नारी की दैन्यावस्था का प्रमाण नहीं है I डॉ. शरदिंदु मुकर्जी, कुंती मुकर्जी एवं डॉ. अंजना मुखोपाध्याय भी इस तर्क से सहमत थे I डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने तो कथाकार से यहाँ तक पूछ लिया कि यह प्रसंग उनकी कल्पना है या मिथ में भी यही स्थिति है और आश्चर्य तब हुआ जब डॉ. शर्मा ने इस सत्य के मिथकीय होने की पुष्टि की I डॉ. श्रीवास्तव ने उपन्यास के इस प्रसंग में कथाकार ने कैकसी की मनोव्यथा को सहेली के संवादों में जिस प्रकार उकेरा है, उसकी भूरि-भूरि सराहना की I वस्तुत उपन्यास में नारी के वैवश्य और उसके धैर्य का जैसा वर्णन हुआ है, वह दद्दा (राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ) की इन पंक्तियों की याद ताजा कराता है –
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी I
आँचल में है दूध और आँखों में पानी II
कार्यक्रम के दूसरे चरण में काव्य-पाठ का आगाज मृगांक श्रीवास्तव ने किया I उनकी कविता में व्यंग्य की धार थी I आज का मानव दुनिया के सामने अपनी बाह्य छवि को दर्शाने हेतु कटिबद्ध है, पर क्या उसने कभी अपनी वास्तविक छवि को निहारने का प्रयास किया I ऐसे उत्तम विचारों से सजी और हास्य की मधुर चाशनी में लिपटी उनकी कविता की बानगी इस प्रकार है –
चाहे खुद की सेल्फी, पल भर में आ जाए I
निजी इमेज जो चाहो तो जीवन कम पड़ जाएII
अगले कवि थे- अशोक शुक्ल ‘अनजान‘ I इन्होने कन्या धन को सर्वोच्च मानते हुए उसकी परिणति अपने दोहों में कन्या दान के रूप में दर्शाई है – यथा –
कन्या धन सैम धन नहीं , दूजा दिव्य महान I
सारे धन है स्वार्थ के यह धन केवल दान II
डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने ‘आह्वान’ और ‘जीवन वृत्त’ शीर्षकों को अपने ढंग से परिभाषित किया –
आह्वान :: मौन, तपस्वी, अतन्द्र हिमालय
जीवन वृत्त :: एक और जीवन चक्र खत्म होने को है I
कवयित्री कुंती मुकर्जी प्रकृति के सौन्दर्य को चन्द शब्दों में व्यक्त करने की कला में सिद्धहस्त हैं I दो नमूने यहाँ पेश हैं –
1- मन की बात
बादल, उमड़ा , बरसा
और---
आम्रवन खिल उठा I
2- तुम कितना हँसे थे ?
जब मैंने कहा था तुमसे
मेरे आंगन में पतझड़ खिले हैं I
डॉ. अशोक शर्मा गीतों के हिमायती हैं I परंतु इसके साथ ही उनकी संवेदना अन्य क्षेत्रों में भी है और वे उन सभी संवेदनाओं के नाम कम से कम एक शाम लिखना चाहते हैं I यह उनकी प्रतिबद्धता है I उनका कथन है –
एक शाम केवल गीतों के नाम लिखी जाए I
एक नाम भीनी खुशबू के नाम लिखी जाए II
कवयित्री नमिता सुन्दर प्रकृति में बिखरे सौन्दर्य को आत्मसात कर लेती हैं और फिर उसका अक्स जो शब्द-चित्र बनता है वह मन के तारों को झंकृत कर देता है I जैसे –
अमलतास के काँधे पर
रखकर सिर
सोया है चाँद
कवयित्री संध्या सिंह जिन्हें अपनी समकालीन कविताओं में बिम्बों के नवीन प्रयोग में सिद्धि प्राप्त है, उन्होंने कुछ दोहे सुनाये जिनमें से एक में नेत्रों और आंसुओं की अंतर्कथा की अभिव्यक्ति निम्नवत है –
भीतर इक सैलाब है, जल ही जल चहुँ ओर I
आँखों में छिपती रही, बूँद नयन की कोर II
गजलकार भूपेंद्र सिंह ‘होश’ मानव की वर्तमान जीवन शैली और जीवन के यथार्थ की चर्चा अपनी गजल में कुछ इस प्रकार करते हैं –
लोग मर –मर के जी रहे हैं, जियें
इसे जीने का कायदा न समझ II
कवयित्री श्रीमती कौशाम्बरी को दोबारा उससे मिलने से ऐतराज है जो उन्हें छोड़कर चला गया I उसे क्या हक है कि वह दोबारा मिले और उनके जीवन की उपलब्धियों पर सवाल उठाये I उनका कथन है कि –
तुम अचानक क्यों मिले ?
क्यों पूछते हो उपलब्धियां ?
संचालक मनोज शुक्ल ‘मनुज’ की ओजस्वी कविता में सदैव एक धार होती है I जब वे कहते है कि –‘मैं किसी का गर्व होना चाहता हूँ’ तो यह अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता है I यह कवि के चरित्र के सारे पक्षों का निकष बन जाता है I ऐसी महत्वाकांक्षा पूरे निश्चय और विश्वास से पालना बड़े जीवट का काम है I मानस में भगवान राम जटायु से कहते हैं –
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥
अर्थात हे तात! सीता हरण की बात आप जाकर पिताजी से न कहिएगा। यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्ब सहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा I यहाँ पर ‘यदि मैं राम हूँ’ में जो आत्मविश्वास का दर्प है , वही दर्प मनुज के इन शब्दों में है कि ‘मैं किसी का गर्व बनना चाहता हूँ I‘ यह कविता इस प्रकार है –
ठग गए इल्जाम पाने के अनोखे,
मैं हमेशा सिर्फ खोना चाहता हूँ I
बोध हूँ अपराध का कैसी नियति है
मैं किसी का गर्व होना चाहता हूँ II
डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने ‘मंजर’ शीर्षक कविता में देश की हालात पर तजकिरा कुछ इस प्रकार किया –
गीत तुम गाओ मत
मरी हुयी आह को सीने में दबाओ मत
लोकमत प्रेत है उसको भी जगाओ मत
वह स्वयं उठेगा अभी तुम उठाओ मत
उनकी एक दूसरी कविता ‘मालोपमा’ शीर्षक से थी I मालोपमा उपमा अलंकार का एक भेद है जिसमें अनेक उपमाओं की एक माला होती है I इस कविता का एक अंश इस प्रकार है –
पुरवा बयार सी I मद भरे ज्वार सी I
फूलों में जवा सी I स्पर्श में हवा सी I
महुआ की गंध सी I पाटल सुगंध सी I
आमों की बौर सी I करौंदे की झौर सी I
नीम की महक सी I पलाश की दहक सी I
कानपुर जनपद से सपत्नीक पधारे गजलकार डॉ नवीन मणि त्रिपाठी साहित्य-संध्या के विशिष्ट आकर्षण थे I उन्होंने कुछ बेहतरीन गजलें सुनायीं, जिनकी बानगी इस प्रकार है -
भूख से मरता रहा सारा ज़माना इक तरफ़ ।
खूब दिल पर लग रहा उनका निशाना इक तरफ़ ।।
हक़ पे हमला है सियासत छीन लेगी रोटियां ।
चाल कोई चल रहा है शातिराना इक तरफ़ ।।
अंत में अध्यक्ष डॉ. शरदिंदु मुकर्जी का काव्य -पाठ हुआ I उन्होंने सर्वप्रथम गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कविता का स्वकृत भावानुवाद सुनाया I यह कविता गुरुदेव ने कहानी लेखन पर टिप्पणी करते हुए लिखी थी, जिसका मूल भाव वैसा ही है जैसा मुंशी प्रेमचन्द ने उपन्यास और कहानियों के बारे में कहा था I प्रेमचन्द के अनुसार कोई आख्यायिका कभी समाप्त नहीं होती I लेखक एक आकर्षक मोड़ पर उसे निगति प्रदान करता है I मेरी समझ में यह सत्य हर रचना पर लागू होता है भले ही वह साहित्य की कोई विधा हो I गुरुदेव के भाव उक्त अनुवाद में कुछ इस प्रकार हैं -
हिय में अतृप्ति रहे
अंत में यह मन कहे
हुआ समाप्त,
फिर भी-
हुआ नहीं शेष.
इसके बाद डॉ. मुकर्जी ने अपनी दो रचनायें ‘आँख मिचौनी’ और ‘प्रतीक्षा’ शीर्षक से सुनाईं I प्रतीक्षा कविता में किश्ती, नदी, क्षितिज, और मानव सभी जगत के उपादान अपने-अपने ढंग से समय की प्रतीक्षा में है, पर समय की फितरत क्या है ? कविता का यह हृदयस्पर्शी अंश इस प्रकार है -
समय ;
हर पल हमें छूकर
कहाँ फिसल जाता,
हमारी प्रतीक्षा में !!
अध्यक्षीय पाठ के बाद साहित्य संध्या का औपचारिक अवसान हुआ I सभी ने डॉ. मुकर्जी के आत्मीय आतिथ्य का लाभ उठाया I इस बीच मेरे मन में ‘प्रतीक्षा’ कविता के भाव कौंधते रहे I मेरे आकुल मन ने कहा -
एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद
हुआ होगा मेरा जन्म
फिर एक दीर्घ प्रतीक्षा और हुई होगी
मेरे बड़े होने की
और मेरे बड़े हो जाने पर
हो गया होगा उनकी
सारी प्रतीक्षाओं का अंत
जिन्होंने मन्नतें माँगी होंगी
दुआयें की होंगी
उपवास रखे होंगे
मेरे आने की प्रतीक्षा में I (सद्यरचित )
[मौलिक/ अप्र्काशिय्त ]
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