ओबीओ, लखनऊ-चैप्टर की साहित्य-संध्या माह अगस्त,2017 – एक प्रतिवेदन
डॉ0गोपाल नारायण श्रीवास्तव
12 अगस्त 2017, माह का द्वितीय शनिवार, सामान्यतः अवकाश का दिन, स्थान- प्रोफेशनल इंस्टिट्यूट, पुरनिया चौराहा, अलीगंज लखनऊ, समय-सायं 5 बजे ओजस्वी कवि मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ के सौजन्य से आयोजित ओबीओ, लखनऊ चैप्टर की साहित्य-संध्या में एक भव्य काव्य-गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता जाने-माने कवि एवं ग़ज़लकार डॉ0 कैलाश निगम ने की. अपने नवगीतों के लिए प्रख्यात सुश्री सीमा अग्रवाल ने मुख्य अतिथि की भूमिका निभाई. प्रसिद्ध छंदकार डॉ0 अशोक कुमार पाण्डेय ‘अशोक’ और सुश्री कामिनी श्रीवास्तव को विशिष्ट अतिथि का सम्मान दिया गया. कार्यक्रम का सञ्चालन मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ द्वारा किया गया जिनकी मनोहारी वाणी-वंदना से सिंहावलोकन हुआ. घनाक्षरियों में रचे सुमधुर छंदों से मनुज जी ने वातावरण को रससिक्त कर दिया.
काव्य पाठ के लिए प्रथम कवि के रूप में डॉ0 सुभाष गुरुदेव को आमंत्रित किया गया. कविता की पिच पर ओपनिंग बैट्समैन की तरह बड़े धैर्य से गुरुदेव जी ने पारी की शुरूआत देश की वर्तमान अव्यवस्था और आशंका के प्रति पल बढ़ते वातावरण पर जबरदस्त प्रहार करते हुए की –
जब चाँद तारे हाशिये पर हों खड़े
और मुंह चिढ़ाती गर्द की तनहाइयाँ
नींद तब आ पायेगी किसको भला
इस दहशत भरे दंगों के मौसम में
भू-वैज्ञानिक डॉ0 दीपक कुमार मेहरोत्रा प्रेम की पुरानी यादों में खोते हुए से लगे. उन्होंने अपनी संवेदना सहेजते हुए कहा -
वक्त के बंद पन्ने आज फिर फड़फड़ाने लगे हैं,
किताबों के सर्फ़ के कोने
सूखे फूल फिर आज गिराने लगे हैं
सुश्री आभा चंद्रा ने अपनी ग़ज़ल से लोगों को लुभाया. उनके ग़ज़ल का निम्नांकित मतला विशेष रूप से सराहा गया-
आरजू थी गुमान रख लेते
जान में मेरी जान रख लेते
युवा कवि नीरज द्विवेदी ने कुछ सुन्दर गीतों से उपस्थित समुदाय का दिल जीता. उनके गीत की एक बानगी इस प्रकार है –
आशाओं के ढेरों टुकड़े अगणित स्वप्न भरूं
नन्हे कन्धों पर मैं कैसे इतना बोझ धरूं
लोक के प्रति समर्पित कवि रामशंकर वर्मा ने अवधी लोक-गीत की परंपरा में अपना यह गीत कवि समुदाय के विशेष आग्रह पर सुनाया-
पिया देवर करै रंगबाजी
करौ येहिकै जल्दी से शादी
सुश्री आभा खरे ने अतीत और वर्तमान के प्रभावों को अपनी कविता में बांधकर कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया –
अतीत जब बहुत झिंकाता है
वर्तमान तब दुलराता है
जीवन की मुश्किल राहों पर
उम्मीदें नई जगाता है.
ओ बी ओ, लखनऊ चैप्टर के संयोजक डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी जीवन की विषमताओं की पड़ताल में रह-रह कर स्तब्ध होते रहते हैं और वे स्तब्ध तभी होते हैं जब वे सन्नाटे से बातें करते हैं. किन्तु अपनी स्तब्धता में भी वे निराश नहीं हैं. वे कहते हैं –
इतना अंधेरा है फिर भी
एक रोज सुबह तो होनी है
एक रोज सुबह कीचड़ में फिर
कोई कमलिनी खिलनी है
अपने उर में जल-जल कर भी
मैं आशा का दीप जलाता हूँ
स्तब्ध तभी मैं होता
जब सन्नाटे से बातें करता हूँ.
कथाकार डॉ0 अशोक शर्मा ने रोशनी के सिलसिले कुछ इस तरह शुरू किये -
मैं उठा और दीपक जलाने चला
इस तरह रोशनी का हुआ सिलसिला
ग़ज़ल के सुकुमार शायर आलोक रावत ‘आहत लखनवी‘ ने पुरनूर आवाज़ में रवायती ग़ज़ल पढ़कर लोगों को अपना दीवाना बनाया. उनके ग़ज़ल की ताजगी देखते ही बनती है. कुछ शेर बानगी के रूप में प्रस्तुत हैं –
किसी के इश्क में अब जी के मर के देख लेते हैं
चलो ऐ जिन्दगी अब ये भी करके देख लेते हैं
कि जिस दिन से मुहब्बत को मेरी ठुकरा दिया उसने
हम उसकी ओ बस इक आह भरकर देख लेते हैं .
अपने दोहों से गज़ब ढाने वाले छंदकार केवल प्रसाद ‘सत्यम‘ ने भी सुन्दर और अर्थपूर्ण दोहे पढ़े. उनका एक दोहा यहाँ उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है -
नयन सिन्धु मोती सहित झुके शीश नित हार
नयन शारदे को करे तन मन जीवन वार
डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव अपने गीत के माध्यम से प्रेम की पाँच स्थितियों का वर्णन करते हुए लौकिक प्रेम को अलौकिकता के अधिकरण तक ले गये और उसे साधना और सिद्धि से जोड़ने का प्रयास किया –
पीड़ा का दीपक जलता था
स्नेह अमूर्त हुआ पल भर में
साधक ने जब ज्योति जगाई
वह्नि विकास हुआ अंतर में
अग्निशिखा जो नृत्य रचाये वह तांडव है लास नहीं है
धीरे-धीरे अश्रु थमेंगे रोना है परिहास नहीं है.
ओजस्वी ग़ज़लकार भूपेंद्र सिंह ‘शून्य’ ने अपनी जिन्दादिली को ग़ज़ल की पंक्तियों में कुछ इस प्रकार ढाला -
जरूरी हो तो संजीदा भी हम हो जायेंगे लेकिन
हमें ये बेवजह संजीदगी अच्छी नहीं लगती
शहर की पुलिसिया व्यवस्था की नुमायन्दगी करने वाली कवयित्री नीतू सिंह के तेवर में आक्रोश दिखा. मंजिल पर न पहुँच पाने के दर्द को नयी ‘धज’ प्रदान करते हुए उन्होंने कहा –
मंजिल पे ठहर कर ही दम लेते कदम ‘नीतू’
रस्ते की थकन से गर हम चूर नहीं होते
कवयित्री भावना मौर्य ने जीवन में ‘वीर रस’ के स्थाई भाव ‘उत्साह’ के महत्व को स्वीकार करते हुए बा-तरन्नुम यह भी कहा कि सिर्फ जोश से बात नहीं बनती जीवन में सफल होने के लिए कुछ होश और इल्म भी होना आवश्यक है.
हौसलों के फासलों का साथ ही काफी नहीं
कुछ लियाकत चाहिये किस्मत बदलने के लिए
कार्यक्रम का सुरुचिपूर्ण सञ्चालन कर रहे युवा और उत्साही कवि मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ को काव्य-पाठ के लिए डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने आमंत्रित किया. मनुज जी ने दो रचनाएँ सुनायी. उनकी कविताओं में एक अनिवर्चनीय ओज तो रहता ही है पर इसके साथ ही उसमें आध्यात्मिकता का पुट भी दिखाई दिया. जैसे–
रूह ये शिवमय हुई और तन शिवाला हो गया
आप मुझको मिल गए मन में उजाला हो गया
सुप्रसिद्ध कवयित्री संध्या सिंह ने समकालीन कविता और गीत की अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से हटकर कुछ बहुत ही धारदार दोहे सुनाये. उनका एक दोहा यहाँ बानगी के रूप में प्रस्तुत है -
सुख – दुःख दोनों साथ जब जीवन अद्भुत रूप
बहते आँसू पर हँसी ज्यों बारिश में धूप
कवयित्री कामिनी श्रीवास्तव ने प्रेम पर आधारित एक हृदयस्पर्शी गीत सुनाया. उनकी समस्या कुछ इस प्रकार है –
झीनी-झीनी प्रीति की चादर मैं कैसे ओढ़ लूं
दीप तूफां में जलाकर कैसे मैं बोलो छोड़ दूं
छंदकार डॉ0 अशोक कुमार पाण्डेय ‘अशोक’ ने भगवान राम और कृष्ण के जीवन चरित्र पर आधारित कुछ भावपूर्ण घनाक्षरियाँ सुनायीं. उनकी मौलिक उद्भावनाओं ने श्रोताओं को चमत्कृत सा कर दिया. उदाहरण निम्न प्रकार है –
छलिया कहाते थे परन्तु ब्रजराज देखा
पग-पग पर सदा आप ही छले गए .
गोपियों के वस्त्र जो चुराए यमुना के तीर
वे भी सब द्रौपदी के चीर में चले गए
मुख्य अतिथि सुश्री सीमा अग्रवाल ने अपनी ख्याति के अनुरूप अति संवेदनशील गीतों द्वारा सभी को आप्यायित किया. जैसे –
वरना हमसे मिलने साहिब आप नहीं आते.
अंत में अध्यक्ष डॉ0 कैलाश निगम ने माईक संभाला. सर्वप्रथम उन्होंने सभी कवियों द्वारा सुनायी गयी कविताओं पर अपना संक्षिप्त वक्तव्य दिया. फिर उन्होंने एकाधिक गीत सुनाये, उनका निम्नांकित गीत उपस्थित समुदाय द्वारा सर्वाधिक सराहा गया -
चिलचिलाती धूप हो या भीगता उपवन
एक पल भी फूल सा खिलता नहीं है मन
दलदल में न फंसने का संभलने का समय है
युग बोध की धारा को बदलने का समय है
कविता की यह अजस्र धारा अनवरत तीन घंटे तक साहित्य के तारा-पथ से बरसती रही और सहृदय कवि समाज पोर-पोर भीगता रहा, अवगाहन करता रहा. महालक्ष्मी स्वीट हाउस की कॉफ़ी उस समय संजीवनी सी लगी. अंधकार पूरी तरह से फ़ैल चुका था. आकाश भी अभिषेक तत्पर दिख रहा था. अब प्रस्थान की बेला थी .
अनुदिन नहीं होती है बरसात गीत की
लाती है पावसी समीर याद मीत की
हम मिलेंगे हौसले से फिर किसी जगह
कब प्यार में हुई है बात हार–जीत की (सद्यरचित)
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