ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या – माह दिसम्बर 2016 – एक प्रतिवेदन :: डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव
न कोहरा न हवा में खुनक. वर्ष 2016 का अंतिम माह दिसम्बर का तीसरा शनिवार (17.12.2016) मानो गर्मजोशी से नए वर्ष के विहान का स्वागत कर स्वयं भविष्य में लीन हो जाने को तत्पर उन कवियों को सुनने के लिए भी आतुर था जो गोमतीनगर स्थित SHEROES HANGOUT में ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर की ओर से इस वर्ष की अंतिम गोष्ठी में काव्य पाठ करने हेतु उत्साहपूर्वक एकजुट हुये थे. सुश्री संध्या सिंह के सौजन्य से आयोजित गोष्ठी का शुभारम्भ होने से पूर्व संस्था (ओबीओ लखनऊ चैप्टर) के संयोजक डॉ शरदिंदु मुकर्जी ने सभी का स्वागत किया और आयोजन में पहली बार उपस्थित सुश्री आभा चंद्रा का सदस्यों से परिचय कराया.
संस्था की गोष्ठियों में नियमित संचालक मनोज शुक्ल जी की अनिवार्य कारणवश अनुपस्थिति के मद्देनज़र संयोजक ने ‘रेवांत’ पत्रिका की सहसंपादिका श्रीमती आभा खरे को सञ्चालन का दायित्व लेने के लिए अनुरोध किया. कुंवर कुसुमेश जी ने माँ शारदा की स्तुति से कार्यक्रम का प्रारम्भ इस प्रकार किया –
करता हूँ शुरू मैं काव्य पाठ तुझे शीश झुकाकर माँ
तेरी ही कृपा से छलक रही गीतों की गागर माँ
काव्य पाठ हेतु पहले कवि के रूप में कौस्तुभ आनंद चंदोला को आमंत्रित किया गया
जो मूल रूप में कथाकार हैं पर स्वान्तः सुखाय कविताएं भी लिखते हैं. उनकी कविता में नारी विमर्श कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है –
नीड़ में बैठ शिशु पालती हूँ
पर स्वच्छंद डैने फैला
उड़ने वाली हूँ मैं
कोयल की कूक से हर्षाती हूँ
पर काली के रूप में
डराने वाली हूँ मैं
समान अधिकार कर्तव्यों को समर्पित
एक दृढ नारी हूँ मैं
एक सुन्दर सशक्त नारी हूँ मैं
कवयित्री आभा चंद्रा स्त्री-पुरुष के शाश्वत संबंधों को ‘सेतुबंध’ के रूप में देखती हैं. इनकी रचनाओं में भी वही स्वर हैं. आज की नारी मानो पुरुष की सत्ता से सर्वथा मुक्ति चाहती है. बंधन में असंतोष सहज रूप में पनपता है. कवयित्री के शब्दों में –
सेतुबंध
वो शब्द
जो तुम्हें मुझसे
और मुझे तुमसे
जोड़ता था
सेतुबंध था वो
वो दरक गया है
समय की भारी-भारी
शिलाओं में दब गया है
जाने-माने ग़ज़लकार कुंवर कुसुमेश ने एकाधिक सुन्दर ग़ज़लें सुनायी पर नव वर्ष पर आधारित उनकी एक ग़ज़ल सामयिक होने कारण बहुत सराही गयी. इस ग़ज़ल का एक शेर उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है.
आ गयी फिर घूम फिर कर याद पहली जनवरी
तीन सौ पैंसठ दिनों के बाद पहली जनवरी
गद्य और पद्य में समान रूप से स्तरीय रचना करने वाली कुंती मुकर्जी ने सर्वप्रथम सुश्री रंजना जायसवाल की "नाक" शीर्षक रचना का पाठ किया जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -
स्त्री का नाक से
जन्मजात रिश्ता होता है
वह कभी पिता की नाक होती है
तो कभी पति की,
दोनों कुलों, परिवार, समाज, देश, सभी की नाक
उसी पर टिकी होती है,
उसकी हर गतिविधि
नाक के दायरे के अंदर ही होती है
इसके बाद श्रीमती कुंती ने एक स्वरचित कविता सुनायी. इस कविता में घने जंगल के बीच बने मंदिर में स्थित देवता के अद्भुत आत्मचिंतन का उद्घाटन हुआ है जहाँ सामान्य जन की सोच शायद नहीं पहुँच सकती. निम्न पंक्तियों में यह वैशिष्ट्य स्वत: मुखर हो उठा है-
कोई पूछे मंदिर के उस देवता से
पत्थर बने वह क्या सोचता है ?
रात – दिन !!
यह बात कोई नहीं जानता
कि उसके खयालात
कितने होते हैं----!
आदमखोर---??
कोइ पूछे यह बात
उस जंगल से ----!
उस एकाकी मंदिर से.
सञ्चालन कर रही कवयित्री आभा खरे का आह्वान डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने सद्म रचित दोहे द्वारा इस प्रकार किया –
पढ़वाया सबको बहुत दे देकर संताप
पढ़िये अब आभा खरे निर्भय होकर आप
आभा जी की कविता में नारी का वही शाश्वत दर्द दिखाई देता है जिसमें अपनी पीड़ा के अधिकरण पर वह युग युग से हास का संसार सजाती रही है.
लिखे दर्द की लय पर हमने
हास, सहेजे गीत कई
समय ताल-बेताल मगर
हर रास साध लेते हैं हम
डॉ० शरदिंदु मुकर्जी ने सबसे पहले गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के एक लघु लेख का स्वरचित अनुवाद प्रस्तुत किया. यह अनुवाद इतना सशक्त था कि उससे गुरुदेव की भाव विदग्धता की सारी परतें अपने आप मानों खुलती सी चली गयीं और सभी उपस्थित साहित्यानुरागी सम्मोहन की सहज स्थिति में आ गये. अनूदित लेख का अंश निम्न प्रकार है-
यहाँ संध्या उतर रही है. हे सूर्यदेव ! कौन सा वह देश है ? किस समुद्र पार तुम्हारा उदय हो रहा है ?यहाँ अंधेरे में पतिगृह के चौख़ट पर अवगुंठिता वधू की तरह रजनीगंधा काँप रही है.
कहाँ कौन से देश में सुबह की कनक चम्पा अपनी आँखें खोल रही है ?
किसकी नींद खुली ? किसने बुझा दी संध्या के समय जलाया हुआ दीया,त्याग दिया रात में पिरोया हुआ माला !
कवींद्र रवींद्र रचित इस गद्यांश के पाठ के बाद शरदिंदु जी ने स्वरचित कविता पढ़ी जिसका शीर्षक था – “जाने क्यों ?’ इस कविता में कुहरे के माध्यम से ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने अपनी जनवादी भावनाओं को स्वर देने की कोशिश की है -
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जब तक
पहली कली के खिलने की तरह
पाँच साल का “छोटू”
उठकर बैठ नहीं जाता,
जब तक सड़क किनारे
पानी भरते हुए
वह
गाड़ी के शीशे से तुम्हें हटाकर
अपना नाम लिखने की कोशिश नहीं करता –
मगर फिर भी
अक्सर,
वह सर्वशक्तिमान शिशु
हार मान ही जाता है,
और तुम
रात के अंधेरे से निकलकर
दिन के उजाले पर
नक़ाब बनकर
इठलाते रहते हो....जाने क्यों!!!!
युवा तेवर के साथ नवोदित कवि योगेश पाण्डेय ने चाँद और धरती के संबंधों को अपनी कविता में एक नई धज के साथ प्रस्तुत किया और सभी के आकर्षण का केंद्र बने. एक बानगी यहाँ प्रस्तुत है –
प्रणय निवेदन चन्दा का धरती ने ठुकराया
इसीलिये तो चाँद धरा पर कभी नहीं आया
शहर की कवयित्रियों की जमात में संध्या सिंह एक उभरता हुआ नाम है जो उनकी कविताओं की गहरी संवेदना से स्वतः जन्मा है. इस कथन के प्रमाण में उनकी प्रस्तुत काव्य-धारा में अवगाहन किया जा सकता है –
हम मूरख सा रहे ताकते सारा जहाँ प्रबुद्ध हो गया
बीच विद्वता सहज प्रेम का जीवन मानो युद्ध हो गया
अंतिम कवि के रूप में डॉ० गोपाल नारायन श्रीवास्तव को काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किया गया. आपने पड़ोसी देश की सेना की कायरतापूर्ण हरकत जिसके अंतर्गत वे हमारे जवानों का सिर काट कर ले जाते हैं, पर अपनी संवेदना कुछ इस प्रकार व्यक्त की –
और हम हैं कि बस
होने देते हैं यह सब निर्विकार
रह जाते हैं सिर्फ देखते
स्तब्ध, मौन, नतशिर
हाथ मलते हुए
दांत पीसते हुए
कदाचित पछताते हुए बार-बार
लगातार
कितने कायर हैं हम
और छिः कितनी हेय है
अपनी ही पीठ को बार-बार ठोंकती
हमारी बेबस
कायर, क्लीव, पुंसत्वविहीन
नपुंसक सरकार
इसके अतिरिक्त पड़ोसी देश को ही आलंबन मानकर कही गयी अपनी एक ग़ज़ल भी उन्होंने पढ़ी जिसका आख़िरी शेर गौर तलब है –
कौम का जवान खून बेवजह बहा बहुत
आँख नम हुयी इधर उधर भी नम करो मियाँ
कवितायेँ जब पुरसर होती हैं तो आँखें नम अवश्य हो जाती हैं. अब तक किसी को वास्तविक समय का अहसास नहीं हुआ था. गनीमत थी कि बढ़ते अंधियारे ने साहित्य अनुरागियों को सचेत किया. ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर के संयोजक डॉ० शरदिंदु मुकर्जी ने औपचारिक रूप से धन्यवाद ज्ञापन किया और सभी से आगामी गोष्ठियों में सहयोग करने का अनुरोध किया.
आरती मेरी सजाओ, मुझे तारक देश जाना
अभी कुछ लहरे गिनी है, लक्ष्य है सागर थहाना
पाँव की बेड़ी न बनना, तुम्हे है सौगंध मेरी
मैं अकेला चल पड़ा हूँ, मन कहे तो साथ आना (सद्मरचित )
इति.
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