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ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या माह मार्च 2019 – एक प्रतिवेदन - डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्य संध्या माह मार्च रविवार दिनांक 17 मार्च 2019 को श्री मृगांक श्रीवास्तव के सौजन्य से उनके आवास डी-343, सेक्टर एफ. जानकीपुरम में सायं 3 बजे प्रारम्भ हुयी । कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने की। संचालन का सूत्र मनोज शुक्ल ’मनुज’ के हाथों में था।

कार्यक्रम के प्रथम चरण में डा. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने ‘मध्यकालीन हिन्दी में होली के कोलाज’ शीर्षक से अपना आलेख पढ़ा। इसके बाद श्रीमती कुन्ती मुकर्जी ने सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा हरिवंशराय ‘बच्चन’की होली विषयक कतिपय रचनाओं का पाठ किया। कुछ अन्य लागो ने भी होली के संबध में अपनी बातें कहीं।

दूसरे चरण में काव्य पाठ प्रारम्भ होने से पूर्व संचालक मनोज शुक्ल ‘मनुज’ने डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव को माँ सरस्वती की वंदना करने हेतु आमंत्रित किया । डॉ. श्रीवास्तव ने दो घनाक्षरियों के माध्यम से ‘उपालंभ वंदना’ के दो चित्र प्रस्तुत किये । इनमें से एक चित्र यहाँ प्रस्तुत है -

देखो मातु, शारदा है आपकी विचित्र अति

मेरी लेखनी का अंग-भंग कर देती है ।

चिन्तना मे डूबता हूँ आत्मलीन होके जब

शुण्ड को हिला के मुझे तंग कर देती है ।

काटती हठीली बात-बात पर मेंरी बात

देती नये तर्क मुझे दंग कर देती है ।

किन्तु यही वसुधा के कीट कवियो की सारी

काव्य-सर्जना को रस-रंग कर देती है ।

सरस्वती-वंदना के उपरान्त डॉ. शरदिन्दु मुकर्जी का काव्य पाठ हेतु आह्नवान किया गया । उन्होंने सबसे पहले होली की शुभकामना से संबंधित अपनी एक पुरानी कविता का पाठ किया I फिर उन्होंने ‘अनुभूति’ शीर्षक से अपनी एक और रचना पढ़ी । इस कविता में अनुभूति के माध्यम से उन स्थितियों का बड़ा ही  मार्मिक चि़त्रण हुआ  है, जब प्राणों का जीवन से आलिंगन होता है, जब यह जग जीवन मुखरित होता है और जब ईश्वर में मानव का तन और मन समाधित होता है । यथा- जब सांझ ढले इस क्लांत धरा पर

क्षितिज रंजित हो शर्माकर,

शांत नदी के वक्षःस्थल पर

लहर थमे जब उठ उठ कर,

जब पीड़ा आनंद बने, हो व्याप्त भुवन में हँस हँस कर

हे नाथ! समाधित होता है तब,

तुममें यह मन, तुममें यह तन.

हास्य कवि मृगांक श्रीवास्तव ने लोट-पोट कर देने वाले कई शब्द चित्र प्रस्तुत किये । किन्तु अपने पाठ का समापन उन्होंने बड़े ही गंभीर अंदाज में किया-

तेरा छप्पन इंची सीना विपक्षियों को याद बहुत आयेगा

छुड़ाया पाक का पसीना वो कभी भूल न पायेगा

आतंकवाद पर अब विश्व भारत की ओर निहार रहा

अब है यह नया भारत यह घुसकर मारेगा ।।

गजलकार भूपेन्द्र सिंह ‘होश’ ने अपने अंदाज में कुछ दोहे होली की शान में कहे । फिर अपनी गजलों का पाठ पहले तहद में किया और फिर तरन्नुम में पढ़कर सबको भावविभोर कर दिया। उनकी शायरी का एक नमूना निम्नप्रकार है -

बोझ गम का उठाना बुरा है ।

दिल में गम को टिकाना बुरा है ।।

डा. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने कुछ वर्ष पहले होली के अवसर पर एक होली-गीत आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ को समर्पित किया था I उन्होंने उस गीत का पाठ किया जिसकी कुछ पंक्तियां निम्नप्रकार हैं I -

तन भीजा, मन भीज न पाया, कैसे चतुर सयाने ?

भरि -भरि जनम सभी ने खेला, मर्म न कोई जाने

मन-वृन्दावन में जीवन का कान्हा रास रचावत

होरी माँ होरी गावत ! मेरे भैया आलोक रावत !

कवयित्री अलका त्रिपाठी ‘विजय’ ने अपनी कविता के माध्यम से किस दृष्ट अथवा अदृष्ट से अनुरोध करती है कि -

अभी किनारा दूर है, अभी साथ मत छोडों-

न छोड़ो हमें, पार कर दो भॅंवर से

अभी दूर मांझी नदी का किनारा ।।

संचालक मनोज शुक्ल ’मनुज’ ने होली पर एक बड़ा ही खूबसूरत छंद पढ़ा, जिसकी ‘धज’ देखते ही बनती है । यथा-

करति ठिठोरी होरी खेलैं राधे संग श्याम

मारै पिचकारी भीजि जाय देह सगरी ।

ऊपर ते डारते अबीर ग्वाल-बाल लाल

भाजै नहीं देवते है घेरि लेहि डगरी ।।

आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ जो अपनी दिलकश गजलों के लिये मशहूर है, उन्होंने लीक से हटकर अपना एक होली छंद प्रस्तुत किया-

फागुन की मस्ती में जब सुरताल हो गयी राधा ।

श्याम मिलन के वर्णन में वाचाल हो गयी राधा ।

दृष्टि पड़ी जब चोरी-चोरी झाँक रहे कान्हा पर

बिना लाल के लाल लगाये लाल हो गयी राधा ।।

अंत में अध्यक्ष डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने आगामी पीढ़ी के लिये कुछ दिशावाहक रचनाये पढ़ीं और ‘कोयल कूके डाली-डाली’ गीत से सबका मन मोह लिया । कार्यक्रम का स्वाद संयोजक मृगांक श्रीवास्तव के मनोहारी आतिथ्य से द्विगुणित हो उठा । आसन्न होली की मादकता का प्रभाव गोष्ठी पर भी था । लखनौआ होली का अपना एक अलग ही रंग है । जो नही जानते वे जान लें -

होरी खेलें लखनौआ,

गंज माँ होरी खेलें लखनौआ

कुर्ता पहिन पजामा पहनिन, सुरमा लग्यो निराला

अच्छे-अच्छे रंग छांड़ि के रंग पुताइन काला

खाक छानि कै गली-गलिन कै मस्त लगावें पौआ

गंज माँ होरी खेलें लखनौआ (स्वरचित)

(मौलिक/ अप्रकाशित )

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